ध्यान में सबसे आवश्यक यही है की मन बुद्धि पर नियंत्रण हो या ये भी कह
सकते हैं की ध्यान द्वारा मन बुद्धि पर नियंत्रण आसान होता है ।
यहाँ ये समझना आवश्यक है की बिना वैराग्य जगाये अध्यात्म में व्यक्ति कुछ हासिल नहीं कर सकता । मतलब यदि हम दिखावे के लिए नहीं स्वयं के लिए ध्यान या अध्यात्म में जा रहे हैं तो ये बहुत ज़रूरी है की हमारे अंतःकरण में ये भाव हो की शरीर-संसार क्षणभंगुर है,विनाशशील है,अनित्य है और आत्मा नित्य है परमात्मा का अंश है ।
संसार न पहले था न बाद में रहेगा और अभी ये हर क्षण घट रहा है नष्ट रहा है और जीव (आत्मा) पहले भी था थी आगे भी रहेगा और इस समय भी ये अपने सतस्वरुप में ही है ।
इसलिए जीव जो की नित्य है,अविनाशी है उसे ये अनित्य और विनाशशील शरीर संसार व इसमें होने वाले इससे होने वाले सम्बन्ध सुख नहीं पहुंचा सकते है ।
और जीव को उसके लिए कुछ विशेष नहीं करना होता है उसका परमात्मा से सम्बन्ध स्वयंसिद्ध है उसे बस अपने अन्दर से संसार की महत्ता हटानी है और परमात्मा की सत्ता सही मायने में स्वीकार करना है ।
जीव को सुख परमात्मा से ही मिल सकता है और उसे पाने का माध्यम है अध्यात्म,ध्यान ।
इसलिए ध्यान को महज़ एक उत्सुकतापूर्ण हेतु अथवा जिज्ञासा के लिए नहीं समझना चाहिए इसका अनुभव करना चाहिए और बहुत ध्यान से ध्यान को करने से ज्यादा ज़रूरी है स्वाभाविक तरह से करे ।
ध्यान का आनंद तब तक अधूरा है जब तक साधक के मन में प्रभु प्रेम न उत्पन्न हो ।
यहाँ ये समझना आवश्यक है की बिना वैराग्य जगाये अध्यात्म में व्यक्ति कुछ हासिल नहीं कर सकता । मतलब यदि हम दिखावे के लिए नहीं स्वयं के लिए ध्यान या अध्यात्म में जा रहे हैं तो ये बहुत ज़रूरी है की हमारे अंतःकरण में ये भाव हो की शरीर-संसार क्षणभंगुर है,विनाशशील है,अनित्य है और आत्मा नित्य है परमात्मा का अंश है ।
संसार न पहले था न बाद में रहेगा और अभी ये हर क्षण घट रहा है नष्ट रहा है और जीव (आत्मा) पहले भी था थी आगे भी रहेगा और इस समय भी ये अपने सतस्वरुप में ही है ।
इसलिए जीव जो की नित्य है,अविनाशी है उसे ये अनित्य और विनाशशील शरीर संसार व इसमें होने वाले इससे होने वाले सम्बन्ध सुख नहीं पहुंचा सकते है ।
और जीव को उसके लिए कुछ विशेष नहीं करना होता है उसका परमात्मा से सम्बन्ध स्वयंसिद्ध है उसे बस अपने अन्दर से संसार की महत्ता हटानी है और परमात्मा की सत्ता सही मायने में स्वीकार करना है ।
जीव को सुख परमात्मा से ही मिल सकता है और उसे पाने का माध्यम है अध्यात्म,ध्यान ।
इसलिए ध्यान को महज़ एक उत्सुकतापूर्ण हेतु अथवा जिज्ञासा के लिए नहीं समझना चाहिए इसका अनुभव करना चाहिए और बहुत ध्यान से ध्यान को करने से ज्यादा ज़रूरी है स्वाभाविक तरह से करे ।
ध्यान का आनंद तब तक अधूरा है जब तक साधक के मन में प्रभु प्रेम न उत्पन्न हो ।
ध्यान क्या है कैसे कर सकते हैं इस बात पर पिछली पोस्ट्स पर काफी लिखा गया और आगे भी लिखा जाएगा ।
ध्यान मन के पार जाना है,इन्द्रियातीत होना है, गुनातीत होना है ।
हमें कई बार ये ही नहीं मालूम चल पाता की हम संसार में जो भी करते हैं सब हम अपने मन की ही प्रेरणा से ही करते हैं और कई बार तो ये मान भी नहीं पाते की मन से अलग भी एक जहाँ है जिसे अ मन अथार्त मन का न होना कहते हैं । ध्यान के साधक को इस जोन में पहुंचना होता है उसे अपने आप को अ मन की अवस्था में लाना होता है जो की निश्चित ही विद्यमान है बस हमे उस तक पहुचना है ।
एक बार ध्यान में पहुँचते हैं तो हमे ऐसा आनंद होता है जो हमने सांसारिक सुखों में कभी नहीं पाया लेकिन उससे भी बढ़कर ये वो स्थिति होती है जहाँ साधक परमात्मा के काफ समीप होता है ।
हमारे आँख खोलते ही चारो तरफ हमे संसार दीखता है हम बिना कुछ सोचे समझे उसमे कूद पड़ते हैं और कभी कभी तो पूरा जीवन लग जाता है हम अपना आस्तित्व बस राग-द्वेष तक ही सीमित समझते हैं और इसी वजह से असली संसार से वंचित रह जाते हैं क्यूंकि हमारा मन चाहे जितना भी शक्तिशाली हो परन्तु वो जो भी सोचेगा मन से सोचेगा मायिक ही सोचेगा और ध्यान है अमायिक हो जाना इसलिए मन कभी भी अमायिक जोन में नहीं पहुँच सकता इसलिए जैसा की पिछली पोस्ट में उल्लेख किया गया है चित्त के अवरुद्ध हो जाने पर जब मन और बुद्धि निश्चेष्ट हो जाते हैं साधक अ-मन में अथार्त अमायिक जोन में, स्थिति में, अवस्था में प्रवेश कर जाता है ।
जहाँ वो देख पाता है की जिन मन,बुद्धि द्वारा वो संचालित होता रहा वो सामने निश्चेष्ट हैं,प्रकाश्य हैं। साधक को यथार्थतः स्वरुप का ज्ञान होने लगता है की उसका स्वरुप ही मन,बुद्धि इन्द्रियों का प्रकाशक है ।
ध्यान मन के पार जाना है,इन्द्रियातीत होना है, गुनातीत होना है ।
हमें कई बार ये ही नहीं मालूम चल पाता की हम संसार में जो भी करते हैं सब हम अपने मन की ही प्रेरणा से ही करते हैं और कई बार तो ये मान भी नहीं पाते की मन से अलग भी एक जहाँ है जिसे अ मन अथार्त मन का न होना कहते हैं । ध्यान के साधक को इस जोन में पहुंचना होता है उसे अपने आप को अ मन की अवस्था में लाना होता है जो की निश्चित ही विद्यमान है बस हमे उस तक पहुचना है ।
एक बार ध्यान में पहुँचते हैं तो हमे ऐसा आनंद होता है जो हमने सांसारिक सुखों में कभी नहीं पाया लेकिन उससे भी बढ़कर ये वो स्थिति होती है जहाँ साधक परमात्मा के काफ समीप होता है ।
हमारे आँख खोलते ही चारो तरफ हमे संसार दीखता है हम बिना कुछ सोचे समझे उसमे कूद पड़ते हैं और कभी कभी तो पूरा जीवन लग जाता है हम अपना आस्तित्व बस राग-द्वेष तक ही सीमित समझते हैं और इसी वजह से असली संसार से वंचित रह जाते हैं क्यूंकि हमारा मन चाहे जितना भी शक्तिशाली हो परन्तु वो जो भी सोचेगा मन से सोचेगा मायिक ही सोचेगा और ध्यान है अमायिक हो जाना इसलिए मन कभी भी अमायिक जोन में नहीं पहुँच सकता इसलिए जैसा की पिछली पोस्ट में उल्लेख किया गया है चित्त के अवरुद्ध हो जाने पर जब मन और बुद्धि निश्चेष्ट हो जाते हैं साधक अ-मन में अथार्त अमायिक जोन में, स्थिति में, अवस्था में प्रवेश कर जाता है ।
जहाँ वो देख पाता है की जिन मन,बुद्धि द्वारा वो संचालित होता रहा वो सामने निश्चेष्ट हैं,प्रकाश्य हैं। साधक को यथार्थतः स्वरुप का ज्ञान होने लगता है की उसका स्वरुप ही मन,बुद्धि इन्द्रियों का प्रकाशक है ।
व्यक्ति संसार में रहते हुए जाग्रत,स्वप्न अथवा सुषुप्ति अवस्था में हो सकता है और ये बात तो आसानी से समझ में आ सकती है की इन तीनो अवस्थाओं में जीव ही रहता है ।
जाग्रत में व्यक्ति जागा हुआ रहता है जिसपर थोड़ी देर में आते हैं,स्वप्न में व्यक्ति सपने देखता है जो की स्वयंउसके ही जाग्रत-अवस्था में मन द्वारा कल्पित वस्तुएं कल्पनाएँ होती हैं बहरहाल ये स्वप्न-अवस्था हो गयी ।
सुषुप्ति-अवस्था होती है स्वप्न रहित निद्रा इसमें व्यक्ति को होश नहीं रहता लेकिन ध्यान द्वारा जीव चौथी अवस्था को प्राप्त करता है जिसे तुरीयावस्था कहते हैं। यहाँ आँख बंद होने पर भी व्यक्ति होश में रहता है ।
जैसा पहले बताया गया की संसारी भाषा में जो हम जीव के जागने को जाग्रत अवस्था कहते हैं उसमे भी असल में जीव सोया हुआ ही है क्यूंकि जैसे सुषुप्ति अवस्था में उसकी इन्द्रियाँ सोयी हुई होती हैं वैसे ही जाग्रत अवस्थ में भी वो मन बुद्धि के नियंत्रण में होने के कारण और उन्हें अपने वश में न कर सकने के कारण उनके द्वारा संचालित होता है इसलिए इसे सही अर्थों में जागना नहीं कहा जा सकता ।
जबकि तुरीयावस्था में जब जीव ध्यान से समाधि में प्रवेश करता है तब भी उसका होश बना रहता है वो जागा हुआ होता है क्यूंकि वो मन,बुद्धि को देख रहा होता है उसकी मन बुद्धि स्वतः उसके नियंत्रण में होती हैं ।
इसे ऐसे भी समझ सकते हैं की मनुष्य के तीन तरह के शरीर होते हैं जाग्रत अवस्था में स्थूल (कर्मेन्द्रिय व ज्ञानेन्द्रिय सहित हाथ,पैर,मन,बुद्धि सहित ) शरीर सहित स्वप्न में सूक्ष्म शरीर (मन,बुद्धि सहित ) और सुषुप्ति में कारण शरीर (जहाँ जीव का अहम् यानी होनापन ही उसके साथ होता है ) ।
ध्यान द्वारा जब जीव समाधि प्राप्त करता है वहां इन तीनो (स्थूल,सूक्ष्म व कारण) शरीरों का लय हो जाता है और वही है तुरीयावस्था को प्राप्त होना जहाँ अखंडानंद निहित है ।
यानी हम रोज़ इन तीनो अवस्था से गुज़रते हैं हम किसी भी अवस्था में रहे जाग्रत,स्वप्न अथवा सुषुप्ति में से ही किसी में रहते हैं लेकिन जीव की असली अवस्था इन तीनो में से कोई नहीं है और वो है तुरीय अवस्था
यही जीव की स्वरुप-अवस्था है ।
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह
मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर
पाप का आचरण करता है॥36॥॥
श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥
भावार्थ : श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न
हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न
अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान॥37
महात्मा अर्जुन के इस प्रश्न पर प्रभु द्वारा दिया गया उत्तर अत्यंत सारगर्भित है और ध्यान के लिए अत्यंत उपयोगी कैसे है इसका अगली पोस्ट में वर्णन किया जायेगा ।