Sunday, 4 September 2011

Jaag - jaag sukeshni ri

जाग-जाग सुकेशिनी री! 

 अनिल ने आ मृदुल हौले
शिथिल वेणी-बन्धन खोले
पर न तेरे पलक डोले
बिखरती अलकें, झरे जाते
सुमन, वरवेषिनी री!

छाँह में अस्तित्व खोये
अश्रु से सब रंग धोये
मन्दप्रभ दीपक सँजोये,
पंथ किसका देखती तू अलस
स्वप्न - निमेषिनी री?

रजत - तारों घटा बुन बुन
गगन के चिर दाग गिन-गिन
श्रान्त जग के श्वास चुन-चुन
सो गई क्या नींद का अज्ञात-
पथ निर्देशिनी री?

दिवस की पदचाप चंचल
श्रान्ति में सुधि-सी मधुर चल
आ रही है निकट प्रतिपल,
निमिष में होगा अरुण-जग
ओ विराग-निवेशिनी री?

रूप-रेखा - उलझनों में
कठिन सीमा - बन्धनों में
जग बँधा निष्ठुर क्षणों में
अश्रुमय कोमल कहाँ तू
आ गई परदेशिनी री?


- महादेवी वर्मा 

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