Sunday, 24 June 2012

ध्यानयोग 8


ध्यान में एक तो हम योग द्वारा बढ़ते हैं जिसमे हम प्राणायाम करते हुए प्राणों को व्यवस्थित रखते हुए चित्त को निरुद्ध करते हैं और फिर धीरे धीरे समाधि में प्रवेश करते हैं
जिसे महर्षि पतंजलि जी ने आष्टांगयोग में समाहित किया है ।
समाधि में भी पहले हम निर्विचार समाधि को प्राप्त होते हैं और उसके बाद पूर्ण निर्विचार या कामनाशून्य समाधि
दूसरा ध्यान में हम सीधे ज्ञानयोग अथवा सांख्य के माध्यम से सतत विवेक की प्रधानता द्वारा कामनाशून्य अवस्था को प्राप्त करते हैं
तीसरा हम सांख्य और योग दोनों का समन्वय करते हुए पूर्णकामनाशून्य अवस्था को जिसे तुरीयातीत,भावातीत,गुणातीत,मायातीत,बुद्धत्व,जीवन्मुक्त आदि कहते हैं

जैसे राजा जनक अष्टावक्र जी मात्र श्रवण करके ही इस अवस्था को उपलब्ध हो गए

अधिकतर व्यक्ति तीसरे मार्ग का अनुसरण करता है क्यूँकी सांख्य और योग दोनों के द्वारा आगे बढ़ने से व्यक्ति स्वाभाविक ही अपने मूल स्वभाव को आत्म स्थिति को प्राप्त हो जाता है
यहाँ मेरा ये सब कहने से अभिप्राय क्या है क्यूंकि इसे तो पिछली पोस्ट में वर्णित किया गया है
। यहाँ मैं ये कहना चाहता हूँ की इस सब का उद्देश्य क्या है ? ध्यानयोग में अपनी आत्मिक अवस्था,स्वरूप अवस्था ही पाना तो कठिन है और वो ही आवश्यक भी है इसीलिए हम आचार्यों,गुणीजनों,शास्त्रों की बातों का अनुसरण करते हुए,श्रद्धा रखते हुए इसे करते हैं । ये हम इसीलिए करते हैं की हमे मालूम होता है की ध्यानयोग के द्वारा ही हमे सच्चा आनंद मिल सकता है,ध्यानयोग के द्वारा ही व्यक्ति स्वयं में स्थित हो सकता है

समाधि से व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त होता है,मोक्ष प्राप्त कर सकता है
बस यहीं सबसे ज्यादा समझने वाली बात है एक तो मोक्ष की कामना लेते हुए ध्यान को करना ही अपने आप में एक कामना है क्यूंकि समाधि तभी घटेगी जब हम अधैर्य से काम न लें,कुछ भी कामना  न करें
परन्तु मैं इसके आगे की बात करना चाहता हूँ वो ये की मोक्ष मिलने पर भी मोक्ष नहीं लेना चाहिए
। इसे समझना होगा क्यूँकी फिर प्रश्न यही उठेगा की ये सारा तामझाम तो हमने मोक्ष पाने के लिए ही किया था और मैं यही कहना चाहता हूँ की मैंने कभी भी मोक्ष शब्द पिछली पोस्ट्स में नहीं लिखा
मोक्ष है क्या? इसे समझना ज़रूरी है


संसार आवागमन, जन्म-मरण और नश्वरता का केंद्र हैं। इस अविद्याकृत प्रपंच से मुक्ति पाना ही मोक्ष है।
यानी व्यक्ति जीवन मरण के आवागमन अथार्त बार बार जन्मने मरने से छूट जाता है और ब्रह्म में ही लीन हो जाता है,मुक्त हो जाता है । 

ये मुक्ति छः प्रकार की कही गयी है :


 (1)साष्ट्रि, (ऐश्वर्य)
 (2)सालोक्य (लोक की प्राप्ति)
 (3) सारूप्य (ब्रह्मस्वरूप)
 (4)सामीप्य, (ब्रह्म के पास)
 (5) साम्य (ब्रह्म जैसी समानता)
 (6) लीनता या सायुज्य (ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म हो जाना)।

 निश्चित रूप से व्यक्ति का ये ध्येय होना चाहिए और अधिकतर इसे ही ध्येय बनाते हैं
। 
यहाँ व्यक्ति के विचार पर निर्भर करता है की वो अखंडरस को चुने या अनंतरस को । मोक्ष है अखंडरस और भक्ति है अनंतरस । 
समाधि के द्वारा सिर्फ मोक्ष ही प्राप्त नहीं होता,समाधि के द्वारा सिर्फ मोक्ष का प्राप्त होना हम मान लेते हैं ।
भागवत अथवा राम कथा के दौरान मुझे ज्यादा समय नहीं मिल पाता इस पर बोलने को क्यूंकि ध्यान पर बोलने के लिए सिर्फ ध्यान का ही प्रकरण होना चाहिए
लेकिन मैं चाहता हूँ की इसे अधिक से अधिक लोग समझें । क्यूंकि ध्यान द्वारा समाधि प्राप्त करके हम जो अद्वैत का अनुभव करते हैं उसे हम अपनी भक्ति में भी लगा सकते हैं 
फिर उसका आनंद कुछ और होता है । क्यूंकि रामायण में आया है 'ग्यानिही प्रभुहि बिसेषी पियारा' अथार्त  चारों प्रकार के भक्तों में ग्यानी भक्त जिसे तत्वज्ञान होता है प्रभु को सबसे अधिक प्रिय होता है ।
ध्यान का उद्देश्य मेरा मानना है प्रभु का प्रेम प्राप्त करना । उपर्युक्त मुक्ति मिलना अलग बात है लेकिन माँगना अलग बात है अथार्त वो भी प्रभु ही देते हैं क्यूँ क्यूंकि व्यक्ति उन मुक्तियों को प्राप्त करने लायक हो
चुका होता है लेकिन जो भगवान् जल्दी नहीं देते अथार्त उनमे परम प्रेम क्यूंकि हम निष्काम भक्त जल्दी नहीं बन पाते मैं इसे अथार्त निष्काम भक्ति को आखिरी प्रकार की मुक्ति ही कहूँगा जिसमे साधक चाहता हैं प्रभु मैं भले बार बार जनम लूँ परन्तु आपका प्रेम मुझसे न छूटे,आपका भजन मुझसे न छूटे और जिसे प्रभु मांगने पर ही देते हैं ।
जब साधक इस भाव से ध्यानयोग में जाता है फिर वो स्वयं ही कामना शून्य रहता है और बहुत जल्दी समाधि में जाता है । ऐसा साधक समाधि से मिलने वाली सिद्धियों के प्रति आसक्त नहीं होता क्यूंकि उसे मालूम रहता है की इस तरह से वो अपने साधन पथ से
च्युत हो जाएगा ।

Friday, 15 June 2012

ध्यानयोग 7

ध्यान को हमने अभी तक सिर्फ इस परिद्रश्य में समझा है की आखें बंद करके हम बैठ जाएँ और मन को कहीं एकाग्र करें
जबकि ऐसा बिलकुल नहीं है
। ध्यान एक आध्यात्मिक शब्द है जिसका अर्थ है स्वयं से रूबरू होना,स्वयं से वार्तालाप करना
अपने स्वयं के उस स्तर पर पहुंचना जहाँ ये साफ़ हो जाता है की इस शरीर में भी परमात्मा का वास है और उस अनुभूति में पहुँचने का एक माध्यम है ध्यान

 ध्यान का अर्थ है परमशान्ति की राह में रखा जाने वाला सबसे सही कदम जहाँ हमारा मन खो जाए,जहाँ हम अपने मन से पार निकल जाएँ

इसे ऐसे भी समझ सकते हैं की जहाँ हम स्वयं को समझें,स्वयं से बात करें बिना अपने मन की सहायता से,बिना अपने मन को साथ   

लिये हुए
। हमने स्वयं को अभी तक ऐसा रखा है की हम जो भी चीज़ करते हैं संसारी करते हैं । हमे ऐसे संस्कार मिले जहाँ हमे सांसारिक मान,प्रतिष्ठा
के लिए ही तैयार किया गया
। हमारी विद्धा पेट भरने के इलावा कुछ नहीं है और हमारा ज्ञान भी वैसा ही है अथार्त संसारी है
अपने आप ही हम संसारी चीज़ों को ही महत्व देते हैं और संसारी बात ही देख पाते हैं और सोच पाते हैं,परिणामतः जीवन हमारा ऐसे ही गुज़र जाता है और
कई बार तो संसार से जाते हुए भी हम ये ही भ्रान्ति पाले रखते हैं की हमने सबकुछ ठीक किया और अपने मन के हिसाब से ठीक ही सुख भोग लिया,अच्छा आनंदमय जीवन जिया और जो थोड़े बहुत दुःख भी मिले वो शायद इसलिए की सुखों को भोगने के लिए दुखों को भोगना ही होता है

लेकिन क्या ये सही है ?
क्या ऐसा जीवन उत्तम है ?
क्या जीवन में हमे आत्मा,परमात्मा आदि के बारें में सोचना चाहिए ?
क्या जीवन विनाशशील वस्तुओं के संग्रह के अलावा कुछ भी नहीं ?
क्या सांसारिक सुख जो हम धन,मान आदि से प्राप्त करते हैं या जो हमे रिश्ते-नातों,दोस्तों से मिलते हैं वे वास्तविक सुख होते हैं ?
क्या सांसारिक सुख को प्राप्त करना ही व्यक्ति का उद्देश्य होता है ?
क्या सांसारिक सुख सदैव के लिए हैं ?

हम इसका उत्तर  येही पायेंगे की नहीं सांसारिक सुख से व्यक्ति को सच्चा आनंद नहीं मिल सकता बल्कि सांसारिक हर सुख से अंत में व्यक्ति को सिर्फ दुःख ही मिलता है ये एक परम सत्य है


फिर प्रश्न उठता है की यदि अध्यात्म में अथार्त परमात्मा प्राप्ति में ही सच्चा आनंद निहित है तो

क्या परमात्मा के बारें में भी हमे जीवन के उतरार्ध में ही सोचना चाहिए ?

पिछली पोस्ट में भी मैंने इसका ज़िक्र किया था की हम जब चेत जाएँ हमे उसी वक़्त परमशान्ति की राह में चल पड़ना चाहिए । आदर्श अवस्था हमारी जवानी है जब हम शक्ति से भरे होते हैं हमे तभी अध्यात्म की अपनी यात्रा शुरू कर देनी चाहिए क्यूंकि बुढापे में जब हमारे अन्दर शक्ति नहीं रहेगी हम प्रभु को क्या सोच पायेंगे । हमारी प्रज्ञा भी दूषित रहती है थकी रहती है क्यूंकि उसपर इसी जीवन के राग-द्वेष के घने संस्कार पर चुके होते हैं । हमारे हाथ में ताकत नहीं तो हम क्या माला जपेंगे,हमारे पैरों में शक्ति नहीं तो हम क्या मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारे,गिरिजाघर आदि जा सकेंगे

यानी एक तो शक्ति नहीं रहती दूसरी भक्ति नहीं रहती अथार्त सहज रूप से हमारी भावना भी नहीं रहती


इसलिए हमे जवानी से ही अपने सांसारिक जीवन के साथ आध्यात्मिक ज्ञान अर्जन करना शुरू कर देना चाहिए

ये जो ज्ञान शब्द है इसका अर्थ हम अधिकतर वो लगा लेते हैं जो की स्मृति का अर्थ होता है

स्मृति का अर्थ है शाब्दिक ज्ञान अथार्त दूसरे का जाना हुआ परन्तु ज्ञान का अर्थ है अपना जाना हुआ,स्वयं का अनुभव


इसलिए
मात्र शब्दों संग्रह नहीं करना चाहिए क्यूंकि वो तो एक निर्जीव मशीन भी कर सकती है
उन्हें पढना नहीं है उन्हें समझना है क्यूंकि बिना अनुभव किये हुए शब्दों को जानना ज्ञान नहीं है वो तो स्मृति है

तो ध्यान ही सबकुछ है यहाँ तक की जो हम बेध्यान से भी इस जगत को देखते हैं वो भी ध्यान में ही डूबा हुआ है यहाँ तक की स्वयं का हमारा स्वरुप हमारे सांसारिक कार्य करते हुए भी ध्यान में ही है
। अंतर सिर्फ यही है की हमे पता नहीं चल पाता और हमारे ये पता न चल पाना ही हमे निरंतर दुखों में भटकाए हुए हैं चौरासी लाख योनियों की यात्रा कराये हुए है जब हमे इस बात का पता चलने लगता है हम ध्यान को उपलब्ध होने लगते हैं

जीवन में हम देखते हैं हमे अवगुण सिखाने वाले हमारे पूरे जीवन काल में 80 % लोग मिलते हैं कई बार तो दोस्त दोस्त को ही ग़लत आदत सिखाते हैं लेकिन उसे सही बात,गुणदायक बात नहीं बताते
। उस पर भी हमे कोई अच्छी बात बताता है तो हम उसकी गंभीरता को नहीं समझते

उसमे भी कोई यदि आध्यात्मिक ज्ञान की बात करता है तो अधिकांशतः हम उसे उतनी गंभीरता से नहीं लेते उसे प्राथमिकता नहीं देते

आध्यात्मिक ज्ञान के विषय में हर जगह,हर शास्त्र में ये विशेष जोर देके कहा गया की इसे बहुत ही घनिष्ठ को बताना चाहिए,इसे अधिकारी को ही बताना चाहिए अनाधिकारी को कभी नहीं
। इसकी अहमियत तो ऐसी है की यही कोई जाग्रत व्यक्ति,अनुभवी व्यक्ति इस पर कुछ बोलता है तो उसके शब्द एक नए शास्त्र की रचना करने लगते हैं । उसका प्रत्येक शब्द उसकी आत्मा से निकला हुआ होता है और हर शब्द ज्ञान का पुंज होता है बहुत सजोके रखने लायक होता है
आध्यात्मिक ज्ञान हर धर्म,हर मज़हब में सबसे ऊपर माना गया है और आध्यात्मिक ज्ञान हर धर्म हर मज़हब का एक ही है

आध्यात्मिक ज्ञान पर यदि हम कुछ भी कभी भी सुने हमे सच्चे दिल से ये मानना चाहिए की हमने कुछ अच्छे करम किये जिससे परमात्मा प्रभु ने वो ज्ञान हमे किसी माध्यम से सुनवाया जो स्वयं उस परमेश्वर का ही है
। आध्यात्मिक ज्ञान की उपेक्षा व्यक्ति में पाप का संचार करती है,आध्यात्मिक ज्ञान की निंदा व्यक्ति के पुण्यों को क्षीण करती है और आध्यात्मिक ज्ञान को मन लगाके सुनने से व्यक्ति पर परमात्मा खुश होने लगता है
क्यूंकि आध्यात्मिक मार्ग ही एकमात्र मार्ग है परमात्मा प्राप्ति का और ध्यान से अधिक महत्त्वपूर्ण इसमें कुछ भी नहीं

हम जो भजन,प्राथना भी करते हैं वो भी ध्यान का ही एक रूप है क्यूंकि उसमे भी हम अपने मन,बुद्धि से ऊपर उठ चुके होते हैं

हम जानते हैं ध्यानयोग को सांख्य व योग दोनों से ही कर सकते हैं और अलग अलग भी
। सांख्य में व्यक्ति को किसी आसन,प्राणायाम की ज़रूरत नहीं रहती उसे बस अपने विवेक को,प्रज्ञा को ,समझ को ही महत्व देना होता है और जाग्रत करना होता है
पिछली पोस्ट में मैंने सांख्य का ज़िक्र किया था ये पूरी पोस्ट सांख्य की ही है । पिछली पोस्ट में मैंने सांख्य का ज़िक्र करते समय होश का ज़िक्र किया था उसे समझना अत्यंत आवश्यक है
हम अभी जो जीवन जी रहे हैं वो मूर्छित अवस्था में जी रहे हैं अथार्त हमे मालूम नहीं चलता कब हममे विकार(काम,क्रोध,लोभ,हिंसा) आ जाते हैं और परिणामतः हमे दुःख ही मिलता है,हम राग-द्वेष में ही जीवन व्यतीत कर देते हैं
। होश का अर्थ है की हम ऐसी अवस्था में पहुँच जाएँ जहाँ जैसे ही हमारे में कोई विकार उठे हम उसे पकड़ सकें,हम ये जान सकें की हाँ अभी मुझमे क्रोध उठा,अभी मुझमे लोभ उठा और ऐसी स्थिति में व्यक्ति इन विकारों से बंधता नहीं और परिणामतः वो सम(आनंद का धाम) ही रहता है । और इस स्थिति में व्यक्ति तभी पहुँच सकता है जब उसका चित्त निरुद्ध हो,मन तथा बुद्धि से पार हो
दूसरा सांख्य में ये बहुत आवश्यक है की हम भूत,भविष्य की जगह वर्तमान को महत्त्व दे अथार्त अहंकार और लोभ से बचें

अहंकार हमे भूत काल की तरफ ले जाता है की हमने ये किया ये पाया और लोभ हमे भविष्य में फ़साये रखता है की ये करना है वो करना है परिणामतः व्यक्ति वर्तमान को हमेशा भूला रहता है
। हम हमेशा बहुत जल्दी में रहते हैं, एक काम किया नहीं की दूसरा उठा लेते हैं । एक विचार पूरा हुआ नहीं की दूसरे में लग जाते हैं और बस इसी भागदौड़ में पूरी ज़िन्दगी बिता देते हैं और हमे ये मालूम ही नहीं चल पाता की ज़िन्दगी का नाम तो रुकना था,ठहरना था वर्तमान को महसूस करना वर्तमान का ही आनंद लेना था

व्यक्ति को विचारशून्यता और कामनाशून्यता
ये दो मंत्र समझने चाहिए स्वयं को वर्तमान में स्थित होने के लिए

Monday, 11 June 2012

ध्यानयोग 6

अधिकांशतः व्यक्ति ज्ञान के अभाव में अपना जीवन गुज़ार देता है
जीवन में हर तरह का अभाव मिटाया जा सकता है और हर तरह का अभाव(
सिवाय आध्यात्मिक ज्ञान के) निष्प्रभावी होता है अथार्त उसका व्यक्ति के स्वरुप आत्मा से कोई लेना देना नहीं होता 
आध्यात्मिक ज्ञान का अभाव ही असली अभाव होता है और
आध्यात्मिक ज्ञान हासिल करना ही प्रत्येक व्यक्ति का एकमात्र कर्त्तव्य है। यदि ये कहा जाए की व्यक्ति का मात्र एक ही असली कार्य  होता है,जीवन का उद्देश्य होता है और वो है आत्म-ज्ञान,परमात्म ज्ञान तो बिलकुल सही होगा 
साधारणतया व्यक्ति अपने चौबीस घंटों में शायद ही 5-10% समय निकाल पाता हो जीवन में कुछ नया जानने के लिए,उसमे भी
और भी कम प्रतिशत होता है विवेक ज्ञान को,आत्म-ज्ञान को जानने वालों का । यानी हम चौबीस घंटों में विवेक को शायद 10 % ही महत्व दे पाते हैं और फिर समय का चक्र घूमता है तो हम देखते हैं की बुढापे तक जब हमारा अधिकाँश समय निकल जाता है तो भी हम वोही रूटीन दोहरा रहे होते हैं
यानी की अधिकांशतः लोग अपने जीवन का 10 % 
ही विवेक ज्ञान में,उसके महत्व जानने में  निकाल पाते हैं
यहाँ एक प्रश्न ये उठता है की क्या ये 10 % ज्ञान भी जो हमने हासिल किया वो हमारे कुछ काम आया,क्या हमने उसका अनुसरण किया क्यूंकि यदि सही मायनों में किया होता तो क्या जीवन के उत्तरार्ध तक हम अपने जीवन का 10% ही समय विवेक ज्ञान को,आत्म-ज्ञान को देते रहते
। निश्चित ही नहीं क्यूंकि जैसे ही हम अनुसरण आरम्भ करते हम 90% समय विवेक ज्ञान को 10 प्रतिशत व्यावहारिक जगत को देने लगते हैं 
अथार्त 90% हम आत्मा को,परमात्मा को और 10% संसार को अथवा शरीर को महत्व देते
 
सच्चाई तो यही है की हमे 100 % आत्मा को और परमात्मा को ही महत्व देना चाहिए क्यूंकि उसके अतिरिक्त जो भी हमे दिख रहा है ये नश्वर जगत सब मिथ्या है

ये साधन मिले हुए हैं हमे साधना के लिए लेकिन हमने इनसे तादात्म्य स्थापित करके,इन्हें विषय सुख,और भोग विलास का हेतु मान लिया
इसीलिए हम जाने अनजाने अविवेक को महत्त्व देने लगते हैं और विवेक की बात हम मानने के बाद भी मान नहीं पाते,अनुसरण नहीं कर पाते
क्या इस तरह से जीवन जीने को हम सही मान सकते हैं ?
यानी अधिकांशतः लोगों का जीवन इस तरह होता है जैसे कोई बर्फ का टुकड़ा पाने के ऊपर हो
। हम अविवेक को मानकर ऐसा ही जीवन जीते हैं क्यूंकि बर्फ के टुकड़े का मात्र 10 % भाग ही पानी के ऊपर होता है और बाकी 90 % भाग पानी के भीतर
मतलब हम आम जीवन में 10 प्रतिशत ही विवेक से भरे होते हैं,हमारे अन्दर विवेक ज्ञान होता है और बाकी 90 % हम अविवेक को,आसक्ति को दिए रहते हैं


धन,मान,लोभ,लालच,क्रोध,काम,दंभ के गुलाम बने हुए हम असल में एक भिखारी की ज़िन्दगी जीते हैं क्यूंकि सारी ज़िन्दगी हम सिर्फ कामना करते हैं

कुछ पा लिया तो उससे आगे कुछ पाने की कामना और हमे इस कुछ को प्राप्त कराने वाले साधन यही काम,क्रोध,दंभ,छल आदि होते हैं
। अपने आस-पास भिखारियों की भीड़ देखके हम ठिठकते नहीं,विवेक को महत्व नहीं देते बल्कि और लगन से कामना को बढाते हैं और लगन से,जोश से हम भीख मांगते हैं कुछ अच्छा हो जाने पर पद,प्रतिष्ठा धन,मान रुपी भीख मिल जाने पर दूसरों के अनुमोदन पर उत्साह पाकर हम और उत्साहित हो जाते हैं तथा और शक्ति से लगन से और बड़ी भीख मांगने लगते हैं
औरों को समझाना,राह दिखाना तो लगभग असंभव होता है क्यूंकि हमारा मन ये मानता ही नहीं की हम राह से भटके हुए हैं
। हमे लगता ही नहीं की हम कुछ ग़लत कर रहे हैं । 
 ऐसा हम क्यूँ करते हैं उसका उल्लेख पिछली पोस्ट में किया गया है जहाँ हम देखते हैं की मनुष्य के अविवेक प्रधान होने में रज गुण उत्तरदायी होता है
हैरत की बात यही रहती है की व्यक्ति का विवेक इतना भी काम नहीं करता की ये सब कुछ साथ नहीं रहना है इस तथ्य को वो मान नहीं पाता

परिणामतः अपने जीवन में पद,प्रतिष्ठा,रिश्ते-नाते,दोस्त-यार,धन,संपत्ति को ही समझने वाला मनुष्य,इन्ही में सुख मानता हुआ,सुख ढूंढता हुआ अपने जीवन के आखिरी में भी भिखारी ही बना रहता है अथार्त इन्ही में आसक्त रहता है 
। हम इस मांगने से निकल नहीं पाते
यही नहीं फिर मृत्यु के बाद नया जन्म लेने पर भी अज्ञान नहीं हट पाता हम फिर वोही दोहराते हैं,बिना सोचे समझे उसे ही दोहराए चले जाते हैं
। परमात्मा के दिए हुए इस अद्भुत चोले शरीर से हम परमात्मा का ज्ञान तक नहीं कर पाते । हम परमात्मा का ज्ञान कराने वाले सरल ह्रदय लोगों की बातों का अपने जीवन में अनुसरण नहीं कर पाते,कई बार तो विवेकपूर्वक सुन-समझ भी नहीं पाते । बस जीवन को मोह और अज्ञान वश ऐसे पकडे रहते हैं जैसे ये हमारे साथ हमेशा रहना है
बड़े से बड़े सुख से भी अंततः दुःख मिलता है जानकर भी आसक्ति नहीं छोड़ पाते,कामना के दास ही बने रहते हैं

समाधि में जाने के बाद व्यक्ति को पता चलता है की उसकी आसक्ति की, चाहना की,कामना की दौड़ निराधार थी
क्यूंकि उसका अपने स्वरुप से साक्षात्कार हो जाता है जो पूर्ण है,नित्य है,सदैव तृप्त है,सम है,शांत है,निर्विकार है उसका स्वरुप स्वरूपतः ब्रह्म है और अपने आप से अपने आप में ही संतुष्ट है

परमात्मा को दो तरह से ही जाना जा सकता है । एक सांख्य के द्वारा दूसरा योग के द्वारा
योग के बारें में तो इतनी पोस्ट्स से बात चल ही रही है लेकिन सांख्य के बारें में भी लगातार लिखा जा रहा है

अतः ये आवश्यक है की दोनों के अंतर को जान लिया जाए

सांख्य है सिर्फ जानना भर,परमात्मा का तत्व-ज्ञान द्वारा परमात्मा तक पहुंचना

और योग है प्राणों को व्यवस्थित करके एक निश्चित प्रक्रिया द्वारा परमात्मा तक पहुंचना

दोनों के द्वारा व्यक्ति परमेश्वर तक ही पहुँचता है

योग में भी हम आठ चरणों में आठवें चरण समाधि द्वारा उसी परमात्मा को प्राप्त करते हैं

सांख्य द्वारा विवेक से भर जाने से,ज्ञान द्वारा हम उसी परमात्मा तक पहुँचते हैं

संत ओशो जी कहते हैं सांख्य शुद्ध ज्ञान है
। योग साधना है
सांख्य कहता है करना कुछ भी नहीं है,सिर्फ जानना है,योग कहता है-करना बहुत कुछ है और तभी जानना फलित होगा

ये दोनों ही सही हैं
। ये निर्भर करेगा साधक पर । अगर कोई साधक ज्ञान की अग्नि इतनी जलाने में समर्थ हो की उस अग्नि में उसका अहंकार जल जाए,सिर्फ ज्ञान की अग्नि ही रह जाए,ज्ञाता न रहे,भीतर कोई अहंकार का केंद्र न रह जाए,सिर्फ जानना मात्र रह जाए,बोध रह जाए,'अवेयरनेस' रह जाए, तो कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है । जानने की अथार्त ज्ञान की इस अग्नि से ही सब कुछ हो जाएगा । जानने की स्थति को ही
बढ़ा लेना काफी है । जानने में रोज़ रोज़ अग्रसर होते जाना काफी है । होश बढ़ जाए अथार्त जाग्रति आ जाए तो पर्याप्त है

पतंजलि जी ने योग के आठ अंग कहे हैं यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार,ध्यान,धारणा और समाधि
।जिसमे अंतिम तीन अंग  बहुत महत्वपूर्ण हैं और समाधि में जाके जब हम अहंकारशून्य हो जाते हैं हमारा होनापन,मैं-पन नहीं रहता हम परमात्मा को प्राप्त करते हैं । योग प्राण पर ही सारा काम करता है इसलिए योग की मौलिक प्रक्रिया है प्राणायाम

योग और सांख्य को संयुक्त मानकर चलना चाहिए दोनों को जारी रखना चाहिए क्यूंकि इससे गहरे परिणाम होते हैं जल्दी होते हैं और शक्ति भी कम व्यय होती है

अथार्त एक तरफ ध्यान रखना है की जागरण बढ़ता जाए और दूसरी तरफ ध्यान रखना है की ऊर्जा संगृहीत होती चली जाए
। योग का प्रयोग करें और सांख्य का ध्यान रखें

इसलिए शुरू से ही ध्यानयोग की इस श्रंखला में मैंने दोनों को समाहित किया है जिससे और स्वाभाविक रूप से हम ध्यानयोग को समझ सकें उसका आनंद ले सकें
।परन्तु व्यक्ति अपने अनुसार केवल सांख्य अथवा केवल योग द्वारा भी अपनी साधना को कर सकता है,ध्यानयोग में आगे बढ़ सकता है

संत ओशो बताते हैं की मन को हम इसलिए जोर से पकडे हैं क्यूंकि हमे डर है की अगर मन नहीं रहा तो हम नहीं रहेंगे । असल में हमने जाने-अनजाने मन को अपना होना समझ रखा है । उससे तादात्म्य कर लिया है । समझ लिया है की मैं मन हूँ । जब तक हम स्वयं को मन समझेंगे हम समस्त बीमारियों को पकड़े रहेंगे । जहाँ मन है वहां समस्याएं ही समस्याएं हैं,जैसे पेड़ों पर पत्ते लगते हैं वैसे ही मन में समस्याएं लगती हैं । समाधान मन में कभी उत्पन्न नहीं हो सकता क्यूंकि मन के तल पर समाधान कभी भी नहीं है,समाधान तो वहां है जहाँ मन खो जाता है
अतः एक तो ये समझना है दृढ रूप से की स्वरुप मन नहीं है बल्कि मन को जानने वाला है

और दूसरी बात ये की ध्यान है मन के पार जाना अथवा मन का शून्य हो जाना

सांस को व्यवस्थित पूरक (लेने में),कुम्भक(रोकने में ) रेचक (छोड़ने में ) द्वारा भी किया जा सकता है

जिसका अनुपात 1:4:2 होता है  


यानी सांस को यदि हम पांच सेकण्ड लें तो बीस सेकण्ड रोकें  और दस सेकण्ड में छोड़ें यानी 1:4:2 के हिसाब से 5:20:10



उसी तरह से यदि हम सांस को मात्र देख रहें हैं तो भी ध्यान को प्राप्त हो सकते हैं क्यूंकि इससे भी हमारा चित्त निरुद्ध होता है

Monday, 4 June 2012

ध्यानयोग 5

ध्यान को करते समय व्यक्ति को चाहिए की अपनी रीढ़ की हड्डी,गर्दन और सर सीधा रखे अथार्त एक ही सीध में रखे ।
ध्यान के लिए बैठते समय सीधे ज़मीन पर न बैठे बल्कि लकड़ी या कम्बल या ऐसा कोई कपडा आदि ले जिससे शरीर की ऊर्जा शरीर में ही रहे । ये जो भी हम बैठने के लिए इस्तेमाल करते हैं ये एक प्रतिरोधात्मक उपकरण हैं ऊर्जा के स्खलित न होने देने के ।
इसके बाद नासिका के अग्रभाग पर द्रष्टि जमाके ध्यान करना चाहिए । नासिका के अग्रभाग पर
द्रष्टि जमाके अथार्त अधखुली आखों से इसलिए कहा गया क्यूंकि इससे साधक निद्रावश न हो अथवा उसका मन इधर उधर न विचरे ।

छठे अध्याय में भगवान् ध्यान के लिए ये ही निर्देश दे रहे हैं ।
  


शुद्ध भूमि में, जिसके ऊपर क्रमशः कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करके॥11॥


उस आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे॥12॥


काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर, अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ॥13॥
 

ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित, भयरहित तथा भलीभाँति शांत अन्तःकरण वाला सावधान योगी मन को रोककर मुझमें चित्तवाला और मेरे परायण होकर स्थित होए॥14॥


हम ध्यान के वक़्त कुछ भी ध्यान करे अथार्त स्वयं का स्वरुप,भगवान् का चित्र या विग्रह या मात्र निर्विचार चेतना यानी विचारशून्यता में चलें जाए हम भगवान् का ही ध्यान करते हैं ।
 
इसीलिए भगवान् ने कहा है की योगी अपने चित्त को मुझमे लगाये ।

इसके साथ ही भगवान् ने आदर्श ध्यान हेतु पांच बातें और कही हैं
:

१. ब्रह्मचर्य का पालन करना

२. भयरहित होना
३.अंतःकरण का शांत होना
४.मन का स्थिर होना

५.भगवान् के परायण होना

यहाँ मेरा मानना है सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है की हमारा मन शांत हो,स्थिर हो  ।

क्यूंकि मन के स्थिर होने पर अंतःकरण भी शांत रहता है,भय भी नहीं उत्पन्न होता ।
वैराग्य के इलावा मन के स्थिर होने पर ही सही अर्थों में व्यक्ति की ब्रह्मचर्य में स्वाभाविक स्थिति होती है । शांत व स्थिर मन में श्रद्धा अपने आप बढ़ने लगती है जिससे व्यक्ति ईश्वर के परायण हो जाता है ।

परन्तु प्रश्न यही आ जाता है की साधक अपने मन को स्थिर कैसे करे,शांत कैसे करे ।


मन को स्वाभाविक रूप से शांत करने की,स्थिर करने की कई विधियां अब तक बताई गयी हैं ।


जिसमे मुख्य हैं :


१. वैराग्य भाव के जाग्रत रहने से ।


२. चित्त के निरुद्ध हो जाने से ।


३. स्वरुप को मन,बुद्धि का प्रकाशक जानने से ।


४. स्वयं के स्वरुप में स्थित हो जाने से ।

५.स्वयं को मन के पार ले जाने से अथार्त निर्विचार चेतना में पहुचने से ।

परन्तु फिर भी कई बार व्यक्क्ति का मन शांत नहीं हो पाता । इसके पीछे भी बहुत से कारण होते हैं जैसे साधक का संसार से राग न मिटना या साधक की अन्य साधकों की अपेक्षा साधना(ध्यान) में दृढ़ स्थिति न हो पाना यहाँ तक की ईश्वर है इसपर भी मन मस्तिष्क में संशय अत्यधिक रहना ।


इसी बात को महात्मा अर्जुन ने भगवान् से पूछा था जिसका मैंने पिछली पोस्ट में उल्लेख किया था ।



अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्‌ लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है॥३६ 
श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥
भावार्थ :  श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान॥३७

अर्जुन का ये प्रश्न अत्यंत महत्त्वपूर्ण है क्यूंकि हम स्वयं इस पर सोचे की वाकई में व्यक्ति पर अच्छाई से ज्यादा बुराई का रंग आसानी से चढ़ता है ।
हम जीवन में आसुरी गुणों(काम,क्रोध,लोभ,मोह,मद,अहंकार,ईर्ष्या,दंभ,हिंसा,अशांति आदि ) में बहुत जल्दी लिप्त हो जाते हैं दैवीय गुणों (सहिष्णुता,शान्ति,अहिंसा,करुणा,दया,प्रेम,शम,दम,नियम आदि ) की अपेक्षा ।
व्यक्ति संसार को भी सम देखने के बजाय गुण दोषमय ही देखता है और फिर इसी तरह से स्वयं के स्वरुप को भी ।
इस तरह से वो अपने चारो तरफ कहीं राग कहीं द्वेष उत्पन्न कर लेता है क्यूंकि ये राग द्वेष उसे लगता है उसके अंतःकरण में स्वाभाविक रूप से विद्यमान हैं ।
इस तरह से वो राग अथवा द्वेष से प्रेरित होकर ही कोई काम करता है । उसके मन में स्वाभाविक ही शुद्ध विचार नहीं आ पाते हैं । उसे स्वाभाविक ही अज्ञान अच्छा लगता है ।

इस पर भगवान् का उत्तर तकनीकी द्रष्टि से भी साधक की जिज्ञासा को,उसके अज्ञान को पूर्ण रूप से दूर करता है ।


भगवान् कहते हैं रजोगुण से उत्पन्न होने वाला ये काम ही क्रोध है यह भोगों से कभी नहीं अघाता,हे अर्जुन ! तू इसे ही कारण जान चित्त की चंचलता के पीछे ।

हम जानते हैं की सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण -ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं॥१४/५ ॥

इसमें सत्वगुण निर्मल रूप होने से प्रकाश करने वाला और विकार रहित होने से ज्ञान में लगाता है ,रजोगुण रागरूप होने से कामना और आसक्ति में  लगाता है तथा तमोगुण अज्ञानरूप होने से अज्ञान और प्रमाद में ही लगाता है ।


यहाँ भगवान् ने रजोगुण को कारण बताया है काम (इच्छा) की उत्पत्ति का ।

और इसे ही यदि व्यक्ति नियंत्रण में कर ले तो आसानी से उसका मन शांत हो सकता है ।

इसका उपाय भी भगवान् चौदहवें अध्याय में बताते हैं :


हे अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण, वैसे ही सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण होता है अर्थात बढ़ता है॥10॥


अथार्त यदि व्यक्ति अपने सत्वगुण को बढाए जो की रजोगुण और तमोगुण को दबाकर(नियंत्रित करने से ) होता है तो व्यक्ति में सदैव ज्ञान की प्रधानता रहेगी और वो इस तत्त्व को कभी नहीं भूलेगा की उसका स्वरुप सम है,अविकारी(विकार रहित) है ,ये सृष्टि गुण-दोषमय होने के बावजूद भी सम ही है,सबकुछ सम है और कहीं भी कुछ भी विकार युक्त नहीं है ।


इसी बात को भगवान् ने तीसरे अध्याय में भी अलग तरह से बताया है ऐसे भी समझा जा सकता है की

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥

भावार्थ :  वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है॥27॥
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥
भावार्थ :  परन्तु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग (त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पाँच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय- इन सबके समुदाय का नाम 'गुण विभाग' है और इनकी परस्पर की चेष्टाओं का नाम 'कर्म विभाग' है।) के तत्व (उपर्युक्त 'गुण विभाग' और 'कर्म विभाग' से आत्मा को पृथक अर्थात्‌ निर्लेप जानना ही इनका तत्व जानना है।) को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। ॥28॥
अथार्त प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः (सभी कार्य प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते है ) और गुणा गुणेषु वर्तन्त (गुण ही गुणों में बरत रहे हैं ) ।
यहाँ त्रिगुणात्मक माया से तात्पर्य सत्व,रज और तम गुणमयी माया से ही है अथार्त इन गुणों से ही है ।

यानी व्यक्ति का स्वरुप सत्व,
रज और तम इन तीनो से परे है अलग है वो मायातीत है इसलिए ज्ञानी सत्वगुण को भी स्वयं का गुण नहीं मानता क्यूंकि स्वयं अथार्त स्वरुप तो गुनातीत है । स्वरुप अथार्त आत्मा का वास्तविक तत्त्व तो तुरीयातीत रहना है,ब्रह्ममय रहना है क्यूंकि स्वरुप ब्रह्म ही है ।

इस बात को तत्त्व से जानते ही साधक का मन इन गुणों में नहीं आता ।उसमे भी वो रजोगुण में कभी लिप्त नहीं होता क्यूंकि वो जानता है की रजोगुण उसे कामनाओं में लगाएगा और कामनाओं का कोई अंत नहीं । साधक निश्चित रूप से अधिकाधिक स्वयं को सत्वगुण में रमायेगा क्यूंकि सत्वगुण पर्याप्त ज्ञान प्रदान करता है जिससे व्यक्ति को ध्यान में आसानी से जा सकता है और वहां समाधि में स्थित होने पर वो सत्वगुण से भी अलग होप जाता है गुनातीत हो जाता है ।

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥


सर्वव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है॥29॥

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥
  जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता॥30॥

छठे अध्याय में परमात्मा,परमेश्वर द्वारा कहे ये श्लोक ध्यान की उपलब्धि समाधि के लिए सार तत्व 
हैं ।  कैसे ?
इस पर आगे लिखा जाएगा ।

Friday, 1 June 2012

ध्यानयोग 4

 ध्यान में सबसे आवश्यक यही है की मन बुद्धि पर नियंत्रण हो या ये भी कह सकते हैं की ध्यान द्वारा मन बुद्धि पर नियंत्रण आसान होता है
यहाँ ये समझना आवश्यक है की बिना वैराग्य जगाये अध्यात्म में व्यक्ति कुछ हासिल नहीं कर सकता
मतलब यदि हम दिखावे के लिए नहीं स्वयं के लिए ध्यान या अध्यात्म में जा रहे हैं तो ये बहुत ज़रूरी है की हमारे अंतःकरण में ये भाव हो की शरीर-संसार क्षणभंगुर है,विनाशशील है,अनित्य है  और आत्मा नित्य है परमात्मा का अंश है
संसार न पहले था न बाद में रहेगा और अभी ये हर क्षण घट रहा है नष्ट रहा है और जीव (आत्मा) पहले भी था थी आगे भी रहेगा और इस समय भी ये अपने सतस्वरुप में ही है

इसलिए जीव जो की नित्य है,अविनाशी है उसे ये अनित्य और विनाशशील शरीर संसार व इसमें होने वाले इससे होने वाले सम्बन्ध सुख नहीं पहुंचा सकते है

और जीव को उसके लिए कुछ विशेष नहीं करना होता है उसका परमात्मा से सम्बन्ध स्वयंसिद्ध है उसे बस अपने अन्दर से संसार की महत्ता हटानी है और परमात्मा की सत्ता सही मायने में स्वीकार करना है

जीव को सुख परमात्मा से ही मिल सकता है और उसे पाने का माध्यम है अध्यात्म,ध्यान

इसलिए ध्यान को महज़ एक उत्सुकतापूर्ण हेतु अथवा जिज्ञासा के लिए नहीं समझना चाहिए इसका अनुभव करना चाहिए और बहुत ध्यान से ध्यान को करने से ज्यादा ज़रूरी है स्वाभाविक तरह से करे
 
ध्यान का आनंद तब तक अधूरा है जब तक साधक के मन में प्रभु प्रेम न उत्पन्न हो


 ध्यान क्या है कैसे कर सकते हैं इस बात पर पिछली पोस्ट्स पर काफी लिखा गया और आगे भी लिखा जाएगा 
ध्यान मन के पार जाना है,इन्द्रियातीत होना है, गुनातीत होना है

हमें कई बार ये ही नहीं मालूम चल पाता की हम संसार में जो भी करते हैं सब हम अपने मन की  ही प्रेरणा से ही करते हैं और कई बार तो ये मान भी नहीं पाते की मन से अलग भी एक जहाँ है जिसे अ मन अथार्त मन का न होना कहते हैं
ध्यान के साधक को इस जोन में पहुंचना होता है उसे अपने आप को अ मन की अवस्था  में लाना होता है जो की निश्चित ही विद्यमान है बस हमे उस तक पहुचना है
एक बार ध्यान में पहुँचते हैं तो हमे ऐसा आनंद होता है जो हमने सांसारिक सुखों में कभी नहीं पाया लेकिन उससे भी बढ़कर ये वो स्थिति होती है जहाँ साधक परमात्मा के काफ समीप होता है

हमारे आँख खोलते ही चारो तरफ हमे संसार दीखता है हम बिना कुछ सोचे समझे उसमे कूद पड़ते हैं और कभी कभी तो पूरा जीवन लग जाता है हम अपना आस्तित्व बस राग-द्वेष तक ही सीमित समझते हैं और इसी वजह से असली संसार से वंचित रह जाते हैं क्यूंकि हमारा मन चाहे जितना भी शक्तिशाली हो परन्तु वो जो भी सोचेगा मन से सोचेगा मायिक ही सोचेगा और ध्यान है अमायिक हो जाना इसलिए मन कभी भी अमायिक जोन में नहीं पहुँच सकता इसलिए जैसा की पिछली पोस्ट में उल्लेख किया गया है चित्त के अवरुद्ध हो जाने पर जब मन और बुद्धि निश्चेष्ट हो जाते हैं साधक अ-मन में अथार्त अमायिक जोन में, स्थिति में, अवस्था में प्रवेश कर जाता है

जहाँ वो देख पाता है की जिन मन,बुद्धि द्वारा वो संचालित होता रहा वो सामने निश्चेष्ट हैं,प्रकाश्य हैं
साधक को यथार्थतः स्वरुप का ज्ञान होने लगता है की उसका स्वरुप ही मन,बुद्धि इन्द्रियों का प्रकाशक है
 
व्यक्ति संसार में रहते हुए जाग्रत,स्वप्न अथवा सुषुप्ति अवस्था में हो सकता है और ये बात तो आसानी से समझ में आ सकती है की इन तीनो अवस्थाओं में जीव ही रहता है

जाग्रत में व्यक्ति जागा हुआ रहता है जिसपर थोड़ी देर में आते हैं,स्वप्न में व्यक्ति सपने देखता है जो की स्वयंउसके ही जाग्रत-अवस्था में मन द्वारा कल्पित वस्तुएं कल्पनाएँ होती हैं बहरहाल ये स्वप्न-अवस्था हो गयी

सुषुप्ति-अवस्था होती है स्वप्न रहित निद्रा इसमें व्यक्ति को होश नहीं रहता लेकिन ध्यान द्वारा जीव चौथी अवस्था को प्राप्त करता है जिसे तुरीयावस्था कहते हैं
यहाँ आँख बंद होने पर भी व्यक्ति होश में रहता है
जैसा पहले बताया गया की संसारी भाषा में जो हम जीव के जागने को जाग्रत अवस्था कहते हैं उसमे भी असल में जीव सोया हुआ ही है क्यूंकि जैसे सुषुप्ति अवस्था में उसकी इन्द्रियाँ सोयी हुई होती हैं वैसे ही जाग्रत अवस्थ में भी वो मन बुद्धि के नियंत्रण में होने के कारण और उन्हें अपने वश में न कर सकने के कारण उनके द्वारा संचालित होता है इसलिए इसे सही अर्थों में जागना नहीं कहा जा सकता

जबकि तुरीयावस्था में जब जीव ध्यान से समाधि में प्रवेश करता है तब भी उसका होश बना रहता है वो जागा हुआ होता है क्यूंकि वो मन,बुद्धि को देख रहा होता है उसकी मन बुद्धि स्वतः उसके नियंत्रण में होती हैं

इसे ऐसे भी समझ सकते हैं की मनुष्य के तीन तरह के शरीर होते हैं जाग्रत अवस्था में स्थूल (कर्मेन्द्रिय व ज्ञानेन्द्रिय सहित हाथ,पैर,मन,बुद्धि सहित ) शरीर सहित स्वप्न में सूक्ष्म शरीर (मन,बुद्धि सहित ) और सुषुप्ति में कारण शरीर (जहाँ जीव का अहम् यानी होनापन ही उसके साथ होता है )
 
ध्यान द्वारा जब जीव समाधि प्राप्त करता है वहां इन तीनो (स्थूल,सूक्ष्म व कारण) शरीरों का लय हो जाता है और वही है तुरीयावस्था को प्राप्त होना जहाँ अखंडानंद निहित है

यानी हम रोज़ इन तीनो अवस्था से गुज़रते हैं हम किसी भी अवस्था में रहे जाग्रत,स्वप्न अथवा सुषुप्ति में से ही किसी में रहते हैं लेकिन जीव की असली अवस्था इन तीनो में से कोई नहीं है और वो है तुरीय अवस्था
यही जीव की स्वरुप-अवस्था है






अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्‌ लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है॥36॥॥ 
श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥
भावार्थ :  श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान॥37


 
महात्मा अर्जुन के इस प्रश्न पर प्रभु द्वारा दिया गया उत्तर अत्यंत सारगर्भित है और ध्यान के लिए अत्यंत उपयोगी कैसे है इसका अगली पोस्ट में वर्णन किया जायेगा