Thursday, 23 June 2011

Saankhyayog

सांख्ययोग 
अध्याय २ 

Chapter 2 

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥

Just as in the physical body of the embodied being is the process of childhood,youth and old age;
similarly by the transmigration from one body to another the wise are never deluded.


अर्थ: जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।13॥ 



भावार्थ : यहाँ भगवान् कह रहे हैं की आत्मा हमारा स्वरुप है। शरीर नहीं शरीर के साथ सम्बन्ध मानने से ही हममें मोह और अज्ञान आता है और हम अज्ञानवश दुखी होते हैं। परन्तु जब हम अपने स्वरुप में विद्यमान रहते हैं तब शरीर के प्रति मोह नहीं रहता और आत्मा की शाश्वतता को अनुभव करते हुए हम कर्म करते हैं,निर्लिप्त रहते हैं।



मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥



 O Arjuna, only the interaction of the senses and sense objects give cold,heat,pleasure and pain.These things are temporary,appearing and disappearing; therefore try to tolerate them.


अर्थ: हे कुंतीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर॥14॥



भावार्थ  : यहाँ परमेश्वर कह रहे हैं इन्द्रिय व इनके विषय तथा मन बुध्ही सब ही अनित्य हैं, विनाशशील हैं चूँकि ये आरम्भ होते हैं अतः इनका अंत भी होना होता है और होता है। आत्मा इस शरीर में रहते हुए अपने प्रारब्ध को भोगती है इसलिए स्वाभाविक है की सुख दुःख मिलेंगे ही इसलिए व्यक्ति को उन्हें सहना चाहिए अथार्त उनके प्रति उदासीन रहना चाहिए क्यूंकि अनित्य की सत्ता हो ही नहीं सकती । 



यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥

 O noblest of men,that person of wise judgement equipoised in hapiness and distress,whom can not be disturbed by these is certainly eligible for liberation.



अर्थ : क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है॥15॥ 
 भावार्थ :  यहाँ परमात्मा व्यक्तियों पर अति विशेष कृपा करते हुए अति गूढ़ रहस्य भी उजागर कर देते हैं। जीवन का सारगर्भित तत्त्व बताते हुए वो इस्पष्ट कर देते हैं की इन्द्रियां और उनके विषय ही व्यक्ति को मोक्ष अथार्त परम शांति व परमपद से दूर रखते हैं क्यूंकि ये व्यक्ति को मोहित रखते हैं और सदा ही पतन की तरफ ले जाते हैं।  पतन की तरफ ले जाने का तात्पर्य यही है की वो व्यक्ति को उसके स्वरुप का भान नहीं होने देते हैं और व्यक्ति उन्हें ही सबकुछ समझकर स्वयं को शरीर मान कर अपने अविनाशी स्वरुप को भुला बैठता है और इस तरह से जो की उसका उद्देश्य था परमात्मा उसे भुला कर अपने ही अधीन रहने वाले और कई समय से मूर्ख बनाने वाले मन बुध्ही से प्रेरित इन्द्रियों के विषयों से व्याकुल होकर इनमे सुख है ऐसा मान निरंतर अधोगति को प्राप्त होता है । परन्तु जब वो अपने स्वरुप को जा जाता है परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है और तब वो सुख दुःख को समान समझता है और उनसे विचलित या व्याकुल नहीं होता ।

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