आज से सौ साल पहले कैसा था ये जहाँ ?
आज से सौ साल बाद क्या होगा और उसी तरह पांच सौ साल पहले और बाद ?
ये सवाल मेरे ख्याल से बहुत मायने रखता है इसलिए की मेरे हिसाब से ये विवेक को जाग्रत करता प्रश्न है जो स्वयं में ही उत्तर लिए हुए है ।
क्या हम ये सोचते हैं की आज से सौ दो सौ साल बाद हमारे किए गए कर्म की क्या अहमियत होगी ?
हमने जो भी किया अपने जीवन क्या उसका कुछ आगे भी जाएगा ? यहाँ तक की हमारी लिखी कापी नोट-बुक्स के पन्ने पुराने होंगे और फिर राख में मिल जायेंगे ।
क्या हम ऐसा सोचकर अपने कर्मों को करते हैं ?
क्या हमे ऐसा सोचकर अपने कर्मों को करना चाहिए?
ये प्रश्न नहीं है देखा जाए तो ये ही उत्तर है ।
एक सामान्य व्यक्ति अपना जीवन कैसे जीता है - बचपन,जवानी और बुढापा ।
ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ और संन्यास ।
आश्रम व्यवस्था भी येही कहती है
लेकिन मुद्दा ये नहीं मुद्दा ये है की कैसे जीते हैं
क्या हम विवेकपूर्ण ढंग से जीते हैं ?
यदि विवेकपूर्ण ढंग से जीते हैं तो कैसा जीते हैं?
और यदि अविवेकपूर्ण ढंग से जीते हैं तो कैसा?
कई बार हम विवेक और ज्ञान पा जाते हैं लेकिन उस पर सही ढंग से अमल नहीं कर पाते या करना चाहते और मैं स्वयं को भी इसी में गिनता हूँ ।
क्या हम अपने थोड़े से सुख के लिए किसी को भी दुःख पहुंचा देते हैं?
क्या हम किसी को आहत करके आनंदित महसूस करते है?
क्या आहत करने से अथार्त किसी को दुःख देने से आनंद मिलता है ?
क्या हम निंदा और दोष्द्रष्टि रखते हैं ?
क्या हम ये जानते हैं की दूसरों के दोषों को देखने पर हमारा नुकसान है व उनकी खूबियों को देखने पर हमारा फायदा होता है?
सभ्य व सभ्रांत समाज में क्या अपने ज्ञान और कौशल से शब्दों द्वारा आहत करना बुद्धिमत्ता पूर्ण माना जाता है।
क्या ऐसे कृत्य को बुद्धिमत्ता पूर्ण मानना चाहिए?
क्या ऐसे कृत्य कायरता या भीरूपन के पर्याय हैं ?
हमने अपने मानक क्या बना लिए है ?
क्या हम अपनी क्षमता और रूचि से अधिक दूसरे को देखके अपना जीवन बनाते हैं ?
क्या हम अपनी कमियों से ज्यादा दूसरे में कमी देखते हैं?
क्या हम अपनी प्रतिस्पर्द्धा अपने साथ रखने के बजाय दूसरों के साथ रखते हैं?
ये प्रश्न हमारे व्यक्तित्व को दर्शाते हैं व हमे आगाह करते हैं येही हमारा आंकलन भी करते हैं ।
क्या किसी व्यक्ति को या समूह की प्रशंसा प्राप्त करके हम अपना कल्याण कर सकते हैं ?
यहाँ तक की कोई बड़ा उद्योगपति है और उसके यहाँ हजारों लोग काम करते हैं लेकिन सच्चाई ये है की उसका असली फायदा उसके स्वयं की भावनाओं और उसके जीवन जीने पर निर्भर करता है ।
व्यक्ति को धन,बल,संपत्ति,सम्पदा उसके भौतिक जीवन में सुख पहुंचा सकती हैं लेकिन उसके आध्यात्मिक जीवन में नहीं ।
मुझे जगद्गुरु कृपालु जी महाराज की ये पंक्तियाँ याद आती हैं जब वो कहते हैं की 'यहाँ सभी भिखारी हैं एक भिखारी दूसरे भिखारी को क्या देगा'
ये पंक्तियाँ कितनी आध्यात्मिक हैं जो ये बताती हैं की देह,संसार नश्वर (समाप्त होने वाले )है इनमे आनंद नहीं आनंद तो अविनाशितत्व में निहित है ।
सीधी सी बात है की आत्मा जब अविनाशी है,हमेशा के लिए है हमेशा से है तो उसे उसे देह व संसार के सुख जो की प्रतिक्षण घटने वाले व अंत में समाप्त होने वाले हैं उनसे सुख कैसे मिल सकता है । उसे तो परमात्मतत्त्व से ही आनंद मिल सकता है जो अविनाशी है व हमेशा के लिए है ।
कबीर साहब और बुल्लेशाह जैसे संत भी इसी पर जोर देते हैं की हममे अविकारिपन होना ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए ।
हमे किसी को दुःख नहीं पहुचाना चाहिए ।वास्तविकता में दूसरों को आहत करके सुख या मान की प्रवृत्ति कायरता भरी सोच है जबकि अहिंसा,परोपकार,सहिष्णुता सद्गुणों को दर्शाते हैं व शौर्य तथा वीरता के लक्षण हैं ।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामायण में कहा है-
परहित सरिस धर्म नहीं भाई। परपीड़ा सम नहीं अधमाई ।।
(दूसरों को सुख पहुचाने के सामान कोई पुण्य नहीं है व दूसरों को कष्ट पहुचाने के सामान कोई पाप नहीं )
वहीँ दोषद्रष्टि न रखने पर नवधा भक्ति के अंतर्गत इसे आंठवी भक्ति बताते हैं -
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।।
(जैसा कर्म फल मिले उसमे संतोष करना चाहिए व दूसरों के दोष सपने में भी नहीं देखने चाहिए )
कबीरदास जी भी कहते हैं – बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिल्या कोय । जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय।।
अथार्त मैं दूसरों में दोष देखता रहा लेकिन मुझे दोष नहीं मिले लेकिन जब मैंने स्वयं का विश्लेषण किया तो जाना की दोष तो मेरी द्रष्टि मेरी सोच अथार्त मेरे में निहित है ।
इसलिए हमे किसी में दोष नहीं देखने चाहिए व मन,वचन,कर्म से कभी भी किसी को दुःख नहीं पहुचाना चाहिए ।
व्यक्ति के हाथ में उसकी इन्द्रियाँ है जो मन बुद्धि द्वारा संचालित होती हैं ।
यदि हम सिर्फ मन बुद्धि को ही आनंद का पैमाना मानेंगे तो फिर निश्चित ही तमोगुणी होंगे अथार्त हमारे में विकार आते जायेंगे ।
यही विवेकपूर्ण तथ्य है जो सुनने में आसान लगता है पर समझने व अनुभव करने में थोड़ी देर में समझ में आता है ।
मूलतः मैं यही कहना चाहता हूँ की हमारा स्वरुप आत्मा है जो की अविनाशी है इसलिए उसे इन्द्रिय सुख से सुख मिलेगा ऐसा समझना ही नासमझी है ।
क्यूंकि अविनाशी को अविनाशी से ही सुख मिल सकता है अथार्त आत्मा (अंश)को परमात्मा(अंशी) से ही सुख मिल सकता है ।
हम जितना विकाररहित तत्त्व की तरफ बढ़ेंगे अपने आत्म-तत्त्व को प्रखर करेंगे व जितना विकार (काम,क्रोध,द्वेष,इर्ष्या,दंभ) की तरफ बढ़ेंगे उतना ही हमारा आत्म-तत्व दर्पण पर लगे धूल की भांति होगा |
हम अपने कर्मों को करते हुए कर्मफल की चिंता से यदि मुक्त रहें व अपनी आत्मा को प्रकाशक जानकर की समस्त इन्द्रिय,मन,बुद्धि आत्मा से ही संचालित(प्रकाशित) होते हैं आसानी से स्वयं पर संयम रख सकते हैं
व कर्म करते हुए भी कर्मफल के बंधन से मुक्त रह सकते हैं ।