Thursday, 8 September 2011

Bhaktshiromani Soordaas ji ki padawali






निसि दिन बरषत नैन हमारे
निसि दिन बरषत नैन हमारे।
सदा रहति बरषा रितु हम पर जब तें स्याम सिधारे॥
दृग अंजन न रहत निसि बासर कर कपोल भए कारे।
कंचुकि पट सूखत नहिं कबहूं उर बिच बहत पनारे॥
आंसू सलिल भई सब काया पल न जात रिस टारे।
सूरदास प्रभु यहै परेखो गोकुल काहें बिसारे॥

यह पद विरह वेदना की अद्भुत कृति है। राग मल्हार में आबद्ध इस पद में सूरदास जी ने कृष्ण से विलग हुई गोपियों की विरह वेदना का सजीव चित्रण किया है। अक्रूरजी जब बलराम के साथ श्रीकृष्ण को भी मथुरा ले गए तब गोपियां विरहग्रस्त हो गई। सूरदास के पदों में गोपियों का विरह भाव स्वष्ट झलकता है। इस प्रसिद्ध पद में कृष्ण के वियोग में गोपियों की क्या दशा हुई, उसी का वर्णन सूरदास ने किया है। कृष्ण को संबोधन देते हुए गोपियां कहती हैं कि हे कन्हाई! जब से तुम ब्रज को छोडकर मथुरा गए हो, तभी से हमारे नयन नित्य ही वर्षा के जल की भांति बरस रहे हैं अर्थात् तुम्हारे वियोग में हम दिन-रात रोती रहती हैं। रोते रहने के कारण इन नेत्रों में काजल भी नहीं रह पाता अर्थात् वह भी आंसुओं के साथ बहकर हमारे कपोलों (गालों) को भी श्यामवर्णी कर देता है। हे श्याम! हमारी कंचुकि (चोली या अंगिया) आंसुओं से इतनी अधिक भीग जाती है कि सूखने का कभी नाम ही नहीं लेती। फलत: वक्ष के मध्य से परनाला-सा बहता रहता है। इन निरंतर बहने वाले आंसुओं के कारण हमारी यह देह जल का स्त्रोत बन गई है, जिसमें से जल सदैव रिसता रहता है। सूरदास के शब्दों में गोपियां कृष्ण से कहती हैं कि हे श्याम! तुम यह तो बताओ कि तुमने गोकुल को क्यों भुला दिया है।

बिथा बिरह जुर भारी
जब ते बिछुरे कुंज बिहारी।
नींद न परै घटै नहिं रजनी बिथा बिरह जुर भारी॥
सरद रैनि नलिनी दल सीतल जगमग रही उजियारी।
रवि किरनन ते लागति ताती इहि सीतल ससि जारी॥
स्त्रवननि सबद सुहाइ न सखि री पिक चातक द्रुम डारी।
उर तें सखी दूर करि हारहिं कंकन धरहिं उतारी॥
सूर स्याम बिनु दुख लागत है कुसुम सेज करि न्यारी।
बिलखि बदन बृषभानु नंदिनी करि बहु जतन जु हारी॥

राग केदार में आबद्ध इस पद के माध्यम से सूरदास जी ने वृषभानुनंदिनी राधा की विरह वेदना का वर्णन किया है। गोकुल से कृष्ण के चले जाने पर राधा बहुत व्याकुल हो जाती हैं। जब से कृष्ण मथुरा गए हैं तभी से राधा को नींद नहीं आती। रात जैसे समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती। इतना ही नहीं विरह के कारण ज्वर पीडा भी हो गई है। शरद् ऋतु की रात्रि कृष्ण के सान्निध्य काल में जगमगाती अच्छी लगती थी और कमलिनी के पुष्प भी अच्छे लगते थे, वही सब वियोग काल में सूर्य किरणों के समान दग्ध करने वाली प्रतीत होती हैं। यही स्थिति चंद्रमा की है, वह भी अग्नि समान प्रतीत हो रहा है। राधा अपनी सखी से कहती है कि अरी सखी! अब तो वृक्षों की शाखा पर बैठकर कुहकने वाली कोयल व चातक की स्वर लहरी भी नहीं सुहाती। राधा और कहती है कि सखी मैंने तो गले के हार भी उतारकर अलग रख दिया है क्योंकि प्रियतम के बिना यह सब अच्छा नहीं लगता। सूरदास कहते हैं कि राधा को पुष्पों से सुसज्जित शय्या भी श्याम के बिना काटने को दौडती है। इतने पर भी राधा अपने शरीर को अथक प्रयास कर जैसे-तैसे संभाले हुए हैं।

मन न भए दस-बीस
ऊधौ मन न भए दस-बीस।
एक हुतो सो गयो स्याम संग को अवराधै ईस॥
इंद्री सिथिल भई केसव बिनु ज्यों देही बिनु सीस।
आसा लागि रहत तन स्वासा जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्याम सुंदर के सकल जोग के ईस।
सूर हमारैं नंदनंदन बिनु और नहीं जगदीस॥

कृष्ण के अगाध प्रेम में डूबी विरहाकुल गोपियों की हालत का सांगोपांग वर्णन किया है सूरदास जी ने इस पद के माध्यम से। राग सारंग में आबद्ध यह पद सूरदास की कल्पनाशीलता की अद्भुत उडान है। भगवान् कृष्ण जब गोकुल से मथुरा चले गए तो यहाँ उनके वियोग में राधा समेत सभी गोपियां अत्यन्त व्याकुल हो गयीं। कृष्ण को जब यह पता चला तो वह अपने सखा उद्धव जी को गोपियों को समझाने के लिये गोकुल भेजा। उद्धव जी को अपने ज्ञान पर बहुत भरोसा था, परंतु ब्रजभूमि में गोपियों की वेदना देखकर वह भी व्यथित हो गये। गोपियां बोलीं कि हे उद्धव! यदि हम तुम्हारी बात मान भी लें तो यह संभव कैसे होगा, क्योंकि मन कोई दस-बीस तो हैं नहीं, एक ही है। वह मन भी हमारे श्यामसुंदर अपने साथ ले गए हैं। हमारी सभी शारीरिक इंद्रियां भी केशव के बिना शिथिल हो गई हैं, वैसे ही जेसे शीशविहीन देह होती है। इस शरीर में जो श्वास चल रहे हैं वह केवल कृष्ण से मिलने की आशा में ही हैं। इस प्रकार हम कृष्ण मिलन की आस में करोडों वर्षो तक जी सकती हैं। हे उद्धव! आप तो हमारे श्यामसुंदर के सखा हैं और योग विद्या के सर्वज्ञ भी। सूरदास के शब्दों में गोपियों ने उद्धव को आभास करा दिया कि श्रीकृष्ण ही उनके सर्वस्व हैं। उनके बिना और किसी को वे हृदय में धारण नहीं कर सकतीं।
स्याम हमारे चोर
मधुकर स्याम हमारे चोर।
मन हरि लियो तनक चितवनि में चपल नैन की कोर॥
पकरे हुते हृदय उर अंतर प्रेम प्रीति के जोर।
गए छंडाइ तोरि के बंधन दै गए हंसनि अकोर॥
चौंक परीं जानत निसि बीती दूत मिल्यो इक भौंर।
सूरदास प्रभु सरबस लूट्यो नागर नवलकिसोर॥

यह राग सारंग पर आधारित पद है। गोपियां उद्धव से बोलीं, हमारे चित्त को चुराने वाले हमारे श्यामसुंदर ही हैं। उन्होंने टेढी दृष्टि से हमारे चित्त को चुरा लिया है। हमने अपने हृदय में उन्हें भलीभांति जकडकर रखा था। लेकिन उन्होंने तनिक मुस्कान बिखेरकर सारे बंधन तोड डाले और स्वयं को मुक्त करा लिया। इस प्रकार श्यामसुंदर हमारे हृदय से निकल गए, तब हम गोपियां चौंककर जाग गई और रात्रि का सारा समय इन आंखों में ही काट डाला अर्थात रातभर जागती रहीं। जब सवेरा हुआ तो आपके (उद्धव) रूप में एक संदेशवाहक से हमारी भेंट हुई। सूरदास कहते हैं कि गोपियों ने उद्धव को स्पष्ट कर दिया कि कृष्ण ने हमारा सर्वस्व छीन लिया।

हरि दर्शन की प्यासी
अंखिया हरि दरसन की प्यासी।
देख्यो चाहतिं कमलनैन कों निसि दिन रहतिं उदासी॥
आए ऊधौ फिरि गए आंगन डारि गए गर फांसी।
केसरि तिलक मोतिनि की माला बृंदावन के बासी॥
काहू के मन की कोउ जानति लोगनि के मन हांसी।
सूरदास प्रभु तुम्हारे दरस को करबत लैहौं कासी॥

श्रीकृष्ण के विरह में व्याकुल गोपियों की मनोदशा का अद्भुत चित्रण है इस पद में। राग घनाक्षरी पर आधारित सूरदास जी का यह पद भगवान् से मिलने के लिये भक्त की आतुरता दर्शाता है। गोपियां श्रीकृष्ण के विरह में व्याकुल होकर कहती हैं कि हे हरि! हमारी आंखें तुम्हारे दर्शनों को प्यासी हैं। हे कमल नयन! ये आखें आप ही के दर्शनों की इच्छुक हैं, आपके बिना यह दिन-रात उदास रहती हैं। इस पर भी उद्धव यहां आकर हमें ब्रह्म ज्ञान का उपदेश ग्रहण करने की बात कहकर दुविधा में डाल गए हैं। हे वृंदावन वासी, केसर का तिलक लगाने वाले व मोतियों की माला धारण करने वाले श्रीकृष्ण! किसीके मन की कौन जाने! लोग तो हंसी उडाना ही जानते हैं। सूरदास कहते हैं कि गोपियां श्रीकृष्ण के दर्शन करके ही स्वयं को धन्य करना चाहती हैं। ठीक वैसे ही जैसे काशी, प्रयाग आदि स्थानों में प्राण देने पर लोग समझते हैं कि उनकी मुक्ति हो गई। गोपियां भी कृष्ण दर्शनों में ही स्वयं को मुक्त समझती हैं।

मन माने की बात
ऊधौ मन माने की बात।
दाख छुहारा छांडि अमृत फल विषकीरा विष खात॥
ज्यौं चकोर को देइ कपूर कोउ तजि अंगार अघात।
मधुप करत घर कोरि काठ मैं बंधत कमल के पात॥
ज्यौं पतंग हित जानि आपनौ दीपक सौं लपटात।
सूरदास जाकौ मन जासौं सोई ताहि सुहात॥

राग घनाक्षरी पर आधारित सूरदास जी का यह पद बहुत लोकप्रिय है। इस पद का भावार्थ है कि मन पर नियंत्रण मुश्किल है। यह जिस पर भा जाए वही अच्छा लगने लगता है। गोपियां कहती हैं कि हे उद्धव! यह तो मन के मानने की बात है। किसी को कुछ अच्छा लगता है तो किसी को कुछ। अब सर्प को ही लो.. उसे दाख-छुआरा व अमृत (रस से परिपूर्ण) फल अच्छे नहीं लगते। इसीलिए वह विष का सेवन करता है। इसी तरह यदि चकोर को कपूर दिया जाए तो वह उसका परित्याग कर अंगार को ही ग्रहण करता है। भ्रमर काठ को विदीर्ण कर उसमें अपना घर बना लेता है लेकिन स्वयं कमल दल में बंद हो जाता है। पतंगा दीपक को प्राणपण से चाहने के कारण ही उस पर अपने प्राणों को न्योछावर कर देता है। सूरदास कहते हैं कि जिसको जो रुचता है वह उसी को पाता है।
सदा बसै उर माहीं
ज्ञान बिना कहुं वै सुख नाहीं।
घट घट ब्यापक दारु अगिनि ज्यों सदा बसै उर माहीं॥
निरगुन छांडि सगुन को दौरति सुधौं कहौं किहिं पाहीं।
तत्व भजौ जो निकट न छूटै ज्यों तनु ते परछाहीं॥
तिहि तें कहौ कौन सुख पायो हिहिं अब लौं अवगाही।
सूरदास ऐसें करि लागी ज्यों कृषि कीन्हें पाही॥

सूरदास जी का यह पद राग घनाक्षरी में आबद्ध है। उद्धव गोपियों को ज्ञान मार्ग से भक्ति का उपदेश दे रहे हैं तथा निर्गुण एवं सगुण में भेद बता रहे हैं। लेकिन श्रीकृष्ण का साक्षात् दर्शन कर चुकी गोपियाँ भला उद्धव से कैसे सहमत होतीं? उद्धव गोपियों से कहते हैं, ज्ञान के बिना कहीं भी सुख नहीं है। पूर्णब्रह्म परमात्मा सबके घट-घट में वैसे ही व्याप्त हैं जैसे लकडी में अग्नि व्याप्त रहती है अर्थात् लकडी को जब तक जलाया न जाए तब तक उसमें से अग्नि नहीं निकलती। वैसे ही जब तक योग साधन नहीं किया जाता तब तक घट-घट में व्याप्त पूर्णब्रह्म (आत्म तत्त्‍‌व) का ज्ञान नहीं होता। तुम निर्गुण को छोडकर सगुण की ओर दौडती हो। निर्गुण के बिना सगुण की प्राप्ति कैसे होगी? तुम उस परम तत्त्‍‌व का स्मरण करो जो शरीर की परछाई की भांति है और कभी भी विलग होने वाला नहीं है। सूरदास कहते हैं कि गोपियों ने निर्गुण साधना की उपमा मेड पर खेती करने के समान दी है अर्थात् गोपियों ने अनुसार निर्गुण साधना वैसी ही है जैसे मेड पर खेती करना।



मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं
ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।
हंस सुता की सुंदर कगरी अरु कुंजनि की छांहीं॥
वै सुरभी वै बच्छ दोहनी खरिक दुहावन जाहीं।
ग्वालबाल मिलि करत कुलाहल नाचत गहि गहि बाहीं॥
यह मथुरा कंचन की नगरी मनि मुक्ता हल जाहीं।
जबहिं सुरति आवति बा सुख की जिय उमगत तन नाहीं॥
अनगन भांति करी बहु लीला जसुदा नंद निबाहीं।
सूरदास प्रभु रहे मौन ह्वै यह कहि कहि पछिताहीं॥

राग सारंग में निबद्ध सूरदास जी का यह पद भाव प्रधान है। श्रीकृष्ण जब ब्रज छोडकर मथुरा आ गये तो वहाँ गोपियाँ उनके वियोग में बहुत व्याकुल हो गयीं। कृष्ण ने अपने सखा उद्धव को उन्हें समझाने के लिये ब्रज भेजा। ब्रज से लौटकर उद्धव जी ने सारा हाल सुनाया। उद्धव ने जब श्रीकृष्ण को ब्रज की दशा का हाल सुनाया तो श्रीकृष्ण भाव विभोर होकर बोले, हे सखा! ब्रज को मैं भुला नहीं सकता। हंससुता (यमुना) का वह तट, लताओं से आच्छादित मार्गो की वह छाया का सुख मैं कैसे भूल सकता हूं? मैं उन गायों व बछडों को भी नहीं भूल सकता और न ही उस गोशाला को जहाँ मैं गायों का दूध दूहता था। हम सब ग्वाल बाल एक दूसरे की बांहों में बांहें डालकर कोलाहल मचाते हुए नाचा करते थे। उस सुख को भी मैं कैसे भुला दूं? हे उद्धव! यह मथुरा नगरी यद्यपि स्वर्ण, मणि-मुक्ताओं से बनी हुई है, लेकिन जब भी मुझे ब्रज के उस सुख की याद आती है तब मन भर आता है और मुझे तन की भी सुधि नहीं रहती। मैंने अनेक प्रकार की अनंत लीलाएं कीं, जिन्हें मैया यशोदा ने बहुत ही निभाया है। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण जब उद्धव से ब्रज के उस सुख की बात बतला रहे थे तब बात कहते-कहते बीच में ही मौन हो जाते थे। ऐसा कहकर मन ही मन पश्चाताप भी करने लगते थे।



मुरली सब्द सुनावन
कहा दिन ऐसे ही चलि जैहैं।
सुनि सखि मदन गुपाल आंगन में ग्वालनि संग न ऐहैं॥
कबहूं जात पुलिन जमुना के बहु विहार बिधि खेलत।
सुरति होत सुरभी संग आवत पुहुप गहे कर झेलत॥
मृदु मुसुकानि आनि राख्यो जिय चलत कह्यो है आवन।
सूर सुदिन कबहूं तौ ह्वै है मुरली सब्द सुनावन॥

राग सोरठा पर आधारित इस पद में सूरदास जी ने गोपियों की भावनाओं को व्यक्त किया है। एक सखी दूसरी सखी से पूछती है कि क्या यह दिन ऐसे ही व्यतीत हो जाएंगे? क्या मदन गोपाल अब ग्वालों के संग हमारे आंगन में नहीं आएंगे? क्या अब यमुना के किनारे वह नाना प्रकार की क्रीडाएं नहीं करेंगे? उनकी वह चेष्टाएं बार-बार स्मरण हो आती हैं, जब वह गायों के साथ हाथों में पुष्पों को उछालते हुए आते थे। उनकी वह मधुर मुस्कान अब भी मेरे मानस-पटल पर है। हे सखी! मेरा मन तो कहता है कि श्यामसुंदर एक दिन अवश्य आएंगे। सूरदास कहते हैं कि वह सखियां विचार कर रही हैं कि वह शुभ दिन कब आएगा जब हम श्रीकृष्ण की मुरली का मधुर स्वर सुन पाएंगी।

भाव भगति है जाकें
रास रस लीला गाइ सुनाऊं।
यह जस कहै सुनै मुख स्त्रवननि तिहि चरनन सिर नाऊं॥
कहा कहौं बक्ता स्त्रोता फल इक रसना क्यों गाऊं।
अष्टसिद्धि नवनिधि सुख संपति लघुता करि दरसाऊं॥
हरि जन दरस हरिहिं सम बूझै अंतर निकट हैं ताकें।
सूर धन्य तिहिं के पितु माता भाव भगति है जाकें॥

विहाग राग पर आधारित इस पद में सूरदास कहते हैं कि मेरा मन चाहता है कि मैं भगवान् श्रीकृष्ण की रसीली रास लीलाओं का नित्य ही गान करूं। जो लोग भक्तिभाव से कृष्ण लीलाओं को सुनते हैं तथा अन्य लोगों को भी सुनाते हैं उनके चरणों में मैं शीश झुकाऊं। वक्ता व श्रोता अर्थात् कृष्ण लीलाओं का गान करने व अन्य को सुनाने के फल का मैं और क्या वर्णन करूं। इन सबका फल एक जैसा ही होता है। तब फिर इस जिह्वा से क्यों न कृष्ण लीलाओं का गान किया जाए। जो दीनभाव से इसका गान करता है, उसे अष्टसिद्धि व नव निधियां तथा सभी तरह की सुख-संपत्ति प्राप्त होती है। जिनका मन निर्मल है या जो हरिभक्त हैं, वह सबमें ही हरि स्वरूप देखते हैं। सूरदास कहते हैं कि वे माता-पिता धन्य हैं जिनकी संतानों में हरिभक्ति का भाव विद्यमान है।




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