इन्टरनेट जगत में प्रायः प्रत्येक विषय की बहुमूल्य जानकारियाँ रहती हैं और आध्यात्मिक स्तर की भी एक से बढ़कर एक साइट्स हैं जहाँ हमेशा ज्ञान की गंगा बहती रहती है । आज ऐसी ही कुछ जानकारी नेट पर पढ़ी सोचा ब्लॉग पर भी पोस्ट करूँ इससे एक फायदा मुझे ये स्वयं भी होता है की मैं अपने कलेक्शन यहाँ जमा कर देता हूँ जिससे समय समय पर स्वयं भी पढ़ के ज्ञान अर्जित कर सकूँ व इनका लाभ उठा सकूँ ।
हमारे शरीर में सात चक्र होते हैं जो आध्यात्मिक अर्थों में अतिमहत्वपूर्ण होते हैं इसी पर कुछ जानकारी तमाम साइट्स से लेकर इस पोस्ट में एकत्रित किया गया है ।
चक्र ध्यान
परिचय-
संसार में मौजूद सभी भौतिक वस्तुओं के मोह को त्यागकर शरीर को स्वस्थ रखते
हुए मन में आध्यात्मिक विचार उत्पन्न करने तथा सूक्ष्म शक्ति (ईश्वर) का
दर्शन करने के लिए योग ग्रंथों में जिस क्रिया का वर्णन किया गया है, उसे
चित्तवृत्ति निरोध क्रिया अर्थात मन की चंचलता को रोकने की क्रिया कहते
हैं। ऐसी सभी क्रिया मंत्र के अंतरर्गत आती है, जिसमें ध्यान योग, भक्ति
योग, संगीर्तन योग, जप योग तथा प्रेम योग आता है। योग शास्त्रों में मन को
भटकने से रोकने के लिए शरीर में मौजूद 7 चक्रों पर ध्यान किया जाता है।
चक्र ध्यान से कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होता है और यह शक्ति जागृत होकर
सभी चक्रों का भेदन करती है अर्थात चक्रों को जगाती है, जिससे मन स्थिर
होता और मन में आध्यात्मिक विचार उत्पन्न होने लगते हैं।
शरीर में मौजूद चक्र का सम्बंध शक्ति पुंज अर्थात दिव्य ज्योति से है।
देवी-देवताओं के पीछे दिखाई देने वाला तेज प्रकाश ही शक्ति पुंज है। इसकी
पुष्टि प्राचीन काल में बनी देवी-देवताओं की मूर्ति व चित्र करती है। इन
चित्रों के पीछे एक तेज रोशनी दिखाई जाती है। सभी देवी-देवताओं के पीछे एक
दिव्य ज्योति को दिखाया जाता है। यह ज्योति प्रकाश पुंज या आभामंडल कहलाता
है। यह प्रकाश उनके तेज का प्रतीक होता है। योग शास्त्रों के अनुसार जिस
तरह शरीर में विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म तंत्र या सूक्ष्म कोश होते हैं,
उसी तरह मानव शरीर में चक्र होते हैं। शरीर का यह चक्र ही भौतिक शरीर को
अभौतिक शरीर से जोड़ता हैं। अभौतिक शरीर वह है, जिसे सीधे महसूस नहीं किया
जा सकता। देवताओं के पीछे दिखाये गए इन आभामंडल का सम्बंध इन चक्रों से है
तथा इन्हीं चक्रों के कारण एक साधारण मनुष्य योग क्रिया करके ईश्वर के
सूक्ष्म रूप का दर्शन कर पाता हैं। योगाभ्यास के द्वारा इन चक्रों को देखा
जा सकता है। इन चक्रों से निकलने वाली तेज रोशनी गोलाकार रूप में ध्यान
करने वाले के चारों ओर घूमती रहती है।
आमतौर पर सभी लोगों में चक्र 3 अवस्था में जागृत रहते हैं। चक्र की पहली
अवस्था संतुलन की होती है, परन्तु यह आदर्श स्थिति कम लोगों में पायी जाती
है। व्यक्ति यदि अपने जीवन में लगातार किसी एक कार्य को ही करता रहता है,
तो उस व्यक्ति में उससे सम्बंधित चक्र का जागरण हो जाता है। परन्तु जिस
चक्र से सम्बंधित कोई कार्य नहीं होता वह सोई हुई स्थिति में चला जाता है।
योग शास्त्रों में चक्र ध्यान का वर्णन-
योग शास्त्रों में अनेक प्रकार की ध्यान साधना का वर्णन किया गया है, शरीर
में स्थित सात चक्रों का ध्यान करना सबसे आसान व सरल है। चक्र ध्यान साधना
का अभ्यास सभी व्यक्ति कर सकते हैं। बच्चे, बूढ़े, रोगी, स्वस्थ, युवा आदि
सभी इसका अभ्यास कर सकते हैं। योग शास्त्रों के अनुसार सप्तचक्र ध्यान का
अभ्यास करने से ही शरीर में मौजूद पंचतत्व- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं
आकाश का संतुलन बना रह सकता है। मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक क्षमता के
सही विकास के लिए सप्तचक्र ध्यान का अभ्यास करना आवश्यक है। इन शक्तियों के
विकास की इच्छा मन में रखकर सप्तचक्र ध्यान साधना का अभ्यास करें। इसके
अभ्यास में नियमों, सिद्धान्तों एवं विधियों का पालन करना चाहिए तथा इसकी
शक्ति का महत्व और जन-जीवन कल्याण की उपयोगिता को समझाना चाहिए।
ध्यान का मुख्य काम मनुष्य के अन्दर की सोई हुई चेतना को जगाना है।
सप्तचक्र ध्यान साधना एक ऐसी साधना है, जिसमें व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को
बाहरी वस्तुओं से हटाकर अपनी आंतरिक आत्मा में लगाता है। इस साधना में मन
को नियंत्रित कर उसे किसी एक केन्द्र पर स्थिर किया जाता है। इसमें बाहरी
मानसिक विचारों का नाश होकर आंतरिक व आध्यात्मिक मानसिक विचार का विकास
होता है। इस ध्यान साधना में दिव्य दृष्टि से शरीर के अलग-अलग स्थानों पर
स्थित चक्र पर ध्यान केन्द्रित कर भिन्न-भिन्न रंगों के कमल के फूलों को
देखने एवं उससे उत्पन्न सुख का अनुभव किया जाता है। इस ध्यान क्रिया में
अपने ध्यान को मूलाधार चक्र से शुरू करके सहस्र चक्र पर केन्द्रित किया
जाता है।
इस योग साधना का अभ्यास किसी भी रूप, रंग, वर्ग, आयु, धर्म, संस्कृति,
राष्ट्रियता वाले कर सकते हैं। यह शारीरिक संरचना आदि किसी भी उलझनों में
नहीं पड़ती, क्योंकि इसका अभ्यास कोई भी कर सकता है। सप्तचक्र ध्यान पद्धति
एक वैज्ञानिक अभ्यास है। अत: इसमें सफलता केवल नियमित अभ्यास से ही प्राप्त
की जा सकती है। सप्तचक्र ध्यान का अभ्यास किये बिना इसकी शक्ति का अनुमान
लगाना असम्भव है। चक्र ध्यान अभ्यास के द्वारा चेतना शक्ति की पूर्ण शुद्धि
करके जीवन के अस्तित्व को समझा जा सकता है तथा इसके द्वारा आध्यात्मिक
उन्नति एवं परमात्मा का दर्शन किया जा सकता है। इस ज्ञान को प्राप्त करने
के लिए पैसे या अन्य वस्तुओं की जरूरत नहीं होती, बल्कि इसके लिए नियंमित
अभ्यास, पूर्ण आत्मविश्वास तथा इच्छा शक्ति की जरूरत होती है।
आज के वातावरण के अनुसार सप्तचक्र ध्यान पद्धति अत्यंत लाभकारी है। चक्र
ध्यान से तनाव, रोग, कष्ट तथा चिंता आदि दूर होते हैं। चक्र ध्यान से अच्छा
स्वास्थ्य, सुख-शांति व उन्नत जीवन का विकास होता है। आज के चिकित्सा
विज्ञान ने मानव जीवन को सुखी बनाने व विभिन्न प्रकार के रोगों से रक्षा के
लिए ध्यान साधना को अधिक महत्व दिया है।
भारतीय दर्शनशास्त्र की 6 पद्धतियों का वर्णन किया गया है, जिसमें योग भी
एक पद्धति है। ´महर्षि पतांजलि´ ने अपने ´योग सूत्र´ में योग के विभिन्न
चक्रों को क्रमबद्ध और साफ ढंग से समझाया है, जिससे योग साधना के अभ्यास के
क्रम में कोई भी पथ अधूरा न रह जाए। सप्तचक्र ध्यान साधना विशेष रूप से
मानसिक और शारीरिक रोगों से बचाने, रोग प्रतिरोधक क्षमता में सुधार लाने
तथा तनाव पूर्ण स्थितियों को दूर करने में अधिक लाभकारी है।
महर्षि पतंजलि ने अपने ´योग दर्शन´ शास्त्र में शरीर में मौजूद 7 चक्रों
का वर्णन किया है, योग में इन चक्रों को सूक्ष्म शरीर का सप्तचक्र कहते
हैं। इन सातों चक्रों पर ध्यान करने अर्थात मन को लगाने से आध्यात्मिक व
अलौकिक ज्ञान की प्राप्ति होती है। सूक्ष्म शरीर के इन 7 चक्रों का नाम इस
प्रकार है-
- मूलाधार चक्र- यह जननेन्द्रिय और गुदा के बीच स्थित है।
- स्वाधिष्ठान चक्र- यह उपस्थ में स्थित है।
- मणिपूर चक्र- यह नाभिमंडल में स्थित है।
- अनाहद चक्र- यह हृदय के पास स्थित है।
- विशुद्धि चक्र- यह चक्र कंठकूप में स्थित है।
- आज्ञा चक्र- यह भ्रमध्यम में स्थित है।
- सहस्त्रार चक्र- यह मस्तिष्क में स्थित है।
योग शास्त्रों में मनुष्य के अन्दर मौजूद षट्चक्रों का वर्णन किया गया है।
यह चक्र शरीर के अलग-अलग अंगों में स्थित है तथा इनके नाम भी भिन्न है।
शरीर में 7 चक्र होते हैं, जिनका ध्यान करने से दिव्य शक्ति, दिव्य दृष्टि
और दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है। इसके ध्यान से साधक मन और आत्मा
परमात्मा अर्थात भगवान का दर्शन करता है। इन चक्रों का ध्यान आसन में बैठ
कर किया जाता है। अत: आसन में बैठकर एक-एक करके इन चक्रों का ध्यान करें।
विभिन्न चक्रों का परिचय-
मूलाधार चक्र-
योग शास्त्रों में शरीर के अन्दर जिस दिव्य शक्ति की बातें की गई है, उस
ऊर्जा शक्ति को कुण्डलिनी शक्ति कहते हैं। यह कुण्डलिनी शक्ति शरीर में
जहां सोई हुई अवस्था में रहती है, उसे मूलाधार चक्र कहते हैं। मूलाधार चक्र
जननेन्द्रिय और गुदा के बीच स्थित है। ब्रह्माण्ड के निर्माण में जो तत्व
मौजूद होते हैं, वह सभी तत्व मनुष्य के अन्दर कुण्डलिनी शक्ति के रूप में
मौजूद होते हैं। यह ऊर्जा शक्ति शरीर में मूलाधार में स्थित होती है।
मूलाधार चक्र को योग में विश्व निर्माण का मूल माना गया है। यह शक्ति जीवन
की उत्पत्ति, पालन और नाश का कारण है। इस चक्र का रंग लाल होता है तथा
इसमें 4 पंखुड़ियों वाले कमल की आकृति होती है। अत: मनुष्य के अन्दर पृथ्वी
के सभी तत्व मौजूद होते हैं। मूलाधार चक्र पृथ्वी तत्व प्रधान है तथा 4
पंखुड़ियों वाला कमल अर्थात चतुर्भुज के आकार का है। इसका सांसारिक जीवन में
बड़ा महत्व है, चक्र में स्थित यह 4 पंखुड़ियां वाला कमल पृथ्वी की चार
दिशाओं की ओर संकेत करता है। मूलाधार चक्र का आकार 4 पंखुड़ियों वाला है और
इस स्थन पर 4 नाड़ियां आपस में मिलकर 4 पंखुडियों वाले कमल की आकृति की रचना
करती है। मूलाधार चक्र में 4 प्रकार की ध्वनियां- वं, शं, षं, सं होती
रहती है। यह ध्वनि मस्तिष्क एवं हृदय के भागों को कंपित करती है। शरीर का
स्वास्थ्य इन्ही ध्वनियों पर निर्भर करता है। मूलाधार चक्र रस, रूप, गन्ध,
स्पर्श, भावों व शब्द का मेल है। यह ´अपान´ वायु का स्थान है तथा मल,
मूत्र, वीर्य, प्रसव आदि इसी के अधिकार में है। मूलाधार चक्र कुण्डलिनी
शक्ति, मानव जीवन की परमचैतन्य शक्ति तथा जीवन शक्ति का मुख्य स्थान भी यही
है। यही चक्र मनुष्य की दिव्य शक्ति का विकास, मानसिक शक्ति का विकास और
चैतन्यता का मूल स्थान है।
मूलाधार को स्वस्थ रखने के लिए व्यक्ति को अपने भय पर जीत प्राप्त कर
सांसारिक व आध्यात्मिक शक्ति के बीच तालमेल बनाए रखना चाहिए। योग क्रिया के
द्वारा इस शक्ति को जागृत कर अपने अन्दर अदभुत शारीरिक शक्ति का अनुभव
किया जा सकता है।
स्वाधिष्ठान चक्र-
स्वाधिष्ठान चक्र उपस्थ में स्थित है। इसमें 6 पंखुड़ियों वाला कमल होता
है। स्वाधिष्ठान चक्र में 6 नाड़ियां आपस में मिलकर 6 पंखुड़ियों वाले कमल के
फूल की रचना करती है। इस चक्र में 6 ध्वनियां- वं, भं, मं, यं, रं, लं आती
रहती है। इस चक्र का प्रभाव जन्म, परिवार, भावना आदि से है। स्वाधिष्ठान
चक्र जलतत्व प्रधान है। स्वाधिष्ठान चक्र में पृथ्वी तत्व मिलने से परिवार
और मित्रों से सम्बंध बनाने में कल्पना का उदय होने लगता है। इस चक्र का
ध्यान करने से मन में भावना उत्पन्न होने लगती है और व्यक्ति का मन निर्मल व
शुद्ध होने लगता है। स्वाधिष्ठान चक्र भी ´अपान´ वायु के अधीन होता है। इस
चक्र वाले स्थान से ही प्रजनन क्रिया सम्पन्न होती है तथा इसका सम्बंध
सीधे चन्द्रमा से है। समुद्रों में उत्पन्न होने वाला ज्वार-भाटा चन्द्रमा
से नियंत्रित है। मनुष्य के शरीर का तीन चौथाई भाग जल है और शरीर में
उत्पन्न उथल-पुथल इस चक्र के असंतुलन के कारण होती है। इसी चक्र के कारण
मनुष्य के मन की भावनाओं प्रभावित होती है, स्त्रियों में मासिकधर्म आदि
चन्द्रमा से सम्बंधित है और इन कार्यो का नियंत्रण स्वाधिष्ठान चक्र से
होता है। इस चक्र के द्वारा मनुष्य के आंतरिक और बाहरी संसार में समानता
स्थापित करने की कोशिश रहती है। इसी चक्र के कारण व्यक्ति के व्यक्तित्व का
विकास होता है। स्वाधिष्ठान चक्र पर ध्यान करने से मन शांत होता है तथा
धारणा व ध्यान की शक्ति प्राप्त होती है।
मणिपूर चक्र-
मणिपूर चक्र नाभि में स्थित होता है तथा यह अग्नि तत्व प्रधान है। इस चक्र
का रंग नीला होता है। यहां 10 नाड़ियां आपस में मिलकर 10 पंखुड़ियों वाले
कमल के फूल की आकृति बनाती है। इस कमल का रंग पीला होता है तथा यहां 10
प्रकार की ध्वनियां- डं, ढं, तं, थं, दं, धं, नं, पं, फं, बं गूंजती रहती
हैं। मणिपूर चक्र समान वायु का स्थान है। समान वायु का कार्य पाचन संस्थान
द्वारा उत्पन्न रक्त एवं रसादि को पूरे शरीर के अंग-अंगं में समान रूप से
पहुंचाना है। समान वायु का स्थान शरीर में नाभि से हृदय तक मौजूद है तथा
पाचनसंस्थान इसी के द्वारा नियंत्रित होता है। पाचनसंस्थान का स्वस्थ एवं
खराब होना समान वायु पर निर्भर करता है। इस चक्र पर ध्यान करने से साधक को
अपने शरीर का भौतिक ज्ञान होता है। इससे व्यक्ति की भावनाएं शांत होती
हैं।
मणिपूर चक्र ऊर्जा शक्ति व गर्मी से सम्बंधित होता है। यह चक्र नाभि के
पास स्थित होता है। इस चक्र का जागरण जिस व्यक्ति के अन्दर होता है, वह
अपने जीवन में निरंतर शक्ति व आविष्कार की तलाश में रहता हैं।
अनाहत चक्र-
अनाहत चक्र-
अनाहत चक्र हृदय के पास स्थित होता है। इस चक्र में श्वेत रंग का कमल होता
है जिसमें 12 पंखुड़ियां होती है। इस स्थान पर 12 नाड़ियां आपस में मिलकर 12
पंखुड़ियों वाले कमल के फूल की आकृति बनाती है। अनाहत चक्र में 12 ध्वनियां
निकलती है जो कं, खं, गं, धं, डं, चं, छं, जं, झं, ञं, टं, ठं होती है। यह
चक्र प्राणवायु का स्थान है तथा यहीं से वायु नासिका द्वारा अन्दर व बाहर
होती रहती है। प्राणवायु शरीर की मुख्य क्रिया का सम्पदन करता है जैसे-
वायु को सभी अंगों में पहुंचाना, अन्न-जल को पचाना, उसका रस बनाकर सभी
अंगों में प्रवाहित करना, वीर्य बनाना, पसीने व मूत्र के द्वारा पानी को
बाहर निकालना आदि। यह चक्र हृदय समेत नाक के ऊपरी भाग में मौजूद है तथा ऊपर
की इन्द्रियों का काम उसी के द्वारा सम्पन्न होता है। इस चक्र में वायु
तत्व की प्रधानता है। प्राणवायु जीवन देने वाले सांस है। प्राण सम्पूर्ण
शरीर में प्रसारित होकर शरीर को ओषजन (ऑक्सीजन) वायु एवं जीवनी शक्ति देता
है। अनाहत चक्र पर ध्यान करने से मनुष्य, समाज और स्वयं के वातावरण में
सुसंगति एवं संतुलन की स्थापना करता है। अनाहत चक्र पर ध्यान करने से
मनुष्यों को सभी शास्त्रों का ज्ञान होता है तथा वाक् पटु, संसार के
जन्म-मरण के विषय में ज्ञान होता है, ऐसे मनुष्य ज्ञानियों में श्रेष्ठ,
काव्यामृत रस के आस्वादन में निपुण योगी तथा अनेक गुणों से युक्त होते हैं।
इस चक्र के प्रधान वाले लोग समाज
सेवी तथा दूसरों का प्रवाह करने वाले होते हैं। इस चक्र के जागरण से लोगों
में आध्यात्मिक और टेलीपैथी (दूर दृष्टि ज्ञान) जैसे गुणों का विकास होता
है।
विशुद्ध चक्र-
यह चक्र कंठ में स्थित होता है जिसका रंग भूरा होता है और इसे विशुद्ध
चक्र कहते हैं। यहां 16 पंखुड़ियों वाले कमल का अनुभव होता है क्योंकि यहां
16 नाड़ियां आपस में मिलती है तथा इनके मिलने से ही कमल के फूल की आकृति
बनती है। इस चक्र में ´अ´ से ´अ:´ तक 16 ध्वनियां निकलती रहती है। इस चक्र
का ध्यान करने से दिव्य दृष्टि, दिव्य ज्ञान तथा समाज के लिए कल्याणकारी
भावना पैदा होती है। इस चक्र का ध्यान करने पर मनुष्य के रोग, दोश, भय,
चिंता, शोक आदि दूर वह लम्बी आयु को प्राप्त करता है। यह चक्र शरीर निर्माण
के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह चक्र आकाश तत्व प्रधान है और
शरीर जिन 5 तत्वों से मिलकर बनता है, उसमें एक तत्व आकाश भी होता है। आकाश
तत्व शून्य है तथा इसमें अणु का कोई समावेश नहीं है। मानव जीवन में
प्राणशक्ति को बढ़ाने के लिए आकाश तत्व का अधिक महत्व है। यह तत्व मस्तिष्क
के लिए आवश्यक है और इसका नाम विशुद्ध रखने का कारण यह है कि इस तत्व पर मन
को एकाग्र करने से मन आकाश तत्व के समान शून्य और शुद्ध हो जाता है।
आज्ञा चक्र-
आज्ञा चक्र दोनों भौंहों के बीच स्थित होता है। इस चक्र में 2 पंखुड़ियों
वाले कमल का अनुभव होता है, इसका रंग सुनहरा होता है। इस चक्र में 2
नाड़ियां मिलकर 2 पंखुड़ियों वाले कमल की आकृति बनाती है। यहां 2 ध्वनियां
निकलती रहती है। यूरोपीय वैज्ञानिकों के अनुसार इस स्थान पर पिनियल और
पिट्यूटरी 2 ग्रंथियां मिलती है। योगशास्त्र में इस स्थान का विशेष महत्व
है। इस चक्र पर ध्यान करने से सम्प्रज्ञात समाधि की योग्यता आती है।
मूलाधार से ´इड़ा´, ´पिंगला´ और सुशुम्ना अलग-अलग प्रवाहित होती हुई इसी
स्थान पर मिलती हैं। इसलिए योग में इस चक्र को त्रिवेणी भी कहा गया है। योग
ग्रंथ में इसके बारे में कहा गया है-
इड़ा भागीरथी गंगा पिंगला यमुना नदी।
तर्योमध्यगत नाड़ी सुषुम्णाख्या सरस्वती।।
अर्थात ´इड़ा´ नाड़ी को गंगा और ´पिंगला´ नाड़ी को यमुना और इन दोनों नाड़ियों
के बीच बहने वाली सुषुम्ना नाड़ी को सरस्वती कहते हैं। इन तीनों नाड़ियों का
जहां मिलन होता है, उसे त्रिवेणी कहते हैं। जो मनुष्य अपने मन के इन चक्रो
पर ध्यान करता है, उसके सभी पाप नष्ट होते हैं।
आज्ञा चक्र मन और बुद्धि का मिलन स्थान है। यह ऊर्ध्व शीर्ष बिन्दु ही मन
का स्थान है। सुषुम्ना मार्ग से आती हुई कुण्डलिनी शक्ति का अनुभव योगी को
यहीं आज्ञा चक्र में होता है। योगाभ्यास व गुरू की सहायता से साधक
कुण्डलिनी शक्ति को आज्ञा चक्र में प्रवेश कराता है और फिर में कुण्डलिनी
शक्ति को सहस्त्रार चक्र में विलीन कराकर दिव्य ज्ञान व परमात्मा तत्व को
प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त करता है।
आज्ञा चक्र दोनों भौंहों के बीच स्थित होता है तथा इस पर ध्यान करने से
दिव्य दृष्टि प्राप्त होता है। इस चक्र का सम्बंध जीवन को नियंत्रित करने
से है।
सहस्त्रार चक्र-
सहस्त्रार चक्र ब्रह्मन्ध्र से ऊपर मस्तिष्क में स्थित सभी शक्तियों का
केन्द्र है। इस चक्र का रंग अनेक प्रकार के इन्द्रधनुष के समान होता हैं
तथा इसमें अनेक पंखुड़ियों वाले कमल का अनुभव होता है। इस चक्र में ´अ´ से
´क्ष´ तक की सभी स्वर और वर्ण ध्वनि उत्पन्न होती रहती है। यह कमल अधोखुला
होता हैं तथा यह अधोमुख आनन्द का केन्द्र होता है। साधक अपनी साधना की
शुरूआत मूलाधार चक्र से करके सहस्त्रार चक्र में उसका अंत करता है। इस
स्थान पर प्राण तथा मन के स्थिर हो जाने पर सभी शक्तियां एकत्र होकर
असम्प्रज्ञात समाधि की योग्यता प्राप्त होती है। सहस्त्रार चक्र में ध्यान
करने से उस चक्र में प्राण और मन स्थिर होते हैं। इस चक्र पर ध्यान करने से
संसार में किये गए बुरे कर्मो का नाश होता है। ऐसे व्यक्ति यदि कोई अच्छे
कर्म न भी करता हो तो भी योग के कारण पुन: उस प्राण का जन्म इस संसार में
नहीं होता। ऐसे साधक अच्छे कर्म करने और बुरे कर्मो का नाश करने में सफलता
प्राप्त कर लेते हैं। खेचरी की सिद्धि प्राप्त करने वाले साधक अपने मन को
वश में कर लेते हैं, उनकी आवाज भी निर्मल हो जाती है। आज्ञा चक्र को
सम्प्रज्ञात समाधि में जीवात्मा का स्थान कहा जा सकता है, क्योंकि यही
दिव्य दृष्टि का स्थान है। इसे शक्ति को दिव्यदृष्टि तथा शिव की तीसरी आंख
भी कहते हैं। इस तरह असम्प्रज्ञात समाधि में जीवात्मा का स्थान
ब्रह्मरन्ध्र है, क्योंकि इसी स्थान पर प्राण तथा मन के स्थिर हो जाने से
असम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त होती है।
सहस्त्र चक्र मस्तिष्क में स्थित होता है और जो व्यक्ति इस चक्र का जागरण
करने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं, वे जीवन मृत्यु पर नियंत्रण प्राप्त
कर लेते हैं। सभी लोगों में अंतिम 2 चक्र सोई हुई अवस्था में रहते हैं। अत:
इस चक्र का जागरण सभी लोगों के वश में नहीं होता। इस चक्र का जागरण करने
में कठिन साधना व लम्बे समय तक अभ्यास की आवश्यकता होती है। योग गुरुओं के
अनुसार इस चक्र का जागरण आम जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति को जबदस्ती नहीं
करना चाहिए। इस चक्र का केवल ध्यान करना चाहिए और स्वास्थ्य तथा सुखमय
जीवन व्यतीत करना चाहिए और यही आज के मानव जीवन के लिए योग और विज्ञान की
कामना है।
इन चक्रों का ध्यान एक-एक करके करना चाहिए। इन सप्त चक्रों के ध्यान करने की विधि-
मूलाधार चक्र-
इसके अभ्यास के लिए पहले किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठ जाएं। अपने दोनों
हाथों को ज्ञान मुद्रा व अंजलि मुद्रा में रखें तथा अपनी आंखों को बन्द
करके रखें। अपनी गर्दन, पीठ व कमर को सीधा करके रखें। सप्तचक्र ध्यान का
अभ्यास शवासन में भी किया जा सकता है। अब सबसे पहले अपने ध्यान को गुदा से 4
अंगुली ऊपर मूलाधार चक्र पर ले जाएं। फिर मूलाधार चक्र पर अपने मन को
एकाग्र व स्थिर करें और अपने मन में चार पंखुड़ियों वाले बन्द लाल रंग वाले
कमल के फूल की कल्पना करें। फिर अपने मन को एकाग्र करते हुए उस फूल की
पंखुड़ियों को एक-एक करके खुलते हुए कमल के फूल का अनुभव करें। इसकी कल्पना
के साथ ही उस आनन्द का अनुभव करने की कोशिश करें। उसकी पंखुड़ियों तथा कमल
के बीच परागों से ओत-प्रोत सुन्दर फूल की कल्पना करें। इस तरह कल्पना करते
हुए तथा उसके आनन्द को महसूस करते हुए अपने मन को कुछ समय तक मूलाधार चक्र
पर स्थिर रखें। इसके बाद स्वाधिष्ठान चक्र पर मन को एकाग्र करें।
स्वाधिष्ठान चक्र-
पहली विधि के बाद अपने ध्यान को उपस्थ में स्थित स्वाधिष्ठ चक्र पर ले
जाएं और 6 पंखुड़ियों वाले कमल के पीले रंग के फूल की कल्पना करें। साथ ही
कल्पना करें कि इसकी सभी पंखुड़ियां आपस में कली की तरह मिली हुई है। इस कमल
के फूल को अपनी आंतरिक दृष्टि से देखने तथा मन को वहां केन्द्रित करते हुए
एक के बाद एक पंखुड़ियों को खिलाएं। जब पूर्ण रूप से पीले रंग का कमल खिल
जाए तो उसके सौन्दर्य को महसूस करें और उसके आनन्द का भी अनुभव करें। इस
तरह कुछ समय अपने मन को वहां स्थिर करके उस चक्र पर ध्यान को केन्द्रित
करें।
मणिपूर चक्र-
स्वाधिष्ठ चक्र के बाद अपने मन को नाभि के पास स्थित मणिपूर चक्र में
केन्द्रित करें। मन में कल्पना करें कि नाभि में पीले रंग का 10 दल वाला
कमल का फूल है, जिसकी पंखुड़ियां आपस में मिली हुई है। ध्यान चक्र का अभ्यास
करने वाले को चाहिए कि अपने मन को एकाग्र कर अपनी कल्पना के द्वारा उस फूल
को खिलाएं और उससे मिलने वाले आनन्द का अनुभव करें। इस तरह नीले रंग के
खिले हुए कमल के फूल पर अपने मन को कुछ देर तक केन्द्रित करें। इसके बाद
अनाहत चक्र पर स्थिर करें।
अनाहद चक्र-
मणिपूर चक्र पर ध्यान लगाने के बाद अपने ध्यान को अनाहत चक्र अर्थात हृदय
के पास स्थित चक्र पर लगाएं। मन को एकाग्र व शांत रखते हुए 12 पंखुड़ियों
वाले कमल के फूल की कल्पना करें। कल्पना करें कि हृदय के पास चक्र में 12
पंखुड़ियों वाला कमल का फूल है, जिसका रंग सफेद हैं और इस फूल की सभी
पंखुड़ियां आपस में बन्द है। इसके बाद अपनी आंतरिक दृष्टि से कमल की सभी
पंखुड़ियों को खिलाएं और कुछ समय तक इस पर ध्यान को केन्द्रित करें। इसके
बाद विशुद्धि चक्र पर ध्यान केन्द्रित करें।
विशुद्धि चक्र-
हृदय के पास स्थित चक्र पर ध्यान केन्द्रित करने के बाद अपने ध्यान को
कंठमूल में स्थित विशुद्धि चक्र पर केन्द्रित करें। इस चक्र पर ध्यान करते
हुए भूरे रंग के 15 दलों वाले कमल के फूल की कल्पना करें। इसके बाद अपनी
आंतरिक दृष्टि को केन्द्रित करते हुए अपने मन में कमल की एक-एक पंखुड़ियों
को खिलाते हुए स्थिति की कल्पना करें। फिर खिले हुए फूल की सुन्दरता के
आनन्द को प्राप्त करते हुए कुछ समय तक अपने मन को वहीं स्थिर रखें।
आज्ञा चक्र-
अपने ध्यान को दोनों भौंहों के बीच भ्रूमध्य में स्थित आज्ञा चक्र पर
लाएं। इस चक्र में 2 पंखुड़ियों वाले कमल के फूल की कल्पना करें जिसका रंग
सुनहरा है। इसकी भी दोनों पंखुड़ियां आपस में मिली हुई है। आंतरिक दृष्टि से
उस कमल के फूल को स्पष्ट करने की कोशिश करें और अपने मन को केन्द्रित करते
हुए कमल की पंखुड़ियों को खिलाते हुए चित्र की कल्पना करें। खिले हुए कमल
के फूल को देखें और कुछ समय तक अपने मन को उस चक्र पर केन्द्रित करें। इसके
बाद ध्यान को सहस्त्रार चक्र पर केन्द्रित करें।
सहस्त्रार चक्र-
कंठमूल के पास स्थित चक्र पर ध्यान केन्द्रित करने के बाद सहस्त्रार चक्र
पर अपने ध्यान को केन्द्रित करें। यह ध्यानाभ्यास पहले के सभी अभ्यास से
अलग है। अपने ध्यान को एक-एक कर सभी चक्रों पर केन्द्रित करते हुए ऊपर के
स्थित सहस्त्रार चक्र पर स्थिर किया जाता है। पहले सभी चक्रों का ध्यान
करते हुए कमल के बन्द फूल की कल्पना की जाती है और उसे अपनी आंतरिक दृष्टि
से स्पष्ट करने की कोशिश की जाती है। परन्तु इस चक्र में अपने ध्यान को
केन्द्रित करते हुए अधोमुख अर्थात आधे खुले हुआ कमल के फूल की कल्पना की
जाती है। इसमें अपने ध्यान को सहस्त्रार चक्र में लगाते हुए कल्पना करें कि
अधोखुले कमल के फूल है। सातवें चक्र पर ध्यान केन्द्रित करना ध्यान का
सबसे अंतिम ध्यानाभ्यास है। इसका ध्यान करने से मन में सुख, शांति और सत्य
का ज्ञान का अनुभव होता है। ध्यान की यात्रा मूलाधार चक्र से शुरू होकर
सहस्त्रार चक्र में समाप्त हो जाती है।
अंतिम चक्र पर ध्यान का अभ्यास करते समय अपने मन को मस्तिष्क के बीच वाले
भाग में स्थित सहस्त्रदल कमल के फूल पर स्थिर करें। मन को उस पर केन्द्रित
कर कल्पना करें कि उस फूल में सभी रंग मौजूद है और वह नीचे की ओर खिला हुआ
है। ध्यान करें कि यह चक्र प्रतिबिम्बों का सागर, सभी चेतनाओं का केन्द्र,
यह वर्तमान, भूत और भविष्य है तथा मानव जीवन का यही आदि और अंत है। कुछ देर
मन को एकाग्र करने के बाद मूलाधार चक्र के ठीक विपरीत ध्यान का त्याग
सहस्त्रार चक्र में करें।
इस तरह सहस्त्रार चक्र पर कुछ समय तक ध्यान को केन्द्रित रखें। फिर
सहास्त्रार चक्र से अपने ध्यान को हटा लें और अपने ध्यान को भौंहों के बीच
स्थित आज्ञा चक्र पर लाएं। भौंहों के बीच स्थित कमान पर अपने ध्यान को
एकाग्र कर खुले हुए कमल की पंखुड़ियों को बन्द करें। इसके बाद कंठमूल में
स्थित विशुद्धि चक्र पर ध्यान करें और खिली हुए पंखुड़ियों को बन्द कर दें।
फिर हृदय के पास स्थित अनाहत चक्र पर ध्यान को लाकर फूल की खिली हुई
पंखुड़ियों को बन्द करें। इसके बाद नाभि में स्थित मणिपूर चक्र पर ध्यान को
लाएं और खिले हुए फूल को बन्द करें। फिर अपने ध्यान को स्वाधिष्ठान चक्र पर
लाएं और फूल की पंखुड़ियों को बन्द करें। इसके बाद अपने ध्यान को नीचे
स्थित मूलाधार चक्र पर लाएं और खिले हुए फूल की पंखुड़ियों को बन्द कर अपने
मन को आंतरिक चेतना से बाहर निकालें अर्थात ध्यानावस्था से बाहर निकाले और
अपने शरीर का ज्ञान करें। जिस आसन में बैठे है या लेटे हैं उस आसन का ज्ञान
करें। फिर आसन को त्यागकर सामान्य स्थिति में आ जाएं। पैरों के पंजों को
ऊपर नीचे चलाएं तथा सिर को दाएं-बाएं घुमाएं। मुट्ठी को 4 से 5 बार बन्द
करें और खोलें। दोनों हाथों को आपस में रगड़ें और अपनी आंखों व मुंह पर
सहलाएं। हाथों से कुछ देर तक आंखों को बन्द करके रखें और 4 से 5 बार आंखों
को खोले व बन्द करें। कुछ समय तक मौन व शांत स्थिति में बैठे रहें और फिर
अभ्यास की स्थित का त्याग करें। 10 से 15 मिनट बाद अपने प्रतिदिन के कार्य
के लिए चले जाएं।
http://www.jkhealthworld.com/detail.php?id=5794
सुषुप्तिरत्र तृष्णा स्यादीष्र्या पिशुनता तथा॥ लज्ज् भयं घृणा मोहः कषायोऽथ विषादिता । लौन्यं प्रनाशः कपटं वितर्कोऽप्यनुपिता॥ आश्शा प्रकाशश्चिन्ता च समीहा ममता ततः । क्रमेण दम्भोवैकल्यं विवकोऽहंक्वतिस्तथा॥ फलान्येतानि पूर्वादिदस्थस्यात्मनों जगुः । कण्ठेऽस्ति भारतीस्थानं विशुद्धिः षोडशच्छदम्॥ तत्र प्रणव उद्गीथो हुँ फट् वषट् स्वधा तथा । स्वाहा नमोऽमृतं सप्त स्वराः षड्जादयो विष॥ इति पूर्वादिपत्रस्थे फलान्यात्मनि षोडश॥ (१) गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला 'आधार चक्र' है । वहाँ वीरता और आनन्द भाव का निवास है । (२) इसके बाद स्वाधिष्ठान चक्र लिंग मूल में है । उसकी छः पंखुरियाँ हैं । इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है । (३) नाभि में दस दल वाला मणिचूर चक्र है । यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह, आदि कषाय-कल्मष मन में लड़ जमाये पड़े रहते हैं (४) हृदय स्थान में अनाहत चक्र है । यह बारह पंखरियों वाला है । यह सोता रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक अहंकार से भरा रहेगा । जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे । (५) कण्ठ में विशुद्धख्य चक्र यह सरस्वती का स्थान है । यह सोलह पंखुरियों वाला है । यहाँ सोलह कलाएँ सोलह विभतियाँ विद्यमान है (६) भू्रमध्य में आज्ञा चक्र है, यहाँ 'ॐ' उद्गीय, हूँ, फट, विषद, स्वधा स्वहा, सप्त स्वर आदि का निवास है । इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से यह सभी शक्तियाँ जाग पड़ती हैं । श्री हडसन ने अपनी पुस्तक 'साइन्स आव सीयर-शिप' में अपना मत व्यक्त किया है । प्रत्यक्ष शरीर में चक्रों की उपस्थिति का परिचय तंतु गुच्छकों के रूप में देखा जा सकता है । अन्तः दर्शियों का अनुभव इन्हें सूक्ष्म शरीर में उपस्थिति दिव्य शक्तियों का केन्द्र संस्थान बताया है । कुण्डलिनी के बारे में उनके पर्यवेक्षण का निष्कर्ष है कि वह एक व्यापक चेतना शक्ति है । मनुष्य के मूलाधार चक्र में उसका सम्पर्क तंतु है जो व्यक्ति सत्ता को विश्व सत्ता के साथ जोड़ता है । कुण्डलिनी जागरण से चक्र संस्थानों में जागृति उत्पन्न होती है । उसके फलस्वरूप पारभौतिक (सुपर फिजीकल) और भौतिक (फिजीकल) के बीच आदान-प्रदान का द्वार खुलता है । यही है वह स्थिति जिसके सहारे मानवी सत्ता में अन्तर्हित दिव्य शक्तियों का जागरण सम्भव हो सकता है । चक्रों की जागृति मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव को प्रभावित करती है । स्वाधिष्ठान की जागृति से मनुष्य अपने में नव शक्ति का संचार हुआ अनुभव करता है उसे बलिष्ठता बढ़ती प्रतीत होती है । श्रम में उत्साह और गति में स्फूर्ति की अभिवृद्धि का आभास मिलता है । मणिपूर चक्र से साहस और उत्साह की मात्रा बढ़ जाती है । संकल्प दृढ़ होते हैं और पराक्रम करने के हौसले उठते हैं । मनोविकार स्वयंमेव घटते हैं और परमार्थ प्रयोजनों में अपेक्षाकृत अधिक रस मिलने लगता है । अनाहत चक्र की महिमा ईसाई धर्म के योगी भी बताते हैं । हृदय स्थान पर गुलाब से फूल की भावना करते हैं और उसे महाप्रभु ईसा का प्रतीक 'आईचीन' कनक कमल मानते हैं । भारतीय योगियों की दृष्टि से यह भाव संस्थान है । कलात्मक उमंगें-रसानुभुति एवं कोमल संवेदनाओं का उत्पादक स्रोत यही है । बुद्धि की वह परत जिसे विवेकशीलता कहते हैं । आत्मीयता का विस्तार सहानुभूति एवं उदार सेवा सहाकारिता क तत्त्व इस अनाहत चक्र से ही उद्भूत होते हैं कण्ठ में विशुद्ध चक्र है । इसमें बहिरंग स्वच्छता और अंतरंग पवित्रता के तत्त्व रहते हैं । दोष व दुर्गुणों के निराकरण की प्रेरणा और तदनुरूप संघर्ष क्षमता यहीं से उत्पन्न होती है । शरीरशास्त्र में थाइराइड ग्रंथि और उससे स्रवित होने वाले हार्मोन के संतुलन-असंतुलन से उत्पन्न लाभ-हानि की चर्चा की जाती है । अध्यात्मशास्त्र द्वारा प्रतिपादित विशुद्ध चक्र का स्थान तो यहीं है, पर वह होता सूक्ष्म शरीर में है । उसमें अतीन्द्रिय क्षमताओं के आधार विद्यमान हैं । लघु मस्तिष्क सिर के पिछले भाग में है । अचेतन की विशिष्ट क्षमताएँ उसी स्थान पर मानी जाती हैं । मेरुदण्ड में कंठ की सीध पर अवस्थित विशुद्ध चक्र इस चित्त संस्थान को प्रभावित करता है । तदनुसार चेतना की अति महत्वपूर्ण परतों पर नियंत्रण करने और विकसित एवं परिष्कृत कर सकने सूत्र हाथ में आ जाते हैं । नादयोग के माध्यम से दिव्य श्रवण जैसी कितनी ही परोक्षानुभूतियाँ विकसित होने लगती हैं । सहस्रार की मस्तिष्क के मध्य भाग में है । शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों से सम्बन्ध रैटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम का अस्तित्व है । वहाँ से जैवीय विद्युत का स्वयंभू प्रवाह उभरता है । वे धाराएँ मस्तिष्क के अगणित केन्द्रों की ओर दौड़ती हैं । इसमें से छोटी-छोटी चिनगारियाँ तरंगों के रूप में उड़ती रहती हैं । उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो सकती, पर वे हैं हजारों । इसलिए हजार या हजारों का उद्बोधक 'सहस्रार' शब्द प्रयोग में लाया जाता है । सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर हुआ है सहस्र फन वाले शेषनाग की परिकल्पना का यही आधार है । |
http://hindi.awgp.org/?gayatri/sanskritik_dharohar/gayatri_mahavidya/savitri_kundlini_tantra/kundlini_me_shat_chakr_unka_bhedan.३
आज्ञा चक्र - तीसरी आँख
नाम: आज्ञा, तीसरी आँख, षष्टम चक्र |
|
स्थान: दोनो भौंह के बीच में | |
तत्त्व: विचार | |
रंग: चाँदी |
षष्टम चक्र, तीसरी आँख या शिवजी का नेत्र का स्थान वहाँ
होता है जहाँ हम ध्यान के समय उस स्थान की ओर केंद्रित तथा
एकाग्र करते हैं।
यह चक्र हमारे अन्तर्ज्ञान तथा उन सभी क्रियाओं का है जो
कि हमारे अवचेतन मन मे घटित होता है।
यह समझ, ज्ञान तथा स्मृति के लिये स्थिर रहता है।
शारिरीक तौर पर यह चक्र
पीयूष ग्रंथि( मस्तिष्क के बीच की एक ग्रन्थि) तथा छोटे
मस्तिष्क के क्रियाओं को सन्योजित करता है।
आज्ञा चक्र में रूकावटों के कारण अनिद्रा, सर दर्द तथा
थकावट जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती है वहीं लोग षष्टम चक्र
में उर्जा की अधिक मात्रा के कारण आत्मनियंत्रण, एक तेज
दिमाग रखते है तथा एक अन्तर्ज्ञान होता है जो की कभी कभी
एक योग्यता के साथ दुसरों के लिये
सूक्ष्मदर्शी लगता है।
प्रेरक सुगंध: मोतिया (एक भारतीय फूल), नीले रंग का फूल, चमेली | |
रत्न तथा पत्थर: Amethyst, Blue and white fluorite, lapis lazuli | |
शारीरिक समस्याएँ: आयुर्वृद्धि समस्याएँ, ब्रेन ट्युमर, पुरानी थकान के लक्षण, कोमा, कानों का संक्रमण, मिर्गी, सर दर्द, पागलपन, अनिद्रा, पीयूष ग्रंथि( मस्तिष्क के बीच की एक ग्रन्थि) की समस्याएँ | |
भावनात्मक समस्याएँ: अवषाद, सफलता कि न चाहत, ज्ञान की
कमी, आध्यात्मिक सम्बंध का खोना, चालाकी,
स्मृति समस्याएँ, मानसिक विकार, बिना निश्चयपूर्वक,
बिना आयोजन के, पागलपन http://www.jaisiyaram.in/chakra6.htm |
कुण्डलिनी-साधना
कुण्डलिनी शक्ति क्या है?
योग कुण्डल्युपनिषद् में कुण्डलिनी का वर्णन इस तरह किया गया है-
´कुण्डले अस्या´ स्त: इति: कुण्डलिनी। दो कुण्डल वाली होने के कारण
पिण्डस्थ उस शक्ति प्रवाह को कुण्डलिनी कहते हैं। दो कुण्डल अर्थात इड़ा और
पिंगला। बाईं ओर से बहने वाली नाड़ी को ´इड़ा´ और दाहिनी ओर से बहने वाली
नाड़ी को ´पिगला´ कहते हैं। इन दोनों नाडियों के बीच जिसका प्रवाह होता है,
उसे सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं। इस सुषुम्ना नाड़ी के साथ और भी नाड़ियां होती
है। जिसमें एक चित्रणी नाम की नाड़ी भी होती है। इस चित्रणी नाम की नाड़ी में
से होकर कुण्डलिनी शक्ति प्रवाहित होती है, इसलिए सुषुम्ना नाड़ी की दोनों
ओर से बहने वाली उपयुक्त 2 नाड़ियां ही कुण्डलिनी शक्ति के 2 कुण्डल हैं।
कुण्डलिनी यज्ञ का विशेष वर्णन करते हुए मुण्डकोपनिषद के २/१/८ संदर्भ में कहा गया है- ''सत्तप्राणी उसी से उत्पन्न हुए । अग्नि की सात ज्वालाएँ उसी से प्रकट हुईं । यही सप्त समिधाएँ हैं, यही सात हवि हैं । इनकी ऊर्जा उन सात लोकों तक जाती जिनका सृजन परमेश्वर ने उच्च प्रयोजनों के लिए किया गया है ।'' उपनिषद् में कुण्डलिनी शक्ति के स्वरूप का वर्णन- मूलाधारस्य वहवयात्म तेजोमध्ये व्यवस्थिता। जीवशक्ति: कुण्डलाख्या प्राणाकारण तैजसी।। अर्थात कुण्डलिनी मूलाधार चक्र में स्थित आत्माग्नी तेज के मध्य में स्थित है। वह जीवनी शक्ति है। तेज और प्राणाकार है। कुण्डलिनी शक्ति का ज्ञानार्णव तंत्र में वर्णन इस प्रकार किया गया है- मूलाधारे मूलविद्दया विद्युत्कोटि समप्रभासम्। सूर्यकटि प्रतीकाशां चन्द्रकोटि द्रवां प्रिये।। अर्थात मूलाधार चक्र में विद्युत प्रकाश ही करोड़ों किरणों वाला, करोड़ों सूर्यो और चन्द्रमाओं के प्रकाश के समान, कमल की डण्डी के समान अविच्छिन्न तीन घेरे डाले हुए मूल विद्या रूपिणी कुण्डलिनी स्थित है। वह कुण्डलिनी परम प्रकाशमय है, अविच्छिन्न शक्तिधारा है और तेजोधारा है। घेरण्ड संहिता के अनुसार- घेरण्ड संहिता में कुण्डलिनी को ही आत्मशक्ति या दिव्य शक्ति व परम देवता कहा गया है। मूलाधारे आत्मशक्ति: कुण्डली परदेवता। शमिता भुजगाकारा, सार्धत्रिबलयान्विता।। अर्थात मूलाधार में परम देवी आत्माशक्ति कुण्डलिनी तीन बलय वाली सर्पिणी के समान कुण्डल मारकर सो रही है। महाकुण्डलिनी प्रोक्त: परब्रह्म स्वरूपिणी। शब्दब्रह्ममयी देवी एकाऽनेकाक्षराकृति:।। अर्थात कुण्डलिनी शक्ति परम ब्रह्मा स्वरूपिणी, महादेवी, प्राण स्वरूपिणी तथा एक और अनेक अक्षरों के मंत्रों की आकृति में माला के समान जुड़ी हुई बतायी जाती है। कन्दोर्ध्व कुण्डली शक्ति: सुप्ता मोक्षाय योगिनाम्। बन्धनाय च मूढ़ानां यस्तां वेति से योगिवित्।। अर्थात कन्द के ऊपर कुण्डलिनी शक्ति अवस्थित है। यह कुण्डलिनी शक्ति सोई हुई अवस्था में होती है। इस कुण्डलिनी शक्ति के द्वारा ही योगिजनों को मोक्ष प्राप्त होता है। सुख के बन्धन का कारण भी कुण्डलिनी है। जो कुण्डलिनी शक्ति को अनुभाव पूर्ण रूप से कर पाता है, वही सच्चा योगी होता है। सप्त लोकों का देवी भागवत में अन्य प्रकार से उल्लेख हुआ है- उसमें भूः में धरित्री भुवः में वायु स्वः में तेजस महः में महानता, जनः में जनसमुदाय, तपः में तपश्चर्या एवं सत्य में सिद्धवाण्-वाक सिद्धि रूप सात शक्तियाँ समाहित बतायी गयी हैं । इस प्रकार कुण्डलिनी योग के अंतर्गत चक्र समुदाय में वह सभी कुछ आ जाता है, जिसकी कि भौतिक और आत्मिक प्रयोजनों के लिए आवश्यकता पड़ती है । मानवी काया को एक प्रकार से भूलोक के समान माना गया है। इसमें अवस्थित मूलाधार चक्र को पृथ्वी की तथा सहस्रार को सूर्य की उपमा दी गई है । दोनों के बीच चलने वाले आदान-प्रदान माध्यम को मेरुदण्ड कहा गया है । ब्रह्मरंध्र ब्रह्मण्ड का प्रतीक है । ठीक इसी प्रकार सहस्रार लोक ब्रह्मण्डीय चेतना का अवतरण केन्द्र है और इस महान् भण्डागार में से मूलाधार को जिस कार्य के लिए जितनी मात्रा में जिस स्तर की शक्ति कि आवश्यक्ता होती है उसकी पूर्ति लगातार होती रहती है । कुण्डलिनी प्रसंग योग वशिष्ठ, योग चूड़ामणि, देवी भवगत्, शारदा तिलक, शान्डिल्योसपनिषद मुक्ति-कोपनिषद, हठयोग संहिता, कुलार्णन तंत्र, योगिनी तंत्र बिन्दूपनिषद, रुद्र यामल तंत्र सौन्दर्य लहरी आदि गंथों में विस्तार पूर्वक दिया गया है । यही कारण है कि ऋग्वेद में ऋषि कहते हैं- हे ''प्राणाग्नि! मेरे जीवन में ऊषा बनकर प्रकटों अज्ञान का अंधकार दूर करों, ऐसा बल प्रदान करो जिससे देव शक्तियाँ खिंची चली आएँ ।'' त्रिशिखिब्रहोपनिषद में शास्त्रकार ने कहा है- ''योग साधना द्वारा जगाई हुई कुण्डलिनी बिजली के समान लडपती और चमकती है । उससे जो है, सोया सा जागता है । जो जागता है, वह दौड़ने लगता है ।'' महामंत्र में वर्णन आता है- ''जाग्रत हुई कुण्डलिनी असीम शक्ति का प्रसव करती है । उससे नाद बिन्दू, कला के तीनों अभ्यास स्वयंमेव सध जाते हैं । परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी चारों वाणियाँ मुखर हो उठती हैं । इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति में उभार आता है । शरीर-वीणा के सभी तार क्रमबद्ध हो जाते हैं और मधुर ध्वनि में बजते हुए अन्तराल को झंकृत करते हैं । शब्दब्रह्म की यह सिद्धि मनुष्य को जीवनमुक्त कर देवात्मा बना देती है ।'' शरीर में कुण्डलिनी की अवस्था
जननेन्द्रिय के मूल में या लिंग उपस्थ में नाड़ियों का एक गुच्छा है। योग
शास्त्रों में इसी को “कन्द” कहा जाता है। इसी पर कुण्डलिनी गहरी नींद में
जन्म-जन्मान्तर से सो रही होती है।
कुण्डलो कुटिलाकारा सर्पवत् परिकीर्तिता। सा शक्तिश्चालिता येन, स युक्तों नात्र संशय।। अर्थात कुण्डलिनी को सर्प के आकार की कुटिल कहा गया है। जिस तरह सांप कुण्डली मारकर सोता है, उसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति भी आदिकाल से ही मनुष्य के अन्दर सोई हुई रहती है। यावत्सा निद्रिता देहे तावज्जीव: पयुयेथा। ज्ञान न जायते तावत् कोटि योगविधेरपि।। अर्थात जब तक कुण्डलिनी शक्ति मनुष्य के अन्दर सोई हुई अवस्था में रहती है, तब तक मनुष्य परिस्थिति के अधीन रहता है। ऐसे व्यक्ति का आचरण पशुओं के समान होता है। ऐसे व्यक्ति दीन-हीन जीवन यापन करते हैं, तथा उनका रहन-सहन, भावों और विचारों, आहार-विहार आदि में आत्म विश्वास, धैर्य, सूझ-बूझ, उमंग, उत्साह, उल्लास, दृढ़ता, स्थिरता, एकाग्रता, कार्य कुशलता, उदारता और हृदय विशालता जैसे गुणों का अभाव होता है। ऐसे व्यक्ति अनेक योग साधना, पूजा-पाठ आदि करके भी अपने ब्रह्माज्ञान विवेक को प्राप्त नहीं कर पाता। मूलाधारे प्रसुप्त साऽऽमशक्ति उन्न्द्रिता- विशुद्धे तिष्ठति मुक्तिरूपा पराशक्ति:। अर्थात वह प्रबल आत्मशक्ति मूलाधार में सो रही है। उसका प्रयोग किसी बड़े या चमत्कारी कार्य में न होने से वह अपमानित व्यक्ति की तरह शिथिल और गतिहीन बनी हुई है। व्यक्ति के अन्दर जागी हुई इच्छाशक्ति के महान उद्देश्यों की पूर्ति में नियोजित वही शक्ति पराशक्ति के रूप में विराजती है।
शरीर के अन्दर कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होने से शरीर के अन्दर मौजूद दूषित
कफ, पित्त, वात आदि से उत्पन्न होने वाले विकार नष्ट हो जाते हैं। इसके
जागरण से मनुष्य के अन्दर काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे दोष, आदि खत्म हो जाते
हैं। इस शक्ति का जागरण होने से यह अपनी सोई हुई अवस्था को त्याग कर सीधी
हो जाती है और विद्युत तरंग के समान कम्पन के साथ इड़ा, पिंगला नाड़ियों को
छोड़कर सुषुम्ना से होते हुए मस्तिष्क में पहुंच जाती है।
कुण्डल्येव भवेच्छक्तिस्तां तु सचालयेत बुध:। स्पश्यनादाभ्रवोर्मध्य, शक्तिचालनमुच्चते।। अर्थात अपने अन्दर आंतरिक ज्ञान व अत्याधिक शक्ति की प्राप्ति के लिए सभी मनुष्यों को चाहिए कि वह अपने अन्दर सोई हुई कुण्डलिनी (आत्मशक्ति) का जागरण करें, उसे कार्यशील बनाएं! प्राणायाम के द्वारा जब मूलाधार से स्फूर्ति तरंग की तरह ऊर्जा शक्ति उठकर मस्तिष्क में आती हुई महसूस होने लगे तो समझना चाहिए कि कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो चुकी है। ज्ञेया शक्तिरियं विश्नोनिर्भया स्वर्णभ: स्वरा। अर्थात शरीर में उत्पन्न होने वाली इस कुण्डलिनी शक्ति को स्वर्ण के समान सुन्दर विष्णु की निर्भय शक्ति ही समझना चाहिए। यही शक्ति आत्मशक्ति, जीवशक्ति आदि नाम से भी जाना जाता है। यही ईश्वरीय शक्ति भी है, प्राणशक्ति और कुण्डलिनी शक्ति भी है। मनुष्य के शरीर में मौजूद कुण्डलिनी शक्ति और पारलौकिक शक्ति दोनों एक ही शक्ति के अलग-अलग रूप हैं। पतांजलि द्वारा रचित ´योग दर्शन´ शास्त्र के अनुसार- पतांजलि द्वारा रचित ´योग दर्शन´ शास्त्र के साधनापद में कुण्डलिनी शक्ति के जागरण के अनेकों उपाय बताए गए है। मंत्र ग्रन्थों में जितने योगों का वर्णन है, वे सभी कुण्डलिनी जागरण की ही साधना है। महाबन्ध, महावेध, महामुद्रा, खेचरी मुद्रा, विपरीत करणी मद्रा, अश्विनी मुद्रा, योनि मुद्रा, शक्ति चालिनी मुद्रा, आदि कुण्डलिनी जागरण में सहायता करते हैं। इसमें प्राणायाम के द्वारा कुण्डलिनी को जागरण करना और उसे सुषुम्ना में लाना कुण्डलिनी जागरण का सबसे अच्छा उपाय है। प्राणायाम के द्वारा कुछ समय में ही कुण्डलिनी शक्ति का जागरण कर उसके लाभों को प्राप्त किया जा सकता है। प्राणायाम से केवल कुण्डलिनी शक्ति ही जागृत ही नहीं होती बल्कि इससे अनेकों लाभ भी प्राप्त होते हैं। ´योग दर्शन´ के अनुसार प्राणायाम के अभ्यास से ज्ञान पर पड़ा हुआ अज्ञान का पर्दा नष्ट हो जाता है। इससे मनुष्य भ्रम, भय, चिंता, असमंजस्य, मूल धारणाएं और अविद्या व अन्धविश्वास आदि नष्ट होकर ज्ञान, अच्छे संस्कार, प्रतिभा, बुद्धि-विवेक आदि का विकास होने लगता है। इस साधना के द्वारा मनुष्य अपने मन को जहां चाहे वहां लगा सकता है। प्राणायाम के द्वारा मन नियंत्रण में रहता है। इससे शरीर, प्राण व मन के सभी विकार नष्ट हो जाते हैं। इससे शारीरिक क्षमता व शक्ति का विकास होता है। प्राणायाम के द्वारा प्राण व मन को वश में करने से ही व्यक्ति आश्चर्यजनक कार्य को कर सकने में समर्थ होता है। प्राणायाम आयु को बढ़ाने वाला, रोगों को दूर करने वाला, वात-पित्त-कफ के विकारों को नष्ट करने वाला होता है। यह मनुष्य के अन्दर ओज-तेज और आकर्षण को बढ़ाता है। यह शरीर में स्फूर्ति, लचक, कोमल, शांति और सुदृढ़ता लाता है। यह रक्त को शुद्ध करने वाला है, चर्म रोग नाशक है। यह जठराग्नि को बढ़ाने वाला, वीर्य दोष को नष्ट करने वाला होता है। प्राणायाम के द्वारा वीर्य और प्राण के ऊर्ध्वगमन से बुद्धि तंत्र के बन्द कोष खुलते है, साथ ही शरीर की नस-नस में अत्यंत शक्ति, साहस का संचार होने से क्रियाशीलता का विकास भी होता है।
मनुष्य को प्राप्त महानशक्ति को जाग्रत करना। यह शक्ति सभी मनुष्यों में
सुप्त पड़ी रहती है। कुण्डली शक्ति उस ऊर्जा का नाम है जो हर मनुष्य में
जन्मजात पायी जाती है। इसे जगाने के लिए प्रयास या साधना करनी पड़ती है।
कुंडली जागरण के लिए साधक को शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर साधना या प्रयास करना पड़ता है। जप, तप, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ, योग आदि के माध्यम से साधक अपनी शारीरिक एवं मानसिक, अशुद्धियों, कमियों और बुराइयों को दूर कर सोई पड़ी शक्तियों को जगाता है। अत: हम कह सकते हैं कि विभिन्न उपायों से अपनी अज्ञात, गुप्त एवं सोई पड़ी शक्तियों का जागरण ही कुंडली जागरण है। योग और अध्यात्म में इस कुंडलीनी शक्ति का निवास रीढ़ की हड्डी के समानांतर स्थित छ: चक्रों में से प्रथम चक्र मूलाधार के नीचे माना गया है। यह रीढ की हड्डी के आखिरी हिस्से के चारों ओर साढे तीन आँटे लगाकर कुण्डली मारे सोए हुए सांप की तरह सोई रहती है। आध्यात्मिक भाषा में इन्हें षट्-चक्र कहते हैं। ये चक्र क्रमश: इस प्रकार है:- मूलधार-चक्र, स्वाधिष्ठान-चक्र, मणिपुर-चक्र, अनाहत-चक्र, विशुद्ध-चक्र, आज्ञा-चक्र। साधक क्रमश: एक-एक चक्र को जाग्रत करते हुए, आज्ञा-चक्र तक पहुंचता है। मूलाधार-चक्र से प्रारंभ होकर आज्ञाचक्र तक की सफलतम यात्रा ही कुण्डलिनी जागरण कहलाता है। षट्-चक्र एक प्रकार की सूक्ष्म ग्रंथियां है। इन चक्र ग्रंथियों में जब साधक अपने ध्यान को एकाग्र करता है तो उसे वहां की सूक्ष्म स्थिति का बड़ा विचित्र अनुभव होता है। इन चक्रों में विविध शक्तियां समाहित होती है। उत्पादन, पोषण, संहार, ज्ञान, समृद्धि, बल आदि। साधक जप के द्वारा ध्वनि तरंगों को चक्रों तक भेजता है। इन पर ध्यान एकाग्र करता है। प्राणायम द्वारा चक्रों को उत्तेजित करता है। आसनों द्वारा शरीर को इसके लिए उपयुक्त बनाता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विभिन्न शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक प्रयासों के द्वारा साधक, शक्ति के केंद्र इन चक्रों को जाग्रत करता है। वैदिक ग्रन्थों में लिखा है कि मानव शरीर आत्मा का भौतिक घर मात्र है। आत्मा सात प्रकार के कोषों से ढकी हुई हैः- १- अन्नमय कोष (द्रव्य, भौतिक शरीर के रूप में जो भोजन करने से स्थिर रहता है), २- प्राणामय कोष (जीवन शक्ति), ३- मनोमय कोष (मस्तिष्क जो स्पष्टतः बुद्धि से भिन्न है), ४- विज्ञानमय कोष (बुद्धिमत्ता), ५- आनन्दमय कोष (आनन्द या अक्षय आनन्द जो शरीर या दिमाग से सम्बन्धित नहीं होता), ६- चित्-मय कोष (आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता) तथा ७- सत्-मय कोष (अन्तिम अवस्था जो अनन्त के साथ मिल जाती है)। मनुष्य के आध्यात्मिक रूप से पूर्ण विकसित होने के लिये सातों कोषों का पूर्ण विकास होना अति आवश्यक है। साधक की कुण्डलिनी जब चेतन होकर सहस्त्रार में लय हो जाती है, तो इसी को मोक्ष कहा गया है। कुण्डलिनी योग के अंतर्गत शक्तिपात विधान का वर्णन अनेक ग्रंथों में मिलता है जैसे- योग वशिष्ठ, तेजबिन्दूनिषद्, योग चूड़ामणि, ज्ञान संकलिनी तंत्र, शिव पुराण, देवी भागवत, शाण्डिपनिषद, मुक्तिकोपनिषद, हठयोग संहिता, कुलार्णव तंत्र, योगनी तंत्र, घेरंड संहिता, कंठ श्रुति ध्यान बिन्दूपनिषद, रुद्र यामल तंत्र, योग कुण्डलिनी उपनिषद्, शारदा तिलक आदि ग्रंथों में इस विद्या के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है । तैत्तरीय आरण्यक में चक्रों को देवलोक एवं देव संस्थान कहा गया । शंकराचार्य कृत आनन्द लहरी के १७ वें श्लोक में भी ऐसा ही प्रतिपादन है । योग दर्शन समाधिपाद का ३६वाँ सूत्र है- 'विशोकाया ज्योतिष्मती' इसमें शोक संतापों का हरण करने वाली ज्योति शक्ति के रूप में कुण्डलिनी शक्ति की ओर संकेत है। हमारे ऋषियों ने गहन शोध के बाद इस सिद्धान्त को स्वीकार किया कि जो ब्रह्माण्ड में है, वही सब कुछ पिण्ड (शरीर) में है। इस प्रकार “मूलाधार-चक्र” से “कण्ठ पर्यन्त” तक का जगत “माया” का और “कण्ठ” से लेकर ऊपर का जगत “परब्रह्म” का है। मूलाद्धाराद्धि षट्चक्रं शक्तिरथानमूदीरतम् । कण्ठादुपरि मूर्द्धान्तं शाम्भव स्थानमुच्यते॥ -वराहश्रुति अर्थात मूलाधार से कण्ठपर्यन्त शक्ति का स्थान है । कण्ठ से ऊपर से मस्तक तक शाम्भव स्थान है । मूलाधार से सहस्रार तक की यात्रा को ही महायात्रा कहते हैं । योगी इसी मार्ग को पूरा करते हुए परम लक्ष्य तक पहुँचते हैं । जीव, सत्ता, प्राण, शक्ति का निवास जननेन्द्रिय मूल में है । प्राण उसी भूमि में रहने वाले रज वीर्य से उत्पन्न होते हैं । ब्रह्म सत्ता का निवास ब्रह्मलोक (ब्रह्मरन्ध्र) में माना गया है । यही द्युलोक, देवलोक, स्वर्गलोक है। आत्मज्ञान (ब्रह्मज्ञान) का सूर्य इसी लोक में निवास करता है । पतन के गर्त में पड़ी क्षत-विक्षत आत्म सत्ता अब उर्ध्वगामी होती है तो उसका लक्ष्य इसी ब्रह्मलोक (सूर्यलोक) तक पहुँचना होता है । योगाभ्यास का परम पुरुषार्थ इसी निमित्त किया जाता है । कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य यही है । आत्मोत्कर्ष की महायात्रा जिस मार्ग से होती है उसे मेरुदण्ड या सुषुम्ना कहते हैं । मेरुदण्ड को राजमार्ग या महामार्ग कहते हैं । इसे धरती से स्वर्ग पहुँचने का देवयान मार्ग कहा गया है । इस यात्रा के मध्य में सात लोक हैं । इस्लाम धर्म के सातवें आसमान पर खुदा का निवास माना गया है । ईसाई धर्म में भी इससे मिलती-जुलती मान्यता है । हिन्दू धर्म के भूः, भुवः, स्वः, तपः, महः, सत्यम् यह सात-लोक प्रसिद्ध है । आत्मा और परमात्मा के मध्य इन्हें विराम स्थल माना गया है । षट्-चक्र-भेदन- षट्-चक्र-भेदन विधान कितना उपयोगी एवं सहायक है इसकी चर्चा करते हुए ‘आत्म विवेक’ नामक साधना ग्रंथ में कहा गया है कि-
(1) गुदा और लिंग के बीच चार दल (पंखुड़ियों) वाला ‘आधार चक्र’ है। वहाँ वीरता और आनन्द भाव का वास है।
(2) इसके बाद स्वाधिष्ठान-चक्र लिंग मूल में है। इसके छः दल हैं। इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है। चक्रों की जागृति मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव को प्रभावित करती है। स्वाधिष्ठान की जागृति से मनुष्य अपने में नव शक्ति का संचार अनुभव करता है। उसे बलिष्ठता बढ़ती प्रतीत होती है। श्रम में उत्साह और गति में स्फूर्ति की अभिवृद्धि का आभास मिलता है। (3) नाभि में दस दल वाला मणिपूर-चक्र है। यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह, आदि कषाय-कल्मष मन में जड़ जमाये रहते हैं। मणिपूर चक्र से साहस और उत्साह की मात्रा बढ़ जाती है। संकल्प दृढ़ होते हैं और पराक्रम करने के हौसले उठते हैं। मनोविकार स्वयंमेव घटते जाते हैं और परमार्थ प्रयोजनों में अपेक्षाकृत अधिक रस मिलने लगता है। (4) हृदय स्थान में अनाहत-चक्र है। यह बारह दल वाला है। यह सोता रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक तथा अहंकार से साधक भरा रहेगा। इसके जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे। अनाहत चक्र की महिमा ईसाई धर्म में भी बहुत मानी जाती है। हृदय स्थान पर कमल के फूल की भावना करते हैं और उसे महाप्रभु ईसा का प्रतीक ‘आईचीन’ कनक कमल मानते हैं। भारतीय योगियों की दृष्टि से यह भाव संस्थान है। कलात्मक उमंगें-रसानुभुति एवं कोमल संवेदनाओं का उत्पादक स्रोत यही है। बुद्धि की वह परत जिसे विवेक-शीलता कहते हैं। आत्मीयता का विस्तार, सहानुभूति एवं उदार सेवा, सहाकारिता, इस अनाहत चक्र से ही उद्भूत होते हैं। (5) कण्ठ में विशुद्ध-चक्र है। यह सरस्वती का स्थान है। यह सोलह दल वाला है। यहाँ सोलह कलाएँ तथा सोलह विभूतियाँ विद्यमान है। कण्ठ में विशुद्ध चक्र है। इसमें बहिरंग स्वच्छता और अंतरंग पवित्रता के तत्त्व रहते हैं। दोष व दुर्गुणों के निराकरण की प्रेरणा और तदनुरूप संघर्ष क्षमता यहीं से उत्पन्न होती है। मेरुदण्ड में कंठ की सीध पर अवस्थित विशुद्ध चक्र, चित्त संस्थान को प्रभावित करता है। तदनुसार चेतना की अति महत्वपूर्ण परतों पर नियंत्रण करने और विकसित एवं परिष्कृत कर सकने के सूत्र हाथ में आ जाते हैं। नादयोग के माध्यम से दिव्य श्रवण जैसी कितनी ही परोक्षानुभूतियाँ विकसित होने लगती हैं। (6) भ्रू-मध्य में आज्ञा चक्र है। यहाँ- ॐ, उद्गीय, हूँ, फट, विषद, स्वधा, स्वहा, सप्त स्वर आदि का वास है। आज्ञा चक्र के जागरण होने से यह सभी शक्तियाँ जाग जाती हैं। (7) सहस्रार मस्तिष्क के मध्य भाग में है। शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों का अस्तित्व है। वहाँ से ऊर्जा का स्वयंभू प्रवाह होता है। यह ऊर्जा मस्तिष्क के अगणित केन्द्रों की ओर जाती/दौड़ती हैं। इसमें से छोटी-छोटी किरणे निकलती रहती हैं। उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो सकती, पर वे हजारों में होती है। इसलिए इस चक्र के लिये ‘सहस्रार’ शब्द प्रयोग में लाया जाता है। सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर हुआ है। यह संस्थान ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ सम्पर्क साधने में अग्रणी है, इसलिए उसे ब्रह्मरन्ध्र या ब्रह्मलोक भी कहते हैं। हिन्दू धर्मानुयायी इस स्थान पर शिखा रखते हैं। कबीर साहिब ने अपनी निम्नलिखित प्रसिद्ध रचना ‘कर नैनों दीदार महल में प्यारा है’ में सब कमलों का वर्णन विस्तार पूर्वक इस प्रकार किया है-
http://www.alakhniranjan.org/KundaliniSadhana.html
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