तत्वज्ञान आध्यात्मिक द्रष्टिकोण से दुर्लभ और सुलभ दोनों है ।
विवेक को महत्व देने से तथा इन्द्रियों को अभ्यास और वैराग्य से नियंत्रित करके ज्ञानयोगी साधना पथ पर चलता है ।
वहीँ शरीर इन्द्रिय मन बुद्धि साधन हैं व इनसे संसार की सेवा में लगाना ही साधना है कर्मयोग के अंतर्गत आता है ।
व सबकुछ (सत असत ) ईश्वर है इस तरह एक ईश्वर की सत्ता की प्रधानता भक्तियोग में होती है ।
इनमे से किसी भी पथ पर चलने पर साधक को परमात्मप्राप्ति होती है ।
परन्तु तीनो मार्गों कर्मयोग ज्ञानयोग व भक्तियोग में साधक को इन्द्रियां उनके विषय,मन व बुद्धि को वश में करके ही अपने साधना पथ पर आगे बढ़ना होता है अन्यथा कभी भी वो अपने मार्ग से च्युत हो सकता है ।
साधक के लिए निस्संदेह ये सबसे बड़े अवरोधक है क्यूंकि इन्ही से कामना प्रकट होती है जो साधक को अज्ञान व अविधा के अन्धकार के उन्मुख कराती है ।
मन और इन्द्रिय के निग्रह से ये सुलभ हैं और निग्रह न होने से दुर्लभ हैं ।
गीता में भगवान् ने अर्जुन को यही कहा -
तीसरा अध्याय
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है॥36॥॥
श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥
भावार्थ : श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान॥37॥
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥
भावार्थ : जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँका रहता है॥38॥
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥
भावार्थ : और हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम रूप ज्ञानियों के नित्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है॥39॥
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥
भावार्थ : इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है। ॥40॥
तीसरे अध्याय में ३४वें श्लोक में भी भगवान् ने येही बताया
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥
भावार्थ : इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान् शत्रु हैं॥34॥
रामायण में भी ज्ञान रुपी दीपक के बुझने पर चेताते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं
जैसे ही व्यक्ति अपने को ज्ञानयोग में स्थित करके ज्ञान रुपी उजाले द्वारा अज्ञान रुपी अँधेरा मिटाना चाहता है उसे उसकी इन्द्रियां अपने अपने विषय की तरफ खींचती है इस तरह से विषय रुपी हवा से ज्ञान रुपी दीपक बुझ जाता है और जीव अज्ञान और अविद्धा रुपी अन्धकार में ही रह जाता है ।
उत्तरकाण्ड -
इंद्री द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना॥
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देहिं कपाट उघारी॥6॥
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देहिं कपाट उघारी॥6॥
भावार्थ:-इंद्रियों के द्वार हृदय रूपी घर के अनेकों झरोखे हैं। वहाँ-वहाँ (प्रत्येक झरोखे पर) देवता थाना किए (अड्डा जमाकर) बैठे हैं। ज्यों ही वे विषय रूपी हवा को आते देखते हैं, त्यों ही हठपूर्वक किवाड़ खोल देते हैं॥6॥
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई॥
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा॥7॥
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा॥7॥
भावार्थ:-सज्यों ही वह तेज हवा हृदय रूपी घर में जाती है, त्यों ही वह विज्ञान रूपी दीपक बुझ जाता है। गाँठ भी नहीं छूटी और वह (आत्मानुभव रूप) प्रकाश भी मिट गया। विषय रूपी हवा से बुद्धि व्याकुल हो गई (सारा किया-कराया चौपट हो गया)॥7॥
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई॥
बिषय समीर बुद्धि कत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी॥8॥
बिषय समीर बुद्धि कत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी॥8॥
भावार्थ:-इंद्रियों और उनके देवताओं को ज्ञान (स्वाभाविक ही) नहीं सुहाता, क्योंकि उनकी विषय-भोगों में सदा ही प्रीति रहती है और बुद्धि को भी विषय रूपी हवा ने बावली बना दिया। तब फिर (दोबारा) उस ज्ञान दीप को उसी प्रकार से कौन जलावे?॥8॥
यहाँ दो प्रश्न सहज उठते हैं की इन्द्रियां व विषय क्या होते हैं ?
और देवता तो हित करते हैं फिर ये जीव को विषयों की तरफ उन्मुख कराके जीव का अहित क्यूँ करते हैं ?
प्रत्येक जीव को प्रकृति द्वारा पांच ज्ञानेन्द्रिय व पांच कर्मेन्द्रिया मिली है व इनके विषय व इनमे रहने वाले देवता समेत ये निम्नलिखित है :
इन्द्रिय विषय देवता
(ज्ञानेन्द्रियाँ )
१. श्रवण शब्द दिशा
२. त्वचा स्पर्श वायु
३. चक्षु रूप प्रणेता,सूर्य
४. जिह्वा रस वरुण
५. नासिका गंध अश्विनीकुमार
(कर्मेन्द्रियाँ )
६. वाणी भाषण अग्नि
७. पैर गमन यज्ञविष्णु
८. हाथ ग्रहण इन्द्र
९. गुदा मलत्याग मित्र,यम
१०. उपस्थ मूत्रत्याग प्रजापति
दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न की इन्द्रियों के देवता जीव को विषय की ओर क्यूँ उन्मुख कराते हैं अथवा क्यूँ जीव के ज्ञान प्राप्ति में बाधक हैं ?
देवता बाह्य रूप व आतंरिक रूप दोनों से विद्यमान हैं बाह्य रूप जैसे सूर्य,अग्नि दिशा आदि देवता बाह्य जगत में पूजनीय हैं व हम इंसानों द्वारा किए जाने वाले पूजन,यज्ञ आदि में ये अपना भोग पाते हैं व हमे(जीव) आशीर्वाद देते हैं तथा धन मान आदि की प्राप्ति कराते हैं । सामान्यतः जीव ज्यादा से ज्यादा स्वर्ग प्राप्त करता है तथा उसके बाद(पुण्यफल के समाप्त होने के बाद ) फिर मनुष्यलोक में आ जाता है ।
प्रभु का विधान है की जैसे पशु हम इंसानों के लिए हमारे कार्य हेतु है उसी तरह हम इंसान भी देवताओं के कार्य हेतु ही इस लोक और परलोक के लिए हैं ।
परन्तु आतंरिक या आभ्यांतर रूप से भी देवता उपरोक्त वर्णनानुसार जीव में रहते हैं और वहां वो अपना भोग विषय द्वारा इन्द्रियों से प्राप्त करते हैं परन्तु जीव द्वारा ज्ञान पथ पर चलने से अथार्त इन्द्रियों के निग्रह करने पर
उन्हें अपना भोग नहीं मिलता इसलिए वो यत्न करते हैं की जीव विषयों से विमुख न हो ।
देवता भी मायाधीन होते हैं व जीव का ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना उन्हें रुचिकर नहीं लगता क्यूंकि ज्ञान के द्वारा मोक्ष या भक्ति किसी भी पथ पर जीव के सफल रहने से वो परमात्मप्राप्ति कर लेता है और फिर स्वर्ग से ऊंचा अथार्त प्रभु का परमपद प्राप्त कर लेता है जहाँ से वापस नहीं आना पड़ता या फिर भेद्भक्ति के अनुसार यदि जीवन लेता है तो भी परमात्मप्राप्ति कर चुकने के कारण माया व देवताओं के अधीन उसे नहीं होना पड़ता ।
व्यक्ति इन्द्रियों व उनके विषयों में पड़कर तमोगुणी होता जाता है व अपने सहज स्वरुप (जीव आत्मा है जो की अविनाशी व अविकारी है ) से दूर होता जाता है जीव जाने अनजाने विभिन्न तरह के मानस रोगों से व्याप्त हो जाता है ।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने मानस रोगों पर लिखा है -
उत्तरकाण्ड -
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥15॥
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥15॥
भावार्थ:-सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है॥15॥
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना॥16॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना॥16॥
भावार्थ:-यदि कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ) प्रीति कर लें (मिल जाएँ), तो दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है। कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होने वाले जो विषयों के मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) हैं, उनके नाम कौन जानता है (अर्थात् वे अपार हैं)॥16॥
चौपाई :
ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥17॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥17॥
भावार्थ:-ममता दाद है, ईर्षा (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले के रोगों की अधिकता है (गलगंड, कण्ठमाला या घेघा आदि रोग हैं), पराए सुख को देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है। दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ़ है॥17॥
अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी॥18॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी॥18॥
भावार्थ:-अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला डमरू (गाँठ का) रोग है। दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदर वृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं॥18॥
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका॥19॥
भावार्थ:-मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं। इस प्रकार अनेकों बुरे रोग हैं, जिन्हें कहाँ तक कहूँ॥19॥
दोहा :
एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥121 क॥
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥121 क॥
भावार्थ:-एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत से असाध्य रोग हैं। ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शांति) को कैसे प्राप्त करे?॥121 (क)॥
मूल प्रश्न या मुद्दा येही है की मन बुद्धि का निग्रह कैसे हो जिससे व्यक्ति की इन्द्रिय व उनके विषयों में रूचि न जगे।
तीसरा अध्याय
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु हे कुंतीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है॥35॥
अभ्यास से तात्पर्य येही है की निरंतर ध्यान व विचार द्वारा मन को विषयों से हटके परमात्मा में लगाता रहे व वैराग्य से तात्पर्य येही की सदैव इस बात का मनन करते रहे की संसार असत है व समाप्त होने वाला है अतः इसमें सुख ढूंढना या मानना मूर्खता है क्यूंकि जीव का स्वरुप अविनाशी व अविकारी है तथा कभी न समाप्त होने वाला है ।
इसके साथ ही भगवान् ये भी बताते हैं की मन,बुद्धि आत्मा से ही प्रकाशित होते हैं अतः ये आत्मज्ञान जीव हमेशा जाग्रत रखे ।
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥
भावार्थ : इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है॥42॥
एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥
भावार्थ : इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप(कामनारूप ) दुर्जय शत्रु को मार डाल(वश में कर )॥43॥
पुनः पांचवे अध्याय में भगवान् कहते हैं
पुनः पांचवे अध्याय में भगवान् कहते हैं
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥
भावार्थ : अन्तःकरण जिसके वश में है, ऐसा सांख्य योग का आचरण करने वाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीर रूप घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर आनंदपूर्वक सच्चिदानंदघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है॥13॥
यहाँ भगवान् येही कह रहे हैं की जीवात्मा इस शरीर को अपना स्वरुप नहीं कुछ काल के लिए मिला हुआ घर माने व इसी तरह से रहे की इस शरीर को उसे त्यागना ही है । विषय व्यक्ति को अपने में आकर्षित कर लेते हैं व व्यक्ति (जीव ) उनमे आसक्त होके नए संकल्प करने लगता है । जैसे सुगंध नासिका को या फिर खाने की अथवा रस(भोजन इत्यादि ) की आसक्ति जिह्वा के द्वारा मन को अपने में आसक्त कर लेती है फिर जीव सिर्फ भोजन में ही आनंद लेने लगता है और इस तरह निद्रा,आलस्य आदि पाके तमोगुणी होता जाता है साथ ही उसका स्वयं पर से नियंत्रण कम होता जाता है व वो अपनी इन्द्रियां तथा उनके विषयों का ही गुलाम सा हो जाता है । इसी तरह रूप व शब्द(विषय) के द्वारा भी जीव चक्षु व कान(इन्द्रियाँ) के द्वारा इनमे ऐसा आसक्त होता है की इनमे ही आनंद है समझता है और इस तरह से विषय जीव को अपने में ही लगाये रहते हैं ।भगवान् ने बताया की शरीर रुपी घर के नव द्वार (आँख,नासिकादी ) हैं इनसे होने वाले आवश्यक कर्मों को करते हुए भी मन से उनके प्रति संकल्प न करे जिसके बारें में आगे के श्लोक में भी कहते हैं ।
६ वें अध्याय में भी ध्यान व योग द्वारा मन के निग्रह को बताते हैं
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥
भावार्थ : संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेष रूप से त्यागकर और मन द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभाँति रोककर॥24॥
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥
भावार्थ : क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे॥25॥
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥
भावार्थ : यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे॥26॥
गोस्वामी जी ने भी वैराग्य की प्रधानता बताई है:
जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई। जब उर बल बिराग अधिकाई॥
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई॥5॥
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई॥5॥
भावार्थ:-हे गोसाईं! मन को निरोग हुआ तब जानना चाहिए, जब हृदय में वैराग्य का बल बढ़ जाए, उत्तम बुद्धि रूपी भूख नित नई बढ़ती रहे और विषयों की आसक्ति रूपी दुर्बलता मिट जाए॥5॥
इसके साथ ही साथ वो भजन महिमा का गुणगान करते हुए कहते हैं :
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥4॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥4॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो ये मानस रोग भले ही नष्ट हो जाएँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते॥4॥
मानस रोग जीव को उपासना के वक़्त भी दुःख व ग्लानी उत्पन्न करते हैं जिससे जीव का मन भगवतचिंतन के समय विषयों में चला जाता है या फिर स्वयं को वो प्रभु उपासना के योग्य नहीं समझता क्यूंकि तमोगुण में विद्यमान हो वो अपने को शरीर मानकर मन बुद्धि जो की जड़ हैं उन्हें चेतन व अपना स्वरुप समझता है व इस तरह दुखी व अज्ञान के कारण होके उपासना के वक़्त उपासना नहीं कर पाता और ऐसा करने के कारण साधन को साधना समझते हुए तत्वज्ञान न होने के कारण प्रभुकृपा व प्रभुप्रेम का आनंद नहीं उठा पाता ।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने प्रभुप्रेम व भक्ति रुपी नदी का जल जो की ज्ञान वैराग्य से परिपूर्ण है समस्त तापों व मानसिक क्लेशों को हरने वाला तथा परमानन्द देने वाला बताया है ।
बालकाण्ड-
राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी॥
भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥2॥
भावार्थ:-यह जल श्री रामचंद्रजी के सुंदर प्रेम को पुष्ट करता है, कलियुग के समस्त पापों और उनसे होने वाली ग्लानि को हर लेता है। (संसार के जन्म-मृत्यु रूप) श्रम को सोख लेता है, संतोष को भी संतुष्ट करता है और पाप, दरिद्रता और दोषों को नष्ट कर देता है॥2॥
काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥3॥
भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥2॥
भावार्थ:-यह जल श्री रामचंद्रजी के सुंदर प्रेम को पुष्ट करता है, कलियुग के समस्त पापों और उनसे होने वाली ग्लानि को हर लेता है। (संसार के जन्म-मृत्यु रूप) श्रम को सोख लेता है, संतोष को भी संतुष्ट करता है और पाप, दरिद्रता और दोषों को नष्ट कर देता है॥2॥
काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥3॥
भावार्थ:-यह जल काम, क्रोध, मद और मोह का नाश करने वाला और निर्मल ज्ञान और वैराग्य को बढ़ाने वाला है। इसमें आदरपूर्वक स्नान करने से और इसे पीने से हृदय में रहने वाले सब पाप-ताप मिट जाते हैं॥3॥
भागवत महापुराण के अनुसार भक्ति ज्ञान वैराग्य की जननी है अथार्त निष्काम भक्ति से भी ज्ञान वैराग्य की प्राप्ति होती है ।
इस तरह से आत्मा की प्रधानता व अभ्यास तथा वैराग्य से व्यक्ति मन,बुद्धि को वश में कर सकता है तथा इन्द्रियों व उनके विषयों से विमुख होके सफलतापूर्वक साधन पथ पर चल सकता है ।
आध्यात्म को प्रशस्त करता आलेख ...
ReplyDeleteसार्थक चिंतन ।
ReplyDeleteगहन अध्यात्म की सरल प्रस्तुति.....जीवन के लिए बहुमूल्य
ReplyDeleteसुंदर सार्थक सटीक पोस्ट,..बधाई ...!!!!!!!!!!!
ReplyDeleteगहन विवेचन ...सुंदर विचार
ReplyDeleteअनमोल वचन!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर विवेचना की है आपने |
ReplyDeleteपरन्तु - सबसे सुगम मार्ग है भक्ति और प्रेम का मार्ग | ज्ञान मार्ग बड़ा दुर्गम है - बड़े घुमाव हैं, पुष्पित अलंकारि भाषा है | मन का मार्ग सीधे प्रभु तक ले जाता है |
आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा दिनांक 05-12-2011 को सोमवारीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ
ReplyDeleteshilpa mehta has left a new comment on your post "ज्ञान वैराग्य व अभ्यास द्वारा आत्म-संयम":
ReplyDeleteबहुत सुन्दर विवेचना की है आपने |
परन्तु - सबसे सुगम मार्ग है भक्ति और प्रेम का मार्ग | ज्ञान मार्ग बड़ा दुर्गम है - बड़े घुमाव हैं, पुष्पित अलंकारि भाषा है | मन का मार्ग सीधे प्रभु तक ले जाता है |