Sunday, 29 April 2012

विवेक के द्वारा ही अध्यात्म बढ़ता है

यदि हम सोचें की आज से दस साल पहले क्या हमारे साथ समस्या अथवा चिंता नहीं थी ? ज़रूर थी लेकिन क्या वो आज है ? निश्चित ही नहीं है । परन्तु क्या आज समस्या अथवा चिंता दूसरे रूप में नहीं है ? निश्चित ही है
क्या आज से दस साल बाद ये समस्या ये चिंता हमारे पास नहीं रहेगी? निश्चित ही नहीं रहेगी
लेकिन हम अपनी मानसिक ऊर्जा को इसी में लगाए रखते हैं और जीवन तत्त्व  को अथार्त तत्वज्ञान को प्राप्त ही नहीं कर पाते ।फिर तत्वज्ञ बने रहना अथवा दूसरों को तत्व ज्ञान की तरफ उन्मुख करना तो अलग ही बात है

हम इस बात को जानके भी अनजान बने रहते हैं और बस निरंतर इसी तरह से एक बाद एक नयी चिंताओं में उलझे रहते हैं या स्वयं को उलझाए रखते हैं । हम ये जान ही नहीं पाते की हमारा जीवन हमे क्यूँ मिला है ?
हम ये मान ही नहीं पाते की जीवन में नित्य कुछ भी नहीं खासकर हमारे उद्देश्य से सम्बंधित (धन,मान,संपत्ति) । ये सबकुछ हमारे साथ नहीं रह पायेगा या हम इन सारी चीज़ों के साथ नहीं रह पायेंगे यहाँ तक हम इस प्रश्न का अर्थ ही नहीं समझ पाते । व्यक्ति स्वयं को और संसार को एक जैसा ही समझता है और अपनी इसी ग़लत बुद्धिमानी के चलते निरंतर दुखित होता है । हम देखते हैं कई बड़े बुज़ुर्ग हमारे घर के ही या आस पास के हमारे सामने ही चले गए हमने क्या किया चार दिन रोये और फिर बाकी जो जीवन में संसार में हमारा बचा हुआ हमे लगा उसे दोनों हाथ से कस के पकड़ लिया की नहीं अब बाकी कुछ नहीं जाने देंगे लेकिन समय आया और फिर अनित्य(शरीर,संसार) हमारे सामने चला गया लेकिन फिर हम वोही करते हैं
आखिर हम अपना विवेक जगा क्यूँ नहीं पाते ?
यदि हमारा विवेक थोडा सा जाग्रत हो जाता है तो हम उस पर कायम क्यूँ नहीं रह पाते ?
यदि हमे भूले से कोई ज्ञान दे जाता है तो भी क्यूँ हम उस पर भी संदेह करने लगते हैं ?

 
बहुधा हम अपने आप को दिलासा देते हैं की ये सब बहुत मुश्किल है अथवा तो ये तो भगवान् की माया है
हम कोई साधू महात्मा नहीं है जो दिन भर भगवान् का नाम जपते रहें और इस तरह संसार को छोड़े रहें व माया से बचे रहें
नहीं ऐसी बात नहीं है, ऐसी बात कदापि नहीं है क्यूंकि ये सच नहीं है । व्यक्ति अपना सामान्य जीवन जीते हुए भी इश्वर प्राप्ति कर सकता है 
तो फिर सच क्या है ? सच ये है की हममे अज्ञान इतनी अन्दर तक पैठा है जिसका हम अंदाजा तक नहीं लगा सकते
 यदि हम गंभीरता से सोचे तो हममे से अधिकतर ये पायेंगे की वाकई हम एक दिखावे की ज़िन्दगी से ज्यादा नहीं जी रहे जहाँ औरों के मुताबिक उन्हें अच्छा लगे इस मुताबिक हमे जीना पड़ता है ।
यदि गंभीरता से हम सोचें तो पायेंगे की राग-द्वेष में बंधकर कितना ज्यादा हमने अपने आपको अथार्त अपनी ज़िन्दगी को दूसरों के हाथ में सौंप रखा है अथार्त हम अपना जीवन अपने हिसाब से अथवा अपने जीवन के हिसाब से नहीं जीते बल्कि लोगों के साथ राग(प्रेम,दोस्ती,रिश्तेदारी) में अथवा द्वेष(शत्रुता,प्रतिद्वंदिता,साजिश,नफरत,भेदभाव) के हिसाब से जीते हैं
यदि हम सच्चाई से अपने आप से पूछे और ये हमारे लिए ही अत्यंत आवश्यक है क्यूंकि अज्ञान इसी तरह से जाता है और एक बार अज्ञान शुन्यता पर पहुँचता है की ज्ञान स्वयं व्याप्त होने लगता है तो अपने आप से पूछे की क्या हम अपनी आत्मा को भी अनसुना नहीं करते?
क्या हम अपने शास्त्रों,वेदों में पूरी निष्ठा रखते हैं ?
क्या ये सच नहीं है की हम भगवान् में ही पूरी निष्ठां नहीं रखते तभी तो धार्मिक ग्रन्थ नहीं पढ़ते,तभी तो धार्मिक चिंतन नहीं नहीं करते
क्या हमे ये मालूम है की जिस तरह कपड़ा गन्दा हो जाने के बाद साफ़ करने पर ही साफ़ होता है उसी तरह हमारी आत्मा भी सत्संग से ही और निखरती है और जितना ज्यादा हम इससे ज्यादा अपने मन,बुद्धि को अहमियत देंगे अथार्त संसार को अहमियत देंगे उतना ही हमारी आत्मा प्रकाशमय होने से रुकेगी व परिणामतः हम उतना ही अज्ञान में चलते चले जायेंगे
 क्या जितना ज्यादा हम स्वयं को नास्तिक करने में लगाते हैं अथार्त भगवत वचन में,भगवत आस्तित्व में भगवत कृपा में भगवत भजन में संदेह करने में लगाते हैं उतना ही आस्तिक होने में और इन सबमे रस लेने लगाते हैं ?
यदि नहीं लगा पाते तो क्या हम जानते हैं की ऐसा हमारी आत्मा के कम बलवान होने के कारण ही होता है ?
क्या हमे मालूम है हम जितना ज्यादा अपने आत्म स्वरुप को महत्व देंगे उतना ही आत्मा हमारी शक्तिशाली होती है ?
जितना हम अपने मन के वश में होते हैं हमारी आत्म-शक्ति छीन सी होती है और जितना हमारा मन हमारे नियंत्रण में होता है हमारी आत्म शक्ति उतना जाग्रत रहती है


अतः हमे सबसे पहले ये जानना और मानना आवश्यक है की भगवान् की अनुभूति के लिए हमारे सांसारिक और आध्यात्मिक सिद्धांत एक होने चाहिए और उसके लिए सबसे ज्यादा ज़रूरी मैं समझता हूँ जो है वो है संसार में हमारी आसक्ति का कम होना अथार्त हमे संसार का ज्ञान होना
दूसरा ज्ञान का महत्व 
तीसरा हमारे अन्दर श्रद्धा होनी चाहिए
और चौथी और महत्त्वपूर्ण बात की व्यक्ति का मन उसके नियंत्रण में होना चाहिए न की व्यक्ति अपने मन के और उसमे उत्पन्न होने वाली विभिन्न प्रकार की इच्छाओं के बस में हो

हम स्वयं परमात्मा परमेश्वर के शब्दों को भी देखें तो भगवद्गीता में उन्होंने विभिन्न स्थानों पर यही कहा है :



१. संसार में हमारी आसक्ति का कम होना अथार्त हमे संसार का ज्ञान होना


ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ 
भावार्थ :  जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषों को सुखरूप भासते हैं, तो भी दुःख के ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात अनित्य हैं। इसलिए हे अर्जुन! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता ॥ ५/२२ ॥ 
२.  ज्ञान का महत्व 
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥
भावार्थ :  क्योंकि हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है॥ ४/३७ ॥ 
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
भावार्थ :  इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है॥ ४/३८ ॥ 
३. श्रद्धा
  

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ 
भावार्थ :  जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के- तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है॥४/३९ ॥
अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥ 
भावार्थ :  विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है॥४/४० ॥ 
४. मन पर नियंत्रण  


कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌ ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
भावार्थ :  जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है॥३/६ ॥ 

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌ ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ 
भावार्थ :  श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु हे कुंतीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है॥६/३५॥



अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम्‌ ।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥
भावार्थ :  यदि तू मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है, तो हे अर्जुन! अभ्यासरूप (भगवान के नाम और गुणों का श्रवण, कीर्तन, मनन तथा श्वास द्वारा जप और भगवत्प्राप्तिविषयक शास्त्रों का पठन-पाठन इत्यादि चेष्टाएँ भगवत्प्राप्ति के लिए बारंबार करने का नाम 'अभ्यास' है) योग द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए इच्छा कर॥१२/९ ॥
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥ 
भावार्थ :  यदि तू उपर्युक्त अभ्यास में भी असमर्थ है, तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण (स्वार्थ को त्यागकर तथा परमेश्वर को ही परम आश्रय और परम गति समझकर, निष्काम प्रेमभाव से सती-शिरोमणि, पतिव्रता स्त्री की भाँति मन, वाणी और शरीर द्वारा परमेश्वर के ही लिए यज्ञ, दान और तपादि सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों के करने का नाम 'भगवदर्थ कर्म करने के परायण होना' है) हो जा। इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्ति रूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा॥१२/१०॥
 अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः ।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्‌ ॥
भावार्थ :  यदि मेरी प्राप्ति रूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्त साधन को करने में भी तू असमर्थ है, तो मन-बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करने वाला होकर सब कर्मों के फल का त्याग (गीता अध्याय 9 श्लोक 27 में विस्तार देखना चाहिए) कर॥१२/११ ॥
 

Wednesday, 25 April 2012

मीडिया द्वारा हास्य का निरंतर पतन

कई दिन पहले (१५-०५-२०११) को विधि प्रेरणा से मैंने ये लेख लिखा था  


Teesri aankh Gyaan ka prayaay ya Bhautikwaad ka


मुझे इस बात की ख़ुशी है की देर-सवेर हममे में ये अवधारणा बढ़ी और हम अंधविश्वास और श्रद्धा में फर्क महसूस करते हैं 


आज मैं सोनी टी.वी के शो कॉमेडी सरकस पर कुछ कहना चाहता हूँ सबसे पहले मैं चैनल के प्रति कृतज्ञता जताना चाहता हूँ की उन्होंने वर्षों से गुणवत्तापरक कार्य किया है और मेरे इस कथन जो मैं लिखने जा रहा हूँ के पीछे कोई नकारात्मक सोच नहीं है अतः इसे व्यक्तिगत रूप से न लेके इसके पीछे की मंशा को समझने की कोशिश करें 


मैं  इस बात को बहुत ही प्रामाणित रूप से कहना चाहता हूँ इसकी भ्रत्सना और निंदा करना चाहता हूँ जो इस प्रोग्राम के माध्यम से गन्दी मानसिकता व गन्दी मानसिकता से भरे वाक्य जिन्हें तथाकथित चुटकुलों का जामा पहनाके एक थोड़े से वर्ग को खुश करने का प्रयत्न किया जाता है और बहुत बड़े दर्शक वर्ग व उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया जाता है 


मुझे नहीं मालुम ऐसा क्यूँ किया जाता है क्यूंकि जिस तरह से कलाकार इस शो में हैं वो विश्व स्तरीय हैं इसमें कोई दो राय नहीं परन्तु फिर वो अच्छे,स्वस्थ चुटकुलों की जगह कई बार द्विअर्थी और अश्लील बातें करते नज़र आते हैं और वो इसे अच्छे चुटकुलों कुलों व हास्य की श्रेणी में भी रखते हैं 


क्या यही हास्य है? 
क्या यही हास्य हम अपने समाज में वितरित करना चाहते हैं जिसमे समलैंगिकता को कभी आधार बना के बोला जाता है तो कभी अश्लीलता को 
ये कैसा हास्य है जिसमे आदमी औरत के शरीर पर जुमले कसके या उससे जिस्मानी सम्बन्ध की बातें करके तालियाँ बटोरता है ?
क्या ऐसे प्रोग्राम का उद्देश्य हास्य होता ही नहीं ?
क्या चैनल का कोई उत्तरदायित्व समाज के प्रति नहीं होता है ?
क्या कलाकारों का दायित्व समाज के प्रति नहीं होता है ?
क्या निर्णायक मंडल का कोई उत्तरदायित्व नहीं होता ?
आखिर ऐसी क्या मजबूरी होती है जो कलाकार अपनी प्रतिभा निखारने के बजाय गन्दा करते हैं ?
क्या लिखने वालें अच्छा हास्य नहीं लिख पाते ?
क्या सिर्फ टी आर पी बढाने के लिए ही जान भूझके ऐसा किया जाता है ?
क्या कुछ अलग करने की चाह में अश्लीलता आ जाती है ?
क्या शो के निर्णायकों का भद्दे जोक्स पर गला फाड़ के हसना शोभा देता है ?
कहीं हम जाने अनजाने ये बात तो स्थापित नहीं करना चाहते की असली हास्य यही है ?
आखिर क्या वजह है जो हास्य रस इतने पतन पर आ चूका है जहाँ अच्छे अच्छे कलाकारों को भी 
अपनी मौलिकता को दरकिनार कर वस्तुवादिता में पड़कर ओछे स्तर पर आना पड़ता है ?
क्या गुणवत्ता निर्धारण करने की कोई सीमा नहीं है ?




इस तरह से फिर हर चैनल इसी तरह की भेडचाल शुरू कर देता है और इसका खामियाजा ये होता है की बहुत बड़े दर्शक वर्ग को ऐसे ही हास्य को अपनाना पड़ता है

Friday, 20 April 2012

मानसिक ऊर्जा सकारात्मक चिंतन से स्वस्थ व सदुपयोगी रहती है

हम यदि गौर करें तो पायेंगे की असल में हमारे सोच के मानक क्या हैं अथवा हमारी सोच के आधार क्या हैं ?
क्या हम प्रेरित होते हैं ?
हमारी प्रेरणा के आधार क्या हैं ?
क्या हम कुछ ऐसा करते हैं की जिससे दूसरे हमसे प्रेरणा ले सकें ?
क्या हम दूसरों से प्रेरणा लेते हैं ?
हम सकारात्मक तत्व में ज्यादा रूचि लेते हैं या नकारात्मक तत्व अथार्त बात में ?
हमे जीवन का उजला पक्ष अच्छा लगता है या धुंधला अथार्त हम ज़िन्दगी को सकारात्मक लेते हैं या नकारात्मक ?
हम दूसरों में खूबियाँ अधिक देखते हैं या खामियां ?
हम स्वयं में खूबियाँ अधिक देखते हैं या खामियां ?
क्या हम भावुक हैं ?
क्या हमे मालूम हैं की भावुक होना व्यक्तित्व का मज़बूत पक्ष होता है ?
हम अपनी भावुकता का सदुपयोग करते हैं या दुरूपयोग ?
क्या हमे मालूम है की विषम परिस्थति खासकर मानसिक में उबरने का अनुपात हमारा कैसा है ? 
हम दूसरों को सहारा देते हैं या दूसरों में सहारा ढूंढते हैं ?
क्या हम दूसरों की मुक्त भाव से प्रशंसा कर पाने में आगे रहते हैं ?
क्या हम दूसरों की मुक्त भाव से निंदा करने में आगे रहते हैं ?
क्या हम सहज ढंग से किसी अच्छी बात को अच्छी बात भी नहीं कह पाते ?
क्या हम जैसा दूसरों से अपने प्रति व्यवहार चाहते हैं वैसा दूसरों के साथ करते हैं ?
क्या हम निष्पक्ष रूप से अपना आंकलन करते हैं ?
क्या हमने निष्पक्ष भाव से आंकलन करने वाले अपने मानक रखे हैं?

  
ये प्रश्न अपने आप में उत्तर लिए हुए हैं और इससे बड़ी आसानी से हम अपनी विचारधारा के बारें में जान सकते हैं। हमे ये मालुम चल जाता है की हम नकारात्मक हैं या सकारात्मक अथवा मिश्रण व हमे और सकारात्मक होने के लिए और क्या करना होगा जिसमे मेरा मानना है सबसे अधिक है स्वस्थ चिंतन और क्रियान्वन 
अधिकतर हम प्रेरणादायी चीज़ों से प्रेरणा लेने के बजाय उस चीज़ अथवा बात पर ध्यान देते हैं जो नकारात्मक होती है अथार्त जो बात हमे अच्छी लगी उससे ज्यादा हमे वो बात प्रभावित करती है जिसने हमे उदविग्न अथवा दुखित किया
सत्संग में भी मुझे अधिकतर ऐसे लोग मिलते हैं जो अपनी वैचारिक ऊर्जा का सही उपयोग न कर पाने की वजह से दुखित होते हैं व निदान चाहते हैं परन्तु स्वयं का आंकलन कर वो स्वयं ही सहज हो उठते हैं व उन्हें पता चल जाता है की असली समस्या हमारे सोचने के ढंग में होती है
व्यक्ति को ये कभी नहीं भूलना चाहिए की असल में उसकी मानसिक ताकत अपनी समस्या के कारणों अथवा सकारात्मक चिंतन पर पर निकल रही है अथवा सिर्फ समस्या पर 
हमे इसका भान होना चाहिए की हम जीवन में सकारात्मक रूप से सोचते हुए बढ़ रहे हैं या नकारात्मक रूप से

Monday, 16 April 2012

कहाँ खो गया तू आदमी?कहाँ खो गया तू?

प्रस्तुत कविता बस ऐसे ही लिख गयी कदाचित इसका अभिप्राय ये है की आज हम अपने समय को तो अहमियत देते हैं लेकिन अहमियत की चीज़ अथार्त भगवत भजन समय  पर नहीं करते हैं



काम क्रोध के जंगल में घिरा प्राणी 
दिखावे की दुनिया में दिखावा प्राणी 


अपने ही आईने से नज़रें छुपाता हुआ  
अपनी घुटन से दूसरों को रौंदता हुआ 

दूसरों की सफेदी से अपनी कमीज़ सुखाता हुआ 
दूसरों की कालिमा से अपने को धुलाता हुआ 

कहाँ खो गया तू आदमी ?कहाँ खो गया तू?

कभी जात-पात में बंधके,कभी दो पैसे में बिकके
कभी झूठी आन की खातिर कभी झूठी शान की खातिर 

अंधी दुनिया में सबसे आगे खुद को सोचता हुआ 
मैं हूँ सही पथ पर औरों से ही ये पूछता हुआ 

कहाँ खो गया तू आदमी?कहाँ खो गया तू?

माला प्रभु की जपने चला परमात्मा को तू पाने चला 
लेकिन देख माला फिर भी तू काम क्रोध की ही जप रहा 

किसने तुझे क्या कहा तू इसी को मन ही मन तौल रहा 
शांत है ब्रह्म मगर तू मन ही मन कितना खौल रहा      

अपने स्वरुप  आत्मा को हरगिज़ न मानता हुआ 
जाना है परलोक एकदिन जानके भी ना जानता हुआ 

कहाँ खो गया तू आदमी?कहाँ खो गया तू?


Friday, 6 April 2012

व्यक्ति का अपने मनोविकारों को जानना अत्यंत आवश्यक है

आध्यात्मिक पथ से जुड़ने के बाद ऐसे कई तरह के चरित्र मिलते हैं जिन्हें समझाने और सही पथ पर लाने के दौरान मन बोल उठता है की अपना जीवन कितनी आसानी से लोग व्यर्थ कर देते है सिर्फ सही ज्ञान न होने की वजह से । दोस्तों जिसकी जो इच्छा होती है उसे वैसा ही लिखना चाहिए अथार्त बात करनी चाहिए इसीलिए ये पोस्ट  मैंने इसीलिए लिखी क्यूंकि एक स्वाभाविक प्रेरणा जगी और मेरा उद्देश्य सिर्फ अपने विचारों को संप्रेषित करना है ।
मैंने इस तरह के जितने लोग से मिला अब तक प्रयास किया है की लिखूं जिससे हम देख सकें की कारण सब में लगभग समान है अंतर है तो परिस्थितियों का और उनकी उम्र का ।


कुछ दिन पहले पत्नी जी जहाँ पढ़ाती हैं वहीँ की अपनी एक सहेली मुझसे मिलवाने ले आयीं जो की कुंवारी है टीचिंग छोड़कर घर में इसलिए बैठ गयी की उसके बॉयफ्रेंड ने उसे छोड़ दिया ।
बहरहाल मैंने इशारों में पूछा कहने लगीं दुखी लग रही थी मैंने सोचा भैया से मिलवा दूँ मैं उनके विनोद पर मन ही मन मुस्कुरा के रह गया ।
लेकिन जैसे जैसे मैं उससे बात करने लगा मुझे लगने लगा की व्यक्ति मनोविकार में कितनी जल्दी बंधता है मैं गंभीरता से उसे समझाने लगा क ये हाड मांस का शरीर ही सबको मिला हुआ है तुम्हारा बॉय फ्रेंड भी हांड मॉस से बना है उसके अन्दर भी वोही अविनाशी आत्मा है वो भी  यानी उसका शरीर एक दिन बूढ़ा होगा और मर जाएगा उसे थोडा थोडा समझ आने लगा ।
फिर मैंने बताया प्रेम शब्द इंसानों ने खराब कर दिया है क्यूंकि ये इंसान का सिर्फ इंसानों के लिए करने के लिए नहीं बना है असल में प्रेम शब्द तभी सार्थक होता है जब इंसान परमात्मा से प्रेम करे बाकी धीरे धीरे सत्संग में आओ । इंसान इंसान है कोई भगवान् नहीं इसलिए प्रत्येक इंसान के साथ इस तरह की घडी आती है जहाँ उसे अपने मानसिक विचारों का आंकलन व उनकी दिशा को समझना ज़रूरी होता है और ये विवेक प्रभु ने मनुष्य को इसीलिए दिया है ।
धीरे धीरे सत्संग में आते उसमे काफी सुधार आ गया और वो फिर से स्कूल जाने लगी ।

दूसरा किस्सा भ्रमण के दौरान रहा जहां एक औरत अपने ही आदमी से त्रसित थी और उसे लगता था की उसका पति उसके प्रति पूर्णतया वफादार नहीं है वो अपने पति को लेके आई थी ।
शाम के सत्संग के बाद सबसे आखिर में मिलने आई शायद इसलिए की अपनी भड़ास अपने पति पर निकाल सके या फिर गुरूजी के सामने खरी खोटी कह सके ।
मैंने उसे समझाया और चुप रहने को कहा उसके पति से पूछने पर उसने बताया की पत्नी ठीक से समझती नहीं मैंने उसे कल फिर आने को और अकेले आने को कहा ।
अगले दिन मैंने उसे सीधे सीधे सिर्फ ये कहा की देखो तुम्हारा समझना न समझना तुम्हारे हाथों में है लेकिन फ़र्ज़ करो उसकी जगह तुम होते तो क्या करते ?
तुम अपना समय खराब कर रहे हो ? पति पत्नी का रिश्ता स्वयं भगवान् बनाते हैं और याद करो फेरे लेते वक़्त तुमने क्या कसम खायी थी ?
पति पत्नी तो गाडी के पहिये के सामान होते हैं जिन्हें साथ मिलजुलके चलना होता है ।
सत्संगे में आते आते उसे भी भान होने लगा और उनकी गाडी पटरी पर आ गयी ।

तीसरे किस्सा एक माँ बाप अपने लड़के को लेकर आये थे और उसके बारें में बताने लगे की हमारे बुढापे का ये सहारा नहीं बन पाया कमाता धमाता कुछ नहीं है बस शराब पीते रहता है और
इसके कमरे में से अधिकतर सिगरेट की बदबू आती रहती है ।
वो पहले तो मेरी उम्र देखके बिदका की ये तो स्वयं जवान हैं ये मुझे क्या समझायेंगे मैं खुद ही इन्हें समझा दूंगा ।
और वो सच में अपनी लच्छेदार बातों से मुझे घेरने लगा मैं शांत होके सुनता रहा काफी देर बाद उसे लगा की ये तो सिर्फ सुन रहे हैं और वो भी ध्यान से तो वो स्वयं मुझसे बोलने के लिए कहने लगा ।
मैंने सिर्फ ये कहा की तुम अपने को अमर समझते हो क्या ? और क्या तुम्हारा लड़का ऐसे पीके पड़ा रहता तो तुम्हे अच्छा लगता ?
कुछ देर बाद वो रोने लगा और मुझसे कहने लगा की असल में मेरी गर्लफ्रेंड ने मुझे छोड़ दिया है मैं मन ही मन समझ गया मानसिक बीमारी का खेल यहाँ भी है और ऐसे व्यक्ति को सत्संग की तरफ मोड़ना सबसे कठिन है
मैंने उससे सिर्फ एक सवाल किया ऐसा तुम कबतक करते रहोगे ? वो चुप हो गया मैंने उसे बताया की अभी तुम समझ नहीं पाओगे क्यूंकि समझना नहीं चाहते तुम अपने आपको समझो और ये समझो की क्या ये ज़िन्दगी सिर्फ इसलिए मिली है की जो तुम्हे नहीं मिल पाया उसके लिए तुम अपनी ज़िन्दगी बर्बाद करने पर लगे हो और तुम्हारे मम्मी पापा या और भी संगी साथी जो तुम्हे मानते हैं उन्हें हर्ट कर रहे हो शराब से तुम्हारा शरीर ही खराब हो रहा है जो ईश्वर की मनुष्यों को सबसे अच्छी देन है ।
उसे बात समझ में आ गयी और वो नियमित रूप से तो नहीं लेकिन हफ्ते में २-३ दिन तो सत्संग में आने ही लगा ।

इन तीन घटनाओं के जैसी ही बहुत सी और घटनाएं हो सकती हैं जिसमे व्यक्ति स्वयं को ही दुःख देने लगता है और ये एक मनोविकार है ऐसा व्यक्ति स्वयं के इर्द गिर्द एक मानसिक विचारों का जाल बुन लेता है और अपनी दुनिया उसमे कैद कर लेता है फिर उसे उसी तरह की सोच के व्यक्ति अच्छे लगने लगते हैं या वो ऐसा ही विचार संप्रेषित करने लगता है और अपने को हीन समझने लगता है ऐसे लोगों को मानसिक सकारात्मकता और मानसिक स्वस्थता की बहुत ज़रूरत होती है ।
व्यक्ति का अपने मनोविकारों को जानना अत्यंत आवश्यक है की असल में अज्ञान व विकार उसके कितने अन्दर तक पैठा है अथवा वो स्वयं काम,क्रोध में कितना अधिक अग्रसर हो चुका  है। हमे पता नहीं चलता लेकिन हम काम में,क्रोध में , दंभ में ,लोभ में जीते हैं तो काम,क्रोध,दंभ और लोभ की ज़िन्दगी जीते हैं अथार्त अपनी ज़िन्दगी नहीं जीते । व्यक्ति सही अर्थों में अपनी ज़िन्दगी तब जीना शुरू करता है जब उसके जीवन में परमात्मा का स्थान होता है,सत्संग का स्थान होता है ।  

Tuesday, 3 April 2012

सत्संग समाज की अच्छाइयों का आधार है

आज के सामजिक माहौल में जब वस्तुवादिता की आंधी में सभी बहे जा रहे हैं क्या हम रुक कर स्वयं को थोडा वक़्त देते हैं ?
क्या हम ये सोचते हैं की हमारे चिंतन व हमारी योग्यता का सही उपयोग हो रहा है ?

क्या हम ये सोचते हैं की भ्रष्टाचार,अपराध के बढ़ने में एक कारण हमारे अन्दर अच्छे विचारों का अभाव नहीं  उनका क्रियान्वन है ?
हम स्वयं भी देश व समाज के प्रति अपनी कितनी ज़िम्मेदारी समझते हैं ?
प्रतिदिन हम अपराध व मानवता को शर्मसार करने वाली ख़बरें पढ़ते हैं लेकिन क्या हम उसके लिए कुछ कर पाते हैं ?
कहीं हम इस सोच के शिकार तो नहीं की एक आदमी के अच्छे होने से बुराई नहीं मिट सकती ?
क्या हमारे समाज की पढ़ाई मात्र पेट भरने की विद्धा है अथवा क्या हम अपने बच्चों को मात्र पेट भरना (वस्तुवादिता) ही सिखा रहे हैं ?
क्या हमने प्रगति का मतलब येन केन प्रकारेण की तर्ज पर धनोपार्जन ही समझ रखा है ?

क्या इस तरह से सिर्फ अपने स्वार्थ हेतु जीने में इंसान में और जानवर में कोई फर्क नहीं रह जाता ?
क्या ईश्वर ने विवेक हमे इसलिए नहीं दिया की हम अपने साथ साथ समाज के बारें में भी सोचें ?


येही कुछ बातें थी जिन्हें चंद साल पहले मुझसे एक सज्जन ने कहीं और जिनपर सोचने के उपरान्त मैंने अपने स्तर से उस पर काम करना आरम्भ किया आज मैं बहुत संतुष्ट हूँ  ।

अपराध के पीछे सिर्फ सोच का ही दोष होता है और सोच ठीक होने से अपराध अपने आप ही रुक जाता है ।
पहले भी था और अभी भी है तथा आगे भी रहेगा की समाज का अधिकाँश वर्ग तनाव में जीता है और हम माने या न माने परन्तु अधिकतर हम किसी न किसी मनोरोग का शिकार हो जाते हैं ।
कितने लोग कमज़ोर मानसिकता के शिकार होते हैं,कितने ही कमज़ोर मनोदशा के होके आत्महत्या जैसा जघन्य कृत्य तक कर बैठते हैं ।


ऐसे व्यक्ति बहुत बधाई के पात्र हैं जिनके चिंतन में ये बात रहती है और जो मानवता पर भी कुछ सोच पाते हैं व इस क्षेत्र में भी कुछ कर पाते हैं ।

मेरा सिर्फ येही कहना है की व्यक्ति को कुछ अलग नहीं करना होता है बस उसे अपने जीवन में सद्विचार का स्थान देने के साथ साथ उसके क्रियान्वन रूप पर भी ध्यान देना चाहिए ।
ज़रूरी नहीं की हम किसी बड़ी सामाजिक संस्था को ढूंढें या किसी अच्छे काम के लिए समय निकाले ।
 मेरा मानना है हमारे आसपास जो भी व्यक्ति अथवा संस्था (एन.जी.ओ.) अच्छा काम कर रही हो हमे उससे जुड़ना चाहिए उसमे किसी भी स्तर मानसिक,आर्थिक,सामजिक पर योगदान देना चाहिए क्यूंकि वक़्त का काम है गुज़रना और अच्छा काम जब हो जाए वोही वक़्त अच्छा होता है ।


यदि हम हर अच्छे विचार,व्यक्ति, संस्था के अच्छे कामों को भी दुर्भावना से देखने लगेंगे तो क्या ऐसा ठीक करेंगे ।

इस तरह से तो हम ऐसी कुत्सित विचारधार को बढ़ावा देंगे की समाज में कुछ भी अच्छा के लिए नहीं होता और हर कोई किसी न किसी स्वार्थ के लिए ही काम करता है ।
आज समाज में मेरा मानना है स्वस्थ व सकारात्मक मानसिकता की सबसे अधिक आवश्यकता है और उससे भी अधिक ज़रूरी है इस तरह की पेहेल ।


मेरा दृढ़ता से मानना है की समाज को सबसे ज्यादा लाभान्वित ध्यान कर सकता है और इसलिए इसकी उपयोगिता हेतु ज्यादा से ज्यादा से लोगों में प्रेरणा जगानी चाहिए ।

इसके अतिरिक्त मेरा मानना है की समाज का ज्यादा से ज्यादा उत्थान राम कथा (सत्संग) के माध्यम से हो सकता है क्यूंकि 'बिनु सत्संग विवेक न होई ' राम कथा में ऐसी बहुत सी बातें निहित हैं जिन्हें जीवन में उतारने से हम सत्संग को न सिर्फ सुनते हैं बल्कि जीने भी लगते हैं ।
तीसरी बात ये है की धर्म का काम है जोड़ना परन्तु दुनिया में अधिकतर फसाद धर्म के नाम पर ही हमने देखे हैं जबकि यदि हम सार बात सभी धर्मों की देखें तो एक पायेंगे इसलिए सार बात के अनुकरण करने की प्राथमिकता पर बल होना चाहिए जिससे समाज का प्रत्येक तबका लाभ प्राप्त करे  ।

मैं ये नहीं कहता की मेरे इस कदम से समाज बदल जाएगा और ना ही ऐसा हो ही पायेगा लेकिन कम से कम एक अच्छाई को महत्व देने वाला कदम तो उठाया गया ये सोच इसमें निहित है ।

मुझे इस बात की बहुत ख़ुशी है की ऐसे बहुत से आश्रम व सामाजिक संस्थाएं मानव सेवा में बहुत अच्छा काम कर रही हैं और ये बहुत प्रेरणादायक है ।

मैं अपने इस ब्लॉग पर अपनी सभी बातें जब समय मिलता है लिखता रहता हूँ तो सोचा इसे भी लिख दूँ मैं इसके माध्यम से अपने सभी दोस्तों (ब्लॉग जगत, नेट जगत व उनके अतिरिक्त भी ) का हार्दिक धन्यवाद करना चाहता हूँ जिन्होंने हमेशा मेरी सोच को न सिर्फ सराहा बल्कि कई बार हौसला अफजाई द्वारा कई बार अपने विचारों द्वारा प्रेरित भी किया ।
मैं ऐसे मित्रों को आमंत्रित भी करना चाहता जो वैचारिक रूप से ही सही परन्तु मेरे इस छोटे प्रयास का हिस्सा बने।

सत्संग पर इतना कुछ महापुरुषों ने कहा है की उस पर जितना अधिक हम चिंतन करते हैं उतना ज्यादा मानसिक मजबूती व सकारात्मकता प्राप्त करते हैं
सत्संग की सबसे बड़ी खासियत मुझे ये लगती है की चाहे हम श्रवण करें अथवा पठन हमे पता भी नहीं चलता और हमारे अंतकरण के विकार अपने आप समाप्त होने लगते हैं


सत्संग की महिमा पर स्वयं श्रीराम जी उत्तरकाण्ड में कहते हैं :
 
 बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥4॥
भावार्थ:-बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनता से मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,॥4॥
दोहा :
 सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताई।
कालहि कर्महि ईस्वरही मिथ्या दोस लगाई॥43॥

भावार्थ:-वह परलोक में दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा (अपना दोष न समझकर) काल पर, कर्म पर और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है॥43॥
चौपाई :
 एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥1॥
भावार्थ:-हे भाई! इस शरीर के प्राप्त होने का फल विषयभोग नहीं है (इस जगत्‌ के भोगों की तो बात ही क्या) स्वर्ग का भोग भी बहुत थोड़ा है और अंत में दुःख देने वाला है। अतः जो लोग मनुष्य शरीर पाकर विषयों में मन लगा देते हैं, वे मूर्ख अमृत को बदलकर विष ले लेते हैं॥1॥
 ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई॥
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी॥2॥
भावार्थ:-जो पारसमणि को खोकर बदले में घुँघची ले लेता है, उसको कभी कोई भला (बुद्धिमान) नहीं कहता। यह अविनाशी जीव (अण्डज, स्वेदज, जरायुज और उद्भिज्ज) चार खानों और चौरासी लाख योनियों में चक्कर लगाता रहता है॥2॥
 फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही॥3॥
भावार्थ:-माया की प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव और गुण से घिरा हुआ (इनके वश में हुआ) यह सदा भटकता रहता है। बिना ही कारण स्नेह करने वाले ईश्वर कभी विरले ही दया करके इसे मनुष्य का शरीर देते हैं॥3॥
 नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो॥
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥4॥
भावार्थ:-यह मनुष्य का शरीर भवसागर (से तारने) के लिए बेड़ा (जहाज) है। मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है। सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं। इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गए हैं,॥4॥
दोहा :
 जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥44॥
भावार्थ:-जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है॥44॥
चौपाई :
 जौं परलोक इहाँ सुख चहहू। सुनि मम बचन हृदयँ दृढ़ गहहू॥
सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई॥1॥
भावार्थ:-यदि परलोक में और यहाँ दोनों जगह सुख चाहते हो, तो मेरे वचन सुनकर उन्हें हृदय में दृढ़ता से पकड़ रखो। हे भाई! यह मेरी भक्ति का मार्ग सुलभ और सुखदायक है, पुराणों और वेदों ने इसे गाया है॥1॥
 ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका॥
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ॥2॥
भावार्थ:-ज्ञान अगम (दुर्गम) है (और) उसकी प्राप्ति में अनेकों विघ्न हैं। उसका साधन कठिन है और उसमें मन के लिए कोई आधार नहीं है। बहुत कष्ट करने पर कोई उसे पा भी लेता है, तो वह भी भक्तिरहित होने से मुझको प्रिय नहीं होता॥2॥
 भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी॥
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता॥3॥
भावार्थ:-भक्ति स्वतंत्र है और सब सुखों की खान है, परंतु सत्संग (संतों के संग) के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते और पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते। सत्संगति ही संसृति (जन्म-मरण के चक्र) का अंत करती है॥3॥ 

Sunday, 1 April 2012

राम कथा








राम का नाम सबसे पावन,राम हैं परमात्मा परमेश्वर
मंगलों के मंगल मूल हैं प्रभु चरणकमल अति सुन्दर 


है ये राम कथा,है ये राम कथा 

जनम जनम की मिटती जिससे व्यथा

है ये राम कथा है ये राम कथा 




बैकुंठ भी जिसके आगे स्वयं श्रीराम को न सुहाते

ऐसी है अयोध्या उत्तर में सरयू जिसके किनारे

  वहां चक्रवर्ती सम्राट राजा दशरथ हुए महान

जिनके पावन घर अवतरित हुई चार संतान

चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को

प्रगटे श्रीराम रानी कौशल्या के बालक बनने को

राम रंग में रंगे हुए सुमित्रा के लक्ष्मण

कैकेयी के थे भक्तमूर्ती भरत व शत्रुघन

श्रीराम के आते ही अयोध्या सुखों को सुख देने वाली हुई

सूर्य देव भी उत्सव यूँ देखने लगे चलने की प्रेरणा न हुई

शिव भगवान् काकभुशुंडी संग प्रभु आगमन में खो गए

अयोध्या की गली गली में राम नाम रटते वे सो गए

अघाते न थे वो देख प्रभु श्री राम की सुन्दरता

श्याम रंग के श्रीराम ऐसे,उपमा न दे सके उपमा 

सुनाते रहें न ख़त्म हो है ये ऐसी कथा
है ये राम कथा है ये राम कथा
 जनम जनम की मिटती जिससे व्यथा

है ये राम कथा है ये राम कथा


तरुनाई में आये अवध मुनिबर विश्वामित्र

माँगा श्री राम को हूँ असुरों से मैं खिन्न

चल दिए पिता की आज्ञा से मुनियों के दुःख हरने रघुनाथ

असुर मारीच व सुबाहु से निर्भय कर प्रभु ने किया मुनिओं को सनाथ

चले मुनिबर के कथनानुसार प्रभु जनकपुरी की ओर

राह में पाषाण बनी अहिल्या का उद्धार कर भेजा पतिलोक

जनकपुरी का कण कण माता जानकी के नाम में डूबा हुआ

प्रभु श्रीराम को वहां चरण रखते ही इस बात का आभास हुआ

गुरु आज्ञा से प्रभु भाई संग पुष्प हेतु गए थे फुलवारी

जनकसुता वहीँ सखियों संग गौरी पूजन को थीं आई

सखियों के दिखाने पर सिया जू ने प्रभु को एक झलक देखा

अनुज से प्रभु बोल उठे भ्राता इसके लिए धनुषयज्ञ हो रहा

शिव का महान धनुष उठाये न उठता किसी से

श्रीराम ने उठाके उसे तोड़ डाला बीच से

समाचार पाके दशरथ चले जनकपुर

आनंद न समाता था उनके उर

सीता श्री राम के मांडवी भरत जी के वाम भाग विराजित हुईं

उर्मिला लक्ष्मण से व श्रुतिकीर्ति शत्रुघन जी से ब्याही गयीं

बारम्बार आशीष देते जनक और सुनयना वर वधु को

रह रह कर पुत्रि विरह से पकड़ लेते वे अपने जी को

चले अवध दशरथ मन में सुमिरते प्रभु सुन्दरता

है ये राम कथा है ये राम कथा
 

जनम जनम की मिटती जिससे व्यथा

है ये राम कथा है ये राम कथा

 
समय बदला और बदला समय का रूप
रानी कैकेयी ने मांगे दो वर दो मुझको भूप

प्रथम राम वनवास पायें चौदह वर्ष को

दूसरा भरत हों अब राजा अवध को

सुनते ही राजा पृथ्वी पर गिर पड़ें

राम ने क्या बिगाड़ा तेरा कहने लगे

सुंदरी ! प्रिये मांग ले कोई दूसरा वर न भेज राम वन

मैं जी न पाऊंगा मेरे तो राम ही आधार हैं जीवन धन

राम आये सुमंत्र के बुलाने पर

देखा पिता गिरे हुए हैं धरती पर

वन की बात सुन कर भी प्रभु सम ही रहे

बोले पिताश्री इतनी सी बात पर क्यूँ व्याकुल हो रहे

चल दिए प्रभु माता जानकी और लक्ष्मण के संग वन

अवध अनाथ हो चुकी थी प्रभु ले चले सभी का मन

पुत्र वियोग में दशरथ ने त्याग डाला निज देह

आये भरत ननिहाल से बुलाये जब गुरुदेव

भाई के वन गमन की बात सुनकर भरत अचेत हो गए

और उसमे कारण खुद को मानकर मरणासन्न हो गए

उन्हें लगा उनके सारे पुण्य समाप्त हो गए

नहीं रहे उजाले जीवन में अन्धकार हो गए

भैया को मैंने वन भेजा है ऐसी पीड़ा उर में बैठ गयी

सवेरा होते ही राम को मनाने पूरी अवधपुरी चल दी

नंगे पाँव चलते हुए भी भरत संकोच में हैं भरे हुए

मुझ कुटिल का आना सुनकर कहीं भैया-भाभी कहीं और न चल दें

मेरे तो उनके सिवा कोई और सहारा नहीं है

आँखों में ऐसे हैं आसूं की किनारा नहीं है

मेरे कारण प्रभु नंगे पाँव चलके गए

भरत ऐसे चले जैसे अंगारों पे चलते गए

प्रभु भक्तवत्सल हैं अपनी कृपा ज़रूर करेंगे

माता जानकी की ओर देखके मुझे स्नेह ही करेंगे

भैया मुझे बचपन से ही प्रेम करते आये हैं

मेरे हारने पर भी खेल में मुझे जिताते आते हैं

प्रभु से मिलके भरत के हो गए सब दुःख दूर

चले पुनः अवध को चरण-पादुका के रस में चूर

करुनामय प्रभु श्रीराम की अमर है गुन-गाथा


है ये राम कथा है ये राम कथा

 जनम जनम की मिटती जिससे व्यथा

है ये राम कथा है ये राम कथा


चित्रकूट में रहके प्रभु चल दिए दंडक वन को

ताड़का त्रसित हो,गयी रावण को जगाने को

ले चला रावण धोखे से माता सीता को हरण करके लंका

उधर मारकर मारीच प्रभु राम, देख लक्ष्मण को हुए ससंका

सीता विरह में श्रीराम अत्यंत व्याकुल हो उठे

प्रभु लीला द्वारा कामी,वैरागी का अंतर बताने लगे

भेंट हुई प्रभु की हनुमान से जिन्होंने सुग्रीव से मिलवाया

बाली को दंड देकर कर प्रभु ने सुग्रीव को कपिराज बनाया

चले सब वानर माता सीता की खोज में इधर-उधर

समुद्र लांघ हनुमान पहुंचे लंका की धरा पर

प्रभु की अंगूठी माता को देके उन्होंने उनके दुःख हर लिए

प्रभु सदैव कृपा करते रहें जानकी जी ने उन्हें ये वरदान दिए

रावण के सामने पहुंचकर भक्त ने भगवान् की महिमा गायी

काल प्रेरित रावण को मगर हनुमान की बात न समझ आयी

भाई विभीषण ने भी राम की शरण में जाने की नीति सुनाई

अंत में स्वयं विभीषण चल दिए जब अहंकारी ने नीति ठुकराई

क्रोध,दंभ व अभिमान का पुतला रावण मूढ़ मति को प्राप्त था

उस दुष्ट,दुराचारी ने हनुमान की पूंछ जलाने का आदेश किया  

लंका को जलाकर हनुमान जी ने माँ से चूड़ामणि प्राप्त किया

जाकर श्रीराम के पास उन्होंने उसे प्रभु को समर्पित किया

देखते ही प्रभु की बड़ी बड़ी आँखें सजल हो आयीं

ये देखते ही वानर भालुओं की पलकें भीग आयीं

प्रभु धीरज धरकर हनुमान को खूब आशीष देने लगे

हनुमान जी बार बार प्रभु के चरणों में गिरने लगे

फिर प्रभु ने सबके साथ लंका की तरफ प्रस्थान किया

समुन्द्र ने तब उन्हें सेतु बनाने का उपाय बताया

पाप,विकार मिटाने वाली है ये ऐसी सुधा


है ये राम कथा है ये राम कथा

 
जनम जनम की मिटती जिससे व्यथा

है ये राम कथा है ये राम कथा


लंका में पहुंचकर भीषण संग्राम हुआ

होना था जैसा अंजाम वैसा अंजाम हुआ

प्रभु श्रीराम के हाथों मरकर दुष्ट रावण का उद्धार हुआ

सभी देवताओं का ह्रदय तब जाके त्रास से मुक्त हुआ

माता सीता संग प्रभु श्रीराम भाई लक्ष्मण,हनुमानादी संग

चले पुष्पक विमान पर था उनका पहले भाई से मिलने का मन

भरत से मिलके प्रभु ने माताओं को शीश नवाया

माता कैकेयी संकोंच न करें प्रभु ने उन्हें मनाया

श्रीराम के राजा बनते ही आ गया राम-राज्य

घर घर में होने लगे उत्सव के ही दिन व रात

राम राज्य क्या है ये हमे प्रभु श्रीराम ने बताया है

कैसे जीवन जिया जाए प्रभु ने स्वयं जी के सिखाया है

प्रभु कहते हैं अवध और लंका हमारे ह्रदय में भी हैं

ज़रा विचारो राम और रावण हम सबके मन में भी हैं

स्वयं को आत्मा समझ हम जब विकारों से हीन होने लगेंगे

तब अपने ह्रदय में हम अयोध्या का निर्माण कर सकेंगे 

जब अध्यात्म व जीवन के सिद्धांत हमारे अलग नहीं एक होंगे

हम अपने अन्दर के राम से फिर निश्चय ही मिल सकेंगे

जीवन अनमोल है उसे प्रभु सेवा में बिता

दूसरों का हित ही असली हित ह्रदय में बसा


काम,क्रोध,लोभ से ऐ प्राणी खुद को छुटकारा दिला


भक्ति जगाती,भक्ति की ओर बढ़ाती है राम कथा


है ये राम कथा है ये राम कथा

 
जनम जनम की मिटती जिससे व्यथा

है ये राम कथा है ये राम कथा