Monday, 16 April 2012

कहाँ खो गया तू आदमी?कहाँ खो गया तू?

प्रस्तुत कविता बस ऐसे ही लिख गयी कदाचित इसका अभिप्राय ये है की आज हम अपने समय को तो अहमियत देते हैं लेकिन अहमियत की चीज़ अथार्त भगवत भजन समय  पर नहीं करते हैं



काम क्रोध के जंगल में घिरा प्राणी 
दिखावे की दुनिया में दिखावा प्राणी 


अपने ही आईने से नज़रें छुपाता हुआ  
अपनी घुटन से दूसरों को रौंदता हुआ 

दूसरों की सफेदी से अपनी कमीज़ सुखाता हुआ 
दूसरों की कालिमा से अपने को धुलाता हुआ 

कहाँ खो गया तू आदमी ?कहाँ खो गया तू?

कभी जात-पात में बंधके,कभी दो पैसे में बिकके
कभी झूठी आन की खातिर कभी झूठी शान की खातिर 

अंधी दुनिया में सबसे आगे खुद को सोचता हुआ 
मैं हूँ सही पथ पर औरों से ही ये पूछता हुआ 

कहाँ खो गया तू आदमी?कहाँ खो गया तू?

माला प्रभु की जपने चला परमात्मा को तू पाने चला 
लेकिन देख माला फिर भी तू काम क्रोध की ही जप रहा 

किसने तुझे क्या कहा तू इसी को मन ही मन तौल रहा 
शांत है ब्रह्म मगर तू मन ही मन कितना खौल रहा      

अपने स्वरुप  आत्मा को हरगिज़ न मानता हुआ 
जाना है परलोक एकदिन जानके भी ना जानता हुआ 

कहाँ खो गया तू आदमी?कहाँ खो गया तू?


2 comments:

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  2. आजक्ल आदमी के साथ आदमियत भी खोती जा रही है।

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