Friday, 4 May 2012

ध्यानयोग 2


स्वयं का स्वरुप आत्मा जानने के बाद साधक सर्वप्रथम तो ये जान जाता है की मन,बुद्धि आत्मा के अधीन हैं ।इसलिए वो उनकी सत्ता से अधीर नहीं होता वरन मनन करता हुआ आत्मा में रमण करने का प्रयत्न करता है
इस स्थिति के लिए धीरे धीरे अभ्यास द्वारा पहले मन को एकाग्र करना होता है
बहुधा हम ध्यान का अर्थ मात्र एकाग्रता लगा लेते हैं जबकि ऐसा कदापि नहीं है एकाग्रता तो ध्यान तक पहुँचने की प्रक्रिया मात्र में है

मन के एकाग्र करने के उपरान्त साधक ध्यान में पहुँच जाता है

यहाँ फिर प्रश्न आता है की मन एकाग्र कैसे हो ?
ऐसा प्रश्न अधिकतर उन साधकों के मन में आता है जिन्होंने अपने स्वरुप के महत्व को नहीं स्वीकारा

बहरहाल ऐसा होने पर इसे दूसरी तरह से समझें

बुद्धि निर्णय (संकल्प ) करती है और मन विकल्प प्रस्तुत करता है उदहारणस्वरुप बुद्धि ने सोचा भूख लगी है तुरंत ही मन ने कई तरह के व्यंजन सामने उपस्थित कर दिए

बुद्धि ने निर्णय किया मुझे लिखना है मन ने तुरंत ही विकल्प प्रस्तुत कर दी ये लिखना है,इस पर लिखना है,कलम से लिखना है पेंसिल से लिखना है इत्यादि

यहाँ यदि बुद्धि शांत हो जाए तो निश्चित मानिए मन शांत हो जाएगा क्यूंकि मन बुद्धि से ही संचालित होता है

अतः जैसे ही हम चेतन तत्त्व को आत्मा को प्रधानता देते हैं और चूँकि बुद्धि जड़ है उसका कार्यक्षेत्र भी जड़ है और बुद्धि स्वयं आत्मा द्वारा ही संचालित होती है तो बुद्धि शांत रहती है

बुद्धि के शांत होने पर मन भी शांत रहता है और संकल्प विकल्प नहीं उठते ऐसी अवस्था में चित्त निरुद्ध हो जाता है और साधक स्वतः ध्यान में प्रवेश कर जाता है
। यही बात ऐसे भी समझ सकते हैं की जिन्होंने आत्मा में स्वरुप को लगा दिया तो स्वाभाविक ही उनका चित्त निरुद्ध हो जाता है
यहाँ कोई विचार नहीं है यहाँ वो स्वयं उपस्थित है और स्वयं से ही बात कर रहा है

परन्तु बात जो असली बात है की साधक स्वयं से बात कर सके वो तो काफी अभ्यास के बाद संभव है परन्तु अभी वो स्वस्वरूप के साक्षात्कार के प्रारभिक चरण में प्रवेश कर गया इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं

साधक को ध्यान में कुछ भी नहीं करना है बस विचार का भी विचार नहीं होना चाहिए

यहाँ ये ध्यान देने की बात है की विचार का भी विचार न करना स्वयं में एक विचार है परन्तु विचार का भी विचार न होना स्थिति है और यही ध्यान है

यहाँ फिर एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न आ सकता है की निर्विचार होने के बारें में हमे पता तो चलता ही है तो क्या वो बुद्धि के द्वारा नहीं है ?
ऐसा होता है अतिसूक्ष्म शुद्ध बुद्धि द्वारा परन्तु मात्र आभास ही मिल सकता है,वास्तव में बुद्धि वहां तक पहुँचती नहीं

स्वयं का अविनाशीस्वरूप तीनो गुणों (सत्व,रज,तम ) से अतीत है अथार्तगुणातीत है इसलिए बुद्धि ग्राह्र होने पर भी वो बुद्धि से बिलकुल अतीत है
। इसमें परमात्मा की कृपा ही देखनी चाहिए ।   



श्रीमद भगवद्गीता में छठे अध्याय के इन श्लोकों में भगवान् साधक से यही बता रहे हैं : 

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥
भावार्थ :  अत्यन्त वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भलीभाँति स्थित हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण भोगों से स्पृहारहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है॥18॥ 
यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥
भावार्थ :  जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है॥19॥
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥
भावार्थ :  योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है॥20॥
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्‌ ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥
भावार्थ :  इन्द्रियों से अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है, और जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नहीं॥21॥


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