ध्यान में एक तो हम योग द्वारा बढ़ते हैं जिसमे हम प्राणायाम करते हुए प्राणों को व्यवस्थित रखते हुए चित्त को निरुद्ध करते हैं और फिर धीरे धीरे समाधि में प्रवेश करते हैं । जिसे महर्षि पतंजलि जी ने आष्टांगयोग में समाहित किया है ।
समाधि में भी पहले हम निर्विचार समाधि को प्राप्त होते हैं और उसके बाद पूर्ण निर्विचार या कामनाशून्य समाधि ।
दूसरा ध्यान में हम सीधे ज्ञानयोग अथवा सांख्य के माध्यम से सतत विवेक की प्रधानता द्वारा कामनाशून्य अवस्था को प्राप्त करते हैं ।
तीसरा हम सांख्य और योग दोनों का समन्वय करते हुए पूर्णकामनाशून्य अवस्था को जिसे तुरीयातीत,भावातीत,गुणातीत,मायातीत,बुद्धत्व,जीवन्मुक्त आदि कहते हैं ।
जैसे राजा जनक अष्टावक्र जी मात्र श्रवण करके ही इस अवस्था को उपलब्ध हो गए ।
अधिकतर व्यक्ति तीसरे मार्ग का अनुसरण करता है क्यूँकी सांख्य और योग दोनों के द्वारा आगे बढ़ने से व्यक्ति स्वाभाविक ही अपने मूल स्वभाव को आत्म स्थिति को प्राप्त हो जाता है ।
यहाँ मेरा ये सब कहने से अभिप्राय क्या है क्यूंकि इसे तो पिछली पोस्ट में वर्णित किया गया है। यहाँ मैं ये कहना चाहता हूँ की इस सब का उद्देश्य क्या है ? ध्यानयोग में अपनी आत्मिक अवस्था,स्वरूप अवस्था ही पाना तो कठिन है और वो ही आवश्यक भी है इसीलिए हम आचार्यों,गुणीजनों,शास्त्रों की बातों का अनुसरण करते हुए,श्रद्धा रखते हुए इसे करते हैं । ये हम इसीलिए करते हैं की हमे मालूम होता है की ध्यानयोग के द्वारा ही हमे सच्चा आनंद मिल सकता है,ध्यानयोग के द्वारा ही व्यक्ति स्वयं में स्थित हो सकता है ।
समाधि से व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त होता है,मोक्ष प्राप्त कर सकता है । बस यहीं सबसे ज्यादा समझने वाली बात है एक तो मोक्ष की कामना लेते हुए ध्यान को करना ही अपने आप में एक कामना है क्यूंकि समाधि तभी घटेगी जब हम अधैर्य से काम न लें,कुछ भी कामना न करें ।
परन्तु मैं इसके आगे की बात करना चाहता हूँ वो ये की मोक्ष मिलने पर भी मोक्ष नहीं लेना चाहिए । इसे समझना होगा क्यूँकी फिर प्रश्न यही उठेगा की ये सारा तामझाम तो हमने मोक्ष पाने के लिए ही किया था और मैं यही कहना चाहता हूँ की मैंने कभी भी मोक्ष शब्द पिछली पोस्ट्स में नहीं लिखा ।
मोक्ष है क्या? इसे समझना ज़रूरी है ।
संसार आवागमन, जन्म-मरण और
नश्वरता का केंद्र हैं। इस अविद्याकृत प्रपंच से मुक्ति पाना ही मोक्ष
है।
यानी व्यक्ति जीवन मरण के आवागमन अथार्त बार बार जन्मने मरने से छूट जाता है और ब्रह्म में ही लीन हो जाता है,मुक्त हो जाता है ।
ये मुक्ति छः प्रकार की कही गयी है :
(1)साष्ट्रि, (ऐश्वर्य)
(2)सालोक्य (लोक की प्राप्ति)
(3) सारूप्य (ब्रह्मस्वरूप)
(4)सामीप्य, (ब्रह्म के पास)
(5) साम्य (ब्रह्म जैसी समानता)
(6) लीनता या सायुज्य (ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म हो जाना)।
निश्चित रूप से व्यक्ति का ये ध्येय होना चाहिए और अधिकतर इसे ही ध्येय बनाते हैं ।
यहाँ व्यक्ति के विचार पर निर्भर करता है की वो अखंडरस को चुने या अनंतरस को । मोक्ष है अखंडरस और भक्ति है अनंतरस ।
समाधि के द्वारा सिर्फ मोक्ष ही प्राप्त नहीं होता,समाधि के द्वारा सिर्फ मोक्ष का प्राप्त होना हम मान लेते हैं ।
भागवत अथवा राम कथा के दौरान मुझे ज्यादा समय नहीं मिल पाता इस पर बोलने को क्यूंकि ध्यान पर बोलने के लिए सिर्फ ध्यान का ही प्रकरण होना चाहिए
लेकिन मैं चाहता हूँ की इसे अधिक से अधिक लोग समझें । क्यूंकि ध्यान द्वारा समाधि प्राप्त करके हम जो अद्वैत का अनुभव करते हैं उसे हम अपनी भक्ति में भी लगा सकते हैं
फिर उसका आनंद कुछ और होता है । क्यूंकि रामायण में आया है 'ग्यानिही प्रभुहि बिसेषी पियारा' अथार्त चारों प्रकार के भक्तों में ग्यानी भक्त जिसे तत्वज्ञान होता है प्रभु को सबसे अधिक प्रिय होता है ।
ध्यान का उद्देश्य मेरा मानना है प्रभु का प्रेम प्राप्त करना । उपर्युक्त मुक्ति मिलना अलग बात है लेकिन माँगना अलग बात है अथार्त वो भी प्रभु ही देते हैं क्यूँ क्यूंकि व्यक्ति उन मुक्तियों को प्राप्त करने लायक हो चुका होता है लेकिन जो भगवान् जल्दी नहीं देते अथार्त उनमे परम प्रेम क्यूंकि हम निष्काम भक्त जल्दी नहीं बन पाते। मैं इसे अथार्त निष्काम भक्ति को आखिरी प्रकार की मुक्ति ही कहूँगा जिसमे साधक चाहता हैं प्रभु मैं भले बार बार जनम लूँ परन्तु आपका प्रेम मुझसे न छूटे,आपका भजन मुझसे न छूटे और जिसे प्रभु मांगने पर ही देते हैं ।
जब साधक इस भाव से ध्यानयोग में जाता है फिर वो स्वयं ही कामना शून्य रहता है और बहुत जल्दी समाधि में जाता है । ऐसा साधक समाधि से मिलने वाली सिद्धियों के प्रति आसक्त नहीं होता क्यूंकि उसे मालूम रहता है की इस तरह से वो अपने साधन पथ से च्युत हो जाएगा ।
ये मुक्ति छः प्रकार की कही गयी है :
(1)साष्ट्रि, (ऐश्वर्य)
(2)सालोक्य (लोक की प्राप्ति)
(3) सारूप्य (ब्रह्मस्वरूप)
(4)सामीप्य, (ब्रह्म के पास)
(5) साम्य (ब्रह्म जैसी समानता)
(6) लीनता या सायुज्य (ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म हो जाना)।
निश्चित रूप से व्यक्ति का ये ध्येय होना चाहिए और अधिकतर इसे ही ध्येय बनाते हैं ।
यहाँ व्यक्ति के विचार पर निर्भर करता है की वो अखंडरस को चुने या अनंतरस को । मोक्ष है अखंडरस और भक्ति है अनंतरस ।
समाधि के द्वारा सिर्फ मोक्ष ही प्राप्त नहीं होता,समाधि के द्वारा सिर्फ मोक्ष का प्राप्त होना हम मान लेते हैं ।
भागवत अथवा राम कथा के दौरान मुझे ज्यादा समय नहीं मिल पाता इस पर बोलने को क्यूंकि ध्यान पर बोलने के लिए सिर्फ ध्यान का ही प्रकरण होना चाहिए
लेकिन मैं चाहता हूँ की इसे अधिक से अधिक लोग समझें । क्यूंकि ध्यान द्वारा समाधि प्राप्त करके हम जो अद्वैत का अनुभव करते हैं उसे हम अपनी भक्ति में भी लगा सकते हैं
फिर उसका आनंद कुछ और होता है । क्यूंकि रामायण में आया है 'ग्यानिही प्रभुहि बिसेषी पियारा' अथार्त चारों प्रकार के भक्तों में ग्यानी भक्त जिसे तत्वज्ञान होता है प्रभु को सबसे अधिक प्रिय होता है ।
ध्यान का उद्देश्य मेरा मानना है प्रभु का प्रेम प्राप्त करना । उपर्युक्त मुक्ति मिलना अलग बात है लेकिन माँगना अलग बात है अथार्त वो भी प्रभु ही देते हैं क्यूँ क्यूंकि व्यक्ति उन मुक्तियों को प्राप्त करने लायक हो चुका होता है लेकिन जो भगवान् जल्दी नहीं देते अथार्त उनमे परम प्रेम क्यूंकि हम निष्काम भक्त जल्दी नहीं बन पाते। मैं इसे अथार्त निष्काम भक्ति को आखिरी प्रकार की मुक्ति ही कहूँगा जिसमे साधक चाहता हैं प्रभु मैं भले बार बार जनम लूँ परन्तु आपका प्रेम मुझसे न छूटे,आपका भजन मुझसे न छूटे और जिसे प्रभु मांगने पर ही देते हैं ।
जब साधक इस भाव से ध्यानयोग में जाता है फिर वो स्वयं ही कामना शून्य रहता है और बहुत जल्दी समाधि में जाता है । ऐसा साधक समाधि से मिलने वाली सिद्धियों के प्रति आसक्त नहीं होता क्यूंकि उसे मालूम रहता है की इस तरह से वो अपने साधन पथ से च्युत हो जाएगा ।