पिछले कुछ दिनों आध्यात्मिक कारणों से कुछ राज्यों में जाने का अवसर प्राप्त हुआ और निश्चय ही ये बहुत आनंददायी रहा ऐसे अनुभव और आनंद का वर्णन नहीं किया जा सकता । परन्तु यात्रा के दौरान अलग अलग प्रकार के लोगों से मिलने का और उनके आध्यात्मिक नज़रिए व प्रश्नों से मिलने वाली शान्ति ही इस पोस्ट को लिखने की बुनियाद है ।बहुत ही मौलिक और गंभीर,सरल तथा स्पष्ट शब्दों में जैसे जीवन और अध्यात्म के सेतु हों वो प्रश्न ।मूलतः सभी प्रश्नों का सामूहिक प्रश्न जो मुझे मिला यहाँ तक की अलग अलग मज़हब के लोग मिले परन्तु प्रश्न घूम फिर कर यही आता रहा की
क्या भगवान् हैं ?हम कैसे माने की भगवान् हैं ?
कुछ ने स्पष्ट रूप से ये पूछा और कुछ यही पूछना चाहते थे परन्तु शब्द और भावना को सही तरह से स्पष्तः न कह पाने के कारण अलग तरह से पूछते रहे परन्तु आशय उनका यही था । चाहे वो ऐ सी २ टायर ३ टायर हो या स्लीपर अथवा जनरल क्लास के लोग परन्तु आध्यात्मिक ये प्रश्न सभी जगह सामान था ।
यहाँ तक की जब मैं बहुत शान्ति से खुद बैठ कर भी सोचने लगा तो यही प्रश्न मेरे दिलोदिमाग पर भी अपना एक वजूद बनाने लगा बल्कि अगर ये कहूँ की उसका वजूद तो पहले ही से था तो अतिशयोक्ति नहीं होगी हाँ पर इस तरह से ये और स्पष्ट रूप से दिखाई व सुनाई पड़ने लगा ।
तब मुझे इस बात का आभास हुआ की प्रत्येक साधक के लिए ये प्रश्न एक संशय की घडी है एक ऐसा संशय है जिसके कारण वो अपनी साधना से च्युत हो सकता है यहाँ तक की उसे पता भी नहीं चलेगा और वो या तो अपनी साधना में बढ़ने के बावजूद भी सही अर्थों में नहीं बढ़ सकेगा अथवा जहाँ से उसने शुरू किया वहीँ पर स्वयं को पायेगा । ये प्रश्न,ये संशय ऐसा है जिसे महत्व देने पर आस्तिक व्यक्ति में नास्तिकता (काफिरपन) का प्रवेश होता है और नास्तिक(काफिर) इसे आधार मानकर घोर नास्तिकता की तरफ प्रखर होता जाता है ।
मेरा मानना है की हम माने या न माने परन्तु पूरे मनुष्य समुदाय का सबसे बड़ा हिस्सा इसी प्रश्न अथवा संशय रुपी मनोरोग से ग्रस्त है कई बार कई लोगों को ये पता चल जाता है कई बार पता ही नहीं चल पाता और कई बार पता चलने पर भी पता नहीं चल पाता अथार्त अवचेतन मन अज्ञान से इतना ओत -प्रोत रहता है की वो अनभिज्ञ ही नहीं हो पाता । यही वजह है की हमेशा से ही विश्व में ईश्वरीय गुणों(ज्ञान,वैराग्य,सहिष्णुता,शान्ति,अहिंसा,प्रेम,सत्य,दया,करुणा,शम,दम,नियम,सकारात्मकता ) की तरफ समाज कम उन्मुख हुआ और आसुरी गुणों(अशांति,राग,द्वेष,कटुता,भ्रष्टाचार,असहिष्णुता,काम,क्रोध,दंभ) की तरफ अधिक ।
प्रभु के आशीष से मैंने इस जटिल प्रश्न का समाधान अपने द्रष्टिकोण के माध्यम से करने का प्रयत्न किया और मेरा स्वयं का अनुभव ये है की इसके बाद मेरे ज़हन से ये संशय उठना बंद हो गया साथ ही इस प्रश्न के सकारात्मक रूप भी दिखाई पड़ने लगे ।
क्या भगवान् हैं ?हम कैसे माने की भगवान् हैं ?
इस प्रश्न का और सरलीकरण यों कह सकते हैं की हम आस्तिकता की ओर उन्मुख कैसे हों अथार्त कैसे बढ़ें ?
समाधान :
१. पहली बात तो ये प्रश्न अपने आप में प्रभु की सत्ता दर्शाता है क्यूंकि जब कोई चीज़ होती है तभी तो उसके न होने का प्रश्न उठ सकता है ।
२. यदि हम ये गंभीरता से सोचें की मरने के बाद क्या होता शरीर रह जाता और आत्मा निकल जाती है अथार्त आत्मा की ही सत्ता से हमारा शरीर,मन,बुद्धि इत्यादि काम करते हैं और निश्चय ही ये आत्मा परमात्मा के द्वारा शासित है ।
३. ध्यान की प्रक्रिया के दौरान भी हम आत्मा की सत्ता का अनुभव कर सकते है जब हमारा चित्त निरुद्ध हो जाता है और नियंत्रण में असंभव सा लगने वाला हमारा मन पूर्णतः नियंत्रि हो जाता है । जब हम इन्द्रियों को मन में,मन को बुद्धि में,बुद्धि को आत्मा में और आत्मा को परमात्मा में विलीन कर देते हैं तो स्वतः ही समाधि में प्रवेश कर जाते हैं और तब ये प्रश्न और ऐसे संशय अपना कोई आस्तित्व नहीं रखते ।
४. यदि हम श्रेष्ठ भक्तों के चरित्र देखें तो पायेंगे की वो आस्तिकता के उस पायदान पर थे जहाँ से ऐसे कुतर्क
सुनना भी हास्यापद सा लगते हैं । भक्तों के चरित्र में भगवान् की लीला और भिन्न भिन्न प्रकार के भक्तों से साथ उनकी भक्ति के अनुरूप भगवान् की उनके साथ क्रीडा स्तंभित कर देती है और तुरंत ही अलौकिक आनंद में अलौकिक लोक में ले जाती है । यदि फिर भी हम अपने संशय से न उबर सकें तो उनके चरित्रों व उनमे निहित अलौकिक चमत्कार को पढ़ें,गुने।
कैसे भक्त नामदेव का प्रसाद सगुण रूप से भगवान् ने ग्रहण किया ।
कैसे स्वामी समर्थ रामदास जी द्वारा उनके ही हाथों मारा गया पंछी अश्रुपूरित राम नाम के उद्घोष से जी उठा ।
कैसे रानी रत्नावती को मारने हेतु छोड़े गए सिंह की स्तुति करने पर वो अपने पिंजरे में चला गया ।
कैसे निष्काम भक्त नरसी मेहता की कुण्डी भगवान् ने नर रूप धरकर ले ली ।
कैसे ज़हर पीने पर भी मीरा बाई को कुछ न हुआ ?
कैसे संत श्री ज्ञानेश्वर द्वारा आह्वाहन करने पर भैंस के मुख से वेड मंत्रोच्चार होने लगा ।
कैसे राबिया की इबादत के वक़्त उसके आस पास फैली रौशनी को देखके उसके मालिक ने माफ़ी मांग कर उसे आज़ाद किया जिससे वो सारी दुनिया की मालिक की इबादत में ही वक़्त दे सकी ।
कैसे भक्त गोविन्द देव ने भगवान् कृष्ण की मूर्ती को अपने साथ खेलने के लिए चलने को कहा और भगवान् नित्य उनके साथ सखा भाव से खेलने लगे ।
इस तरह के अनेकों व अनगिनत उदाहरण हैं ।
५. हम भगवान् के भक्तों की रचनाएं,भजन पढ़ें । उनमे निहित भक्ति तत्व स्वतः ही अंतःकरण को शुद्ध कर देता है और ऐसे संदेहों को समाप्त कर देता है । परम श्रध्येय सूरदास जी,तुलसीदास जी,कबीर साहब,मीरा बाई जी,रैदास जी इत्यादि अनेकों संतों ने प्रभु की महिमा का उनकी करुणा और कृपा का अपनी रचनाओं के माध्यम से ऐसा गान किया है जिन्हें पढ़ते ही व मनन करते ही हमे ऐसी आध्यात्मिक ऊर्जा मिलती है जिससे हमारा आत्म तत्व प्रखर हो उठता है और कुविचार,कुतर्कों को जमने नहीं देता ।
६. हमारी प्राथमिकता भगवान् की माया नहीं भगवान् होने चाहिए परन्तु हम भगवान् की माया को इतना महत्व दे देते हैं की भगवान् को भी मायिक बुद्धि अथार्त मायिक सोच से सोचने लगते हैं जिसके कारण हमारा अंतःकरण दूषित होने लगता है । यदि हम भगवान् की माया को अथवा जितनी भी नकारात्मक बातें आध्यात्मिक पथ में हमारे साथ होती हैं उन्हें भगवान् की तरफ अग्रसर होने का संकेत माने तो स्वयं ही संदेह समाप्त होने लगते हैं ।
७. 'वासुदेव सर्वं' अथार्त सब कुछ भगवान् हैं अथार्त हम जिस मन,बुद्धि से ईश्वर की सत्ता को नकारते हैं अंततः वो भी ईश्वर ही है अतः उनका सदुपयोग करें और भजन में लगाएं ।
No comments:
Post a Comment