किसी भी बात का उद्देश्य हमे उसके आस्तित्व से पता चलता है अगर इस सिध्हांत का उपयोग करें हम तो इसका उत्तर इस बात में निहित लगता है कि जीवन क्यूँ मिला है ?
हमारी जिज्ञासा,मनन सात्विक भूख और सात्विक श्रद्धा कम होने पर भी मन में ये विचार उठ सकते हैं परन्तु इसका उत्तर पाने के लिए हममे इनकी अधिकता चाहिए ।
सच्ची जिज्ञासा वोही जिसका समाधान हमे ढूंढें या पा लें और शंका का सच्चा निराकरण तभी होता है जब हम समाधान को अनुभव कर लें । सत्संग कि भूमिका साधक के जीवन में बहुत महत्व रखती है क्यूंकि सत्संग ऐसी चीज़ है जिससे प्रत्यक्ष अनुभव होता है ।
हम साधू जनों के बीच बैठे हैं या उनकी बात सुन रहे हैं या किसी संत के विचार सुन रहे हैं या फिर टी.वी. पर ही अध्यात्म का आनंद ले रहे हैं किसी मित्र से विवेक पर परिचर्चा कर रहे हैं या ग्रन्थ का ही अध्ययन कर रहे हैं या गुरु कि बात सुन रहे हैं या श्रद्धा उत्पन्न करके चिंतन कर रहे हैं ।
ये सभी सत्संग में आते हैं वैसे सत्संग का और वृहत स्वरुप है जिस परिस्थति में भी हम आत्मिक अपरिछिन्नता महसूस करें सत्संग है ।
हमारा स्वरुप आत्मा है जो कि अविकारी है अविनाशी है और परमात्मा का अंश भी ।
हमारी जिज्ञासा,मनन सात्विक भूख और सात्विक श्रद्धा कम होने पर भी मन में ये विचार उठ सकते हैं परन्तु इसका उत्तर पाने के लिए हममे इनकी अधिकता चाहिए ।
सच्ची जिज्ञासा वोही जिसका समाधान हमे ढूंढें या पा लें और शंका का सच्चा निराकरण तभी होता है जब हम समाधान को अनुभव कर लें । सत्संग कि भूमिका साधक के जीवन में बहुत महत्व रखती है क्यूंकि सत्संग ऐसी चीज़ है जिससे प्रत्यक्ष अनुभव होता है ।
हम साधू जनों के बीच बैठे हैं या उनकी बात सुन रहे हैं या किसी संत के विचार सुन रहे हैं या फिर टी.वी. पर ही अध्यात्म का आनंद ले रहे हैं किसी मित्र से विवेक पर परिचर्चा कर रहे हैं या ग्रन्थ का ही अध्ययन कर रहे हैं या गुरु कि बात सुन रहे हैं या श्रद्धा उत्पन्न करके चिंतन कर रहे हैं ।
ये सभी सत्संग में आते हैं वैसे सत्संग का और वृहत स्वरुप है जिस परिस्थति में भी हम आत्मिक अपरिछिन्नता महसूस करें सत्संग है ।
हमारा स्वरुप आत्मा है जो कि अविकारी है अविनाशी है और परमात्मा का अंश भी ।
जीव ईश्वर से विमुख है इसलिए दुःख पाता है ।बस इतना ही समझना था जीव को कि ईश्वर से अधिक सुख कहीं नहीं और स्वयं जीव भी अनंत है ।हमारा स्वरुप आत्मा ईश्वर का अंश होने के कारण स्वाभाविक रूप से अनंत है और इस में अनंत आनंद समाहित है । परन्तु ईश्वर से अलग अपनी सत्ता मानने के कारण जीव अथार्त हम जीवन मरण के बंधन में पड़ते हैं और संसार में सुख ढूँढने कि येही चाह हमे निरंतर जन्मो जन्मो भटकाती है संसार जो कि अनित्य है उससे अपने नित्य स्वरुप का सम्बन्ध मान लेते हैं और इस तरह से जीव दुःख उठाता रहता है और स्वयं के अपने आनंद स्वरुप को भूले रहता है ।
गीता में भगवान् कृष्ण ने कहा भी है
नासतो विद्यते भावो न भावों सत:(असत कि तो सत्ता नहीं है और सत का अभाव विद्यमान नहीं है )
व्यक्ति इस असत संसार को सत मानकर अपने विवेक को कभी तो प्रधानता दे नहीं पाता और कभी तो देना नहीं चाहता । तीन तत्वों सत्व,रज और तम से निर्मित जीव कि प्रवत्ति अधिकतर राजसिक और तामसिक में ज्यादा आसक्त रहती है इसलिए वो अपने चंचल मन को संयमित नहीं रख पाता और स्वयं अनंत का भण्डार होते हुए वो संसार कि तुच्छ चीज़ें धन, मकान, प्रसिध्ही, मान के पीछे पड़ जाता है ।
इन्हें प्रधानता देने के कारण वो क्रोध.मोह काम और अहंकार का पुतला हो जाता है और इस तरह से भटकता ही रहता है अहंकार अथवा अहम् का मतलब सिर्फ घमंड नहीं होता अहम् का सही अर्थ है मैं -पन
जीव यदि अपने इस मैं-पन को न माने अथार्त अपने को ईश्वर के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित कर दे तब उसका अहम् मिट जाता है और वो जीते जी मुक्त हो जाता है । क्यूंकि अब उसके किए हुए कर्मों के उसे फल नहीं मिलेंगे क्यूंकि फल तो उसे इसीलिए मिल रहे थे कि वो अपने आपको ईश्वर से अलग समझ बैठा था ।
इसे ही भगवान् कृष्ण ने गीता के अठारहवें अध्याय में सबसे गूढ़ बताया है
सर्वगुह्यतमं भूतः श्रृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥
भावार्थ : संपूर्ण गोपनीयों से अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को तू फिर भी सुन। तू मेरा अतिशय प्रिय है, इससे यह परम हितकारक वचन मैं तुझसे कहूँगा॥64॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥
भावार्थ : हे अर्जुन! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है॥65॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥
भावार्थ : हे अर्जुन! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है॥65॥
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
भावार्थ : संपूर्ण धर्मों को अर्थात संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण) में आ जा।
मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर॥66॥
मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर॥66॥
सुन्दर आलेख!
ReplyDeleteअनुपमा जी,धन्यवाद
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