क्या हम अपने भाग दौड़ के जीवन में ठहरने की सोचते हैं ?
क्या ठहर कर भी हम ठहर पाते हैं ?
क्या हम सही मायने में स्वयं (आत्मा) को कुछ वक़्त देते हैं ?
क्या हम कुछ समय दिन भर में ऐसा निकालते हैं जब हम अपने अन्दर कोई कामना नहीं रखते?
कुछ क्षण चिंतन के लिए निकालते हैं और फिर ये समझकर की ये उचित नहीं अथवा तो ये हमारे लिए चिंतन का नहीं कर्म का वक़्त है ये सोचके आगे बढ़ जाते हैं ?
क्या हमे मालूम है व्यक्ति अपनी ज़िन्दगी में सही मायने में एक ही व्यक्ति को सुधार सकता है और वो होता है वो स्वयं ?
क्या हमे ये मालूम है की व्यक्ति अहम् और दिखावे में स्वयं के आनंद से वंचित रह जाता है ?
जीवन का हर पल तेज़ी से बीत रहा है उसे विवेकपूर्ण होकर ही अर्थपूर्ण बनाया जा सकता है ?
स्वयं में सदगुण,सद्विचार जगाये बिना व्यक्ति विवेक की ओर उन्मुख नहीं हो सकता ?
क्या हम ये मानते हैं की प्रत्येक व्यक्ति के प्रत्येक कर्म और उसके पीछे की विचारधारा के पीछे जाने अनजाने उसके आनंद और शान्ति की इच्छा ही निहित होती है ?
क्या ध्यान करते समय भी हममे विचार आते ही रहते हैं और हम उनसे बाहर नहीं निकल पाते ?
क्या हमे ये मालूम है की ध्यान का असली आनंद अविकारी भाव में निहित है ?
जैसा की पिछली पोस्ट्स में भी उल्लेख किया गया विषय भोग में व्यक्ति आनंद ढूंढता है लेकिन उसे मिलता नहीं। चाहे वो विषयों का जितना सेवन कर ले,अपनी इन्द्रियों से अपने मन बुद्धि को जितना भी आनंद पहुंचा ले।कुछ समय बाद वोही विचार भोगेच्छा के फिर आयेंगे और फिर व्यक्ति कामना का ग़ुलाम हो कर समय व जीवन तत्त्व नष्ट करने लग जाएगा । जीव जिस आनंद को चाहता है वो वोही है जैसा उसका स्वरुप अथार्त अविनाशी । यानि की हमारा स्वरुप अविनाशी है इसलिए हमे अविनाशी आनंद से ही आनंद मिल सकता है ।
शब्द,रूप,रस,गंध व स्पर्श जैसे विषयों से जो हम इन्द्रियों के द्वारा आनंद प्राप्त करते है वे(आनंद) विनाशशील हैं। अविनाशी जीवात्मा को आनंद तो अविनाशी सुख से ही मिल सकता है और वो है परमात्मा ना की तुच्छ सांसारिक विषय भोग वासनाएं । येही सांसारिक वासनाएं,येही कामनाएं व्यक्ति को निरंतर पतन देती हैं और उसे उसका स्वरुप मन बताती है । इस तरह से जीव निरंतर काम,क्रोध,मद,मोह,अहंकार को बढाता हुआ अविद्धा,अज्ञान को बढाता है और इन्ही के वश में होके सांसारिक मान-अपमान,दुःख-सुख,हानि-लाभ को असल समझ दयनीय स्थिति को प्राप्त हो,राग द्वेष में घिरकर मूर्खता में पूरी ज़िन्दगी निकाल देता है ।
हमारे मन, बुद्धि में अविद्ध और अज्ञान के संस्कार इतने गहरे पैठे हुए होते हैं की जैसे ही हम उपर्युक्त बातें पढ़ते हैं या सुनते हैं ज्ञान का उजाला पाके दिल,दिमाग,मन,बुद्धि तुरंत उल्लासित हो उठते हैं और ज्ञान के आनंद में ध्यानचित हो जाते हैं परन्तु फिर अज्ञान में घिर जाते हैं ।
ध्यान व्यक्ति को स्वयं से स्वयं में स्थित होने का एक माध्यम है ।
ध्यान पर महापुरुषों द्वारा इतना कुछ कहा और अब तक लिखा जा चूका है की यदि व्यक्ति मात्र अध्ययन भी कर ले तो भी शान्ति में स्थित हो जाएगा ?
आज भी यदि हम देखें तो बहुत सी संस्थाएं,योग केंद्र हैं जो व्यक्ति को स्वयं के उन्मुख कराती हैं और जीव को उसकी चेतना से मिलवाती हैं जिसके बाद व्यक्ति दूसरों में सुख ढूँढने की कभी नहीं सोचता ।वो जान जाता है की ऐसी सोच अज्ञानता व मूर्खता भरी है । उसे स्वयं के अन्दर परमात्मा की परमात्म तत्त्व की अनुभूति होने लगती है और धीरे धीरे वो स्वयं ही सभी को सुख देने वाला बन जाता है अथार्त सभी को उनके अन्दर के परमात्मतत्त्व के बारें में बताने लगता है ।
चाहे हम सुदर्शन क्रिया,शिव योग,विपश्यना,ब्रह्मकुमारी ध्यान योग,ओशो ध्यान केंद्र आदि बहुत सी प्रतिष्ठित व गुणवत्ताप्रदान संस्थाएं हैं जो बहुत अच्छी तरह से व्यक्ति को उसके अन्दर के ऊर्जा स्रोत से मिलवाती हैं और इस तरह से व्यक्ति न सिर्फ अपने आध्यात्मिक पथ पर सफलतापूर्वक चल सकता है बल्कि उसके अन्दर दैवीय गुण भी आने लगते हैं । इसके साथ ही व्यक्ति तुरीया अवस्था अथार्त गुणातीत अवस्था के द्वारा अपने तथा दूसरों के सांसारिक दुःख भी दूर कर सकता है और उन्हें स्वयं भी ऐसा करने के लिए व भगवत्प्राप्ति की ओर उन्मुख करने कराने के लिए प्रेरित कर सकता है । विस्तार से इन सभी पर चर्चा की जा सकती है सभी की प्रक्रिया थोड़ी भिन्न है परन्तु ध्येय परमशान्ति ही है ।प्रारंभ में व्यक्ति इनमे से जिस भी तरह से ध्यान कर रहा है उसे उसी के अनुसार करना चाहिए । ध्यान प्रायः सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में मौजूद है इसलिए प्रायः सभी धर्मों के लोग इन ध्यान शिविरों में जाते हैं और आध्यात्मिक लाभ उठाते हैं इसलिए ध्यान से सभी को लाभ मिलता है इसके द्वारा निश्चित तौर पर सामाजिक हित भी हो सकता है व सामाजिक मूल्यों की बढ़ोत्तरी हो सकती है ।
ध्यान में सबसे महत्त्वपूर्ण मेरा मानना है की व्यक्ति को सहज रहना चाहिए। अतिमहत्वपूर्ण तथ्य ये है की व्यक्ति अपनी मन,बुद्धि का प्रकाशक अपनी आत्मा को ही समझें,इस तरह से मन,बुद्धि के नियंत्रण में ना आये । धीरे धीरे रेचक पूरक करते हुए व्यक्ति को कुम्भक करना चाहिए फिर निरंतर तेज़ी से व सहजता से कुछ श्वास लेके बाहर की तरफ छोड़कर श्वास रोक देना चाहिए अथार्त बाह्य कुम्भक करना चाहिए व इस तरह आतंरिक कुम्भक करना चाहिए ।इस तरह से कुछ समय बाद मन बुद्धि संयत हो जाते हैं और विषय चिंतन होना रुक जाता है । मन में आते विचार को अपना नहीं मानना है,व्यक्ति को बस द्रष्टा भाव अपने अन्दर जगाना है उसे द्रष्टा बनके,साक्षी भाव से बस अपनी मन,बुद्धि में उठते संकल्प विकल्पों का अवलोकन करना होता है औरजब् व्यक्ति सिर्फ द्रष्टा रहता है फिर चित्त निरुद्ध हो जाता है और व्यक्ति तुरीयावस्था में पहुँच जाता है । ये प्रक्रिया छोटी बड़ी हो सकती है और हमारी मानसिक चेतना व अभ्यास पर निर्भर करती है परन्तु निरंतर ऐसा करते हुए व्यक्ति सहज ही स्वयं को एकाग्रता की ओर अग्रसर होता पाता है और शीघ्र ही कुछ हफ़्तों में या दिनों में तुरीयावस्था का आनंद उठाने लगता है । यहाँ ये सबसे महत्त्वपूर्ण बात को संज्ञान में रखना आवश्यक है की तुरीयावस्था कितने समय तक रहती है ये व्यक्ति के अन्दर किसी भी तरह की आसक्ति या विकारी भाव के संस्कार की शुन्यता पर निर्भर है । एक भी विकारी भाव के आते ही व्यक्ति गुणातीत नहीं रह पाता अथार्त समाधि में स्थिर नहीं रह पाता ।
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