Wednesday, 21 December 2011

भगवान के साकार व निराकार रूप

भगवान अथार्त ब्रह्म परमात्मा परमेश्वर निराकार है या साकार है । इस पर हमेशा से ही भिन्न भिन्न विचार लोग रखते आये हैं व प्रायः विद्वान् जनो व भक्तों ने भी इस पर अपनी अपनी राय अपने अपने साधन व साधन की सफलता के अनुरूप दी है 
यहाँ ये समझना आवश्यक है की ये प्रभु की महान कृपा की उसने सभी को जिसने उसे जिस भी रूप में देखा और राय दी उसे मंडित किया अपने प्रिय भक्तों के विचारों के अनुसार करूणानिधि व भक्तवत्सल प्रभु ने प्रायः सभी रूपों में अपने को प्रदर्शित किया 
भगवान के लिए कुछ भी असंभव नहीं और वो तो वैसे भी सबकुछ है ही चाहे हम निराकार रूप को लें या साकार रूप को लें 

परन्तु भगवान क्या साकार व निराकार के अतिरिक्त भी कुछ हो सकते हैं तो जहाँ तक इंसान सोच सकता है भगवान वहां तक हो सकते हैं चाहे वो सगुण साकार की बात हो या निर्गुण निराकार या फिर दोनों का मिश्रित रूप 


प्राकृतिक मन बुद्धि इन्द्रियों के द्वारा भगवान की विवेचना नहीं हो सकती क्यूंकि परमात्मा चेतन है सबका प्रकाशक है व मन बुद्धि इन्द्रियाँ जड़ हैं वस्तुतः परमेश्वर के लिए ये कहना की वो साकार ही है अथवा निराकार ही है तर्कसंगत नहीं क्यूंकि इस तरह से हम भगवान की क्षमता को कम आंकने लगते हैं क्यूंकि ये तो सर्वविदित है की प्रभु के लिए सब कुछ संभव है और बहुधा निराकार व साकार ब्रह्म के उपासक के साथ साथ  अन्य विद्वान् लोग भी भगवान की दोनों ही रूपों की पुष्टि करते हैं उनका खंडन नहीं 


किसी संत की प्रभु की प्रभुता के प्रति ये उदगार बहुत  सारगर्भित से हैं की भगवान एक अनंत अगाध समुद्र की भाँती है व हम इंसान प्रभु रुपी समुद्र की गहराई मापने के लिए अपने विचार रुपी छड़ी को समुद्र में डुबोते हैं व उसे उतना ही गहरा मानते हैं परन्तु प्रभु की  प्रभुता को थोडा भी जानने वाले ये मानते हैं की प्रभु अपरिमित असीमित हैं उनका समुचित वर्णन नहीं हो सकता 


हाँ साधना से मन बुद्धि को कर्मयोग भक्तियोग अथवा ज्ञानयोग में लगाकर ईश्वर की अनुकम्पा से ईश्वर को जाना जा सकता है क्यूंकि तब व्यक्ति (जीव) अपने स्वरुप आत्मा(चेतन)  में स्थित होगा 


रामचरितमानस में भी ऐसी शंका की राम निराकार परमात्मा हैं या राजा दशरथ के पुत्र  (साकार) जिसका  निराकरण भगवान शंकर ने किया है :


बालकाण्ड 




जेहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान।
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥118॥
अर्थ - जिसका वेद और पंडित इस प्रकार वर्णन करते हैं और मुनि जिसका ध्यान धरते हैं, वही दशरथनंदन, भक्तों के हितकारी, अयोध्या के स्वामी भगवान श्री रामचन्द्रजी हैं॥118॥

आगे बाललीला के समय वो कौशल्या जी को अपनी विराट महिमा भी दिखाते हैं साथ ही गोस्वामी जी ने कई बार स्पष्ट लिखा है 
बालकाण्ड 
ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।
भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥205॥
अर्थ:-जो व्यापक, अकल (निरवयव), इच्छारहित, अजन्मा और निर्गुण है तथा जिनका न नाम है न रूप, वही भगवान भक्तों के लिए नाना प्रकार के अनुपम (अलौकिक) चरित्र करते हैं॥205॥

भगवान शिव ने अगुन अथार्त निराकार व सगुण अथार्त साकार रूप जैसे गूढ़ सन्दर्भ को गोस्वामी जी के माध्यम से अतिसरल करते हुए निर्गुण व सगुण व दोनों की व्याख्या करते हुए कहा है ।
परन्तु इससे पहले उन्होंने श्रीराम अथार्त परमात्मा के स्वरुप को और स्पष्ट किया है की वो आत्मा के भी आत्मा तथा समस्त ब्रह्माण्ड के प्रकाशक है तथा जो माया जीव से ऊपर है व श्रीराम जी की कृपा से ही जिसका निस्तारण हो सकता है वो उस माया के भी स्वामी है अथार्त प्रकाशक हैं ।
बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥3॥
अर्थ:-विषय, इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के देवता और जीवात्मा- ये सब एक की सहायता से एक चेतन होते हैं। (अर्थात विषयों का प्रकाश इन्द्रियों से, इन्द्रियों का इन्द्रियों के देवताओं से और इन्द्रिय देवताओं का चेतन जीवात्मा से प्रकाश होता है।) इन सबका जो परम प्रकाशक है (अर्थात जिससे इन सबका प्रकाश होता है), वही अनादि ब्रह्म अयोध्या नरेश श्री रामचन्द्रजी हैं॥3॥
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥4॥
अर्थ:-यह जगत प्रकाश्य है और श्री रामचन्द्रजी इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य सी भासित होती है॥४
इस तरह से मानो उन्होंने ये स्पष्ट कर दिया की प्रभु को किसी भी परिभाषा में रखना प्रभु की सीमा को कम करना ही है क्यूंकि हो असीमित है जो अवर्णनीय है उसकी सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती। उसे थोड़े शब्दों में थोडा सा समझा जा सकता है परन्तु सारे धार्मिक ग्रंथों में की गयी प्रभु की महिमा मिला कर भी प्रभु का पूरा वर्णन नहीं किया जा सकता अपितु सबका सार ही येही है की प्रभु का सार नहीं पाया जा सकता ।

निर्गुण व्याख्या  

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥3॥

भावार्थ:-वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिव्हा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना ही वाणी के बहुत योग्य वक्ता है॥3॥

तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥4॥
भावार्थ:-वह बिना ही शरीर (त्वचा) के स्पर्श करता है, बिना ही आँखों के देखता है और बिना ही नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है (सूँघता है)। उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती॥4॥

सगुण व्याख्या 

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥1॥
अर्थ :-सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है- मुनि, पुराण, पण्डित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है॥1॥
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥2॥
अर्थ :-जो निर्गुण है वही सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले में भेद नहीं। (दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण एक ही हैं।) जिसका नाम भ्रम रूपी अंधकार के मिटाने के लिए सूर्य है, उसके लिए मोह का प्रसंग भी कैसे कहा जा सकता है?॥2॥

भगवान ने श्रीमद भगवद्गीता में भी कहा है :-

अध्याय ४ 
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः ।
अभ्युथानाम्धार्मस्य तदात्मानं स्रुज्याम्यहम ।।७ ।।

अर्थ :- जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अथार्त साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ ।
परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम ।
धर्म्संस्थाप्नाथार्य संभवामि युगे युगे ।।८।।

साधू पुरुषों का उद्धार करने के लिए पाप कर्म करने वालों का नाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना के लिए मैं युग युग में प्रकट हुआ करता हूँ ।
और वस्तुतः येही रामचरितमानस में गोस्वामी जी ने कहा है 
जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥3॥
अर्थ :- जब-जब धर्म का ह्रास होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं॥3॥
चौपाई :

करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥4॥
अर्थ :-और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गो, देवता और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब वे कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँति के (दिव्य) शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं॥4॥
दोहा :
असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥121॥
अर्थ :-वे असुरों को मारकर देवताओं को स्थापित करते हैं, अपने (श्वास रूप) वेदों की मर्यादा की रक्षा करते हैं और जगत में अपना निर्मल यश फैलाते हैं। श्री रामचन्द्रजी के अवतार का यह कारण है॥121॥

गोस्वामी तुलसीदास जी ने निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म से भी बढ़कर भगवान के नाम को बताया है और सगुण ब्रह्म व निर्गुण ब्रह्म को तत्वतः जानने के लिए नाम की ही शरण में साधकों को जाने को कहा है ।


ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥25॥
अर्थ :- इस प्रकार नाम (निर्गुण) ब्रह्म और (सगुण) राम दोनों से बड़ा है। यह वरदान देने वालों को भी वर देने वाला है। श्री शिवजी ने अपने हृदय में यह जानकर ही सौ करोड़ राम चरित्र में से इस 'राम' नाम को (साररूप से चुनकर) ग्रहण किया है॥25॥


5 comments:

  1. वाह! अति सुन्दर,सारगर्भित और ज्ञान से परिपूर्ण प्रस्तुति.
    बहुत बहुत आभार जी.

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  2. मै बारह दिनों के लिए रिफ्रेशेर क्लास के लिए हैदराबाद चला गया था ! अतः ब्लॉग की क्रम / उपस्थिति बंद हो गयी थी ! आज ही लौटा हूँ ! इस अवसर पर वश यही कहूँगा ---भगवान सभी के दिल में शांति और सहन की शक्ति दें ! मै और मेरी धर्मपत्नी की ओर से आप सभी को सपरिवार -नव वर्ष की शुभ कामनाएं !

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  3. अत्यंत ज्ञानवर्धक प्रविष्टि. नव वर्षः आपके लिए मंगलमय हो.

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  4. प्रताप जी
    प्रभु भक्ति का अनोखा सागर है आपके पास |

    इश्वर तो - न साकार हैं न निराकार | वे हम जैसे परिभाषाओं में बंधे थोड़े ही न हैं .. की या तो इस परिभाषा में बैठ जाएँ - या उस परिभाषा में ? वे तो शून्य भी हैं और अनंत भी, वे परमात्मा भी हैं और स्थूल प्रकृति भी | वे ही आकाश हैं, वायु, शब्द जल थल सब वे ही हैं | वे कहते हैं की वे अपनी परम शक्ति के अंश मात्र से इस विश्व को धार रहे हैं | वे तो हमारे परिभाषाओं से बहुत परे हैं - यदि हम उन्हें जान सकते हैं - तो ज्ञान से कभी नहीं, सिर्फ भक्ति से ही पायेंगे | ज्ञान में जो उस अनंत को बाँध ले ऐसा ज्ञान तो स्वयं परमात्मा का भी नहीं | भागवतम जी में लिखा है की प्रभु अनादी अनंत हैं, वे अनंत गुणवान हैं, अनंत ज्ञानवान भी | फिर भी - इस अनंत ज्ञान के साथ, इस अनंत समय में भी वे स्वयं भी अपने आप के सब गुणों को जान नहीं पाए हैं - क्योंकि उनके गुण अनंत ठहरे न - जितने वे जान लेते हैं, उतने ही गुण अभी जन लेने को बचे रह जाते हैं |

    तो हम अपनी सीमित बुद्धि से , अपने सीमित समयाकाश में, उस अनंत को कैसे बाँध सकेंगे भला ? इसलिए, उन्हें परिभाषाओं में बाँध कर जाने का प्रयास सफल होगा , ऐसा संभव है क्या ?

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