ध्यान योग की पिछली पोस्ट जो की सांख्य द्वारा ध्यान पर आधारित थी(ध्यानयोग 9) पर योग द्वारा ध्यान पर अगली पोस्ट के लिए कहा गया था ।
थोडा योग शब्द को और स्पष्ट कर दूँ की इसका अर्थ होता है जोड़ना अथार्त जीव
को शिव की प्राप्ति अथार्त आत्मा का परमात्मा,परमात्म तत्व से साक्षात्कार ।
यहाँ फिर ये प्रश्न आ जाता है की फिर साँख्य द्वारा ध्यान में भी तो जीव
परमात्मा को ही,परमात्म तत्व से ही जुड़ता है फिर दुबारा योग कहने की क्या
आवश्यकता ?
यानी साँख्य ध्यान व योग ध्यान में शाब्दिक व मौलिक अंतर क्या है ?
इस पर फिर से स्पष्ट कर देना चाहता हूँ की दोनों साधन वस्तुतः परमात्म
प्राप्ति के लिए हैं अंतर सिर्फ करण का है करण अथार्त ज्ञानेन्द्रियाँ व
कर्मेन्द्रियाँ ।
एक करण निरपेक्ष है और एक करण सापेक्ष है ।
करण निरपेक्ष जिसमे करण की आवश्यकता नहीं यानी सांख्य द्वारा ध्यान में हम मात्र श्रवण द्वारा ध्यान को उपलब्ध हो जाते हैं ।
दूसरा करण सापेक्ष यानी योग द्वारा जिसमे हम अपने कर्मेन्द्रियों व
ज्ञानेन्द्रियों का उपयोग करके ध्यान को और फिर समाधि को उपलब्ध होते हैं ।
दोनों साधनाओं में मूल अंतर सिर्फ ये है की सांख्य में हम अपने ज्ञान को और
वैराग्य को इतना बढ़ा लेते हैं की फिर स्वयं ही ध्यान रूप हो जाते हैं और
योग में हम धीरे धीरे व संयम से अपनी इन्द्रियों को और मन,बुद्धि को साधते
हुए व प्राणों को निश्चित आसनों द्वारा आयाम देते हुए ध्यान को प्राप्त
होते हैं ।
एक बार बहुत गौर करने की है और वो ये की दोनों ही साधनाओं में करण का उपयोग
भले कम ज्यादा मगर होता ही है परन्तु ध्यान तक पहुँचते पहुँचते दोनों ही
साधनाएं करण निरपेक्ष हो जाती हैं यानी वहां किसी भी करण चाहे
कर्मेन्द्रियाँ हों,ज्ञानेन्द्रियाँ हों,मन,बुद्धि,चित्त व अहंकार
(अंतःकरण) हों इनमे से कुछ भी नहीं रह जाता ।
हम जानते हैंआष्टागिक योग के आठ चरण हैं ।
यम नियम आसन प्राणयाम प्रत्याहार ध्यान धारणा समाधि ।
इनके बारें में विस्तार से लिखा गया है ।
गंभीरता से समझने वाली बात ये है की ध्यान को हम जितना तनाव पूर्ण ढंग से लेंगे ये उतना ही कठिन हो जायेगा ।
वास्तव में ध्यान से आसान कुछ भी नहीं है और इसका इतना आसान होना ही इसे मुश्किल बना देता है ।
जैसे किसी बड़े से कहें हम की बच्चे की भाँति हो जाएँ तो ये आसान होते हुए
भी कठिन हो जाता है क्यूंकि बच्चे जैसा होने के लिए हममे वैसा ही
सरलपन,मासूमियत,भोलापन होना चाहिए जो की देखा जाए तो बहुत आसान है किन्तु
हमने स्वयं को राग द्वेष में इतना बाँध दिया है की हम कभी सोच भी नहीं पाते
की बचपन में हम कैसे थे ।
हम सभी बचपन में इतने सरल थे की कभी ये सोच भी नहीं पाते थे की बचपन के इलावा भी कुछ दुनिया होती है ।
धन,पद,प्रतिष्ठा,मान,सम्मान से दूर,छल,प्रपंच की अंधाधुंध दौड़ और किसी भी
प्रकार स्वयं को आगे रखने से बिलकुल अलग और अनोखा जहाँ होता है बचपन का और
बस यही स्थितियाँ चाहिए होती हैं ध्यान के लिए।
तो ध्यान में हमे बिना तनाव के और ये सोच के जाना होता है की मैं कुछ करने नहीं जा रहा हूँ ।
ध्यान में वो सबकुछ छोड़ना होता है जो भी हम पकडे हुए हैं ।
ध्यान में वो सब कुछ छोड़ना होता है जो भी हम सीखे हुए हैं,पढ़े हुए हैं ।
खाली स्लेट की भाँती होके ही ध्यान में व्यक्ति जा सकता है वहां कुछ भी लिखा हुआ अवरोध उत्पन्न कर देगा ।
ध्यान में हमे बिलकुल खाली हाथ जाना होता है,जो भी हमे संसार से मिला है वो
सब छोड़कर हमे ध्यान में जाना होता है सांसारिक बुद्धि लेके आज तक कोई
भी ध्यान को उपलब्ध नहीं हो सका है ।
या ये कहें तो और उपयुक्त होगा की सांसारिक बुद्धि से परे हो जाना ही ध्यान है ।
ध्यान परमात्म तत्व के साक्षात्कार का,परमात्मा को जाने का पहला द्वार है
और उस द्वार तक हम तभी पहुँच सकते हैं जब सहज रहें और सांसारिक बुद्धि से
परे हो जाना ही सहजता है ।
जैसे ही हम बिना दिखावे के होते हैं,सहज होते हैं ध्यान में प्रवेश कर जाते हैं ।