Thursday, 19 July 2012

चिंतन 3

टी.वी पर राजेश खन्ना जी  के देहावसान के  में देख सुन रहा था ।  भगवान उनकी आत्मा को शांति और सद्गति प्रदान करे ।
मौत को लेके अभी कुछ ख्याल उभरे तो कुछ लिखा सोचा उसे यहाँ भी शेयर करूँ ।

 
मौत कभी होती नहीं ज़िन्दगी कभी जाती नहीं 
ज़िन्दगी है एक लहर और लहर कभी खोती  नहीं 

आती जाती हवाएं कहती हैं यही बातें 
आते जाते मौसम यही हमको सुनाते 

ज़िन्दगी में कभी कुछ भी बीतता नहीं 
बीता हुआ कुछ भी ज़िन्दगी रखती नहीं 


मौत कभी होती नहीं ज़िन्दगी कभी जाती नहीं 


मरने का शब्द ही झूठा है और ग़लत है 
ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी की होती मतलब है 

खिज़ा का रंग बहार पर कभी चढ़ता नहीं 
ज़िन्दगी कभी धुंधलापन ढोती नहीं 

मौत कभी होती नहीं ज़िन्दगी कभी जाती नहीं 


जीवन यात्रा में जिस्म ऐसा है जैसे 
दिन और रात के लिए आसमान जैसे 

नदी का पानी कभी भी सड़ता नहीं 
जीवन यात्रा कभी कहीं थमती नहीं  

मौत कभी होती नहीं ज़िन्दगी कभी जाती नहीं 









हम मौत को लेके जानते नहीं की क्या क्या सोचते हैं

जी हाँ, मैं फिर से दोहरा रहा हूँ की हममें से अधिकतर लोग ऐसे हैं जिन्हें ये नहीं मालूम की वो मौत को लेके क्या सोचते हैं कुछ बहुत डरे रहते हैं,कुछ मौत पर बात ही नहीं करना चाहते?
कुछ तो मौत के बारें में सोच भी नहीं पाते
। यहाँ तक की जब आसपास का कोई मरता है तो उन्हें एकबारगी झटका सा
लगता है और फिर वो अपनी उसी मूर्छित दुनिया में लौट जाते हैं जहाँ मौत को सभी भूले रहते हैं

लेकिन ये तो ऊपरी बात हो गयी अंदरूनी बात थोड़ी और है और उसे समझने की ज़रूरत है तब जाके हमे पता चलता है की हम कितने सघन मूर्छा की दुनिया में रहते हैं

बात ये है की हम दूसरे के मौत पर जब आंसू बहाते हैं या दुखित होते हैं तो हम उस समय इस बात से भी दुखित रहते हैं की हम स्वयं भी कभी न कभी मरेंगे

अपने जीवन की भाग दौड़ में हम इस सत्य को भूल जाते हैं की हमे मरना होगा और जब कोई मरता है तो हमे झटका लगता है की अरे ये क्या ?थोडा सा विवेक जाग्रत होता है,मन कहता है नहीं सिर्फ जानवरों की तरह जीना कोई जीना नहीं
। नहीं सिर्फ धन मान रिश्ते-नाते दोस्त पद-प्रतिष्ठा के लिए ये जीवन नहीं मिला । लेकिन वाह री बुद्धि वाह री किस्मत भला हम दिमाग पर दिल की क्यूँ चलने दें परिणामतः हम फिर उसी जंगल में चले जाते हैं और पशुवत जीवन जीने लगते हैं
परन्तु प्रश्न ये भी है की हम मौत को मौत मान क्यूँ लेते हैं ? मौत सत्य नहीं है सत्यता चेतन तत्व है । सत्य तो जीवन है
प्रस्तुत कविता में कवि यही कहना चाह रहा है की जीवन कभी ख़त्म ही नहीं होता फिर मौत कैसे और किसकी ?
जिसे हम मौत कहते हैं वो तो मात्र एक पड़ाव है उस यात्री का जिसे अब अपने सफ़र का दूसरा मुकाम तय करना है

इसके बाद जीवन को लहर बताया गया और कह रहा है की लहर अगर स्वयं को नष्ट हुआ मान ले तो ये उसका अज्ञान है क्यूंकि वो तो वस्तुतः समुद्र से ही है और इसलिए लहर कभी ख़त्म नहीं होती,कभी नहीं खोती
। वो सदैव समुद्र में विद्यमान है अथार्त आत्मा हमेशा ही परमात्मा में विद्यमान है,सदैव अमर है
फिर आखिरी में जो कहा गया की नदी का पानी कभी सड़ता नहीं,कविता का यही सार तत्व है


सरोवर का पानी मरता है,सड़ता है क्यूंकि वो ठहरा हुआ है
। हमे मालुम नहीं चल पाता लेकिन 90 %
व्यक्ति इसलिए दुखी होता है क्यूंकि वो सरोवर बन गया
। उसे ये मालूम ही नहीं चल पाता की वो नदी है,कभी सड़ नहीं सकता लेकिन अपने को सरोवर मानके वो स्वयं को दुर्गन्ध में डाल देता है अथार्त स्वयं को दुःख में डाल देता है

इसे गौर से समझिये की जो बीत गया है वो बह चुका है उसे पकड़ना ही नासमझी है

नदी कभी किसी मैदान से अच्छे से बहती है,कहीं पर पथ ऐसा दुर्गम होता है की वो टेड़ी मेडी होके बहती है लेकिन यदि वो अपने को इस उतार चढ़ाव,इस सुख दुःख के साथ बाँध ले तो फिर नदी न रह जाएगी

सरोवर हो जायेगी,सड़ने लगेगी इसी तरह हमे भी ज़िन्दगी के साथ बहना होता है उसी में सच्चा आनंद है परन्तु हमारी पकड़ हमे कमज़ोर बनाती है
। बीता हुआ कल बीता हुआ वर्तमान है और वो बीत चुका है उसे पकड़ना ही हमारे दुःख का कारण है और यही नहीं हमे जीवन के सार तत्व तक न पहुँचने देने की सबसे बड़ी रुकावटों में ये भी एक कारण निहित है
असल में बीता हुआ समय ही मरता है उसमे बीते सारे लम्हे मरते हैं और हम अपनी चेतनता को,अपने जीवन की चेतनता को अपने बीते हुए जीवन वो अच्छा हो खराब हो परन्तु जड़ता से जोड़ के देखते हैं

ये एक बहुत बड़ा कारण है हमारे जीवन में हमे मौत से डर लगने का,मौत के आगे झुकने का,जीवन के मधुर,अलौकिक,अमर संगीत से वंचित होने का

अब ध्यान दीजिये यही बात भविष्य के साथ भी लागू हो सकती है यदि हम वैसे ही प्रभात की अपेक्षा जैसा आज था कल के सूरज से भी करें तो फिर से ग़लत हो जायेंगे,फिर से सरोवर का,सड़ने वाले पानी बीज बोने लगेंगे

जो आज सुबह बीती बढ़िया थी लेकिन कल भी वैसी रहे तो इसका मतलब हमने प्रकृति को सिमित कर डाला
। प्रकृति से अच्छी कला,सोच और प्रकृति से अच्छा कार्य कोई कर ही नहीं सकता और प्रकृति हमेशा ही बीते हुए से अच्छा ही करती है वो अलग बात है हम समझ न पायें
इसलिए यदि हम उसके कृत्य का आनंद नहीं ले सकते तो हमे उसके कृत्य पर दुखी भी नहीं होना चाहिए

इस बात के अलावा ये भी समझना आवश्यक  है की हम जैसा अपने भूतकाल को लेते हैं हम वैसा  ही  अपने भविष्यकाल के बारें में सोचने लगते हैं यानी यदि हम भूतकाल से दुःख महसूस करते हैं तो हम वैसा ही अपने भविष्यकाल में भी पायेंगे


इसके साथ साथ हम भूतकाल और भविष्यकाल में बंधे रहने के कारण अपने वर्तमान को जी ही नहीं पाते और वर्तमान में जीना ही जीना है,नदी को नदी की तरह ही बहना चाहिए क्यूंकि वोही सहजता है वो हो नदी को प्रकृति की देन है