Friday, 27 January 2012

हम हिंसक क्यूँ होते हैं और हिंसा कितने प्रकार की होती है ?

हम हिंसक क्यूँ होते हैं और हिंसा कितने प्रकार की होती है ?

 हम हिंसक क्यूँ होते हैं ?

अहिंसा को पूर्णतया जानने के समझने के लिए हिंसा व हिंसा के प्रकारों को समझना आवश्यक है 
किसी भी तथ्य को खासकर महत्त्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक तथ्य को शास्त्रीय परिभाषा के साथ यदि हम 
सामान्य सामाजिक परिवेश में समझें तो गहन से गहन वो गूढ़ तत्त्व भी न सिर्फ समझ में आते हैं बल्कि हमारे विचार में ज़हन में इस तरह उतरते हैं की हम स्वतः ही अनुकरण करने लगते हैं शाश्वत सत्य को कोई भी जीव नकार नहीं सकता हमारे अन्दर ज्यादा विकार हों या कम परन्तु कोई भी कार्य करते समय या विचार सोचते समय वो उचित हैं या अनुचित हमारा अंतःकरण तुरंत इसकी पुष्टि कर देता है और उसके बाद दूसरी चीज़ जो जीव को परमात्मा ने दी है वो है चुनाव करने की अथार्त वो जैसा अंतःकरण ने कहा पहला कार्य उचित है पहला अनुचित तो हम दोनों में से कोई भी कार्य कर सकते हैं गंभीर चिंतन पूर्ण तथ्य ये है की आखिर इंसान अधिकतर ग़लत ही क्यों सोचता है,करता है ?
इस प्रश्न को हमने कुछ पोस्ट पहले श्रीमद भगवद्गीता के सन्दर्भ से समझा था जहाँ तीसरे अध्याय में अर्जुन के यही प्रश्न करने पर भगवान् ने बताया : 

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥ 
भावार्थ :  श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान॥37॥ 

यहाँ काम से क्रोध की उत्पत्ति बताते हुए भगवान् ने काम अथार्त कामना अथार्त आसक्ति को रजोगुण से उत्पन्न होना बताया है और इसी आसक्ति से जो क्रोध उत्पन्न होता है यही वस्तुतः व्यक्ति को विवेकपूर्ण सोचने नहीं देता विवेकपूर्ण आचरण नहीं करने देता और विवेकपूर्ण कदम नहीं उठाने देता । हम स्वयं ही सोचें की अधिकतर हमे अच्छे कार्य खासकर परमात्मा के बारें में भी दृढ निष्ठा ये हमारा मन ही तो नहीं करने देता क्यूंकि हमारी बुद्धि रज गुण के प्रभाव में है इसलिए ये हज़ारों संदेह परमात्मा के होने में ही मन के समक्ष रख देती है और इस तरह से हम परमात्मा परमेश्वर के होते हुए भी परमात्मविषयक बुद्धि नहीं रख पाते अपितु सांसारिक भोगों में ये रूचि जगाती है और हमारा मन हमे संसार में ही लगाता है,वो संसार को शाश्वत व सदा रहने वाला बताता है और फिर स्वयं का स्वरुप भी हम शरीर समझने लगते हैं और इस तरह से स्वयं आनंदधाम (आत्मा) होते हुए भी हम मन बुद्धि के हाथों दीनहीन हो जाते हैं हम संसार के तुच्छ भोग विलासों की प्राप्ति ही जीवन ध्येय समझने लगते हैं,सांसारिक रिश्तों में ही प्रेम निहित है ऐसा समझने लगते हैं और अपने आस पास के रिश्ते नातों,दोस्तों,संबंधों की ही खुशामद में लगे रहते हैं ज़रा किसी ने कुछ अच्छा कहा तो इतने खुश होते हैं जैसे भगवान् ही प्रकट हो गया और ज़रा किसी ने अप्रिय कहा तो दुःख में डूब जाते है इस तरह से जो रिश्तेदार अथवा जान-पहचान वाला मरता है  तो खूब रोते हैं परन्तु फिर कुछ दिन के बाद वोही बन्दर नाच में लग जाते हैं । हम ये मान ही नहीं पाते की ये संसार तो शमशान ही है यहाँ सभी मरे हुए हैं सभी शव हैं क्यूंकि सभी स्वयं को शरीर मानते हैं,संसार को नित्य मानते हैं और संसार से मिलने वाले सुख को हमेशा के लिए रहने वाला और सच्चा सुख मानते हैं । जिस तरह सुप्तावस्था में स्वप्न देखते हुए हमे स्वप्न सही लगने लगता है और जैसा वो सुख-दुःख प्रधान होता है वैसी ही अनुभूति करने लगते हैं परन्तु जागते ही हमे पता चलता है की वो मिथ्या था उसी तरह ये संसार स्वयं ही एक स्वप्न के सामान है और जिंदा वो ही है,जगा हुआ वोही है जो ये जान ले की संसार व शरीर नश्वर है,संसार एक स्वप्न है । इस स्वप्न में जागते हुए विचरना ही जीवन्मुक्त के प्रधान लक्षण हैं । एक जगा हुआ व्यक्ति ही दूसरे को जगा सकता है,एक जगा हुआ व्यक्ति ही दूसरों को निद्रा से ग्रसित जान सकता है तत्वज्ञान को प्राप्त हुए मनुष्य के हरेक शब्द ह्रदय तक पहुँचते हैं व ईश्वरत्व से विमुख,सात्विक गुणों से विमुख,अच्छाई से विमुख व कठोर से कठोर ह्रदय को भी निर्मल कर देते हैं,अच्छा बनने पर मजबूर कर देते हैं क्यूंकि जैसे ही अज्ञानी ज्ञान में रस लेने लगता है तत्क्षण ही उसे तत्वज्ञान मिल जाता है और उसके न चाहने पर भी शुद्ध विचार अंतःकरण में जमने लगते हैं और चाहने पर भी विकार या विकारी भाव कुछ समय के लिए नहीं आ पाते । और यदि वो अपने को परमात्मा के समर्पित कर दे तो हमेशा के लिए विकारी भाव आने बंद हो जाते हैं क्यूंकि उसकी स्थति तत्त्व ज्ञान में दृढ हो जाती है । परन्तु यदि व्यक्ति स्वयं ही ज्यादा से ज्यादा सात्विक होना चाहे,तत्वज्ञान को प्राप्त करना चाहे तो उसे तो और भी कम समय में व और आसानी से तत्वज्ञान की प्राप्ति हो जाती है और वो अतिशीघ्र परमात्मतत्त्व में स्थित हो जाता है
 
तत्वज्ञान से ओत-प्रोत शब्दों में सच्चाई होती है उनमे कोई भी छिपा भाव,स्वार्थ,अहंकार नहीं होतावो ईश्वर प्रेरणा द्वारा स्वतः ही जनकल्याण हेतु निकलते हैं
और यहाँ तो स्वयं परमात्मा परमेश्वर हम जीवों पर अनुग्रह करके इतनी गूढ़,गहरी,तत्वपूर्ण व असली सार बात को इतने सरल ढंग से बताते हैं

तो भगवान् जो ये क्रोध के बारें में कह रहे हैं वो वस्तुतः 
अविद्धा और अज्ञान है । अथार्त आसक्ति हमे अज्ञान के सम्मुख करती है हमारा अज्ञान बढ़ाती है हममे तम गुण जो की रज गुण से भी निकृष्ट है उस तरफ ले जाती है  

सत,रज व तम तीनो गुणों पर भगवान् ने विस्तार से चौदहवें अध्याय में बोला है,कुछ श्लोक :



(सत्‌, रज, तम- तीनों गुणों का विषय)
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्‌ ॥

भावार्थ :  हे अर्जुन! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण -ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं॥5॥
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्‌ ।
सुखसङ्‍गेन बध्नाति ज्ञानसङ्‍गेन चानघ ॥

भावार्थ :  हे निष्पाप! उन तीनों गुणों में सत्त्वगुण तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकार रहित है, वह सुख के सम्बन्ध से और ज्ञान के सम्बन्ध से अर्थात उसके अभिमान से बाँधता है॥6॥
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्‍गसमुद्भवम्‌ ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्‍गेन देहिनम्‌ ॥

भावार्थ :  हे अर्जुन! रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को कर्मों और उनके फल के सम्बन्ध में बाँधता है॥7॥ 
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्‌ ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥
भावार्थ :  हे अर्जुन! सब देहाभिमानियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तो अज्ञान से उत्पन्न जान। वह 
इस जीवात्मा को प्रमाद (इंद्रियों और अंतःकरण की व्यर्थ चेष्टाओं का नाम 'प्रमाद' है), आलस्य (कर्तव्य कर्म में अप्रवृत्तिरूप निरुद्यमता का नाम 'आलस्य' है) और निद्रा द्वारा बाँधता है॥8॥
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥

भावार्थ :  हे अर्जुन! सत्त्वगुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में तथा तमोगुण तो ज्ञान को ढँककर प्रमाद में भी लगाता है॥9॥
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥

भावार्थ :  हे अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण, वैसे ही सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण होता है अर्थात बढ़ता है॥10॥
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥

भावार्थ :  जिस समय इस देह में तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतनता और विवेक शक्ति उत्पन्न होती है, उस समय ऐसा जानना चाहिए कि सत्त्वगुण बढ़ा है॥11॥
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥

भावार्थ :  हे अर्जुन! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति, स्वार्थबुद्धि से कर्मों का सकामभाव से आरम्भ, अशान्ति और विषय भोगों की लालसा- ये सब उत्पन्न होते हैं॥12॥
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥

भावार्थ :  हे अर्जुन! तमोगुण के बढ़ने पर अन्तःकरण और इंन्द्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद अर्थात व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अन्तःकरण की मोहिनी वृत्तियाँ - ये सब ही उत्पन्न होते हैं॥13॥
हमने देखा की व्यक्ति में आखिर अज्ञान आता कैसे है । ये रज गुण से प्रेरित होने कारण व्यक्ति को विषय भोगों में लगाता है आसक्त बनाता है और इस तरह से अज्ञान बढाता हुआ तमोगुणी बनाता चला जाता है परिणाम स्वरुप व्यक्ति पूरा जीवन मोह माया को ही सत्य मानने में,स्वयं के शरीर को सुख देने में ही,काम,क्रोध,लोभ,दंभ,अहंकार आदि में ही निकाल देता है । परन्तु तत्वज्ञान व्यक्ति को सात्विक बनाता है,सत गुण में लगाता है और जिससे व्यक्ति की परमात्मा में निष्ठा होने के साथ साथ दैवीय गुणों (अहिंसा,सत्य,करुणा,प्रेम,तप,दया,सहिष्णुता,क्षमा,मानवतादी) के पोषण में उतरोत्तर रूचि होने लगती है। दैवीय गुणों से विभूषित प्राणी की दूसरों पर अकारण ही करुणा रहती है और हिंसा आदि देखकर उसे ऐसे लोगों पर गुस्सा नहीं दया आती है क्यूंकि वो जानता है की अभी ये अज्ञानी है और जिस दिन स्वयं का स्वरुप ये समझेंगे उसी दिन सांसारिक मान,दंभ को छोड़ के काम,क्रोध व तृष्णा रहित हो जायेंगे  
  
 
योग में अहिंसा बहुत आवश्यक बतायी गयी है जैन धर्म,बौद्ध धर्म समेत प्रायः सभी धर्मों (मजहबों ) ने अहिंसा की महिमा गई है और अहिंसा को अध्यात्म में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्रत में रखा है
हिंसा कितने प्रकार की होती है ?
शास्त्रोक्त वर्णानुसार हिंसा इक्यासी प्रकार की हो सकती है । 
कर्ता भेद से हिंसा तीन प्रकार की होती है:
१. कृत (स्वयं हिंसा करना)
२. कारित (किसी से हिंसा करवाना)
३. अनुमोदित (हिंसा का अनुमोदन अथार्त समर्थन करना )


उपर्युक्त तीन प्रकार की हिंसा तीन भावों से होती है 

१. क्रोध से 

२. लोभ से 

३. मोह से

यानी ये तीन भाव पहले के तीन कर्ता भेद से मिलके नौ प्रकार की हिंसा कर सकते हैं तात्पर्य है की क्रोध से भी कृत,कारित और अनुमोदित हिंसा हो सकती है,लोभ से भी और  मोह से भी
इस तरह से ३ और ३ को गुणा करने पर ९ प्रकार की हिंसा होती है
ये नौ प्रकार की हिंसा में भी हिंसा की मात्रा(कम,ज्यादा) होती है और ये तीन तरह की हो सकती है
१. मृदुमात्रा (थोड़ी मात्रा में हिंसा करना अथवा किसी को थोडा दुःख देना )
२. मध्यमात्रा (मृदु मात्रा से अधिक दुःख देना )
और 
३. अधिमात्रा (मध्यमात्रा से अधिक अथार्त बहुत अधिक दुःख देना,अत्यंत पीड़ा पहुचाना अथवा ख़त्म कर देना)
इस तरह मृदु,मध्य और अधिमात्रा के भेद से नौ (९)गुणे तीन(३) अथार्त हिंसा सत्ताईस प्रकार की हो गयी
उपर्युक्त सत्ताईस प्रकार की हिंसा तीन कारणों से होती है शरीर से,वाणी से या भाव से
इस तरह हिंसा  २७*३=८१ 
अथार्त इक्यासी प्रकार की हो जाती है ।इनमे से किसी भी प्रकार की हिंसा न करना ही अहिंसा है । 


 उदाहरणार्थ जहाँ कहीं भी,किसी भी बात में विकार दिखाई दे समझना चाहिए हिंसा निहित है
सामाजिक,भौतिक,व्यक्तिगत कैसे भी परिपेक्ष्य में हम  देखें हिंसा के हमे सैकड़ों हज़ारों उदाहरण मिल जायेंगे
 हिंसा स्थूल रूप के साथ साथ सूक्ष्म रूप से भी होती है,हिंसा चाहे जैसी भी हो अहितकारक व अशांति,क्रोध ही बढ़ाती है
आज समाज में इतने अपराधों की बाढ़ सी आई हुई है  ?
कहीं जम्मू-कश्मीर में वर्षों से चल रहा आतंकवाद  ?

५ जून ११ को भारत सरकार द्वारा दिल्ली में निर्दोषों पर लाठीचार्ज  ?

ये सब हिंसा के स्थूल रूप हैं
परन्तु जो हम मन से करते हैं जैसे हमने किसी के लिए किसी को हिंसा के लिए प्रेरित किया ?
या फिर किसी को कष्ट देने के लिए हम काफी सोच विचार करें तो ये भी एक ऐसी सूक्ष्म हिंसा है जो दो तरफ़ा होती है अथार्त व्यक्ति दूसरे के साथ साथ स्वयं को भी स्वयं के विचारों को भी हिंसा आदि से ओत-प्रोत करके उनमे विकार उत्पन्न करता है जो अतिसूक्ष्म स्तर पर स्वयं उस प्राणी को भी नुकसान पहुंचाती है
इसी तरह ऊपर दी गए भेदों के अनुसार यदि हम विचार करें तो वास्तविकता में हिंसा के सभी प्रकारों के उदाहरण मिल जायेंगे
इसी तरह से हमने अपने किसी दोस्त के पीठ पीछे उसके नाम पर उधार ले लिया और दोस्त के मालूम चलने पर भी उधार नहीं चुकाया इस तरह से न सिर्फ अपने दोस्त का नाम खराब किया बल्कि उसे बदनाम भी किया ये फिर से एक सूक्ष्म हिंसा का उदाहरण है ।ये हिंसा लोभ से प्रेरित है,कृत है और  मध्यमात्रा की है
कभी कभी तो हम अपने दोस्त के रहने पर ही उसके नाम पर कोई घोटाला कर देते हैं और उसे मालूम चलने पर भी की हम ही उसे बदनाम कर रहे हैं उसका नाम खराब कर रहे हैं अनभिज्ञता ज़ाहिर कर देते हैं अपने मित्र को अत्यंत पीड़ा पहुचाते हैं। ये भी सूक्ष्म हिंसा ही है कृत है,क्रोध से प्रेरित है और अधिमात्रा की है
कई बार हम किसी को ईर्ष्यावश दुःख पहुचाते हैं ?
कई बार हम धन,बल,मान के लिए दूसरों को कष्ट देते हैं ? यहाँ तक की अपने झूठे अहम् के लिए प्राणी की हत्या तक कर देते हैं अथवा करा देते हैं ?

हम देखते हैं की कौन सी पार्टी ने सबसे ज्यादा घोटाला किया लेकिन चुनाव आने पर जाति
,क्षेत्र अथवा थोड़े से पैसे के लोभ में फिर उसी पार्टी को वोट देते हैं ये भी लोभ के अंतर्गत कृत प्रकार की हिंसा है

कई बार हम देखेंगे कालेज वगेरह में जहाँ कई छात्र मिलके किसी एक को परेशान करते हैं इसमें जो सम्मलित हैं वे तो कृत अथवा कारित रूप से हिंसा के भागीदार हैं ही,वे छात्र जो खड़े देखते रहते हैं कुछ नहीं कहते वो भी अनुमोदित हिंसा के अंतर्गत हिंसा के अपराधी हैं
इसी तरह से व्यक्तिगत हिंसा है या घरेलु हिंसा है या सामाजिक हिंसा,सांप्रदायिक हिंसा है या वैश्विक स्तर पर हुई हिंसा है शुरू ऊपर दिए गए कारणों से ही होती है इनमे सबसे नुकसानदायक व्यक्ति के मन द्वारा की हुई हिंसा होती है,मन द्वारा तो प्रायः सभी हिंसा ही होती हैं परन्तु यहाँ तात्पर्य मानसिक हिंसा से है । हमे मालूम ही नहीं चलता की रजोगुण के प्रभाव में हम मानसिक हिंसा में इस तरह लिप्त हो जाते हैं की थोड़ी थोड़ी सी मानसिक हिंसा करके किसी को मानसिक रूप से कष्ट पहुंचाकेमानसिक संतुष्टि प्राप्त हुई ऐसा समझने लगते हैं और इस तरह से ऐसा करना हमे अच्छा लगने लगता है,ऐसा करना मानसिक संतुष्टि की खुराक सा बनने लगता है ।और हम जाने अनजाने ऐसे ही माहौल को बढाने लगते हैं,इसमें ही अपनी विद्वता अथवा मान समझने लगते हैं और अध्यात्म पथ से भटकने लगते हैं ।इस तरह से  अनुमोदित हिंसा बढती ही जाती है
हिंसा को रोकने का सबसे कारगर उपाय है व्यक्ति ये जाने की सत गुण में आनंद है और हमारा स्वरुप आत्मा है,आनंदमय है । ये दुनिया हमे सुख उठाने के लिए नहीं सुख देने के लिए मिली है क्यूंकि सच्चा सुख सुख पहुंचाना ही है
 


 

1 comment:

  1. बहुत गहन अध्ययन करते हैं आप |

    आभार , साधुवाद |

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