Wednesday, 28 March 2012

गुरु तत्व

गुरु तत्व 


आध्यात्मिक भ्रमण के दौरान प्रवचनों का होना स्वाभाविक है ।इस बार भी भ्रमण बहुत अच्छा रहा वक्ता का कार्य बहुत महत्वपूर्ण व ज़िम्मेदारी भरा होता है न सिर्फ श्रोताओं के लिए अपितु अपने लिए भी । कई बार ऐसे शब्द उसके मुख से निकल सकते हैं जो न सिर्फ सुनने वालों के लिए बल्कि स्वयं उसके लिए भी बहुत आध्यात्मिक महत्व रखते हैं । आध्यात्मिक हर वचन जो अनुभव किया होता है वो श्रवण करने पर अलग रस देता है उसका अलग,अनोखा व अमिट प्रभाव होता है । ये आवश्यक नहीं की वक्ता जैसा अथार्त जो बोलना चाहे वो वैसा ही बोल जाए क्यूंकि मंगलाचरण अथवा भजन के दौरान भाव में आते ही प्रभु की माया हट जाती है व सारी बनावट व सांसारिकता निकल जाने पर बुद्धि और शुद्ध हो जाने पर अमायिक वचन निकलते हैं जिन्हें बोलते हुए भी मेरा मानना है वक्ता को चाहिए की इस तरह श्रवण करें की स्वयं भी अनुभव में ला सके । जब गुरु शब्द पर कुछ बोला-सुना जाता तो समां कुछ और हो जाता है आध्यात्मिक वचन रुपी गंगा में विकार भी अविकार बन जाते हैं और प्रत्यक्ष परमात्मा की अनुभूति होती है ।

गुरु तत्व ऐसा विषय है जिस पर महापुरुषों ने बहुत कुछ बोला है । गुरु की महिमा अवर्णीय है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता ।

गुरु गोबिंद दोउ खड़े काके लागूं पाय ।। बलिहारी गुरु आपनो जिन गोबिंद दियो बताय ।।

गुरु मात्र कोई व्यक्ति नहीं है गुरु के रूप में परमात्मा स्वयं हमसे बात करता है स्वयं अपनी ओर चलने की राह दिखाता है ।

ये बात भी सत्य है की सद्गुरु मिलने में कठिनाई है लेकिन क्या हम ये सोचते हैं की हम क्या स्वयं सच्चे शिष्य हैं अथवा क्या सद्गुरु मिलने पर भी सच्चे शिष्य बन जायेंगे । क्या हमारे मन के विकार शांत हो जायेंगे ? क्या हम सद्गुरु और परमेश्वर को अभेद मानेंगे ? क्या हमारे अन्दर की संशय वृत्ति शांत हो जायेगी ।
गुरु शब्द का परिमाण व्यक्ति नहीं है अथार्त गुरु शब्द व्यक्तित्व से परे है ।
मैं तो ये मानता हूँ की यदि जो हमे गुरु न मिल पाए तो हम भगवान् को ही गुरु के रूप में स्वीकार कर लें और जो हम गुरु बना लें तो उसमे भगवान् का ही वास माने । गुरु शब्द भाव में बसता है । यदि हमारा गुरु सही नहीं निकलता तो उसमे सिर्फ एक ही कारण होता है की हम खुद ही ग़लत हैं अथार्त हमने स्वयं में शिष्यता जगाई नहीं,भाव जगाया नहीं ।
मेरा ये दृढ़ता से मानना है की यदि हमारी प्रभु में सच्ची आस्था है श्रद्धा है और हम गुरु भी चाहते हैं तो हमे सच्चा गुरु भी मिलेगा और ये भी पूर्ण सत्य है की ऐसे गुरु के रूप में स्वयं परमात्मा हमारा मार्गदर्शन करता है ।
 गुरुब्र्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरा:।

गुरुर्साक्षात् परब्रह्मï तस्मै: श्री गुरुवे नम:॥


 


गुरु शब्द का अर्थ होता है अपेक्षा रहित । गुरु हमे अन्धकार से उजाले की ओर उन्मुख कराता है ।


व्याख्या 

कबीर दास जी के इस भजन में गुरु के गुण बहुत अच्छे से बताये गए हैं ।



भाई रे सो गुरु सत्य कहावें
कोई नयनन अलख लखावै 

डोलत डिगे न बोलत बिसरे 
अस उपदेस दृदावएं 

जप ताप जोग क्रिया ते न्यारा सहज समाधि सिखावें 

सो गुरु सत्य कहावें 

  
काया-कष्ट भूली नहीं देवें
नहीं संसार छुडावै 

ये मन जाए जहँ जहँ तहाँ तहाँ परमात्मा दरसावै 


सो गुरु सत्य कहावें
 
कर्म करे निष्कर्म रहे कछु ऐसी जुगुति बतावें  
सदा बिलास त्रास नहीं मन में, भोग में जोग जगावे 


भीतर बाहर एक ही देखें दूजा दृष्टी न आवें
कहे कबीर कोई सत गुरु ऐसा आवागमन छुडावै 

सो गुरु सत्य कहावें 



महिमा व गुनगान 


गोस्वामी  तुलसीदास जी का कहना है की गुरु के चरण कमल के धूल रुपी अंजन से विवेक रुपी नेत्र खुल जाते हैं ।



गुरु वंदना (बालकाण्ड)
 बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
भावार्थ:-मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥
चौपाई :
 बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
भावार्थ:-मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥
भावार्थ:-वह रज सुकृति (पुण्यवान्‌ पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है॥2॥
 श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥
भावार्थ:-श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥
 उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥
भावार्थ:-उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं-॥4॥
दोहा :
जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥
भावार्थ:-जैसे सिद्धांजन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक से ही बहुत सी खानें देखते हैं॥1॥
चौपाई :
 गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥
भावार्थ:-श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥1॥