ध्यान को हमने अभी तक सिर्फ इस परिद्रश्य में समझा है की आखें बंद करके हम बैठ जाएँ और मन को कहीं एकाग्र करें ।
जबकि ऐसा बिलकुल नहीं है । ध्यान एक आध्यात्मिक शब्द है जिसका अर्थ है स्वयं से रूबरू होना,स्वयं से वार्तालाप करना ।
अपने स्वयं के उस स्तर पर पहुंचना जहाँ ये साफ़ हो जाता है की इस शरीर में भी परमात्मा का वास है और उस अनुभूति में पहुँचने का एक माध्यम है ध्यान ।
ध्यान का अर्थ है परमशान्ति की राह में रखा जाने वाला सबसे सही कदम ।जहाँ हमारा मन खो जाए,जहाँ हम अपने मन से पार निकल जाएँ ।
इसे ऐसे भी समझ सकते हैं की जहाँ हम स्वयं को समझें,स्वयं से बात करें बिना अपने मन की सहायता से,बिना अपने मन को साथ
लिये हुए । हमने स्वयं को अभी तक ऐसा रखा है की हम जो भी चीज़ करते हैं संसारी करते हैं । हमे ऐसे संस्कार मिले जहाँ हमे सांसारिक मान,प्रतिष्ठा
के लिए ही तैयार किया गया । हमारी विद्धा पेट भरने के इलावा कुछ नहीं है और हमारा ज्ञान भी वैसा ही है अथार्त संसारी है ।
अपने आप ही हम संसारी चीज़ों को ही महत्व देते हैं और संसारी बात ही देख पाते हैं और सोच पाते हैं,परिणामतः जीवन हमारा ऐसे ही गुज़र जाता है और
कई बार तो संसार से जाते हुए भी हम ये ही भ्रान्ति पाले रखते हैं की हमने सबकुछ ठीक किया और अपने मन के हिसाब से ठीक ही सुख भोग लिया,अच्छा आनंदमय जीवन जिया और जो थोड़े बहुत दुःख भी मिले वो शायद इसलिए की सुखों को भोगने के लिए दुखों को भोगना ही होता है ।
लेकिन क्या ये सही है ?
क्या ऐसा जीवन उत्तम है ?
क्या जीवन में हमे आत्मा,परमात्मा आदि के बारें में सोचना चाहिए ?
क्या जीवन विनाशशील वस्तुओं के संग्रह के अलावा कुछ भी नहीं ?
क्या सांसारिक सुख जो हम धन,मान आदि से प्राप्त करते हैं या जो हमे रिश्ते-नातों,दोस्तों से मिलते हैं वे वास्तविक सुख होते हैं ?
क्या सांसारिक सुख को प्राप्त करना ही व्यक्ति का उद्देश्य होता है ?
क्या सांसारिक सुख सदैव के लिए हैं ?
हम इसका उत्तर येही पायेंगे की नहीं सांसारिक सुख से व्यक्ति को सच्चा आनंद नहीं मिल सकता बल्कि सांसारिक हर सुख से अंत में व्यक्ति को सिर्फ दुःख ही मिलता है ये एक परम सत्य है ।
फिर प्रश्न उठता है की यदि अध्यात्म में अथार्त परमात्मा प्राप्ति में ही सच्चा आनंद निहित है तो
क्या परमात्मा के बारें में भी हमे जीवन के उतरार्ध में ही सोचना चाहिए ?
पिछली पोस्ट में भी मैंने इसका ज़िक्र किया था की हम जब चेत जाएँ हमे उसी वक़्त परमशान्ति की राह में चल पड़ना चाहिए । आदर्श अवस्था हमारी जवानी है जब हम शक्ति से भरे होते हैं हमे तभी अध्यात्म की अपनी यात्रा शुरू कर देनी चाहिए क्यूंकि बुढापे में जब हमारे अन्दर शक्ति नहीं रहेगी हम प्रभु को क्या सोच पायेंगे । हमारी प्रज्ञा भी दूषित रहती है थकी रहती है क्यूंकि उसपर इसी जीवन के राग-द्वेष के घने संस्कार पर चुके होते हैं । हमारे हाथ में ताकत नहीं तो हम क्या माला जपेंगे,हमारे पैरों में शक्ति नहीं तो हम क्या मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारे,गिरिजाघर आदि जा सकेंगे ।
यानी एक तो शक्ति नहीं रहती दूसरी भक्ति नहीं रहती अथार्त सहज रूप से हमारी भावना भी नहीं रहती ।
इसलिए हमे जवानी से ही अपने सांसारिक जीवन के साथ आध्यात्मिक ज्ञान अर्जन करना शुरू कर देना चाहिए ।
ये जो ज्ञान शब्द है इसका अर्थ हम अधिकतर वो लगा लेते हैं जो की स्मृति का अर्थ होता है ।
स्मृति का अर्थ है शाब्दिक ज्ञान अथार्त दूसरे का जाना हुआ परन्तु ज्ञान का अर्थ है अपना जाना हुआ,स्वयं का अनुभव ।
इसलिए मात्र शब्दों संग्रह नहीं करना चाहिए क्यूंकि वो तो एक निर्जीव मशीन भी कर सकती है ।
उन्हें पढना नहीं है उन्हें समझना है क्यूंकि बिना अनुभव किये हुए शब्दों को जानना ज्ञान नहीं है वो तो स्मृति है ।
तो ध्यान ही सबकुछ है यहाँ तक की जो हम बेध्यान से भी इस जगत को देखते हैं वो भी ध्यान में ही डूबा हुआ है यहाँ तक की स्वयं का हमारा स्वरुप हमारे सांसारिक कार्य करते हुए भी ध्यान में ही है । अंतर सिर्फ यही है की हमे पता नहीं चल पाता और हमारे ये पता न चल पाना ही हमे निरंतर दुखों में भटकाए हुए हैं चौरासी लाख योनियों की यात्रा कराये हुए है । जब हमे इस बात का पता चलने लगता है हम ध्यान को उपलब्ध होने लगते हैं ।
जीवन में हम देखते हैं हमे अवगुण सिखाने वाले हमारे पूरे जीवन काल में 80 % लोग मिलते हैं कई बार तो दोस्त दोस्त को ही ग़लत आदत सिखाते हैं लेकिन उसे सही बात,गुणदायक बात नहीं बताते । उस पर भी हमे कोई अच्छी बात बताता है तो हम उसकी गंभीरता को नहीं समझते ।
उसमे भी कोई यदि आध्यात्मिक ज्ञान की बात करता है तो अधिकांशतः हम उसे उतनी गंभीरता से नहीं लेते उसे प्राथमिकता नहीं देते ।
आध्यात्मिक ज्ञान के विषय में हर जगह,हर शास्त्र में ये विशेष जोर देके कहा गया की इसे बहुत ही घनिष्ठ को बताना चाहिए,इसे अधिकारी को ही बताना चाहिए अनाधिकारी को कभी नहीं । इसकी अहमियत तो ऐसी है की यही कोई जाग्रत व्यक्ति,अनुभवी व्यक्ति इस पर कुछ बोलता है तो उसके शब्द एक नए शास्त्र की रचना करने लगते हैं । उसका प्रत्येक शब्द उसकी आत्मा से निकला हुआ होता है और हर शब्द ज्ञान का पुंज होता है बहुत सजोके रखने लायक होता है ।
आध्यात्मिक ज्ञान हर धर्म,हर मज़हब में सबसे ऊपर माना गया है और आध्यात्मिक ज्ञान हर धर्म हर मज़हब का एक ही है ।
आध्यात्मिक ज्ञान पर यदि हम कुछ भी कभी भी सुने हमे सच्चे दिल से ये मानना चाहिए की हमने कुछ अच्छे करम किये जिससे परमात्मा प्रभु ने वो ज्ञान हमे किसी माध्यम से सुनवाया जो स्वयं उस परमेश्वर का ही है । आध्यात्मिक ज्ञान की उपेक्षा व्यक्ति में पाप का संचार करती है,आध्यात्मिक ज्ञान की निंदा व्यक्ति के पुण्यों को क्षीण करती है और आध्यात्मिक ज्ञान को मन लगाके सुनने से व्यक्ति पर परमात्मा खुश होने लगता है ।
क्यूंकि आध्यात्मिक मार्ग ही एकमात्र मार्ग है परमात्मा प्राप्ति का और ध्यान से अधिक महत्त्वपूर्ण इसमें कुछ भी नहीं ।
हम जो भजन,प्राथना भी करते हैं वो भी ध्यान का ही एक रूप है क्यूंकि उसमे भी हम अपने मन,बुद्धि से ऊपर उठ चुके होते हैं ।
हम जानते हैं ध्यानयोग को सांख्य व योग दोनों से ही कर सकते हैं और अलग अलग भी । सांख्य में व्यक्ति को किसी आसन,प्राणायाम की ज़रूरत नहीं रहती उसे बस अपने विवेक को,प्रज्ञा को ,समझ को ही महत्व देना होता है और जाग्रत करना होता है ।
पिछली पोस्ट में मैंने सांख्य का ज़िक्र किया था ये पूरी पोस्ट सांख्य की ही है । पिछली पोस्ट में मैंने सांख्य का ज़िक्र करते समय होश का ज़िक्र किया था उसे समझना अत्यंत आवश्यक है ।
हम अभी जो जीवन जी रहे हैं वो मूर्छित अवस्था में जी रहे हैं अथार्त हमे मालूम नहीं चलता कब हममे विकार(काम,क्रोध,लोभ,हिंसा) आ जाते हैं और परिणामतः हमे दुःख ही मिलता है,हम राग-द्वेष में ही जीवन व्यतीत कर देते हैं । होश का अर्थ है की हम ऐसी अवस्था में पहुँच जाएँ जहाँ जैसे ही हमारे में कोई विकार उठे हम उसे पकड़ सकें,हम ये जान सकें की हाँ अभी मुझमे क्रोध उठा,अभी मुझमे लोभ उठा और ऐसी स्थिति में व्यक्ति इन विकारों से बंधता नहीं और परिणामतः वो सम(आनंद का धाम) ही रहता है । और इस स्थिति में व्यक्ति तभी पहुँच सकता है जब उसका चित्त निरुद्ध हो,मन तथा बुद्धि से पार हो ।
दूसरा सांख्य में ये बहुत आवश्यक है की हम भूत,भविष्य की जगह वर्तमान को महत्त्व दे अथार्त अहंकार और लोभ से बचें ।
अहंकार हमे भूत काल की तरफ ले जाता है की हमने ये किया ये पाया और लोभ हमे भविष्य में फ़साये रखता है की ये करना है वो करना है परिणामतः व्यक्ति वर्तमान को हमेशा भूला रहता है । हम हमेशा बहुत जल्दी में रहते हैं, एक काम किया नहीं की दूसरा उठा लेते हैं । एक विचार पूरा हुआ नहीं की दूसरे में लग जाते हैं और बस इसी भागदौड़ में पूरी ज़िन्दगी बिता देते हैं और हमे ये मालूम ही नहीं चल पाता की ज़िन्दगी का नाम तो रुकना था,ठहरना था वर्तमान को महसूस करना वर्तमान का ही आनंद लेना था ।
व्यक्ति को विचारशून्यता और कामनाशून्यता ये दो मंत्र समझने चाहिए स्वयं को वर्तमान में स्थित होने के लिए ।
जबकि ऐसा बिलकुल नहीं है । ध्यान एक आध्यात्मिक शब्द है जिसका अर्थ है स्वयं से रूबरू होना,स्वयं से वार्तालाप करना ।
अपने स्वयं के उस स्तर पर पहुंचना जहाँ ये साफ़ हो जाता है की इस शरीर में भी परमात्मा का वास है और उस अनुभूति में पहुँचने का एक माध्यम है ध्यान ।
ध्यान का अर्थ है परमशान्ति की राह में रखा जाने वाला सबसे सही कदम ।जहाँ हमारा मन खो जाए,जहाँ हम अपने मन से पार निकल जाएँ ।
इसे ऐसे भी समझ सकते हैं की जहाँ हम स्वयं को समझें,स्वयं से बात करें बिना अपने मन की सहायता से,बिना अपने मन को साथ
लिये हुए । हमने स्वयं को अभी तक ऐसा रखा है की हम जो भी चीज़ करते हैं संसारी करते हैं । हमे ऐसे संस्कार मिले जहाँ हमे सांसारिक मान,प्रतिष्ठा
के लिए ही तैयार किया गया । हमारी विद्धा पेट भरने के इलावा कुछ नहीं है और हमारा ज्ञान भी वैसा ही है अथार्त संसारी है ।
अपने आप ही हम संसारी चीज़ों को ही महत्व देते हैं और संसारी बात ही देख पाते हैं और सोच पाते हैं,परिणामतः जीवन हमारा ऐसे ही गुज़र जाता है और
कई बार तो संसार से जाते हुए भी हम ये ही भ्रान्ति पाले रखते हैं की हमने सबकुछ ठीक किया और अपने मन के हिसाब से ठीक ही सुख भोग लिया,अच्छा आनंदमय जीवन जिया और जो थोड़े बहुत दुःख भी मिले वो शायद इसलिए की सुखों को भोगने के लिए दुखों को भोगना ही होता है ।
लेकिन क्या ये सही है ?
क्या ऐसा जीवन उत्तम है ?
क्या जीवन में हमे आत्मा,परमात्मा आदि के बारें में सोचना चाहिए ?
क्या जीवन विनाशशील वस्तुओं के संग्रह के अलावा कुछ भी नहीं ?
क्या सांसारिक सुख जो हम धन,मान आदि से प्राप्त करते हैं या जो हमे रिश्ते-नातों,दोस्तों से मिलते हैं वे वास्तविक सुख होते हैं ?
क्या सांसारिक सुख को प्राप्त करना ही व्यक्ति का उद्देश्य होता है ?
क्या सांसारिक सुख सदैव के लिए हैं ?
हम इसका उत्तर येही पायेंगे की नहीं सांसारिक सुख से व्यक्ति को सच्चा आनंद नहीं मिल सकता बल्कि सांसारिक हर सुख से अंत में व्यक्ति को सिर्फ दुःख ही मिलता है ये एक परम सत्य है ।
फिर प्रश्न उठता है की यदि अध्यात्म में अथार्त परमात्मा प्राप्ति में ही सच्चा आनंद निहित है तो
क्या परमात्मा के बारें में भी हमे जीवन के उतरार्ध में ही सोचना चाहिए ?
पिछली पोस्ट में भी मैंने इसका ज़िक्र किया था की हम जब चेत जाएँ हमे उसी वक़्त परमशान्ति की राह में चल पड़ना चाहिए । आदर्श अवस्था हमारी जवानी है जब हम शक्ति से भरे होते हैं हमे तभी अध्यात्म की अपनी यात्रा शुरू कर देनी चाहिए क्यूंकि बुढापे में जब हमारे अन्दर शक्ति नहीं रहेगी हम प्रभु को क्या सोच पायेंगे । हमारी प्रज्ञा भी दूषित रहती है थकी रहती है क्यूंकि उसपर इसी जीवन के राग-द्वेष के घने संस्कार पर चुके होते हैं । हमारे हाथ में ताकत नहीं तो हम क्या माला जपेंगे,हमारे पैरों में शक्ति नहीं तो हम क्या मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारे,गिरिजाघर आदि जा सकेंगे ।
यानी एक तो शक्ति नहीं रहती दूसरी भक्ति नहीं रहती अथार्त सहज रूप से हमारी भावना भी नहीं रहती ।
इसलिए हमे जवानी से ही अपने सांसारिक जीवन के साथ आध्यात्मिक ज्ञान अर्जन करना शुरू कर देना चाहिए ।
ये जो ज्ञान शब्द है इसका अर्थ हम अधिकतर वो लगा लेते हैं जो की स्मृति का अर्थ होता है ।
स्मृति का अर्थ है शाब्दिक ज्ञान अथार्त दूसरे का जाना हुआ परन्तु ज्ञान का अर्थ है अपना जाना हुआ,स्वयं का अनुभव ।
इसलिए मात्र शब्दों संग्रह नहीं करना चाहिए क्यूंकि वो तो एक निर्जीव मशीन भी कर सकती है ।
उन्हें पढना नहीं है उन्हें समझना है क्यूंकि बिना अनुभव किये हुए शब्दों को जानना ज्ञान नहीं है वो तो स्मृति है ।
तो ध्यान ही सबकुछ है यहाँ तक की जो हम बेध्यान से भी इस जगत को देखते हैं वो भी ध्यान में ही डूबा हुआ है यहाँ तक की स्वयं का हमारा स्वरुप हमारे सांसारिक कार्य करते हुए भी ध्यान में ही है । अंतर सिर्फ यही है की हमे पता नहीं चल पाता और हमारे ये पता न चल पाना ही हमे निरंतर दुखों में भटकाए हुए हैं चौरासी लाख योनियों की यात्रा कराये हुए है । जब हमे इस बात का पता चलने लगता है हम ध्यान को उपलब्ध होने लगते हैं ।
जीवन में हम देखते हैं हमे अवगुण सिखाने वाले हमारे पूरे जीवन काल में 80 % लोग मिलते हैं कई बार तो दोस्त दोस्त को ही ग़लत आदत सिखाते हैं लेकिन उसे सही बात,गुणदायक बात नहीं बताते । उस पर भी हमे कोई अच्छी बात बताता है तो हम उसकी गंभीरता को नहीं समझते ।
उसमे भी कोई यदि आध्यात्मिक ज्ञान की बात करता है तो अधिकांशतः हम उसे उतनी गंभीरता से नहीं लेते उसे प्राथमिकता नहीं देते ।
आध्यात्मिक ज्ञान के विषय में हर जगह,हर शास्त्र में ये विशेष जोर देके कहा गया की इसे बहुत ही घनिष्ठ को बताना चाहिए,इसे अधिकारी को ही बताना चाहिए अनाधिकारी को कभी नहीं । इसकी अहमियत तो ऐसी है की यही कोई जाग्रत व्यक्ति,अनुभवी व्यक्ति इस पर कुछ बोलता है तो उसके शब्द एक नए शास्त्र की रचना करने लगते हैं । उसका प्रत्येक शब्द उसकी आत्मा से निकला हुआ होता है और हर शब्द ज्ञान का पुंज होता है बहुत सजोके रखने लायक होता है ।
आध्यात्मिक ज्ञान हर धर्म,हर मज़हब में सबसे ऊपर माना गया है और आध्यात्मिक ज्ञान हर धर्म हर मज़हब का एक ही है ।
आध्यात्मिक ज्ञान पर यदि हम कुछ भी कभी भी सुने हमे सच्चे दिल से ये मानना चाहिए की हमने कुछ अच्छे करम किये जिससे परमात्मा प्रभु ने वो ज्ञान हमे किसी माध्यम से सुनवाया जो स्वयं उस परमेश्वर का ही है । आध्यात्मिक ज्ञान की उपेक्षा व्यक्ति में पाप का संचार करती है,आध्यात्मिक ज्ञान की निंदा व्यक्ति के पुण्यों को क्षीण करती है और आध्यात्मिक ज्ञान को मन लगाके सुनने से व्यक्ति पर परमात्मा खुश होने लगता है ।
क्यूंकि आध्यात्मिक मार्ग ही एकमात्र मार्ग है परमात्मा प्राप्ति का और ध्यान से अधिक महत्त्वपूर्ण इसमें कुछ भी नहीं ।
हम जो भजन,प्राथना भी करते हैं वो भी ध्यान का ही एक रूप है क्यूंकि उसमे भी हम अपने मन,बुद्धि से ऊपर उठ चुके होते हैं ।
हम जानते हैं ध्यानयोग को सांख्य व योग दोनों से ही कर सकते हैं और अलग अलग भी । सांख्य में व्यक्ति को किसी आसन,प्राणायाम की ज़रूरत नहीं रहती उसे बस अपने विवेक को,प्रज्ञा को ,समझ को ही महत्व देना होता है और जाग्रत करना होता है ।
पिछली पोस्ट में मैंने सांख्य का ज़िक्र किया था ये पूरी पोस्ट सांख्य की ही है । पिछली पोस्ट में मैंने सांख्य का ज़िक्र करते समय होश का ज़िक्र किया था उसे समझना अत्यंत आवश्यक है ।
हम अभी जो जीवन जी रहे हैं वो मूर्छित अवस्था में जी रहे हैं अथार्त हमे मालूम नहीं चलता कब हममे विकार(काम,क्रोध,लोभ,हिंसा) आ जाते हैं और परिणामतः हमे दुःख ही मिलता है,हम राग-द्वेष में ही जीवन व्यतीत कर देते हैं । होश का अर्थ है की हम ऐसी अवस्था में पहुँच जाएँ जहाँ जैसे ही हमारे में कोई विकार उठे हम उसे पकड़ सकें,हम ये जान सकें की हाँ अभी मुझमे क्रोध उठा,अभी मुझमे लोभ उठा और ऐसी स्थिति में व्यक्ति इन विकारों से बंधता नहीं और परिणामतः वो सम(आनंद का धाम) ही रहता है । और इस स्थिति में व्यक्ति तभी पहुँच सकता है जब उसका चित्त निरुद्ध हो,मन तथा बुद्धि से पार हो ।
दूसरा सांख्य में ये बहुत आवश्यक है की हम भूत,भविष्य की जगह वर्तमान को महत्त्व दे अथार्त अहंकार और लोभ से बचें ।
अहंकार हमे भूत काल की तरफ ले जाता है की हमने ये किया ये पाया और लोभ हमे भविष्य में फ़साये रखता है की ये करना है वो करना है परिणामतः व्यक्ति वर्तमान को हमेशा भूला रहता है । हम हमेशा बहुत जल्दी में रहते हैं, एक काम किया नहीं की दूसरा उठा लेते हैं । एक विचार पूरा हुआ नहीं की दूसरे में लग जाते हैं और बस इसी भागदौड़ में पूरी ज़िन्दगी बिता देते हैं और हमे ये मालूम ही नहीं चल पाता की ज़िन्दगी का नाम तो रुकना था,ठहरना था वर्तमान को महसूस करना वर्तमान का ही आनंद लेना था ।
व्यक्ति को विचारशून्यता और कामनाशून्यता ये दो मंत्र समझने चाहिए स्वयं को वर्तमान में स्थित होने के लिए ।