Monday, 9 July 2012

ध्यानयोग 9

आध्यात्मिक पथ पर झुकाव और जुड़ाव के बाद मैं अधिक समय नेट को नहीं दे पाता कारण समय की कमी के अलावा स्वयं का संसार से ज्यादा जुड़ाव न चाहना है । संसार से ज्यादा जुड़ाव से अभिप्राय यही है की सत्संग को पसंद तो बहुत लोग करते हैं लेकिन उस पर चर्चा बहुत कम किया जाता है ।
सत्संग के बगैर गया सारा वक़्त मेरा मानना है कूड़े के सामान है निरर्थक है और सत्संग में गया सारा समय एक ऊर्जा है,एक चैतन्यता है एक दीप है जो उर को अथार्त ह्रदय को सदा ज्ञान से प्रकाशमान रखता है ।
 मैं दोष भी नहीं देता की समाज में सत्संग अधिक क्यूँ नहीं होता क्यूंकि गीता में ही भगवान् ने बताया है की समस्त मानव जाति अधिकतर रजोगुण से ही प्रभावित रहती है । सतोगुणी लोग हमेशा से ही समाज में कम रहे है क्यूंकि वो अनासक्त होते हैं,आडम्बरहीन होते हैं ।
रजोगुण का  आधार ही आसक्ति और कामना है और कामना की पूर्ती में हिंसा (मानसिक) पनपेगी ही और अशांत वातावरण में तुरीयातीत अवस्था पर बात हो ये विचार ही हास्यास्पद है ।

तुरीयातीत अवस्था पर लिखी जाने वाली पोस्ट्स पर मौन ही टिप्पड़ी हो सकता है इसलिए मैंने कमेंट्स का ऑप्शन नहीं रखा और कोई वजह नहीं है ।
कुछ समय ही मैं ब्लॉग्गिंग जगत में काफी एक्टिव रहा जिसके फलस्वरूप कई ब्लोग्स पर गया और अब नहीं जा पाने पर भी कुछ ब्लोग्गेर्स ने इसे ग़लत नहीं लिया है क्यूंकि
इनकी सोच का आधार गुणवत्ता है टिप्पड़ी नहीं ।
कुछ सरल लोगों ने अपने उद्गार भेजे हैं जिनमे से एक कमेन्ट आदरणीय श्री अशोक जी का है :
 
आप की पोस्टें ज्ञान बड़ाने के लिए हैं हम जैसों की टिप्पणी पाने के लिए नही शुभकामनाएँ! on ध्यानयोग 8
on 6/24/12

मैं उनका आभार प्रकट करना चाहता हूँ की वो सतत पोस्ट्स को पढ़ते रहते हैं ।

मैं उनसे बहुत छोटा हूँ और यही कहूँगा की आप गुणी,अनुभवी और सत्संगप्रिय लोगों से ही परोक्ष,अपरोक्ष रूप से सीखता रहता हूँ ।
मैं ह्रदय से उनलोगों का भी शुक्रिया करना चाहता हूँ जो इस कलिकाल में जहाँ इंसान विवेक को महत्व नहीं दे पाता निरंतर पोस्ट्स को पढ़ते रहे हैं और आशा है लाभान्वित होते रहे हैं ।
कोई भी प्रश्न ध्यान के सम्बन्ध में प्रबुद्ध पाठकों को यदि है या आये और वो पूछना चाहें तो मुझे मेल कर सकते हैं ।
कुछ लोगों ने एनानीमस बनके कमेंट्स भेजे हैं उनमे एक प्रश्न भी आया है की ध्यान क्यूँ किया जाए ?
मैं अनुरोध करूँगा की हो सके तो वैलिड आई-डी से आये या अपना नाम ज़रूर लिखें । इससे आप और सहजता से सहज प्रश्न कर सकेंगे ।
मेरी कोशिश इन पोस्ट्स के माध्यम से यही है की इस तरह विस्तार से बढूँ की बिना प्रश्न के ही ज्यादा से ज्यादा समाधान लिख दूँ इसीलिए स्वयं भी समय समय पर ध्यान सम्बन्धी प्रश्न उठाकर समाधान लिखता रहा हूँ ।

पुनः प्रसंग पर चलते हैं और ध्यान क्यूँ किया जाए इस प्रश्न पर मैं इतना ही कहूँगा की इसी श्रंखला की शुरूआती पोस्ट्स देखें ।

बाकी एक वाक्य में उत्तर यही है की हम अपने सहज स्वरुप को ध्यान द्वारा ही जान सकते हैं,उसमे ध्यान द्वारा ही स्थित हो सकते हैं,ध्यान ही हमारा सहज स्वरुप है ।


विचारशून्यता,कामनाशून्यता की परिणीति ध्यान है अथार्त  विचारशून्यता प्रारंभिक सीढ़ी है,पहला चरण है और दूसरा चरण है कामनाशून्यता ।

यदि हम अनुभव करें अथार्त सोचें तो पायेंगे की विचारशून्यता मतलब निर्विचार चेतना और इस अवस्था के द्वारा अपने आप ही हमारे मन की शुद्धि होने लगती हैं
कलुषित विचार जाने लगते हैं और निर्मलता आने लगती है परन्तु कामना अथार्त विभिन्न सांसारिक इच्छाएं सूक्ष्म स्तर पर विद्यमान रहती है और वो चित्त को स्थिर नहीं रहने देतीं ।
मैं कहूँगा इसकी चिंता छोड़कर आगे तीसरे चरण पर बढ़ जाना चाहिए जो की है अहंकारशून्यता ।
व्यक्ति अहंकारशून्य होकर ही सही अर्थों में कामनाशून्य हो पाता है । अहंकार अथार्त मैं-पन यही आधार है हमारे चित्त का और जब मैं ही न रहा तो हम सोचेंगे क्या ?
व्यक्ति की इच्छाएं उसके वजूद से हैं लेकिन यदि उसने अपने वजूद ही खो डाला,मिटा दिया यानी जब आधार ही न रहा तो इच्छाओं की इमारत किस पर खड़ी होगी ?
नहीं,नहीं खड़ी हो सकेगी ।
यानी हमे ध्यान में बिना भय के अपने आप को खो देना है,मिटा डालना है,परमात्मा में अपनी आत्मा को बिना किसी संदेह के डुबो देना है ।
हमे ये समझना होगा की हम लहर हैं और परमात्मा समुद्र और लहर का वजूद वैसे भी समुद्र के बिना कुछ भी नहीं और अभी हम समुद्र से अलग हैं, अपने आपको समुद्र से अलग समझते हैं जबकि अलग बिलकुल नहीं हैं ।
जैसे बारिश की बूँदें धरती पर गिरें और सोचें की वो आसमान से पृथक हैं तो ऐसा बिलकुल नहीं क्यूंकि तत्वतः आसमान और पृथ्वी एक हैं ।
जैसे सूर्य की छाया पानी पर पड़े और वो छाया अपने को सूर्य से अलग मान ले तो उसके अलग मानने से ये सच नहीं हो जाएगा ।
जैसे अलग अलग घरों में जाने वाली बिजली को हम अलग अलग मान लें लेकिन ऐसा है तो नहीं क्यूंकि मूल स्रोत तो विद्युत का एक ही है,विद्युत ही बल्ब आदि के माध्यम से प्रकाश देती है उसी तरह समस्त जीव परमात्मा के द्वारा ही संचालित हैं और परमात्मा ही उनमे चेतन तत्त्व है वस्तुतः जीव शब्द है ही नहीं,आत्मा ही परमात्मा है,परमात्मा के सिवाय कुछ भी नहीं है ।

जब तत्त्व से हम ये समझ लेते हैं फिर ये भी समझ जाते हैं की स्वयं को परमात्मा से अलग मानने के कारण ही आत्मा का अलग वजूद हुआ जिसे अहंकार कहते हैं और फिर मन बुद्धि के खेल में पड़कर हम अपने अहंकार को और पुष्ट करते रहें । वो भी उस मैं-पन का पोषण करते हैं हम जो तत्वतः विद्यमान ही नहीं है ।


तो स्वयं के इस मैं-पन को हम ध्यान द्वारा ही समाप्त कर सकते हैं । स्वयं की खोज है ध्यान और स्वयं को खोना है समाधि ।

इसमें कुछ भी जल्दी करने की आवश्यकता नहीं है इसे तत्व से समझना ज़रूरी है इसे अनुभव करना पड़ेगा और उसके लिए ध्यान में उतरना पड़ेगा ।
ध्यान कुछ और नहीं स्वयं को खो जाना ही है,स्वयं को मिटा डालना ही है,जीते हुए मृत्यु का अनुभव करना ही है क्यूंकि तब जाकर ही हम वास्तविक जीवन में प्रवेश कर पाते हैं ।

आज मैं सांख्य की इस पोस्ट पर ध्यान के लिए कुछ निर्देश कहूँगा क्यूंकि अब इसका समय आ गया है इसके बाद वाली पोस्ट पर योग द्वारा ध्यान की उपलब्धि का प्रयास करूँगा ।

अभी केवल सांख्य अथार्त श्रवण के द्वारा हम ध्यान को उपलब्ध हो रहे हैं ।



सबसे पहले अपनी आँखें बंद कर लें और 10-15 गहरी सांस ले लें और जो भी विचार आ रहे हैं उनपर ध्यान न दें । स्वयं को आपने ये दस मिनट दिए हैं ऐसा सोचें ।

सोचें की बहुत संसार को सोच लिया संसार में आसक्त हो लिए,संसार में सुख ढूंढ लिया आगे भी ढूंढते रहेंगे लेकिन अभी ये वक़्त मैं अपने आपको दे रहा हूँ और पूरी इमानदारी और तन्मयता से दे रहा हूँ । मुझे सोचना है तो अपनी चेतना को, चेतना जो निर्विचार है । मैं कोई कामना अभी नहीं कर सकता क्यूंकि ये दस मिनट मैंने अपने आपको दिए हैं और मेरा स्वरुप कामनारहित है,सिवाय परमात्मा के संसार की कोई भी कामना मुझे सुख पहुंचा ही नहीं सकती । लेकिन मैंने ऐसा कभी सोचा ही नहीं और अपने मन को ही अपना स्वरुप मानकर मैं इच्छाओं का गुलाम हो गया और लाखों,करोड़ों जन्म निकाल दिए झूठे सुख को ढूढने में और हर जन्म में कुछ नहीं पाया लेकिन हर जन्म में फिर सांसारिक सुख को ही लक्ष्य बनाया । मुझे रास्ता मालुम नहीं था क्यूंकि मैंने खोजा ही नहीं । लेकिन अब मैं असली घर आ गया हूँ,स्वयं का स्वरुप आत्मा है जान चुका हूँ  । आत्मा जो की परमात्मा का अंश है,आत्मा जो की शाश्वत है,अजन्मा और सनातन है । आत्मा हूँ जो स्वभाव से ही सम है,शांत है,निर्विकार है जिसमे राग-द्वेष उत्पन्न ही नहीं हो सकते । मेरा मैं-पन भी मुझसे छूट रहा है,मुझे अपने इस मैं-पन को भूल जाना होगा क्यूंकि इसे छोड़ने के बाद ही वो दरवाज़ा खुलेगा जिसके दूसरी तरफ परमात्मा है । मुझे सबकुछ देने वाला मेरा परमात्मा कितना कृपालु है और अब स्वयं का भान भी करा रहा है,अब स्वयं को भी दे रहा है । मैं कितना कृतघ्न की परमात्मा से परमात्मा को छोड़कर विनाशशील पदार्थ ही मांगता रहा कितनी छुद्रता है मुझमे और ऐसा मैं कितने जन्मों से कर रहा हूँ नहीं अब मुझे कृतज्ञता प्रकट करनी है और स्वयं को परमात्मा के चरणों में समर्पित कर देना है । अब परमात्मा से परमात्मा को भी नहीं मागुंगा क्यूंकि वो तो हमेशा ही मेरे साथ था,मेरे साथ है । हे प्रभु तुमसे करुणा भी करुणा पाती है मैं तुममे समां रहा हूँ ये आत्मा अब परमात्मामय हो रही है ।
अब ये नदी समुद्र में मिल रही है,मिल गयी है मिल चुकी है ।
कुछ समय तक अपने को परमात्मा में डूब जाने दें ।

धीरे धीरे आँख खोलें और अभी के किये अनुभव को अनुभव करें । आपका मन एक अलग ही उल्लास से भर उठेगा ।
  

ॐ शान्ति: ! ॐ शान्ति: ! ॐ शान्ति: !