आदमी स्वयं ही अपनी शान्ति क्यूँ भंग करता है ?
व्यक्ति स्वयं से ही अशांत होता है व स्वयं से ही शांत ।
अहिंसा,सद्भाव,सदाचार,सहिष्णुता,करुणा,दया,प्रेम,क्षमा आदि जितने भी
सदगुण हैं ये सभी एक दूसरे के पर्याय जैसे हैं । इनमे से एक भी गुण का पालन
करते ही अथार्त उसे ह्रदय से जीवन में उतारते ही अन्य सब सदगुण स्वयं
बढ़ने लगते हैं।
इन सदगुणों के न बढ़ने में अवरोधक भी समान ही हैं ।
प्रमुख दोष हमारा ही होता है की हम विकारों पर ज्यादा ध्यान देते हैं और
इससे भी बड़ी ग़लती ये करते हैं की
वैसी ही प्रतिक्रिया देने लगते हैं परिणामस्वरूप अपने प्रकृति प्रदत्त शांत स्वरुप से च्युत हो जाते हैं और विकारी बनते चले जाते हैं ।
मनुष्य जैसा भी रहे जहाँ भी रहें एक तो वो स्वयं तीनो(सत,रज,तम ) गुणों के प्रभाव में रहेगा दूसरा उसके आसपास के लोग भी ।
हमे ये मालूम है की अधिकतर मनुष्य रज गुण के प्रभाव में रहता है जिसके फलस्वरूप स्वतः ही उसके मस्तिष्क में,मन में संसार के प्रति आसक्ति रहती है और वो समाज में मान,प्रतिष्ठा,धन आदि को ही महत्व देता है परिणामतः व्यक्ति में क्रोध का संचार होता रहता है जिससे हिंसा बढती है ।
आज तक जितनी भी हिंसा विश्व में,समाज में हुई हैं,हो रही हैं उसका कारण सिर्फ यही है की व्यक्ति स्वयं को सत गुण के उन्मुख नहीं कर पाता,हमे स्वाभाविक ही ज्ञान उतना अच्छा नहीं लगता जितना की अज्ञान ।
बहरहाल हम ही अपने आप को अशांत करते हैं कोई दूसरा नहीं ये हमे अच्छी तरह से समझना चाहिए ।
देखिये तो सही मनुष्य की मानसकिता या फिर उसकी खुद की उदारता खुद के लिए की वो अपने दोस्तों,प्रियजनों यहाँ तक की सत्संग में भी सुनी बहुमूल्य बातों पर उतना ध्यान नहीं देता जितना की किसी दूसरे ऐसे व्यक्ति की बात पर जिसने उसे कष्ट देने के लिए ही कुछ कहा हो ।
यहाँ ये प्रश्न उठता है और बहुत बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठता है
क्या हम अपनी शान्ति किसी दूसरे की अशांत बातों से गवा देते हैं ?
क्या हम अपने शान्ति के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं ?
क्या हमारी शान्ति दूसरे की अशान्ति से कमज़ोर है ?
क्या हमारे हमारे सदगुणों के प्रति जो दृढ़ता है वो हमारे हमारे अवगुणों के प्रति दृढ़ता से कम है ?
इसका मतलब ये हुआ की हमने ज्ञान की बात भले सुन ली हो लेकिन उसे माना नहीं,उसे प्राथमिकता नहीं दी क्यूँ? क्यूँकि प्राथमिकता तो हम उन चीज़ों की ही देते हैं जो राग-द्वेष को बढ़ाती है अथार्त मन बुद्धि में विषयों के प्रति जो आसक्ति है उनकी अहमियत हमारे लिए इन शाश्वत ज्ञान से ज्यादा है,बस येही अज्ञान है ।
कोई भी व्यक्ति किसी को कुछ नहीं समझा सकता जब तक की व्यक्ति स्वयं अनुकरण न करना चाहे ।
बड़े से बड़ा जन समुदाय भी अच्छी बातों का समर्थन करता है अथवा उनका अपने जीवन में पालन करता है वो भी इसलिए की उसने ह्रदय से इन बातों को समझ लिया व मान लिया ।
अब इसे दूसरे तरह से भी समझते हैं की दूसरे से अगर कष्ट प्रद कहा भी तो पहली बात वो नादान है,रज गुण के प्रभाव में है अतः क्षमायोग्य है, कम से कम इस योग्य तो नहीं की हम उसकी नादानी जो उसने अपने मानसिक तंत्र के साथ करी और खुद में क्रोध उत्पन्न कर लिया हम भी अपने में क्रोध उत्पन्न कर ले ।
वैसी ही प्रतिक्रिया देने लगते हैं परिणामस्वरूप अपने प्रकृति प्रदत्त शांत स्वरुप से च्युत हो जाते हैं और विकारी बनते चले जाते हैं ।
मनुष्य जैसा भी रहे जहाँ भी रहें एक तो वो स्वयं तीनो(सत,रज,तम ) गुणों के प्रभाव में रहेगा दूसरा उसके आसपास के लोग भी ।
हमे ये मालूम है की अधिकतर मनुष्य रज गुण के प्रभाव में रहता है जिसके फलस्वरूप स्वतः ही उसके मस्तिष्क में,मन में संसार के प्रति आसक्ति रहती है और वो समाज में मान,प्रतिष्ठा,धन आदि को ही महत्व देता है परिणामतः व्यक्ति में क्रोध का संचार होता रहता है जिससे हिंसा बढती है ।
आज तक जितनी भी हिंसा विश्व में,समाज में हुई हैं,हो रही हैं उसका कारण सिर्फ यही है की व्यक्ति स्वयं को सत गुण के उन्मुख नहीं कर पाता,हमे स्वाभाविक ही ज्ञान उतना अच्छा नहीं लगता जितना की अज्ञान ।
बहरहाल हम ही अपने आप को अशांत करते हैं कोई दूसरा नहीं ये हमे अच्छी तरह से समझना चाहिए ।
देखिये तो सही मनुष्य की मानसकिता या फिर उसकी खुद की उदारता खुद के लिए की वो अपने दोस्तों,प्रियजनों यहाँ तक की सत्संग में भी सुनी बहुमूल्य बातों पर उतना ध्यान नहीं देता जितना की किसी दूसरे ऐसे व्यक्ति की बात पर जिसने उसे कष्ट देने के लिए ही कुछ कहा हो ।
यहाँ ये प्रश्न उठता है और बहुत बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठता है
क्या हम अपनी शान्ति किसी दूसरे की अशांत बातों से गवा देते हैं ?
क्या हम अपने शान्ति के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं ?
क्या हमारी शान्ति दूसरे की अशान्ति से कमज़ोर है ?
क्या हमारे हमारे सदगुणों के प्रति जो दृढ़ता है वो हमारे हमारे अवगुणों के प्रति दृढ़ता से कम है ?
इसका मतलब ये हुआ की हमने ज्ञान की बात भले सुन ली हो लेकिन उसे माना नहीं,उसे प्राथमिकता नहीं दी क्यूँ? क्यूँकि प्राथमिकता तो हम उन चीज़ों की ही देते हैं जो राग-द्वेष को बढ़ाती है अथार्त मन बुद्धि में विषयों के प्रति जो आसक्ति है उनकी अहमियत हमारे लिए इन शाश्वत ज्ञान से ज्यादा है,बस येही अज्ञान है ।
कोई भी व्यक्ति किसी को कुछ नहीं समझा सकता जब तक की व्यक्ति स्वयं अनुकरण न करना चाहे ।
बड़े से बड़ा जन समुदाय भी अच्छी बातों का समर्थन करता है अथवा उनका अपने जीवन में पालन करता है वो भी इसलिए की उसने ह्रदय से इन बातों को समझ लिया व मान लिया ।
अब इसे दूसरे तरह से भी समझते हैं की दूसरे से अगर कष्ट प्रद कहा भी तो पहली बात वो नादान है,रज गुण के प्रभाव में है अतः क्षमायोग्य है, कम से कम इस योग्य तो नहीं की हम उसकी नादानी जो उसने अपने मानसिक तंत्र के साथ करी और खुद में क्रोध उत्पन्न कर लिया हम भी अपने में क्रोध उत्पन्न कर ले ।
हमे मालूम है कर्म तीन प्रकार के होते हैं प्रारब्ध,संचित व क्रियमाण ।
अथार्त जो भी फल हमे मिल रहा है भले ही सुख अथवा दुःख वो प्रारब्ध के अंतर्गत है अतः दूसरा व्यक्ति तो निमित्त मात्र है हमे सुख दुःख पहुचाने के लिए ।
अथार्त जो भी फल हमे मिल रहा है भले ही सुख अथवा दुःख वो प्रारब्ध के अंतर्गत है अतः दूसरा व्यक्ति तो निमित्त मात्र है हमे सुख दुःख पहुचाने के लिए ।
आखिरी बात मैं तो ये मानता हूँ की व्यक्ति को अपने प्रति अहित
करने वाले के प्रति भी धन्यवाद का भाव रखना चाहिए क्यूंकि दुःख में ही
व्यक्ति ईश्वर का सुमिरन जल्दी करता है । दुःख के माध्यम से भगवान् हमे
यही सन्देश देते हैं की हम उनका सुमिरन,भजन न करके इस विनाशशील जगत में सुख
ढूंढ रहे हैं और प्रत्येक पल व्यर्थ गवा रहे हैं ।प्रत्येक कष्ट व्यक्ति
के लिए प्रभु की तरफ अग्रसर होने का एक माध्यम है ।
प्रत्येक व्यक्ति का स्वरुप सत चित आनंद है अतः विषयी बनकर काम,क्रोध,मद आदि में पढ़कर हमे ईश्वरतत्व से विमुख नहीं होना चाहिए ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteआपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 06-02-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ
बहुत सार्थक लेख |
ReplyDeleteआशा
.बहुत सुन्दर प्रेरक अनुकरणीय विमर्श .
ReplyDeleteसही सन्देश देता सुंदर आलेख. अभिनन्दन.
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