अंतर्मुखी होना और बहिर्मुखी होने की परिभाषा सबकी अलग अलग होती है । कुछ मित्रों का सन्देश आया की अंतर्मुखी प्रायः मौन होते हैं,अंतर्मुखी व्यक्ति समाज मे समाज की बढ़ोत्तरी(अच्छी) में उतना योगदान नहीं दे पाता,कुछ ये भी मानते हैं की अंतर्मुखी व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेता है,अन्याय सह लेता है,दब्बू किस्म का हो जाता है इत्यादि ।
सबसे पहले मैं इन दोस्तों का शुक्रिया करूँगा अपने विचार रखने के लिए । आगे ये ही कहना चाहूँगा की हम हर चीज़ की परिभाषा अधिकतर अपने अनुसार करते हैं जो की ग़लत नहीं बशर्ते हम उसमे कोई शर्त न रखे अथार्त उसमे अपना कोई स्वार्थ या सहूलियत न रखे ।
किसी शब्द की परिभाषा सार्थक सिद्ध तभी होती है जब हम उसे संयत व निष्पक्ष भाव से समझें व उसमे अपनी चतुराई (अपनी सुविधा के लिए )आक्षेपित न करते हुए बुद्धिमानी से यथार्थः समझें ।
शब्द या उसका अर्थ हमसे ये कभी नहीं कहता की उस जैसा बनो वो तो बस अपना अर्थ ही बताता है उसका निरूपण कैसे करना है ये प्राणीविशेष पर निर्भर होता है ।
कई बार व्यक्ति समभाव से अपने द्रष्टिकोण से भी शब्द की परिभाषा अथवा उसकी व्याख्या करता है जिससे शब्द की परिभाषा और सरल व स्पष्ट हो जाती है जो की बहुत अच्छी बात है ।
जीव स्वभावत: दो प्रकार के होते हैं -अंतर्मुखी तथा बहिर्मुखी। अंतर्मुखी प्रतिभा के व्यक्ति बाहरी संसार से तथा भौतिक सुखों से विरक्त रहते हुए अपनी अंतरात्मा के सम्यक विकास के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।
बहिर्मुखी प्रतिभा का व्यक्ति भौतिकता में आसक्त होकर विविध सांसारिक कार्यों में लिप्त रहता है।
यथार्थ में ये दोनों मार्ग एक दूसरे के पूरक हैं, क्योंकि कोई भी मनुष्य न पूर्णतया अंतर्मुखी हो सकता है और न पूर्णतया बहिर्मुखी। प्राय: सभी प्राणी कुछ अंशों में बहिर्मुखी होते हैं।
मेरे विचार से अंतर्मुखी होने का तात्पर्य अनासक्त होने से है अथार्त संसार अनित्य है आत्मा नित्य है ये तत्वज्ञान होने से है,अपने अन्दर झाकने से है,निर्विकार होने से है अथार्त हम अपने विकारों को समझें उनका निरीक्षण करें और साथ ही साथ अपने स्वरुप को अथार्त आत्मा को अविकारी व अविनाशी समझें और इस तरह से स्वयं को स्वरूपतः शुद्ध अविनाशी,निर्विकार जानें शुद्ध भक्ति के लिए ये अत्यंत आवश्यक है की हम अपने को निष्काम(ईश्वर से कुछ भी मांगने की अभिलाषा न) रखें,साथ ही काम,क्रोध,लोभ,दंभ,मोह आदि विकारों से अंतःकरण को शुद्ध रखें ।इस तरह से मननशीलता ही अंतर्मुखी होना है तभी व्यक्ति ये समझ सकता है या ये समझने की चेष्टा कर सकता है की वास्तव में विकार तो उसके मन द्वारा हो रहे हैं जिसका संकल्प बुद्धि द्वारा हो रहा वस्तुतः विचार ही व्यक्ति को बाँध रहे हैं जिससे जीव शुद्ध आत्मा में भी विकार देखने लगता है ।यदि व्यक्ति कुविचार की जगह सुविचार को प्रधानता दे तो इसी बुद्धि को सात्विक करके मन में सात्विक भावों को बढ़ाके अपना आत्मिक कल्याण कर सकता है जिसके लिए सबसे अधिक आवश्यक ये है की वो विकारों को अपना न माने व स्वयं के स्वरुप(आत्मा) को ही मन,बुद्धि,इन्द्रियों का प्रकाशक माने और अपने कल्याण के साधन हेतु (अविकारी भाव) इनका सदुपयोग करे ।
रामचरिमानस में आया है :
उत्तरकाण्ड
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥1॥
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई॥2॥
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई॥2॥
अथार्त जीव की आत्मा ईश्वर का अंश है जो की स्वरुप से ही चेतन,विकाररहित और आनंद मय
है परन्तु जीव अपने को ईश्वर से अलग मानके माया के वशीभूत होकर तोते और वानर की भाँति अपने आप ही बँध गया। इस प्रकार जड़ और चेतन में ग्रंथि (गाँठ) पड़ गई। यद्यपि वह ग्रंथि मिथ्या ही है, तथापि उसके छूटने में कठिनता है॥
मेरा उद्देश्य इसी बात को अनगित करना था तत्वज्ञान के लिए व्यक्ति का अंतर्मुखी होना अथार्त अपनी इन्द्रियों को अपनी वृत्तियों को बाहर(संसार) की तरफ न ले जाके आत्मा की तरफ करना ही अंतर्मुखी होना होता है ।
अंतर्मुखी व्यक्ति कम बोले ज्यादा बोले इससे कोई प्रयोजन नहीं परन्तु तत्वज्ञान के बाद स्वतः ही व्यक्ति गंभीर हो जाता है हालाँकि चूँकि संसार में रहना है तो उसे कई मौकों पर विनोद,सुख दुःख आदि से गुज़रना होता है और वो ऐसा करता भी है परन्तु अन्दर से संसार के प्रति उसकी आसक्ति नहीं होती ।
लौकिक भाषा में जो हम बहिर्मुखी को यानी खुले विचार वालों या स्पष्टतः बोलने वालों को ये समझें की इन्हें तत्वज्ञान के लिए कम बोलना चाहिए तो ये बात निरर्थक है व्यक्ति को अपनी प्रकृति बदले बिना अपनी प्रवृत्ति अनासक्ति के उन्मुख करनी चाहिए बस इतनी सी बात है । अथार्त बहिर्मुखी भी तत्वज्ञानी हो सकते हैं परन्तु उन्हें अंतर्मुखी (अनासक्त) रहने से ही तत्वज्ञान सही अर्थों में प्राप्त होगा ।
मूल उद्देश्य यही है की शब्द से ज्यादा हम उसके अर्थ पर ध्यान दें जो की यही है की व्यक्ति के अन्दर दो तरह की बुद्धि होती है विवेक प्रधान और अविवेकप्रधान । हम जितना ज्यादा विवेक प्रधान होने हमे जगत उतना ही विकार रहित नज़र आएगा उतना ही हम अहिंसा,प्रेम,सहिष्णुता,निस्वार्थता,मानवता का सन्देश देंगे,ऊर्ध्वमुखी होंगे व हम जितना अविवेक को महत्व देंगे उतना ही काम,क्रोध के ग्रास बनेंगे व अच्छी से अच्छी बात में दोष देखेंगे,सुखदायी परिस्थति में भी दुःख देखेंगे व जाने अनजाने विकार को अपने में और समाज में बढाते जायेंगे और इस तरह आत्मिक पतन के पथ पर अग्रसर होते जायेंगे।
श्री भगवान् ने श्रीमद भगवदगीता में सोलहवें अध्याय में विस्तार से विवेक और अविवेकप्रधान वृत्ति पर कहा है :
द्वौ भूतसर्गौ लोकऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ में श्रृणु॥
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ में श्रृणु॥
भावार्थ : हे अर्जुन! इस लोक में भूतों की सृष्टि यानी मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार का है, एक तो दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला। उनमें से दैवी प्रकृति वाला तो विस्तारपूर्वक कहा गया, अब तू आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य समुदाय को भी विस्तारपूर्वक मुझसे सुन॥6॥
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥
भावार्थ : आसुर स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति- इन दोनों को ही नहीं जानते। इसलिए उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य भाषण ही है॥7॥
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥
भावार्थ : वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहा करते हैं कि जगत् आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के, अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न है, अतएव केवल काम ही इसका कारण है। इसके सिवा और क्या है?॥8॥
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥
भावार्थ : इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके- जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्धि मन्द है, वे सब अपकार करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत् के नाश के लिए ही समर्थ होते हैं॥9॥
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥
भावार्थ : वे दम्भ, मान और मद से युक्त मनुष्य किसी प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर, अज्ञान से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों को धारण करके संसार में विचरते हैं॥10॥
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥
भावार्थ : तथा वे मृत्युपर्यन्त रहने वाली असंख्य चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, विषयभोगों के भोगने में तत्पर रहने वाले और 'इतना ही सुख है' इस प्रकार मानने वाले होते हैं॥11॥
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्॥
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्॥
भावार्थ : वे कामना की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर विषय भोगों के लिए अन्यायपूर्वक धनादि पदार्थों का संग्रह करने की चेष्टा करते हैं॥12॥
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्॥
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्॥
भावार्थ : वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूँगा। मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जाएगा॥13॥
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥
भावार्थ : वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा। मैं ईश्वर हूँ, ऐश्र्वर्य को भोगने वाला हूँ। मै सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान् तथा सुखी हूँ॥14॥
आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥
भावार्थ : मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आमोद-प्रमोद करूँगा। इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोहरूप जाल से समावृत और विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त आसुरलोग महान् अपवित्र नरक में गिरते हैं॥15-16॥
आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्॥
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्॥
भावार्थ : वे अपने-आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्रविधिरहित यजन करते हैं॥17॥
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥
भावार्थ : वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं॥18॥
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥
भावार्थ : काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार ( सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहाँ काम, क्रोध और लोभ को 'नरक के द्वार' कहा है) आत्मा का नाश करने वाले अर्थात् उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए॥21॥
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्॥
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्॥
भावार्थ : हे अर्जुन! इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है (अपने उद्धार के लिए भगवदाज्ञानुसार बरतना ही 'अपने कल्याण का आचरण करना' है), इससे वह परमगति को जाता है अर्थात् मुझको प्राप्त हो जाता है॥22॥
और फिर अठारहवें अध्याय में विशुद्ध भाव को प्राप्त हुए जीव के लिए भगवान् कहते हैं:
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥
अहङकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥
भावार्थ : विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हलका, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारण शक्ति के (इसी अध्याय के श्लोक 33 में जिसका विस्तार है) द्वारा अंतःकरण और इंद्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भलीभाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरंतर ध्यान योग के परायण रहने वाला, ममतारहित और शांतियुक्त पुरुष सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित होने का पात्र होता है॥51-53॥
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥
भावार्थ : फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला (गीता अध्याय 6 श्लोक 29 में देखना चाहिए) योगी मेरी पराभक्ति को ( जो तत्त्व ज्ञान की पराकाष्ठा है तथा जिसको प्राप्त होकर और कुछ जानना बाकी नहीं रहता वही यहाँ पराभक्ति, ज्ञान की परानिष्ठा, परम नैष्कर्म्यसिद्धि और परमसिद्धि इत्यादि नामों से कही गई है) प्राप्त हो जाता है॥54॥
बढ़िया प्रस्तुति...
ReplyDeleteआपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 23-01-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ
ज्ञानवर्धक पोस्ट!
ReplyDelete