क्या हम ये चिंतन करते हैं की हम किस दिशा में जा रहे हैं और हमारे किये गए कर्मों का हमारे आध्यात्मिक जीवन में क्या स्थान है ?
क्या हमारे किए गए कर्म हमे आध्यात्मिक मार्ग से विमुख कर रहे हैं या हम ठीक जा रहे हैं ?
क्या हम इस बात को सोचते हैं की कोई भी अमर नहीं है एक न एक दिन सभी को जाना है ?
क्या हमने अपनी मृत्यु के बाद के लिए कुछ सोचा है ?
क्या हमे ये मालूम है की अपने कर्म करते हुए भी हम अपने आध्यात्मिक पथ पर सफल रह सकते हैं ?
क्या हम अपना व अपने विचारों का आंकलन करते हैं ।
क्या हम इस सोच के साथ जीते हैं की प्रति क्षण ईश्वर प्रदत्त है व सत्कार्यों के लिए मिला है ।
अपने जीवन काल के बाद यदि हमे ईश्वर कहे की हे प्राणी मैं ही तो तेरे बंधू बांधव मित्र रिश्तेदार यहाँ तक की जिनसे तू द्वेष रखता रहा उनमे भासता था वो मैं ही था तो हम ईश्वर को क्या जवाब देंगे ।
क्या हम कभी ये सोचते हैं की हम क्या कर रहे हैं ?
यदि सोच भी रहे हैं तो हम क्या सोच रहे हैं क्या ये सोचते हैं ?
क्या इससे हमारा कुछ कल्याण हो सकता है ?
कल्याण की असली परिभाषा क्या है ।
मैं कोई बहुत बड़ा ज्ञानी नहीं पठन-पाठन व नेट आदि के आधार पर व अपने थोड़े से अनुभव के आधार पर ही कुछ लिख रहा हूँ ।
हमारी सोच हमारा नजरिया ही हमारे जीवन का प्रतिनिधित्व करता है ।
भौतिक सामाजिक जीवन जिसमे हम अर्थ को ज्यादा प्रधानता देते हैं ।
और पारलौकिक
या फिर आध्यात्मिक जिसमे चिंतन व कर्मों में चिंतन के क्रियान्वन की प्रधानता है ।
मेरा मानना है की ज़्यादातर लोग बिना ये सोचे समझे की किस दिशा में चलना है की जगह चलना है इसलिए चल पड़ते हैं अथार्त जीवन निर्वाह कर देते हैं ।
व्यक्ति अपने अगल बगल की दुनिया को देखके बस उसे अनुसरण करने लगता है ।
बस इसी में उसका जीवन निकल जाता है और इस बीच यदा कदा किसी से ज्ञान सम्बन्धी बात सुनके अथवा टीवी आदि पर किसी माध्यम से सत्संग थोडा बहुत पाके भी अपने मन को चिंतन में नहीं लगा पाता क्यूंकि उसे इसकी अहमियत का भान नहीं होता व वो इन्हें प्राथमिकता पर भी नहीं रखता ।
सच्चाई ये है की चार प्रकार के जीव (जरायुज,अण्डज,स्वदेज,उदि्भज) में ये सिर्फ आदमी को ही प्रभु ने इस तरह चिंतन करने योग्य बनाया है की वो विवेक की प्रधानता से अपने जीवनकाल में ही जीवन्मुक्त हो सकता है।
रामायण में आया है
एही तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गाऊ स्वल्प अंत दुखदायी ।।
नर तन पाई विषय मन देहि। पलटी सुधा ते सठ बिष लेहीं ।। (उत्तरकाण्ड)
अथार्त इस मानव शरीर का उद्देश्य विषय सेवन नहीं है और स्वर्ग भी व्यक्ति के पुण्य फलों तक ही है और अंत वहां भी दुखदायी है क्यूंकि फिर मनुष्यलोक में आना होगा ।
मनुष्य तन पाके भी अगर उद्धार करने की जगह व्यक्ति विषय सेवन में लगता है तो ऐसे मूर्ख ने अमृत के बदले विष ले लिया ।
गीता में भगवान् ने कहा है
अध्यार ४
क्या हम इस सोच के साथ जीते हैं की प्रति क्षण ईश्वर प्रदत्त है व सत्कार्यों के लिए मिला है ।
अपने जीवन काल के बाद यदि हमे ईश्वर कहे की हे प्राणी मैं ही तो तेरे बंधू बांधव मित्र रिश्तेदार यहाँ तक की जिनसे तू द्वेष रखता रहा उनमे भासता था वो मैं ही था तो हम ईश्वर को क्या जवाब देंगे ।
क्या हम कभी ये सोचते हैं की हम क्या कर रहे हैं ?
यदि सोच भी रहे हैं तो हम क्या सोच रहे हैं क्या ये सोचते हैं ?
क्या इससे हमारा कुछ कल्याण हो सकता है ?
कल्याण की असली परिभाषा क्या है ।
मैं कोई बहुत बड़ा ज्ञानी नहीं पठन-पाठन व नेट आदि के आधार पर व अपने थोड़े से अनुभव के आधार पर ही कुछ लिख रहा हूँ ।
हमारी सोच हमारा नजरिया ही हमारे जीवन का प्रतिनिधित्व करता है ।
भौतिक सामाजिक जीवन जिसमे हम अर्थ को ज्यादा प्रधानता देते हैं ।
और पारलौकिक
या फिर आध्यात्मिक जिसमे चिंतन व कर्मों में चिंतन के क्रियान्वन की प्रधानता है ।
मेरा मानना है की ज़्यादातर लोग बिना ये सोचे समझे की किस दिशा में चलना है की जगह चलना है इसलिए चल पड़ते हैं अथार्त जीवन निर्वाह कर देते हैं ।
व्यक्ति अपने अगल बगल की दुनिया को देखके बस उसे अनुसरण करने लगता है ।
बस इसी में उसका जीवन निकल जाता है और इस बीच यदा कदा किसी से ज्ञान सम्बन्धी बात सुनके अथवा टीवी आदि पर किसी माध्यम से सत्संग थोडा बहुत पाके भी अपने मन को चिंतन में नहीं लगा पाता क्यूंकि उसे इसकी अहमियत का भान नहीं होता व वो इन्हें प्राथमिकता पर भी नहीं रखता ।
सच्चाई ये है की चार प्रकार के जीव (जरायुज,अण्डज,स्वदेज,उदि्भज) में ये सिर्फ आदमी को ही प्रभु ने इस तरह चिंतन करने योग्य बनाया है की वो विवेक की प्रधानता से अपने जीवनकाल में ही जीवन्मुक्त हो सकता है।
रामायण में आया है
एही तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गाऊ स्वल्प अंत दुखदायी ।।
नर तन पाई विषय मन देहि। पलटी सुधा ते सठ बिष लेहीं ।। (उत्तरकाण्ड)
अथार्त इस मानव शरीर का उद्देश्य विषय सेवन नहीं है और स्वर्ग भी व्यक्ति के पुण्य फलों तक ही है और अंत वहां भी दुखदायी है क्यूंकि फिर मनुष्यलोक में आना होगा ।
मनुष्य तन पाके भी अगर उद्धार करने की जगह व्यक्ति विषय सेवन में लगता है तो ऐसे मूर्ख ने अमृत के बदले विष ले लिया ।
गीता में भगवान् ने कहा है
अध्यार ४
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
भावार्थ : इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है॥38॥
ज्ञान अथार्त व्यक्ति का विवेकयुक्त ज्ञान ही व्यक्ति का सबसे बड़ा गुरु होता है ।
गुरु यानी गु (अँधेरा)+ रु (उजाला) अँधेरे से उजाले की ओर उन्मुख कराने वाला ये सत्य है की सतगुरु अथवा गुरु का गान प्रायः वेदों ने भी किया है परन्तु इस कलिकाल में यदि सच्चा गुरु न भी मिल पाए तो भी अपने विवेक का आश्रय लिए रखना चाहिए व स्वाध्याय तथा सत्संग से उसे निरंतर प्रदीप्तमान रखना चाहिए ।
बिनु सत्संग विवेक न होइ (बालकाण्ड)
कई बार व्यक्ति आध्यात्मिक लक्ष्य को सिर्फ मोक्ष (जीवन चक्र अथार्त योनी भ्रमण से मुक्ति) ही मान लेता है ।
इस तरह की और भी जानकारियाँ हमे स्वाध्याय व सत्संग से ही मिल सकती हैं ।मोक्ष से भी बढ़के शास्त्रों ने भक्ति को बताया है ।
देखिये भरत जी का ये दोहा जो उन्होंने अयोध्याकाण्ड में कहा है
अर्थ न धरम न काम रूचि गति न चहहूँ निर्बान
जनम जनम रति राम पद ये बरदान न आन
इनके साथ साथ अथार्त स्वाध्याय व सत्संग के पठन -पाठन के साथ साथ श्रवण का भी बहुत महत्व है क्यूंकि कई बार कोई ब्रह्मज्ञानी टीवी अथवा कहीं भी कुछ ऐसी बात बता जाता है जिसे जागरूक व जिज्ञासु
व्यक्ति खूब अच्छी तरह मनन करके उसके तत्त्व को समझके अपने जीवन में अमल करके परमानन्द की अनुभूति कर सकता है ।
हमारा आत्म तत्त्व जितना ज्यादा प्रबल होगा हम उतना ही अविकारी भाव से संसार को देखेंगे व सांसारिक मान आदि की उतनी कम इच्छा करेंगे ।
विवेक की समीक्षा हम अपने अंतरमन में अपने द्वारा लोगों व संसार के प्रति किये गए कर्मों से कर सकते हैं ।
जितना ज्यादा हम तत्त्व ज्ञान (हमारा स्वरुप आत्मा है जो की अविनाशी है अविकारी है ) में स्थित रहेंगे हम दुनिया में अहिंसा,दया,प्रेम,सहिष्णुता,मानवता,शान्ति जैसे सद्गुणों का सन्देश सहज व निष्कामभाव रूप से देंगे ।परन्तु जितना हम स्वयं को शरीर मानेंगे हम तीनो गुण (सत्व,रज,तम) में से तम गुण प्रधान होते जायेंगे व काम,क्रोध,मद लोभ अहंकार को बढ़ावा देंगे व दंभ,इर्ष्या,परनिंदा,हिंसा,असहिष्णुता व द्वेष आदि में ही पड़े रहेंगे व निरंतर बीत रहे समय का सदुपयोग नहीं कर पायेंगे प्रत्युत दुरूपयोग करने के कारण पतनोंमुख रहेंगे ।इस तरह से स्वयं ही आनंद व परमानन्द का स्रोत होते हुए भी हम देहाभिमान से निवृत्त नहीं हो पाएंगे व अपने जैसे ही जीवधारियों से राग अथवा द्वेष में जीवन बिता देंगे अथार्त उनमे मौजूद एक ही तत्त्व आत्मा का अविद्या व अज्ञान से ग्रसित होने के कारण निरूपण नहीं कर पाएंगे व पतनशील रहेंगे ।
आत्म तत्त्व की कसौटी ज्ञान तो है परन्तु ज्ञान के साथ ज्ञान का अभिमान होने से भी आत्म-तत्त्व क्षीण होने लगता है इसलिए व्यक्ति को ज्ञान के अभिमान से बचना चाहिए ।
कबीरदास जी ने इस पर कहा है
कबीरा गर्व न कीजिये कबहूँ न हंसिये कोये
अजहूँ नाव समुद्र में का जाने का होये
अथार्त कभी भी ज्ञान पाके व्यक्ति को अभिमान नहीं करना चाहिए व किसी की हंसी नहीं उडानी चाहिए क्यूंकि आज भी नाव पानी में है यानी ज़रा सी भी असावधानी व्यक्ति की मन बुद्धि को पतंग्रस्त कर सकती है व अब तक के उसके सद्कर्मों व सदमार्ग से विमुख कर सकती है ।
गीता में भी दूसरे अध्याय में भगवान् कहते हैं -
भावार्थ : क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु
हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय व्यक्ति की बुद्धि को हर लेती है॥67॥
इसी तरह से संपूर्ण सृष्टि भगवान् का ही अंग है व समभाव में स्थित रहने को भगवान् श्रेष्ठतम संज्ञा देते हुए तेरहवें अध्याय में कह रहे हैं
तत्त्व ज्ञान निरन्तर बढ़ता रहे अथार्त उसमे हमारी बुद्धि निरंतर दृढ रहे ये हमारे उपासना करने के ऊपर भी निर्भर करता है क्यूंकि उपासना रुपी पानी का क्षेत्र तो प्रभु ने प्रदान किया परन्तु क्या हम बुद्धि रुपी औज़ार से भक्ति रुपी पानी निकाल कर मन को निर्मल कर पा रहे हैं।
भगवान् के सामने मात्र दिखावा करके या सांसारिक व विषय चिंतन करते हुए काफी देर पूजा-पाठ करने से अच्छा है व्यक्ति कुछ समय ही लगाये परन्तु श्रद्धायुक्त होके प्रभु का स्मरण करे ।
और ऐसा करते हुए यदि वो पूजा-पाठ करे तो वो उपासना पथ पर सफल है इतना ही नहीं स्वयं व्यक्ति को भी लगता है की आज प्रभु का सुमिरन या उपासना अच्छी हुई प्रसाद लगाते समय भी
उसका भाव ये होना चाहिए की स्वयं प्रभु आये हुए हैं ।
भगवान् ने कहा भी
इसी तरह से पाठ करते हुए उसे समझते भी जाना चाहिए व इन सबसे अधिक ज़रूरी है की सद्ग्रंथों के वचनों का जीवन में अमल भी करना चाहिए
विषय चिंतन के अलावा उपासना में सबसे अधिक व्यक्ति को प्रभु से विमुख करते हैं दुःख,ग्लानी व मायिक मन बुद्धि द्वारा प्रभु चिंतन कैसे हो ये सोच
मन बुद्धि मायिक भी होते हैं और अलौकिक भी व्यक्ति को वैसे हर वक़्त प्रभु का सुमिरन करते रहना चाहिए परन्तु पूजन करते समय खासकर प्रभु से आर्तभाव से शरणागति की विनती करनी चाहिए क्यूंकि बिना हरि कृपा के माया नहीं जाती
क्रोध मनोज लोभ मद माया ।छूटहीं सकल राम की दाया।। (अरण्यकाण्ड)
इसके साथ साथ इस श्लोक का मनन सदैव करता रहे
तीसरा अध्याय -
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥
देखिये भरत जी का ये दोहा जो उन्होंने अयोध्याकाण्ड में कहा है
अर्थ न धरम न काम रूचि गति न चहहूँ निर्बान
जनम जनम रति राम पद ये बरदान न आन
इनके साथ साथ अथार्त स्वाध्याय व सत्संग के पठन -पाठन के साथ साथ श्रवण का भी बहुत महत्व है क्यूंकि कई बार कोई ब्रह्मज्ञानी टीवी अथवा कहीं भी कुछ ऐसी बात बता जाता है जिसे जागरूक व जिज्ञासु
व्यक्ति खूब अच्छी तरह मनन करके उसके तत्त्व को समझके अपने जीवन में अमल करके परमानन्द की अनुभूति कर सकता है ।
हमारा आत्म तत्त्व जितना ज्यादा प्रबल होगा हम उतना ही अविकारी भाव से संसार को देखेंगे व सांसारिक मान आदि की उतनी कम इच्छा करेंगे ।
विवेक की समीक्षा हम अपने अंतरमन में अपने द्वारा लोगों व संसार के प्रति किये गए कर्मों से कर सकते हैं ।
जितना ज्यादा हम तत्त्व ज्ञान (हमारा स्वरुप आत्मा है जो की अविनाशी है अविकारी है ) में स्थित रहेंगे हम दुनिया में अहिंसा,दया,प्रेम,सहिष्णुता,मानवता,शान्ति जैसे सद्गुणों का सन्देश सहज व निष्कामभाव रूप से देंगे ।परन्तु जितना हम स्वयं को शरीर मानेंगे हम तीनो गुण (सत्व,रज,तम) में से तम गुण प्रधान होते जायेंगे व काम,क्रोध,मद लोभ अहंकार को बढ़ावा देंगे व दंभ,इर्ष्या,परनिंदा,हिंसा,असहिष्णुता व द्वेष आदि में ही पड़े रहेंगे व निरंतर बीत रहे समय का सदुपयोग नहीं कर पायेंगे प्रत्युत दुरूपयोग करने के कारण पतनोंमुख रहेंगे ।इस तरह से स्वयं ही आनंद व परमानन्द का स्रोत होते हुए भी हम देहाभिमान से निवृत्त नहीं हो पाएंगे व अपने जैसे ही जीवधारियों से राग अथवा द्वेष में जीवन बिता देंगे अथार्त उनमे मौजूद एक ही तत्त्व आत्मा का अविद्या व अज्ञान से ग्रसित होने के कारण निरूपण नहीं कर पाएंगे व पतनशील रहेंगे ।
आत्म तत्त्व की कसौटी ज्ञान तो है परन्तु ज्ञान के साथ ज्ञान का अभिमान होने से भी आत्म-तत्त्व क्षीण होने लगता है इसलिए व्यक्ति को ज्ञान के अभिमान से बचना चाहिए ।
कबीरदास जी ने इस पर कहा है
कबीरा गर्व न कीजिये कबहूँ न हंसिये कोये
अजहूँ नाव समुद्र में का जाने का होये
अथार्त कभी भी ज्ञान पाके व्यक्ति को अभिमान नहीं करना चाहिए व किसी की हंसी नहीं उडानी चाहिए क्यूंकि आज भी नाव पानी में है यानी ज़रा सी भी असावधानी व्यक्ति की मन बुद्धि को पतंग्रस्त कर सकती है व अब तक के उसके सद्कर्मों व सदमार्ग से विमुख कर सकती है ।
गीता में भी दूसरे अध्याय में भगवान् कहते हैं -
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥
भावार्थ : क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु
हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय व्यक्ति की बुद्धि को हर लेती है॥67॥
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥
भावार्थ : जिस क्षण यह पुरुष भूतों (जीवों )के पृथक-पृथक भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों(जीव,सृष्टि) का विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है॥30॥
तत्त्व ज्ञान निरन्तर बढ़ता रहे अथार्त उसमे हमारी बुद्धि निरंतर दृढ रहे ये हमारे उपासना करने के ऊपर भी निर्भर करता है क्यूंकि उपासना रुपी पानी का क्षेत्र तो प्रभु ने प्रदान किया परन्तु क्या हम बुद्धि रुपी औज़ार से भक्ति रुपी पानी निकाल कर मन को निर्मल कर पा रहे हैं।
भगवान् के सामने मात्र दिखावा करके या सांसारिक व विषय चिंतन करते हुए काफी देर पूजा-पाठ करने से अच्छा है व्यक्ति कुछ समय ही लगाये परन्तु श्रद्धायुक्त होके प्रभु का स्मरण करे ।
और ऐसा करते हुए यदि वो पूजा-पाठ करे तो वो उपासना पथ पर सफल है इतना ही नहीं स्वयं व्यक्ति को भी लगता है की आज प्रभु का सुमिरन या उपासना अच्छी हुई प्रसाद लगाते समय भी
उसका भाव ये होना चाहिए की स्वयं प्रभु आये हुए हैं ।
भगवान् ने कहा भी
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥
भावार्थ : जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ॥26॥
विषय चिंतन के अलावा उपासना में सबसे अधिक व्यक्ति को प्रभु से विमुख करते हैं दुःख,ग्लानी व मायिक मन बुद्धि द्वारा प्रभु चिंतन कैसे हो ये सोच
मन बुद्धि मायिक भी होते हैं और अलौकिक भी व्यक्ति को वैसे हर वक़्त प्रभु का सुमिरन करते रहना चाहिए परन्तु पूजन करते समय खासकर प्रभु से आर्तभाव से शरणागति की विनती करनी चाहिए क्यूंकि बिना हरि कृपा के माया नहीं जाती
क्रोध मनोज लोभ मद माया ।छूटहीं सकल राम की दाया।। (अरण्यकाण्ड)
इसके साथ साथ इस श्लोक का मनन सदैव करता रहे
तीसरा अध्याय -
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥
भावार्थ : इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है॥42॥
एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥
भावार्थ : इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप (कामना रूप )दुर्जय शत्रु को मार डाल(वश में कर)॥43॥
जैसे ही हमे ये भान होता है की आत्मा ही चेतन है व आत्मा की ही सत्ता है और मन बुद्धि जो हमेशा व्यक्ति को मूर्खता रुपी मोह माया से बद्ध रखते हैं आत्मा से ही प्रकाशित होते हैं हम अपने स्वरुप में स्थित हो जाते हैं और तभी अध्यात्मिक जगत में सही दिशा में हम अपना पहला सफल कदम बढ़ा पाते हैं । इसके बाद धीरे धीरे स्वतः आत्म-तत्त्व निरंतर सदचिंतन,स्वाध्याय व सत्संग करते रहने से प्रखर होता जाता है ।
जैसे ही हमे ये भान होता है की आत्मा ही चेतन है व आत्मा की ही सत्ता है और मन बुद्धि जो हमेशा व्यक्ति को मूर्खता रुपी मोह माया से बद्ध रखते हैं आत्मा से ही प्रकाशित होते हैं हम अपने स्वरुप में स्थित हो जाते हैं और तभी अध्यात्मिक जगत में सही दिशा में हम अपना पहला सफल कदम बढ़ा पाते हैं । इसके बाद धीरे धीरे स्वतः आत्म-तत्त्व निरंतर सदचिंतन,स्वाध्याय व सत्संग करते रहने से प्रखर होता जाता है ।
vyapak gyaan
ReplyDeleteसत्संग की महिमा अपार है!
ReplyDeleteविभिन्न सन्दर्भों से समृद्ध सुन्दर आलेख!
सुंदर सार्थक विचार
ReplyDeletethoughtful article
ReplyDeleteबेहतरीन शिक्षाप्रद सुंदर विचार देता आलेख,...
ReplyDeleteबढ़िया पोस्ट,..
मेरे पोस्ट माँ आपका इंतजार है,...