व्यक्ति अपनी मन बुद्धि द्वारा संचालित होता है पूरा जीवन कई बार हम बिना अपनी मन बुद्धि को जाने बगैर निकाल देते हैं अपने अन्दर के असली ऊर्जा स्रोत ने नहीं मिल पाते जहाँ से हमे दिशा निर्देश मिल रहा है हम उसे ही नहीं जान पाते और कई बार तो जानना ही नहीं चाहते ।
ये जानना अत्यंत आवश्यक है की हमारा सञ्चालन करने वाली मन बुद्धि का स्वरुप क्या है ?
क्या ये जो भी निर्देश हमे अथार्त इन्द्रियों को करते हैं वो सब सही हैं हमारे लिए हितकारक हैं ?
बस इतना ही पर्याप्त प्रश्न है व्यक्ति का स्वयं से बात करने का ।
इसी के मंथन में व्यक्ति कब अपना उद्धार कर लेता है कब आत्म कल्याण के पथ पर आ जाता है व्यक्ति को मालूम नहीं चलता ।
मैं एक साधारण साधक हूँ, अपने से उम्र में छोटों से भी सीखने को आतुर रहता हूँ तथा ज्ञानार्जन के लिए कभी कभी कहीं कहीं थोडा बहुत जो भी अनुभव है और किताबी बातें बोल देता हूँ ।
अपने संक्षिप्त प्रवचनों के दौरान चूँकि ये बिलकुल ही शुरूआती दौर है इसलिए भी परन्तु अलग अलग लोग मिलते रहते हैं उनके प्रश्न उनकी समस्याओं में ऐसे गुथे रहते हैं की उन्हें समझना और फिर उन्हें समझाना(हल) कई बार मुश्किल हो जाता है ।
मेरा उद्देश्य वोही रहता है जो मेरा स्वयं के लिए है व्यक्ति विवेकपूर्ण बने,प्रज्ञावान बने स्वयं को निर्विकार समझे और स्वयं को धार्मिक (हिंदी,मुस्लिम,सिख,इसाई) कहने से पहले या धार्मिक कहलाने से ज्यादा दैवीय गुणों को धारण करे,स्वयं का अध्ययन करे,भले बहुत थोडा ही परन्तु सत्य के पथ पर रोज़ थोडा थोडा बढे ।
इसके साथ ही शुद्ध भक्ति पथ ही मेरा उद्देश्य है जहाँ सारा संसार प्रभु का ही स्वरुप नज़र आता है ।
परन्तु जैसा की पिछली पोस्ट में हमने देखा पभु की त्रिगुणी माया से मोहित अधिकतर लोग रजोगुण के प्रभाव में रहते हैं वे अपना स्वयं का हित स्वयं के धन,संपत्ति,कुटुंब,मान में बढ़ोत्तरी ही मानते हैं उन्हें निष्काम भक्ति (बिना फल की कामना के प्रभु की उपासना) समझाना आसान नहीं रहता और उस तरफ उन्मुख करा देना तो और भी कठिन लेकिन ये सिर्फ उनके लिए ही चरितार्थ होता है जिनपर अज्ञान का पर्दा पड़ा हुआ है और जो इस अज्ञान के परदे को हटाना भी नहीं चाहते परन्तु ऐसे व्यक्ति भी मिलते हैं जो अध्यात्म सम्बन्धी नयी नहीं बात न सिर्फ पूछते हैं बल्कि अपने अनुभव भी बताते हैं । परन्तु फिर भी बहुतायत ऐसे लोगों की ही है जो स्वयं को शरीर माने हुए हैं,संसार में बहुत आसक्त हैं ।
कभी कोई कह देता स्वामी जी हमारे जीवन में बहुत दुःख आप इसे कम कर दीजिये ?
कहीं शनि की साढ़े साती तो नहीं चल रही ?
कारोबार में फायदा नहीं हो रहा ?
हमारा लड़का हमारी नहीं सुनता,दिन भर दोस्तों और टीवी या फिर कंप्यूटर में ही लगा रहता है ?
मेरा पति बहुत शराबी है आप उसकी शराब छुडवा दीजिये
मेरा भाई अपने माँ बाप को छोड़ के अलग रहने लगा है और मैं अपना मायका देखूं या ससुराल?
ये बताइए मेरी नौकरी कब लगेगी ?
मेरी विदेश में शादी हो जायेगी न मैं इतने दिनों से व्रत रह रही हूँ ?
मैं किस देवता की उपासना करूँ की शादी अच्छे लड़के से हो ?
कुछ ऐसा उपाय बताइए की मेरा प्रोमोशन मेरे कलीग से भी बड़े स्तर का हो जाए ?
इतनी सांसारिक इच्छाएं,कभी कभी तो ऐसे लोग मिलते हैं जो दूसरों का का अहित ही चाहते हैं ।
मैं सबसे एक बात ही कहता हूँ की ये रोग है जिन्हें तुमने पकडे हुआ है छोड़ दो इसे बस ठीक हो जाओगे ।
स्वयं को समझो ये जानो की क्या आज से साल दो साल दस साल पहले ये रोग तुम्हारे पास नहीं थे । थे और क्या इनका समाधान होने के बाद आज से साल भर बाद,पांच साल बाद ये इच्छाएं तुम्हारे भीतर नहीं रहेंगी ।
रहेंगी ज़रूर रहेंगी इसलिए ज़रूरी है की स्वयं को समझो स्वयं को जानो । सांसारिक भोगों से मिलने वाली तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती अपितु प्रत्येक संकल्प के पूरे होते ही कई मात्रा में बढ़ने लगती है ।
ऐसा जानने के बाद,इस पर गंभीरता से चिंतन करने के बाद ही व्यक्ति वैराग्य को थोडा महत्व देने लगता है ।
क्यूंकि उसके बाद ही जीव सही अर्थों में ध्यान को समझ पायेगा,ध्यान का आनंद ले पायेगा ।
जीवन में वैराग्य के उत्पन्न होने के बाद ही व्यक्ति ज्ञान की प्राप्ति कर सकता है तभी वो ज्ञान पर सजगता से व ह्रदय से अमल कर सकता है ।
पुनः प्रसंग पर आते हैं की व्यक्ति प्रत्येक कार्य अपने मन के अनुसार ही करता है और मन सामान्यतः वोही करता है जैसा निर्देश उसे बुद्धि से मिला होता है और बुद्धि चूँकि रजोगुण (विकार) प्रधान रहती है मन हमे भोग विलास में लगा कर हमारा अहित ही करता है ।
वैराग्य युक्त होने के बाद मन हमारा तामसी होना बंद करने लगता है अथार्त अधोगति की तरफ जाना उसका बंद हो जाता है ।
वैराग्य युक्त होने का ये कतई मतलब नहीं की व्यक्ति संसार,स्रष्टि,शरीर से द्वेष करने लगे,घृणा करने लगे और ये समझने लगे की संन्यास में ही भलाई है और अपने कर्त्तव्य कर्मों से मुख मोड़ ले ।
नहीं ये नीतिपूर्ण कदापि नहीं यदि पिछली पोस्ट्स हम पढ़ें तो उसमे भी सार रूप अनासक्ति ही है अथार्त हमे अपने कर्तव्य कर्मों को करते हुए स्वयं को अनासक्त रखना है,उनमे आसक्ति नहीं रखनी है । आसक्ति रखनी भी है तो एक परमपिता,परमात्मा परमेश्वर से । ये शरीर इत्यादि जो कुछ भी हमे मिला है उसे साधन ही समझना चाहिए अथार्त ये सब भगवत्प्राप्ति के लिए मिले हैं ।
बहरहाल वैराग्ययुक्त होने के बाद मन स्वाभाविक ही शांत होने लगता है ।
क्यूंकि हमारा मन वोही करता है जो हमारा अवचेतन मन (बुद्धि) उससे करने को कहे और जब अवचेतन मन संसार से आसक्ति हटा लेता है मन भी इन्द्रियो और उनके विषयों में नहीं रमता और इस तरह से जीव को पता भी नहीं चलता परन्तु वो ईश्वर से योग में बिना किसी प्रक्रिया के अपने कर्त्तव्य कर्म को करते हुए भी उस ज़ोन (आध्यात्मिक) में स्थित रहता है ।
मेरा एक मानना सदैव से रहा है की हमारी मानसिक परिपक्वता इस बात पर निर्भर रहती है की हम विकारों से ज्यादा अविकारी भाव पर ध्यान दें संसार,समाज,स्रष्टि में ग़लत देखने पर सोचने पर हममे ग़लत देखने का सोचने के भाव का रस जाग्रत होता है जो पतन(मानसिक) देता है बल्कि अच्छा देखने,सोचने पर अविकारी भाव हममे सत्व गुण की अभिवृद्धि करता है । हमारे लिए अत्यंत आवश्यक ये है की हम अपने में विकार ना माने और इसलिए विकारी सोच को भी महत्व न दें ऐसा करने पर बहुत शीघ्र हम ध्यानावस्था में पहुँच जाते हैं। व्यक्ति को अपने मन की दिशा ठीक करनी है क्यूंकि इस तरह से ही वो अपने मन का सही उपयोग कर सकेगा ।
बड़ी गहरी बातें कह जाते हैं आप ..काश: हम मूढ़-मती भी इसमें से कुछ हासिल कर सकें !
ReplyDeleteपर आप का प्रयास प्रशंसनीय है !
शुभकामनाएँ!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteआपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 30-01-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ
सीख देने वाली रचना|
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति ।
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