आज के सामजिक माहौल में जब वस्तुवादिता की आंधी में सभी बहे जा रहे हैं क्या हम रुक कर स्वयं को थोडा वक़्त देते हैं ?
क्या हम ये सोचते हैं की हमारे चिंतन व हमारी योग्यता का सही उपयोग हो रहा है ?
क्या हम ये सोचते हैं की भ्रष्टाचार,अपराध के बढ़ने में एक कारण हमारे अन्दर अच्छे विचारों का अभाव नहीं उनका क्रियान्वन है ?
हम स्वयं भी देश व समाज के प्रति अपनी कितनी ज़िम्मेदारी समझते हैं ?
प्रतिदिन हम अपराध व मानवता को शर्मसार करने वाली ख़बरें पढ़ते हैं लेकिन क्या हम उसके लिए कुछ कर पाते हैं ?
कहीं हम इस सोच के शिकार तो नहीं की एक आदमी के अच्छे होने से बुराई नहीं मिट सकती ?
क्या हमारे समाज की पढ़ाई मात्र पेट भरने की विद्धा है अथवा क्या हम अपने बच्चों को मात्र पेट भरना (वस्तुवादिता) ही सिखा रहे हैं ?
क्या हमने प्रगति का मतलब येन केन प्रकारेण की तर्ज पर धनोपार्जन ही समझ रखा है ?
क्या इस तरह से सिर्फ अपने स्वार्थ हेतु जीने में इंसान में और जानवर में कोई फर्क नहीं रह जाता ?
क्या ईश्वर ने विवेक हमे इसलिए नहीं दिया की हम अपने साथ साथ समाज के बारें में भी सोचें ?
क्या हम ये सोचते हैं की हमारे चिंतन व हमारी योग्यता का सही उपयोग हो रहा है ?
क्या हम ये सोचते हैं की भ्रष्टाचार,अपराध के बढ़ने में एक कारण हमारे अन्दर अच्छे विचारों का अभाव नहीं उनका क्रियान्वन है ?
हम स्वयं भी देश व समाज के प्रति अपनी कितनी ज़िम्मेदारी समझते हैं ?
प्रतिदिन हम अपराध व मानवता को शर्मसार करने वाली ख़बरें पढ़ते हैं लेकिन क्या हम उसके लिए कुछ कर पाते हैं ?
कहीं हम इस सोच के शिकार तो नहीं की एक आदमी के अच्छे होने से बुराई नहीं मिट सकती ?
क्या हमारे समाज की पढ़ाई मात्र पेट भरने की विद्धा है अथवा क्या हम अपने बच्चों को मात्र पेट भरना (वस्तुवादिता) ही सिखा रहे हैं ?
क्या हमने प्रगति का मतलब येन केन प्रकारेण की तर्ज पर धनोपार्जन ही समझ रखा है ?
क्या इस तरह से सिर्फ अपने स्वार्थ हेतु जीने में इंसान में और जानवर में कोई फर्क नहीं रह जाता ?
क्या ईश्वर ने विवेक हमे इसलिए नहीं दिया की हम अपने साथ साथ समाज के बारें में भी सोचें ?
येही कुछ बातें थी जिन्हें चंद साल पहले मुझसे एक सज्जन ने कहीं और जिनपर सोचने के उपरान्त मैंने अपने स्तर से उस पर काम करना आरम्भ किया आज मैं बहुत संतुष्ट हूँ ।
अपराध के पीछे सिर्फ सोच का ही दोष होता है और सोच ठीक होने से अपराध अपने आप ही रुक जाता है ।
पहले भी था और अभी भी है तथा आगे भी रहेगा की समाज का अधिकाँश वर्ग तनाव में जीता है और हम माने या न माने परन्तु अधिकतर हम किसी न किसी मनोरोग का शिकार हो जाते हैं ।
कितने लोग कमज़ोर मानसिकता के शिकार होते हैं,कितने ही कमज़ोर मनोदशा के होके आत्महत्या जैसा जघन्य कृत्य तक कर बैठते हैं ।
ऐसे व्यक्ति बहुत बधाई के पात्र हैं जिनके चिंतन में ये बात रहती है और जो मानवता पर भी कुछ सोच पाते हैं व इस क्षेत्र में भी कुछ कर पाते हैं ।
मेरा सिर्फ येही कहना है की व्यक्ति को कुछ अलग नहीं करना होता है बस उसे अपने जीवन में सद्विचार का स्थान देने के साथ साथ उसके क्रियान्वन रूप पर भी ध्यान देना चाहिए ।
ज़रूरी नहीं की हम किसी बड़ी सामाजिक संस्था को ढूंढें या किसी अच्छे काम के लिए समय निकाले ।
मेरा मानना है हमारे आसपास जो भी व्यक्ति अथवा संस्था (एन.जी.ओ.) अच्छा काम
कर रही हो हमे उससे जुड़ना चाहिए उसमे किसी भी स्तर मानसिक,आर्थिक,सामजिक
पर योगदान देना चाहिए क्यूंकि वक़्त का काम है गुज़रना और अच्छा काम जब हो जाए वोही वक़्त अच्छा होता है ।
यदि हम हर अच्छे विचार,व्यक्ति, संस्था के अच्छे कामों को भी दुर्भावना से देखने लगेंगे तो क्या ऐसा ठीक करेंगे ।
इस तरह से तो हम ऐसी कुत्सित विचारधार को बढ़ावा देंगे की समाज में कुछ भी अच्छा के लिए नहीं होता और हर कोई किसी न किसी स्वार्थ के लिए ही काम करता है ।
यदि हम हर अच्छे विचार,व्यक्ति, संस्था के अच्छे कामों को भी दुर्भावना से देखने लगेंगे तो क्या ऐसा ठीक करेंगे ।
इस तरह से तो हम ऐसी कुत्सित विचारधार को बढ़ावा देंगे की समाज में कुछ भी अच्छा के लिए नहीं होता और हर कोई किसी न किसी स्वार्थ के लिए ही काम करता है ।
आज समाज में मेरा मानना है स्वस्थ व सकारात्मक मानसिकता की सबसे अधिक आवश्यकता है और उससे भी अधिक ज़रूरी है इस तरह की पेहेल ।
मेरा दृढ़ता से मानना है की समाज को सबसे ज्यादा लाभान्वित ध्यान कर सकता है और इसलिए इसकी उपयोगिता हेतु ज्यादा से ज्यादा से लोगों में प्रेरणा जगानी चाहिए ।
इसके अतिरिक्त मेरा मानना है की समाज का ज्यादा से ज्यादा उत्थान राम कथा (सत्संग) के माध्यम से हो सकता है क्यूंकि 'बिनु सत्संग विवेक न होई ' राम कथा में ऐसी बहुत सी बातें निहित हैं जिन्हें जीवन में उतारने से हम सत्संग को न सिर्फ सुनते हैं बल्कि जीने भी लगते हैं ।
तीसरी बात ये है की धर्म का काम है जोड़ना परन्तु दुनिया में अधिकतर फसाद धर्म के नाम पर ही हमने देखे हैं जबकि यदि हम सार बात सभी धर्मों की देखें तो एक पायेंगे इसलिए सार बात के अनुकरण करने की प्राथमिकता पर बल होना चाहिए जिससे समाज का प्रत्येक तबका लाभ प्राप्त करे ।
मैं ये नहीं कहता की मेरे इस कदम से समाज बदल जाएगा और ना ही ऐसा हो ही पायेगा लेकिन कम से कम एक अच्छाई को महत्व देने वाला कदम तो उठाया गया ये सोच इसमें निहित है ।
मुझे इस बात की बहुत ख़ुशी है की ऐसे बहुत से आश्रम व सामाजिक संस्थाएं मानव सेवा में बहुत अच्छा काम कर रही हैं और ये बहुत प्रेरणादायक है ।
मैं अपने इस ब्लॉग पर अपनी सभी बातें जब समय मिलता है लिखता रहता हूँ तो सोचा इसे भी लिख दूँ मैं इसके माध्यम से अपने सभी दोस्तों (ब्लॉग जगत, नेट जगत व उनके अतिरिक्त भी ) का हार्दिक धन्यवाद करना चाहता हूँ जिन्होंने हमेशा मेरी सोच को न सिर्फ सराहा बल्कि कई बार हौसला अफजाई द्वारा कई बार अपने विचारों द्वारा प्रेरित भी किया ।
मैं ऐसे मित्रों को आमंत्रित भी करना चाहता जो वैचारिक रूप से ही सही परन्तु मेरे इस छोटे प्रयास का हिस्सा बने।
सत्संग पर इतना कुछ महापुरुषों ने कहा है की उस पर जितना अधिक हम चिंतन करते हैं उतना ज्यादा मानसिक मजबूती व सकारात्मकता प्राप्त करते हैं ।
सत्संग की सबसे बड़ी खासियत मुझे ये लगती है की चाहे हम श्रवण करें अथवा पठन हमे पता भी नहीं चलता और हमारे अंतकरण के विकार अपने आप समाप्त होने लगते हैं ।
सत्संग की महिमा पर स्वयं श्रीराम जी उत्तरकाण्ड में कहते हैं :
बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥4॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥4॥
भावार्थ:-बड़े भाग्य से
यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को
भी दुर्लभ है (कठिनता से मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है।
इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,॥4॥
दोहा :
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताई।
कालहि कर्महि ईस्वरही मिथ्या दोस लगाई॥43॥
कालहि कर्महि ईस्वरही मिथ्या दोस लगाई॥43॥
भावार्थ:-वह परलोक में दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा (अपना दोष न समझकर) काल पर, कर्म पर और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है॥43॥
चौपाई :
एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥1॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥1॥
भावार्थ:-हे भाई! इस
शरीर के प्राप्त होने का फल विषयभोग नहीं है (इस जगत् के भोगों की तो बात
ही क्या) स्वर्ग का भोग भी बहुत थोड़ा है और अंत में दुःख देने वाला है।
अतः जो लोग मनुष्य शरीर पाकर विषयों में मन लगा देते हैं, वे मूर्ख अमृत को
बदलकर विष ले लेते हैं॥1॥
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई॥
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी॥2॥
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी॥2॥
भावार्थ:-जो पारसमणि को
खोकर बदले में घुँघची ले लेता है, उसको कभी कोई भला (बुद्धिमान) नहीं कहता।
यह अविनाशी जीव (अण्डज, स्वेदज, जरायुज और उद्भिज्ज) चार खानों और चौरासी
लाख योनियों में चक्कर लगाता रहता है॥2॥
फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही॥3॥
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही॥3॥
भावार्थ:-माया की
प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव और गुण से घिरा हुआ (इनके वश में हुआ) यह सदा
भटकता रहता है। बिना ही कारण स्नेह करने वाले ईश्वर कभी विरले ही दया करके
इसे मनुष्य का शरीर देते हैं॥3॥
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो॥
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥4॥
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥4॥
भावार्थ:-यह मनुष्य का
शरीर भवसागर (से तारने) के लिए बेड़ा (जहाज) है। मेरी कृपा ही अनुकूल वायु
है। सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं। इस प्रकार दुर्लभ
(कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त
हो गए हैं,॥4॥
दोहा :
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥44॥
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥44॥
भावार्थ:-जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है॥44॥
चौपाई :
जौं परलोक इहाँ सुख चहहू। सुनि मम बचन हृदयँ दृढ़ गहहू॥
सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई॥1॥
सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई॥1॥
भावार्थ:-यदि परलोक में
और यहाँ दोनों जगह सुख चाहते हो, तो मेरे वचन सुनकर उन्हें हृदय में दृढ़ता
से पकड़ रखो। हे भाई! यह मेरी भक्ति का मार्ग सुलभ और सुखदायक है, पुराणों
और वेदों ने इसे गाया है॥1॥
ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका॥
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ॥2॥
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ॥2॥
भावार्थ:-ज्ञान अगम
(दुर्गम) है (और) उसकी प्राप्ति में अनेकों विघ्न हैं। उसका साधन कठिन है
और उसमें मन के लिए कोई आधार नहीं है। बहुत कष्ट करने पर कोई उसे पा भी
लेता है, तो वह भी भक्तिरहित होने से मुझको प्रिय नहीं होता॥2॥
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी॥
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता॥3॥
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता॥3॥
भावार्थ:-भक्ति स्वतंत्र
है और सब सुखों की खान है, परंतु सत्संग (संतों के संग) के बिना प्राणी
इसे नहीं पा सकते और पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते। सत्संगति ही
संसृति (जन्म-मरण के चक्र) का अंत करती है॥3॥
चौपाई और अर्थ के साथ सत्संग की महिमा उपयोगी लगी ! बधाई
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