आदमी आदमियत से मुंह मोड़ रहा है
और खुद को इंसान कहला रहा है
परमाणु बम की खेप सजाये हर देश
जोर शोर से शान्ति का सन्देश दे रहा है
धर्म मज़हब के नाम पर क़त्ल-ओ-आम
और अल्लाह को ईश्वर को रिझा रहा है
देश के नेता देश को बेच रहे हैं
जनता को फिर भी चुनाव भा रहा है
घर में अच्छे संस्कार देने की जगह
वृद्धा आश्रम की नीव बना रहा है
मंहगाई ने तोड़ दिए कितने आशियाने
स्विस बैंक नेताओं की रकम बता रहा है
थानों के बगल में गुनाह हो रहे है
आदमी १५ अगस्त की परेड में जा रहा है
आस्था संस्कार को ब्लाक करके
ऍफ़ टीवी पर वासना दर्शन कर रहा है
घर पर गाय के दूध की जगह डिब्बे का
स्वयं शराब-बिअर का ग्रास बन रहा है
सत्संग से मन बुद्धि महकाने की जगह
बीडी सिगरेट से आत्म हनन कर रहा है
अपने में सुधार करने की जगह
औरों की खामियों का बखान कर रहा है
उपासना के वक़्त भी विषयों का चिंतन
साधन को ही साधना समझ रहा है
आत्म तत्त्व प्रखर हो भी कैसे
राग द्वेष में नित स्वयं को बाँध रहा है
परमानन्द मिलता है उसे 'प्रताप'
जो स्वयं का स्वरुप शरीर नहीं मान रहा है
आज की व्यवस्था का बहुत सटीक आंकलन...बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसटीक विचार प्रस्तुति!
ReplyDeleteआधुनिक युग का सटीक चित्रण ............
ReplyDeleteसटीक रेखांकन ...यही सब हो रहा है .....
ReplyDeleteगहरी बातें कहीं अहिं इस गज़ल में ... हर शेर समाज को कुछ कहता हुवा है ....
ReplyDeleteVery nicely put. Loved reading it, keep blogging:)
ReplyDeleteHope you have a wonderful weekend.
हम कहाँ जा रहे हैं ? सोचने को विवश करती रचना.
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