कई दिन पहले (१५-०५-२०११) को विधि प्रेरणा से मैंने ये लेख लिखा था ।
Teesri aankh Gyaan ka prayaay ya Bhautikwaad ka
मुझे इस बात की ख़ुशी है की देर-सवेर हममे में ये अवधारणा बढ़ी और हम अंधविश्वास और श्रद्धा में फर्क महसूस करते हैं ।
आज मैं सोनी टी.वी के शो कॉमेडी सरकस पर कुछ कहना चाहता हूँ सबसे पहले मैं चैनल के प्रति कृतज्ञता जताना चाहता हूँ की उन्होंने वर्षों से गुणवत्तापरक कार्य किया है और मेरे इस कथन जो मैं लिखने जा रहा हूँ के पीछे कोई नकारात्मक सोच नहीं है अतः इसे व्यक्तिगत रूप से न लेके इसके पीछे की मंशा को समझने की कोशिश करें ।
मैं इस बात को बहुत ही प्रामाणित रूप से कहना चाहता हूँ इसकी भ्रत्सना और निंदा करना चाहता हूँ जो इस प्रोग्राम के माध्यम से गन्दी मानसिकता व गन्दी मानसिकता से भरे वाक्य जिन्हें तथाकथित चुटकुलों का जामा पहनाके एक थोड़े से वर्ग को खुश करने का प्रयत्न किया जाता है और बहुत बड़े दर्शक वर्ग व उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया जाता है ।
मुझे नहीं मालुम ऐसा क्यूँ किया जाता है क्यूंकि जिस तरह से कलाकार इस शो में हैं वो विश्व स्तरीय हैं इसमें कोई दो राय नहीं परन्तु फिर वो अच्छे,स्वस्थ चुटकुलों की जगह कई बार द्विअर्थी और अश्लील बातें करते नज़र आते हैं और वो इसे अच्छे चुटकुलों कुलों व हास्य की श्रेणी में भी रखते हैं ।
क्या यही हास्य है?
क्या यही हास्य हम अपने समाज में वितरित करना चाहते हैं जिसमे समलैंगिकता को कभी आधार बना के बोला जाता है तो कभी अश्लीलता को
ये कैसा हास्य है जिसमे आदमी औरत के शरीर पर जुमले कसके या उससे जिस्मानी सम्बन्ध की बातें करके तालियाँ बटोरता है ?
क्या ऐसे प्रोग्राम का उद्देश्य हास्य होता ही नहीं ?
क्या चैनल का कोई उत्तरदायित्व समाज के प्रति नहीं होता है ?
क्या कलाकारों का दायित्व समाज के प्रति नहीं होता है ?
क्या निर्णायक मंडल का कोई उत्तरदायित्व नहीं होता ?
आखिर ऐसी क्या मजबूरी होती है जो कलाकार अपनी प्रतिभा निखारने के बजाय गन्दा करते हैं ?
क्या लिखने वालें अच्छा हास्य नहीं लिख पाते ?
क्या सिर्फ टी आर पी बढाने के लिए ही जान भूझके ऐसा किया जाता है ?
क्या कुछ अलग करने की चाह में अश्लीलता आ जाती है ?
क्या शो के निर्णायकों का भद्दे जोक्स पर गला फाड़ के हसना शोभा देता है ?
कहीं हम जाने अनजाने ये बात तो स्थापित नहीं करना चाहते की असली हास्य यही है ?
आखिर क्या वजह है जो हास्य रस इतने पतन पर आ चूका है जहाँ अच्छे अच्छे कलाकारों को भी
अपनी मौलिकता को दरकिनार कर वस्तुवादिता में पड़कर ओछे स्तर पर आना पड़ता है ?
क्या गुणवत्ता निर्धारण करने की कोई सीमा नहीं है ?
इस तरह से फिर हर चैनल इसी तरह की भेडचाल शुरू कर देता है और इसका खामियाजा ये होता है की बहुत बड़े दर्शक वर्ग को ऐसे ही हास्य को अपनाना पड़ता है।
इन दिनों इस कार्यक्रन की भल्गरिटी हमें भी नहीं भाती।
ReplyDeletesahi kah rahe hain aap
ReplyDeleteबाज़ार एक बहुत बड़ी ताकत है भाई, जो दिखता है वो बिकता है और ये चतुर व्योपारी इस बात को बखूबी जानते हैं| पहले एक जरूरत पैदा की जाती है फिर उसका दोहन किया जाता है| हम हिन्दुस्तानी तो यूं भी बिकने को और अब तो दिखने को भी तैयार बैठे हैं|
ReplyDeleteइब्तदाये (बाजारीकरण) है, रोता है क्या,
आगे आगे देखिये.....