प्राणायाम के शारीरिक लाभ से कहीं अधिक मानसिक व उससे भी अधिक आध्यात्मिक लाभ हैं ।
श्रीमद भगवद्गीता में भगवान् ने बताया है की व्यक्ति प्राणायाम के द्वारा सहजता से अपने सहज रूप में स्थित होने लगता है । प्राणायाम को निरंतर करते रहने से बहुत शीघ्र अंतःकरण शुद्ध होता है व एक तो जीव के मन और बुद्धि से होने वाले कर्मों में विकार भाव कम होने लगते हैं । साथ ही बाहर से मिलने वाले विकारी भाव उसके अविकारी स्वरुप को अव्यवस्थित नहीं कर पाते क्यूंकि तत्वतः वो उसके स्वयं की ही मनोवृत्ति के भाव होते हैं ये जीव तत्त्व से जानने लगता है ।व्यक्ति सहज,सम व शांत अवस्था को प्राप्त रहता है इससे व्यक्ति आनंद में रहता है व भगवत उपासना,भजन आदि अंतःकरण शुद्धि के कारण सहज व स्वाभाविक रूप से आनंददायी लगने लगते हैं ।
ब्रह्म शांत है सम है अविकारी है अविनाशी है शाश्वत है सनातन है सर्वव्याप्त है अनंत है अवर्णनीय है ऐसा तत्त्व से भलीभांति योग से जाना जा सकता है और प्राणायाम इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।
भगवान् ने चौथे अध्याय में कहा है -
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥
भावार्थ : कितने ही योगीजन अपान वायु में प्राणवायु को हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणायाम परायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों (कर्मों) द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं॥29-30॥
यहाँ भगवान् प्राणायाम के अंतर्गत प्राण वायु व अपान वायु की महत्ता बता रहे हैं व प्राणायाम में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका बता रहे हैं क्यूंकि श्वास पर्श्वास में प्राणवायु व अपानवायु की भूमिका होती है ।प्राण वायु का स्थान ह्रदय तथा अपान वायु का गुदा है।श्वास को बाहर निकालते समय वायु की गति ऊपर की ओर तथा श्वास को भीतर ले जाते समय वायु की गति नीचे की ओर होती है ।
योगीलोग चन्द्र नाडी अथार्त बायीं नासिका से पूरक करते हैं अथार्त भीतर ले जाते हैं वहां वह वायु ह्रदय में स्थित प्राणवायु को साथ लेकर नाभि से होते हुए अपान में लीन हो जाती है । तदनंतर वे प्राणवायु व अपानवायु दोनों की गति को रोक देते हैं अथार्त कुम्भक करते हैं जिससे श्वास ना तो बाहर जाता है और ना ही अन्दर जाता है ।
इसके बाद वे सूर्य नाडी अथार्त दाहिनी नासिका के द्वारा श्वास को बाहर निकालते हैं यानी रेचक करते हैं ।
वह वायु प्राण वायु के साथ अपानवायु को साथ लेकर बाहर निकलती है यही प्राणवायु में अपानवायु का हवन करना कहा जाता है ।
सामान्यतः पूरक कुम्भक रेचक में १:४:२ के समय का अनुपात रखा जाता है जैसे भगवान् का नाम या फिर गायत्रीमंत्र जपते हुए पूरक में ४ बार कुम्भक में सोलह बार व रेचक में आठ बार किया जाता है ।
इसी प्रक्रिया को फिर उल्टा किया जाता है सूर्य नाडी (दाहिनी नासिका ) से पूरक,फिर कुम्भक व फिर चन्द्र नाडी से रेचक करते हैं ।
इस तरह से
पूरक-कुम्भक-रेचक करना
व रेचक-कुम्भक-पूरक करना ही प्राणायाम है,प्राणायाम रुपी यज्ञ है ।
इसके साथ ही भगवान् नियमित (संतुलित) आहार व संयम (मानसिक) को प्राणायाम में अत्यंत आवश्यक बताते हैं श्रीमद भगवद्गीता(६/१३-१७)
प्राणों का प्राण में हवन करने का तात्पर्य है प्राणों का प्राण में और अपान का अपान में हवन करना अथार्त प्राण और अपान को अपने अपने स्थान पर रोक देना ना श्वास बाहर निकालना और ना श्वास भीतर लेना इसे स्तम्भवृत्ति प्राणायाम भी कहते हैं ।
इस प्राणायाम से स्वाभाविक ही वृत्तियाँ शांत होती हैं और पापों का नाश होता है साथ ही मानसिक पाप व विकार भी कम होने लगते हैं व एक समय के बाद विकार आते ही नहीं संपूर्ण यज्ञ (कर्म) केवल कर्मों से सम्बन्ध विच्छेद करने के लिए ही हैं भगवान् कहते हैं ऐसा जानने वाले ही यज्ञवित अथार्त यज्ञ रुपी निष्कामभावकर्म को जानने वाले हैं ।
बहुत अच्छी जानकारी ....सार्थक पोस्ट
ReplyDeletekitni achchhi tarah se vrnan kiya hai baht si nai baten jani
ReplyDeletedhnyavad
rachana
बहुत सुन्दर प्रविष्टि...बधाई
ReplyDeleteसुन्दर जानकारी।
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