आध्यात्मिक पथ से जुड़ने के बाद ऐसे कई तरह के चरित्र मिलते हैं जिन्हें समझाने और सही पथ पर लाने के दौरान मन बोल उठता है की अपना जीवन कितनी आसानी से लोग व्यर्थ कर देते है सिर्फ सही ज्ञान न होने की वजह से । दोस्तों जिसकी जो इच्छा होती है उसे वैसा ही लिखना चाहिए अथार्त बात करनी चाहिए इसीलिए ये पोस्ट मैंने इसीलिए लिखी क्यूंकि एक स्वाभाविक प्रेरणा जगी और मेरा उद्देश्य सिर्फ अपने विचारों को संप्रेषित करना है ।
मैंने इस तरह के जितने लोग से मिला अब तक प्रयास किया है की लिखूं जिससे हम देख सकें की कारण सब में लगभग समान है अंतर है तो परिस्थितियों का और उनकी उम्र का ।
कुछ दिन पहले पत्नी जी जहाँ पढ़ाती हैं वहीँ की अपनी एक सहेली मुझसे मिलवाने ले आयीं जो की कुंवारी है टीचिंग छोड़कर घर में इसलिए बैठ गयी की उसके बॉयफ्रेंड ने उसे छोड़ दिया ।
बहरहाल मैंने इशारों में पूछा कहने लगीं दुखी लग रही थी मैंने सोचा भैया से मिलवा दूँ मैं उनके विनोद पर मन ही मन मुस्कुरा के रह गया ।
लेकिन जैसे जैसे मैं उससे बात करने लगा मुझे लगने लगा की व्यक्ति मनोविकार में कितनी जल्दी बंधता है मैं गंभीरता से उसे समझाने लगा क ये हाड मांस का शरीर ही सबको मिला हुआ है तुम्हारा बॉय फ्रेंड भी हांड मॉस से बना है उसके अन्दर भी वोही अविनाशी आत्मा है वो भी यानी उसका शरीर एक दिन बूढ़ा होगा और मर जाएगा उसे थोडा थोडा समझ आने लगा ।
फिर मैंने बताया प्रेम शब्द इंसानों ने खराब कर दिया है क्यूंकि ये इंसान का सिर्फ इंसानों के लिए करने के लिए नहीं बना है असल में प्रेम शब्द तभी सार्थक होता है जब इंसान परमात्मा से प्रेम करे बाकी धीरे धीरे सत्संग में आओ । इंसान इंसान है कोई भगवान् नहीं इसलिए प्रत्येक इंसान के साथ इस तरह की घडी आती है जहाँ उसे अपने मानसिक विचारों का आंकलन व उनकी दिशा को समझना ज़रूरी होता है और ये विवेक प्रभु ने मनुष्य को इसीलिए दिया है ।
धीरे धीरे सत्संग में आते उसमे काफी सुधार आ गया और वो फिर से स्कूल जाने लगी ।
दूसरा किस्सा भ्रमण के दौरान रहा जहां एक औरत अपने ही आदमी से त्रसित थी और उसे लगता था की उसका पति उसके प्रति पूर्णतया वफादार नहीं है वो अपने पति को लेके आई थी ।
शाम के सत्संग के बाद सबसे आखिर में मिलने आई शायद इसलिए की अपनी भड़ास अपने पति पर निकाल सके या फिर गुरूजी के सामने खरी खोटी कह सके ।
मैंने उसे समझाया और चुप रहने को कहा उसके पति से पूछने पर उसने बताया की पत्नी ठीक से समझती नहीं मैंने उसे कल फिर आने को और अकेले आने को कहा ।
अगले दिन मैंने उसे सीधे सीधे सिर्फ ये कहा की देखो तुम्हारा समझना न समझना तुम्हारे हाथों में है लेकिन फ़र्ज़ करो उसकी जगह तुम होते तो क्या करते ?
तुम अपना समय खराब कर रहे हो ? पति पत्नी का रिश्ता स्वयं भगवान् बनाते हैं और याद करो फेरे लेते वक़्त तुमने क्या कसम खायी थी ?
पति पत्नी तो गाडी के पहिये के सामान होते हैं जिन्हें साथ मिलजुलके चलना होता है ।
सत्संगे में आते आते उसे भी भान होने लगा और उनकी गाडी पटरी पर आ गयी ।
तीसरे किस्सा एक माँ बाप अपने लड़के को लेकर आये थे और उसके बारें में बताने लगे की हमारे बुढापे का ये सहारा नहीं बन पाया कमाता धमाता कुछ नहीं है बस शराब पीते रहता है और
इसके कमरे में से अधिकतर सिगरेट की बदबू आती रहती है ।
वो पहले तो मेरी उम्र देखके बिदका की ये तो स्वयं जवान हैं ये मुझे क्या समझायेंगे मैं खुद ही इन्हें समझा दूंगा ।
और वो सच में अपनी लच्छेदार बातों से मुझे घेरने लगा मैं शांत होके सुनता रहा काफी देर बाद उसे लगा की ये तो सिर्फ सुन रहे हैं और वो भी ध्यान से तो वो स्वयं मुझसे बोलने के लिए कहने लगा ।
मैंने सिर्फ ये कहा की तुम अपने को अमर समझते हो क्या ? और क्या तुम्हारा लड़का ऐसे पीके पड़ा रहता तो तुम्हे अच्छा लगता ?
कुछ देर बाद वो रोने लगा और मुझसे कहने लगा की असल में मेरी गर्लफ्रेंड ने मुझे छोड़ दिया है मैं मन ही मन समझ गया मानसिक बीमारी का खेल यहाँ भी है और ऐसे व्यक्ति को सत्संग की तरफ मोड़ना सबसे कठिन है ।
मैंने उससे सिर्फ एक सवाल किया ऐसा तुम कबतक करते रहोगे ? वो चुप हो गया मैंने उसे बताया की अभी तुम समझ नहीं पाओगे क्यूंकि समझना नहीं चाहते तुम अपने आपको समझो और ये समझो की क्या ये ज़िन्दगी सिर्फ इसलिए मिली है की जो तुम्हे नहीं मिल पाया उसके लिए तुम अपनी ज़िन्दगी बर्बाद करने पर लगे हो और तुम्हारे मम्मी पापा या और भी संगी साथी जो तुम्हे मानते हैं उन्हें हर्ट कर रहे हो शराब से तुम्हारा शरीर ही खराब हो रहा है जो ईश्वर की मनुष्यों को सबसे अच्छी देन है ।
उसे बात समझ में आ गयी और वो नियमित रूप से तो नहीं लेकिन हफ्ते में २-३ दिन तो सत्संग में आने ही लगा ।
इन तीन घटनाओं के जैसी ही बहुत सी और घटनाएं हो सकती हैं जिसमे व्यक्ति स्वयं को ही दुःख देने लगता है और ये एक मनोविकार है ऐसा व्यक्ति स्वयं के इर्द गिर्द एक मानसिक विचारों का जाल बुन लेता है और अपनी दुनिया उसमे कैद कर लेता है फिर उसे उसी तरह की सोच के व्यक्ति अच्छे लगने लगते हैं या वो ऐसा ही विचार संप्रेषित करने लगता है और अपने को हीन समझने लगता है ऐसे लोगों को मानसिक सकारात्मकता और मानसिक स्वस्थता की बहुत ज़रूरत होती है ।
व्यक्ति का अपने मनोविकारों को जानना अत्यंत आवश्यक है की असल में अज्ञान व विकार उसके कितने अन्दर तक पैठा है अथवा वो स्वयं काम,क्रोध में कितना अधिक अग्रसर हो चुका है। हमे पता नहीं चलता लेकिन हम काम में,क्रोध में , दंभ में ,लोभ में जीते हैं तो काम,क्रोध,दंभ और लोभ की ज़िन्दगी जीते हैं अथार्त अपनी ज़िन्दगी नहीं जीते । व्यक्ति सही अर्थों में अपनी ज़िन्दगी तब जीना शुरू करता है जब उसके जीवन में परमात्मा का स्थान होता है,सत्संग का स्थान होता है ।
बहुत सारगर्भित प्रस्तुति...बिना परमात्मा के ज्ञान के जीवन कहाँ सार्थक है...
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