कर्मयोग
Karmyog
Chapter 3
अध्याय ३
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥
अर्थ : निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है॥5॥
भावार्थ : यहाँ भगवान् कर्मयोग की प्रेरणा देते हुए बता रहे हैं की व्यक्ति को कर्म अवश्य करने चाहिए आगे के श्लोकों में वो ये भी बताते हैं की कर्म सदा ही अनासक्तिपूर्वक और बिना फल की इक्छा के होने चाहिए तभी वास्तविक अर्थों में वो कर्म है ।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
अर्थ : जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है॥6॥
भावार्थ : यहाँ भगवान् हमे सचेत करते हैं की इन्द्रिय व उनके विषय सदा ही व्यक्ति को आसक्ति के प्रति प्रेरित करते हैं इसलिए उनका चिंतन करते हुए भी कर्म करने में दोष है क्यूंकि वो व्यक्ति को आसक्त बना देते हैं ।
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥
अर्थ : मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर॥30॥
भावार्थ : यहाँ भगवान् हमे बता रहे हैं की समस्त कर्म उनको ही समर्पित कर देने से सही अर्थों में अर्थपूर्ण अथार्त सफल व सार्थक होते हैं ।
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