Friday, 25 November 2011

मोह माया तृष्णा काम क्रोध मद इनमे फंसा है ये प्राणी


मोह माया तृष्णा काम क्रोध
मद इनमे फंसा है ये  प्राणी
प्रभु तेरी कृपा बिना अज्ञानी है स्वयं अँधेरा है ये प्राणी

चौरासी लाख योनी के बाद मानव तन है मुझको मिला

अबकी भी न जीवन गवा दूँ प्रभु डरता है ये प्राणी

मैं कपटी परनिंदा अपनी प्रशंसा में जीवन बिता रहा

हे गुनातीत कब जपूंगा तुझे पूछता है ये प्राणी

जीवन क्या है पानी का बुलबुला कब न ख़त्म हो जाए

देना मुझे विवेक प्रभु येही चाहता है ये प्राणी

नहीं चाहिए धन दौलत नहीं चाहिए ये मायिक मान

हो तेरे चरणकमल में प्रेम मांगता है ये प्राणी

जगत मिथ्या है ये सोचकर ही जगत में रहूँ प्रभु

संसार केवल भटकाता है और भटकता है ये प्राणी

हे सृष्टिकर्ता हे सर्वव्यापक तुने ही संसार रचा है

दुनिया को सत माना अविधा का पुलिंदा है ये प्राणी

हे प्रभु राम राम कृष्ण कृष्ण में जिंदगानी ये बीते मेरी

तू परमात्मा है हे अन्तर्यामी और आत्मा है ये प्राणी

हे कौशल्यानंदन हे यशोदानंदन अपना दास बना लो

चाहता अपनी कविताओं में तुम्हे भरना है ये प्राणी

प्रभु निर्गुण सगुन में भेद ना मानु ऐसी भक्ति पाऊं

प्रशंसा से भटकूँ न नहीं चाहता प्रशंसा है ये प्राणी



4 comments:

  1. बहुत बदिया लिखा है ..बधाई

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  2. विवेक हो तो सारे राह आसान हो जाएँ!
    सुन्दर रचना!

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  3. सुन्दर कामना ..अच्छी प्रस्तुति

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