मेरा मानना है व्यक्ति के लिए अंतर्मुखी होना न सिर्फ सबसे ज़रूरी है बल्कि सही अर्थों में बहुत लाभदायक है ।
मनुष्य जीवन बिना अंतर्मुखी हुए व्यर्थ सिद्ध हो जाता है । यही नहीं बिना अंतर्मुखी हुए मनुष्य आत्मिक सुख नहीं पा पाता वरन वो सुख अपने ही तरह के इंसानों में ढूंढता रहता है । व्यक्ति जान ही ही नहीं पाता की उसका स्वरुप शरीर नहीं आत्मा है और चूँकि ऐसा अनुभव सिर्फ अंतर्मुखी होने से ही हो सकता है व्यक्ति ऐसा अनुभव नहीं कर पाता और जीवन पूरा का पूरा बाहरी जगत के भ्रमजाल और दिखावे,आसक्ति,धन,बल,मान आदि में निकल जाता है ।
अंतर्मुखी होना आध्यात्मिक जगत के साथ साथ लौकिक जगत में भी बहुत उपयोगी है ।
सबसे बड़ी बात अंतर्मुखी न होना हमारे अन्दर जाने अनजाने विकारों को बढाता रहता है स्वाभाविक ही व्यक्ति के अन्दर काम,क्रोध,लोभ,मद,मोह,अहंकार नित बढ़ते चले जाते हैं,हम कोई भी साहसी कार्य करने से डरते हैं, हम सच बोलने,सुनने में डरते हैं, हम अपनी समीक्षा करने से घबराते हैं साथ ही हमारे अन्दर निर्णायक क्षमता भी कम होने लगता है और बहुधा हम किसी कार्य के निर्णय के वक़्त पर अविवेकपूर्ण कदम उठा लेते हैं ।इसके साथ ही हम बहुत सारे लोगों से घिरे रहते हैं और अपने सुख दुःख में उनपर ही निर्भर हो जाते हैं इस तरह से हम अपने आप से ही दूर हो जाते हैं और अपनी भावनात्मक ऊर्जा को भी मोह माया में गवाने लगते हैं यही नहीं अंतर्मुखी हुए बिना व्यक्ति स्वयं के दोष देखने का साहस नहीं कर पाता और परिणामतः दोष-दृष्टी का शिकार हो जाता है । वो हमेशा दूसरों में ही दोष ढूंढेने लगता है और इस तरह आत्मिक उद्धार से वंचित रह जाता है ।
आज से कुछ साल पहले मेरे एक मित्र (नेट मित्र नहीं ) ने मुझसे ये बातें कहीं और फिर ये प्रश्न किया
क्या तुम्हे याद है आखिर बार तुमने अपने आप से कब बात की थी ?
क्या तुम्हे याद है तुमने अपने आप से क्या बात की थी ?
कहीं ऐसा तो नहीं की अपने आप से बात करते वक़्त भी तुमने संसार की ही बात खुद से की और इस तरह से अपने आप से अपने आप के लिए बात ही नहीं कर पाए ?
ये बातें उनकी मुझे न सिर्फ अच्छी लगीं बल्कि सच्ची भी लगीं और अनुभव करने पर उसका वर्णन नहीं किया जा सकता बस इतना कहूँगा की मैं इस गुणवत्ता प्रधान वार्तालाप के लिए उनका बहुत कृतज्ञ हूँ ।
अंतर्मुखी होने के बाद ही हम योग के बारें में सोच पाते हैं योग को समझ पाते हैं और इस तरह से अध्यात्म में रत हो पाते हैं ।
हम जानते हैं की यम, नियम, आसन, प्राणायाम,प्रत्याहार धारणा ध्यान और समाधि योग के यह आठ अंग हैं ।
पर पहले पोस्ट की जा चुकी हैं ।
प्रत्याहार,धारणा ध्यान और समाधि के बारें में पातंजल
योगप्रदीप से कुछ उद्धत करना चाहूँगा ।
प्रत्याहार: यम नियम प्राणायाम आदि से चित्त बाहर
के विषयों से विरक्त हो जाता है और इसलिए इन्द्रियां भी अंतर्मुख होकर उस जैसा अनुकरण करने लगती हैं । इस प्रकार चित्त के निरुद्ध होने पर इन्द्रियों का भी निरुद्ध होना प्रत्याहार कहलाता है ।
धारणा : चित्त का वृत्तिमात्र से किसी स्थानविशेष(ध्येय) में बंधना धारणा कहलाता है ।
यहाँ स्थानविशेष को समझना आवश्यक है इसे ध्येय भी कह सकते हैं ।
ध्येय अथार्त वो स्थान जहाँ पर वृत्ति को ठहराया जाए जैसे नासिका का अग्रभाग,नाभि,हृदयकम, ब्रह्मरंध्र आदि आध्यात्मिक स्थान ।अथवा भगवान् का चित्र,चन्द्र आदि कोई बाह्य देशरूप वस्तु-विषय इसी को ध्येय कहते हैं ।
ध्यान - ध्येय में वृत्ति का एक सामान बने रहना ही ध्यान है ।
धारणा में चित्त जिस वृत्तिमात्र से ध्येय में लगता है,जब वह वृत्ति समानरूप से प्रवाहमान रहती है तो दूसरी और कोई वृत्ति बीच में ना आये इसी को ध्यान कहते हैं ।
समाधि :ध्यान के ही गहनतम रूप को समाधि कहते हैं। वह ध्यान ही समाधि कहलाता है जब उसमे केवल ध्येय अर्थमात्र में भासता है और उसका (ध्यान का) स्वरुप शून्य जैसा हो जाता है ।
ध्यान में ध्येय का भान होता है ध्येय मात्र का नहीं । किन्तु समाधि में ध्यान ध्येयमात्र से भासता है
समाधि की अवस्था में ध्यान का सर्वथा अभाव नहीं होता किन्तु ध्येय में अभिन्नरूप होकर भासने के कारण स्वरुप से शून्य जैसा हो जाता है ।
समाधि अंगी है धारणा और ध्यान उसके अंग हैं जब किसी ध्येय पर ध्यान किया जाता है तब चित्त की वृत्ति त्रिपुटी सहित होती है ।
वह त्रिपुटी ध्यात्र,ध्यान और ध्येय रूप है ।
त्रिपुटी को जिसका उपरोक्त वर्णन है ।
ध्यात्र - ध्यान करने वाला आत्मा से प्रकाशित चित्त है ।
ध्यान -चित्त की वो वृत्ति जिसके द्वारा ध्यान किया जाता है ।
वह त्रिपुटी ध्यात्र,ध्यान और ध्येय रूप है ।
त्रिपुटी को जिसका उपरोक्त वर्णन है ।
ध्यात्र - ध्यान करने वाला आत्मा से प्रकाशित चित्त है ।
ध्यान -चित्त की वो वृत्ति जिसके द्वारा ध्यान किया जाता है ।
ध्येय - जिसका आध्यात्मिक अथवा बाह्य वस्तु आदि का ध्यान किया जाए ध्येय कहलाता है ।
ध्यान के समय इस प्रकार अलग अलग भान होता है की मैं ध्यान कर रहा हूँ,यह ध्यान है,इस ध्येय का ध्यान हो रहा है ।परन्तु समाधि में इस त्रिपुटी का भान जाता रहता है और केवल ध्येय के स्वरुप का ही भान होता रहता है ।
उदाहरणार्थ हम भगवान् के किसी विग्रह अथवा चित्र या स्वयं की ही भृकुटी पर ध्यान करते हैं । अभ्यास करते करते एक ऐसी स्थति आती है जब कौन ध्यान कर रहा,ध्यान हो रहा है ये दोनों नहीं रहते इसका अनुभव भी व्यक्ति को नहीं होता बल्कि ध्येय ही रह जाता है । इसे ही समाधि कहते हैं ।
ध्यान के समय इस प्रकार अलग अलग भान होता है की मैं ध्यान कर रहा हूँ,यह ध्यान है,इस ध्येय का ध्यान हो रहा है ।परन्तु समाधि में इस त्रिपुटी का भान जाता रहता है और केवल ध्येय के स्वरुप का ही भान होता रहता है ।
उदाहरणार्थ हम भगवान् के किसी विग्रह अथवा चित्र या स्वयं की ही भृकुटी पर ध्यान करते हैं । अभ्यास करते करते एक ऐसी स्थति आती है जब कौन ध्यान कर रहा,ध्यान हो रहा है ये दोनों नहीं रहते इसका अनुभव भी व्यक्ति को नहीं होता बल्कि ध्येय ही रह जाता है । इसे ही समाधि कहते हैं ।
विभिन्न स्तरों पर भिन्न उत्तर हो सकते हैं। आरम्भिक साधना में विघ्न से बचने के लिये शायद अंतर्मुखी होना ठीक हो परंतु यदि विनोबा अंतर्मुखी होते तो भूदान नहीं हो पाता। यही बात भक्त कवियों व अनेक समाज सेवकों, उद्धारकों के बारे में सत्य है। अंत तक आते-आते तो भक्त वही है जो अपने को भूल कर प्रभु और उसकी सृष्टि के कष्ट मिटाने के बारे में सोचता है।
ReplyDeleteन त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम्
कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्