जीवन क्या है, मनुष्य इसे भी नहीं जानता
है। और जीवन को हम न जान सकें, तो मृत्यु को जानने की तो कोई संभावना ही
शेष नहीं रह जाती। जीवन ही अपरिचित और अज्ञात हो, तो मृत्यु परिचित और
ज्ञात नहीं हो सकती सच तो यह है कि चूंकि हमें जीवन का पता नहीं, इसलिए ही
मृत्यु घटित होती प्रतीत होती है। जो जीवन जानते हैं, उनके लिए मृत्यु एक
असंभव शब्द है, जो न कभी घटा, न घटता है, न घट सकता है। जगत में कुछ शब्द
बिलकुल झूठे हैं, उन शब्दों में कुछ भी सत्य नहीं है। उन्हीं शब्दों में
मृत्यु भी एक शब्द है, जो नितांत असत्य है। मृत्यु जैसी घटना कहीं भी नहीं
घटती। लेकिन हम लोग तो रोज मरते देखते हैं, चारों तरफ रोज मृत्यु घटती हुई
मालूम होती है। गांव-गांव में मरघट हैं। और ठीक से हम समझें तो ज्ञात होता
है कि जहां-जहां हम खड़े हैं, वहां-वहां न मालूम कितने मनुष्यों की अर्थी
जल चुकी है। जहां हम निवास बनाए हुए हैं, उस भूमि के सभी स्थल मरघट रह चुके
हैं। करोड़ों-करोड़ों लोग मरे हैं, रोज मर रहे हैं, अगर मैं कहूं कि
मृत्यु जैसा झूठा शब्द नहीं है मनुष्य की भाषा में, तो आश्चर्य होगा।
एक फकीर तिब्बत में मारपा। उस फकीर के पास कोई गया और उसने कहा, अगर जीवन के संबंध में पूछना हो, तो जरूर पूछो, क्योंकि जीवन का मुझे पता है। रही मृत्यु, तो मृत्यु से आज तक कोई मिलना नहीं हुआ, मेरी कोई पहचान नहीं है। मृत्यु के संबंध में पूछना हो, तो उनसे पूछो जो मरे हुए हैं या मर चुके हैं। मैं तो जीवन हूं, मैं जीवन के संबंध में बोल सकता हूं, बता सकता हूं। मृत्यु से मेरा कोई परिचय नहीं।
यह बात वैसी ही है जैसी आपने सुनी होगी कि एक बार अंधकार ने भगवान से जाकर प्रार्थना की थी कि यह सूरज तुम्हारा, मेरे पीछे बहुत बुरी तरह से पड़ा हुआ है। मैं बहुत थक गया हूं। सुबह से मेरा पीछा होता है और सांझ मुश्किल से मुझे छोड़ा जाता है। मेरा कसूर क्या है ? कैसी दुश्मनी है यह ? यह सूरज क्यों मुझे सताने के लिए मेरे पीछे दिन-रात दौड़ता रहता है ? और रात भर में मैं दिनभर की थकान से विश्राम नहीं कर पाता हूं कि फिर सुबह सूरज द्वार पर आकर खड़ा हो जाता है। फिर भागो ! फिर बचो। यह अनंत काल से चल रहा है। अब मेरे धैर्य की सीमा आ गई और मैं प्रार्थना करता हूं, इस सूरज को समझा दें।
सुनते ही भगवान ने सूरज को बुलाया और कहा कि तुम अंधेरे के पीछे क्यों पड़े रहते हो ? क्या बिगाड़ा है अंधेरे ने तुम्हारा ? क्या है शत्रुता ? क्या है शिकायत ? सूरज कहने लगा, अंधेरा ! अनंत काल हो गया मुझे विश्व का परिभ्रमण करते हुए, लेकिन अब तक अंधेरे से मेरी कोई मुलाकात नहीं हुई। अंधेरे को मैं जानता ही नहीं। कहां है अंधेरा ? आप उसे मेरे सामने बुला दें, तो मैं क्षमा भी मांग लूं और आगे के लिए पहचान लूं कि वह कौन है ताकि उसके प्रति कोई भूल न हो सके।
इस बात को हुए भी अनंत काल हो गए। भगवान की फाइल में यह बात वहीं की वहीं पड़ी है। अब तक अंधेरे को सूरज के सामने नहीं बुला सके हैं। नहीं बुला सकेंगे। यह मामला हल नहीं होने का है। सूरज के सामने अंधकार कैसे बुलाया जा सकता है ? अंधकार की कोई सत्ता ही नहीं है, कोई एग्झिस्टेंस नहीं है। अंधकार की कोई पॉजिटिव, कोई विधायक स्थिति नहीं है। अंधकार तो सिर्फ प्रकाश के अभाव का नाम है। वह तो प्रकाश की गैर मौजूदगी है। वह तो एबसेंस है, वह तो अनुपस्थिति है। तो सूरज के सामने ही सूरज की अनुपस्थित को कैसे बुलाया जा सकता है ?
नहीं ! अंधकार को सूरज के सामने नहीं लाया जा सकता है। सूरज तो बहुत बड़ा है, एक छोटे से दीये के सामने भी अंधकार को लाना मुश्किल है। दीये के प्रकाश के घेरे में अंधकार का प्रवेश मुश्किल है। दीये के सामने मुठभेड़ मुश्किल है। प्रकाश है जहां, वहां अंधकार कैसे आ सकता है ! जीवन है जहां, वहां मृत्यु कैसे आ सकती है ! या तो जीवन है ही नहीं, और या फिर मृत्यु नहीं है। दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं।
हम जीवित हैं, लेकिन हमें पता नहीं कि जीवन क्या है। इस अज्ञान के कारण ही हमें ज्ञात होता है कि मृत्यु भी घटती है। मृत्यु एक अज्ञान है। जीवन का अज्ञान ही मृत्यु की घटना बन जाती है। काश ! उस समय जीवन से परिचित हो सकें जो भीतर है, तो उसके परिचय की एक किरण भी सदा-सदा के लिए इस अज्ञान को तोड़ देती है कि मैं मर सकता हूं, या कभी मरा हूं, या कभी मर जाऊंगा। लेकिन उस प्रकाश को हम जानते नहीं है जो हम हैं, और उस अंधकार से हम भयभीत होते हैं जो हम नहीं है। उस प्रकाश से परिचित नहीं हो पाते जो हमारा प्राण है, जो हमारा जीवन है जो हमारी सत्ता है; और उस अंधकार से हम भयभीत होते हैं, जो हम नहीं हैं।
मनुष्य मृत्यु नहीं है, मनुष्य अमृत है। लेकिन हम अमृत की ओर आंख नहीं उठाते है। हम जीवन की तरफ, जीवन की दिशा में कोई खोज ही नहीं करते हैं, एक कदम भी नहीं उठाते हैं। जीवन से रह जाते हैं अपरिचित और इसलिए मृत्यु से भयभीत प्रतीत होते हैं। इसीलिए प्रश्न जीवन और मृत्यु का नहीं है, प्रश्न है सिर्फ जीवन का।
मुझे कहा गया है कि मैं जीवन और मृत्यु के संबंध में बोलूं। यह असंम्भव है बात। प्रश्न तो है सिर्फ जीवन का और मृत्यु जैसी कोई चीज ही नहीं है। जीवन ज्ञात होता है, तो जीवन रह जाता है। और जीवन ज्ञात नहीं होता, तो सिर्फ मृत्यु रह जाती है। जीवन और मृत्यु दोनों एक साथ कभी भी समस्या की तरह खड़े नहीं होते। यह तो हमें पता ही है कि हम जीवन हैं, तो फिर मृत्यु नहीं है। और या हमें पता नहीं है कि हम जीवन हैं, तो फिर मृत्यु ही है, जीवन नहीं है। ये दोनों बातें एक साथ मौजूद नहीं होती हैं, नहीं हो सकती हैं। लेकिन हम सारे लोग मृत्यु से भयभीत हैं। मृत्यु का भय बताता है कि हम जीवन से अपरिचित हैं। मृत्यु के भय का एक ही अर्थ है—जीवन से अपरिचय। और जीवन हमारे भीतर प्रतिपल प्रवाहित हो रहा है—श्वास-श्वास में, कण-कण में, चारों ओर, भीतर-बाहर सब तरफ जीवन है और उससे ही हम अपरिचित हैं। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी किसी गहरी नींद में है। नींद में ही हो सकती है यह संभावना कि जो हम हैं, उससे भी अपरिचित हैं। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी किसी गहरी मूर्च्छा में है। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी के प्राणों की पूरी शक्ति सचेतन नहीं है अचेतन है, अनकांशस है, बेहोश है।
एक आदमी सोया हो तो उसे फिर कुछ भी पता नहीं रह जाता कि मैं कौन हूँ ? कहाँ से हूं ? नींद के अंधकार में सब डूब जाता है और उसे कुछ पता नहीं रह जाता है कि मैं हूं भी या नहीं हूं ? नींद का पता भी उसे तब चलता है, जब वह जागता है। तब उसे पता चलता है कि मैं सोया था, नींद में तो इसका पता ही नहीं चलता कि मैं सोया हूं। जब नहीं सोया था, तब पता चलता था कि मैं सोने जा रहा हूं। जब तक जागा हुआ था, तब तक पता था कि मैं अभी जागा हुआ हूं, सोया हुआ नहीं हूं। जैसे ही सो गया। उसे यह पता नहीं चलता कि मैं सो गया हूं। क्योंकि अगर पता चलता रहे कि मैं सो गया हूं, तो उसका यह अर्थ है कि आदमी जागा हुआ है। सोया हुआ नहीं है। नींद चली जाती है तब पता चलता है कि मैं सोया था। लेकिन नींद में पता नहीं चलता कि मैं हूं भी या नहीं हूं। जरूर मनुष्य को कुछ भी पता नहीं चलता कि मैं हूं या नहीं हूं, या क्या हूं।
इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि कोई बहुत गहरी आध्यात्मिक नींद, कोई स्प्रिचुअल हिप्नोटिक स्लीप, कोई आध्यात्मिक सम्मोहन की तंद्रा मनुष्य को घेरे हुए है। इसीलिए उसे जीवन का पता नहीं चलता कि जीवन क्या है।
नहीं, लेकिन हम इनकार करेंगे। हम कहेंगे, कैसी आप बात करते हैं ? हमें पूरी तरह पता है कि जीवन क्या है। हम जीते हैं, चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, सोते हैं।
एक शराबी भी चलता है, उठता है, बैठता है, श्वास लेता है, आंख खोलता है, बात करता है। एक पागल भी उठता है, बैठता है, सोता है, श्वास लेता है, बात करता है, जीता है। लेकिन न तो शराबी होश में कहा जा सकता है और न पागल सचेतन है, यह कहा जा सकता है।
एक सम्राट की सवारी निकलती थी एक रास्ते पर। एक आदमी चौराहे पर खड़ा होकर पत्थर फेंकने लगा और अपशब्द बोलने लगा और गालियां बकने लगा। सम्राट की बड़ी शोभायात्रा थी उस आदमी को तत्काल सैनिकों ने पकड़ लिया और कारागृह में डाल दिया। लेकिन जब वह गालियां बकता था और अपशब्द बोलता था, तो सम्राट हंस रहा था। उसके सैनिक हैरान हुए, उसके वजीरों ने कहा, आप हंसते क्यों हैं ? उस सम्राट ने कहा, जहां तक मैं समझता हूं, उस आदमी को पता नहीं है कि वह क्या कर रहा है। जहां तक मैं समझता हूं, वह आदमी नशे में है। खैर, कल सुबह उसे मेरे समाने ले आएं। कल सुबह वह आदमी सम्राट के सामने लाकर खड़ा कर दिया गया। सम्राट उससे पूछने लगा, कल तुम मुझे गालियां देते थे, अपशब्द बोलते थे, क्या था कारण उसका ? उस आदमी ने कहा, मैं ! मैं और अपशब्द बोलता था ! नहीं महाराज, मैं नहीं रहा होऊंगा इसलिए अपशब्द बोले गए होंगे। मैं शराब में था, मैं बेहोश था, मुझे कुछ पता नहीं कि मैंने क्या बोला, मैं नहीं था।
हम भी नहीं हैं। नींद में हम चल रहे हैं, बात कर रहे हैं, प्रेम कर रहे है, घृणा कर रहे हैं, युद्ध कर रहे हैं। अगर कोई दूर के तारे से देख मनुष्य जाति को तो वह यह समझेगा कि सारी मनुष्य-जाति इस भांति व्यवहार कर रही है जिस तरह नींद में, बेहोशी में कोई व्यवहार करता हो।
तीन हजार वर्षों में मनुष्य-जाति ने पंद्रह हजार युद्ध किए हैं। यह जागे हुए मनुष्य का लक्षण नहीं है। जन्म से लेकर मृत्यु तक की सारी कथा, चिंता की, दुख की, पीड़ा की कथा है। आनंद का एक क्षण भी उपलब्ध नहीं होता। आनंद का एक कण भी नहीं मिलता है जीवन में। खबर भी नहीं मिलती कि आनंद क्या है। जीवन बीत जाता है और आनंद की झलक भी नहीं मिलती। यह आदमी होश में नहीं कहा जा सकता है। दुख, चिंता, पीड़ा, उदासी और पागलपन—सारे जन्म से लेकर मृत्यु तक की कथा है।
लेकिन शायद हमें पता ही नहीं, क्योंकि हमारे चारों तरफ भी हमारे जैसे सोए हुए लोग हैं। और कभी अगर एकाध जागा हुआ आदमी पैदा हो जाता है, तो हम सोए हुए लोगों को इतना क्रोध आता है उस जागे हुए आदमी पर कि हम बहुत जल्दी ही उस आदमी की हत्या भी कर देते हैं। हम ज्यादा देर उसे बर्दाश्त नहीं करते।
पुस्तक ''मैं मृत्यु सिखाता हूँ '' से
एक फकीर तिब्बत में मारपा। उस फकीर के पास कोई गया और उसने कहा, अगर जीवन के संबंध में पूछना हो, तो जरूर पूछो, क्योंकि जीवन का मुझे पता है। रही मृत्यु, तो मृत्यु से आज तक कोई मिलना नहीं हुआ, मेरी कोई पहचान नहीं है। मृत्यु के संबंध में पूछना हो, तो उनसे पूछो जो मरे हुए हैं या मर चुके हैं। मैं तो जीवन हूं, मैं जीवन के संबंध में बोल सकता हूं, बता सकता हूं। मृत्यु से मेरा कोई परिचय नहीं।
यह बात वैसी ही है जैसी आपने सुनी होगी कि एक बार अंधकार ने भगवान से जाकर प्रार्थना की थी कि यह सूरज तुम्हारा, मेरे पीछे बहुत बुरी तरह से पड़ा हुआ है। मैं बहुत थक गया हूं। सुबह से मेरा पीछा होता है और सांझ मुश्किल से मुझे छोड़ा जाता है। मेरा कसूर क्या है ? कैसी दुश्मनी है यह ? यह सूरज क्यों मुझे सताने के लिए मेरे पीछे दिन-रात दौड़ता रहता है ? और रात भर में मैं दिनभर की थकान से विश्राम नहीं कर पाता हूं कि फिर सुबह सूरज द्वार पर आकर खड़ा हो जाता है। फिर भागो ! फिर बचो। यह अनंत काल से चल रहा है। अब मेरे धैर्य की सीमा आ गई और मैं प्रार्थना करता हूं, इस सूरज को समझा दें।
सुनते ही भगवान ने सूरज को बुलाया और कहा कि तुम अंधेरे के पीछे क्यों पड़े रहते हो ? क्या बिगाड़ा है अंधेरे ने तुम्हारा ? क्या है शत्रुता ? क्या है शिकायत ? सूरज कहने लगा, अंधेरा ! अनंत काल हो गया मुझे विश्व का परिभ्रमण करते हुए, लेकिन अब तक अंधेरे से मेरी कोई मुलाकात नहीं हुई। अंधेरे को मैं जानता ही नहीं। कहां है अंधेरा ? आप उसे मेरे सामने बुला दें, तो मैं क्षमा भी मांग लूं और आगे के लिए पहचान लूं कि वह कौन है ताकि उसके प्रति कोई भूल न हो सके।
इस बात को हुए भी अनंत काल हो गए। भगवान की फाइल में यह बात वहीं की वहीं पड़ी है। अब तक अंधेरे को सूरज के सामने नहीं बुला सके हैं। नहीं बुला सकेंगे। यह मामला हल नहीं होने का है। सूरज के सामने अंधकार कैसे बुलाया जा सकता है ? अंधकार की कोई सत्ता ही नहीं है, कोई एग्झिस्टेंस नहीं है। अंधकार की कोई पॉजिटिव, कोई विधायक स्थिति नहीं है। अंधकार तो सिर्फ प्रकाश के अभाव का नाम है। वह तो प्रकाश की गैर मौजूदगी है। वह तो एबसेंस है, वह तो अनुपस्थिति है। तो सूरज के सामने ही सूरज की अनुपस्थित को कैसे बुलाया जा सकता है ?
नहीं ! अंधकार को सूरज के सामने नहीं लाया जा सकता है। सूरज तो बहुत बड़ा है, एक छोटे से दीये के सामने भी अंधकार को लाना मुश्किल है। दीये के प्रकाश के घेरे में अंधकार का प्रवेश मुश्किल है। दीये के सामने मुठभेड़ मुश्किल है। प्रकाश है जहां, वहां अंधकार कैसे आ सकता है ! जीवन है जहां, वहां मृत्यु कैसे आ सकती है ! या तो जीवन है ही नहीं, और या फिर मृत्यु नहीं है। दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं।
हम जीवित हैं, लेकिन हमें पता नहीं कि जीवन क्या है। इस अज्ञान के कारण ही हमें ज्ञात होता है कि मृत्यु भी घटती है। मृत्यु एक अज्ञान है। जीवन का अज्ञान ही मृत्यु की घटना बन जाती है। काश ! उस समय जीवन से परिचित हो सकें जो भीतर है, तो उसके परिचय की एक किरण भी सदा-सदा के लिए इस अज्ञान को तोड़ देती है कि मैं मर सकता हूं, या कभी मरा हूं, या कभी मर जाऊंगा। लेकिन उस प्रकाश को हम जानते नहीं है जो हम हैं, और उस अंधकार से हम भयभीत होते हैं जो हम नहीं है। उस प्रकाश से परिचित नहीं हो पाते जो हमारा प्राण है, जो हमारा जीवन है जो हमारी सत्ता है; और उस अंधकार से हम भयभीत होते हैं, जो हम नहीं हैं।
मनुष्य मृत्यु नहीं है, मनुष्य अमृत है। लेकिन हम अमृत की ओर आंख नहीं उठाते है। हम जीवन की तरफ, जीवन की दिशा में कोई खोज ही नहीं करते हैं, एक कदम भी नहीं उठाते हैं। जीवन से रह जाते हैं अपरिचित और इसलिए मृत्यु से भयभीत प्रतीत होते हैं। इसीलिए प्रश्न जीवन और मृत्यु का नहीं है, प्रश्न है सिर्फ जीवन का।
मुझे कहा गया है कि मैं जीवन और मृत्यु के संबंध में बोलूं। यह असंम्भव है बात। प्रश्न तो है सिर्फ जीवन का और मृत्यु जैसी कोई चीज ही नहीं है। जीवन ज्ञात होता है, तो जीवन रह जाता है। और जीवन ज्ञात नहीं होता, तो सिर्फ मृत्यु रह जाती है। जीवन और मृत्यु दोनों एक साथ कभी भी समस्या की तरह खड़े नहीं होते। यह तो हमें पता ही है कि हम जीवन हैं, तो फिर मृत्यु नहीं है। और या हमें पता नहीं है कि हम जीवन हैं, तो फिर मृत्यु ही है, जीवन नहीं है। ये दोनों बातें एक साथ मौजूद नहीं होती हैं, नहीं हो सकती हैं। लेकिन हम सारे लोग मृत्यु से भयभीत हैं। मृत्यु का भय बताता है कि हम जीवन से अपरिचित हैं। मृत्यु के भय का एक ही अर्थ है—जीवन से अपरिचय। और जीवन हमारे भीतर प्रतिपल प्रवाहित हो रहा है—श्वास-श्वास में, कण-कण में, चारों ओर, भीतर-बाहर सब तरफ जीवन है और उससे ही हम अपरिचित हैं। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी किसी गहरी नींद में है। नींद में ही हो सकती है यह संभावना कि जो हम हैं, उससे भी अपरिचित हैं। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी किसी गहरी मूर्च्छा में है। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी के प्राणों की पूरी शक्ति सचेतन नहीं है अचेतन है, अनकांशस है, बेहोश है।
एक आदमी सोया हो तो उसे फिर कुछ भी पता नहीं रह जाता कि मैं कौन हूँ ? कहाँ से हूं ? नींद के अंधकार में सब डूब जाता है और उसे कुछ पता नहीं रह जाता है कि मैं हूं भी या नहीं हूं ? नींद का पता भी उसे तब चलता है, जब वह जागता है। तब उसे पता चलता है कि मैं सोया था, नींद में तो इसका पता ही नहीं चलता कि मैं सोया हूं। जब नहीं सोया था, तब पता चलता था कि मैं सोने जा रहा हूं। जब तक जागा हुआ था, तब तक पता था कि मैं अभी जागा हुआ हूं, सोया हुआ नहीं हूं। जैसे ही सो गया। उसे यह पता नहीं चलता कि मैं सो गया हूं। क्योंकि अगर पता चलता रहे कि मैं सो गया हूं, तो उसका यह अर्थ है कि आदमी जागा हुआ है। सोया हुआ नहीं है। नींद चली जाती है तब पता चलता है कि मैं सोया था। लेकिन नींद में पता नहीं चलता कि मैं हूं भी या नहीं हूं। जरूर मनुष्य को कुछ भी पता नहीं चलता कि मैं हूं या नहीं हूं, या क्या हूं।
इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि कोई बहुत गहरी आध्यात्मिक नींद, कोई स्प्रिचुअल हिप्नोटिक स्लीप, कोई आध्यात्मिक सम्मोहन की तंद्रा मनुष्य को घेरे हुए है। इसीलिए उसे जीवन का पता नहीं चलता कि जीवन क्या है।
नहीं, लेकिन हम इनकार करेंगे। हम कहेंगे, कैसी आप बात करते हैं ? हमें पूरी तरह पता है कि जीवन क्या है। हम जीते हैं, चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, सोते हैं।
एक शराबी भी चलता है, उठता है, बैठता है, श्वास लेता है, आंख खोलता है, बात करता है। एक पागल भी उठता है, बैठता है, सोता है, श्वास लेता है, बात करता है, जीता है। लेकिन न तो शराबी होश में कहा जा सकता है और न पागल सचेतन है, यह कहा जा सकता है।
एक सम्राट की सवारी निकलती थी एक रास्ते पर। एक आदमी चौराहे पर खड़ा होकर पत्थर फेंकने लगा और अपशब्द बोलने लगा और गालियां बकने लगा। सम्राट की बड़ी शोभायात्रा थी उस आदमी को तत्काल सैनिकों ने पकड़ लिया और कारागृह में डाल दिया। लेकिन जब वह गालियां बकता था और अपशब्द बोलता था, तो सम्राट हंस रहा था। उसके सैनिक हैरान हुए, उसके वजीरों ने कहा, आप हंसते क्यों हैं ? उस सम्राट ने कहा, जहां तक मैं समझता हूं, उस आदमी को पता नहीं है कि वह क्या कर रहा है। जहां तक मैं समझता हूं, वह आदमी नशे में है। खैर, कल सुबह उसे मेरे समाने ले आएं। कल सुबह वह आदमी सम्राट के सामने लाकर खड़ा कर दिया गया। सम्राट उससे पूछने लगा, कल तुम मुझे गालियां देते थे, अपशब्द बोलते थे, क्या था कारण उसका ? उस आदमी ने कहा, मैं ! मैं और अपशब्द बोलता था ! नहीं महाराज, मैं नहीं रहा होऊंगा इसलिए अपशब्द बोले गए होंगे। मैं शराब में था, मैं बेहोश था, मुझे कुछ पता नहीं कि मैंने क्या बोला, मैं नहीं था।
हम भी नहीं हैं। नींद में हम चल रहे हैं, बात कर रहे हैं, प्रेम कर रहे है, घृणा कर रहे हैं, युद्ध कर रहे हैं। अगर कोई दूर के तारे से देख मनुष्य जाति को तो वह यह समझेगा कि सारी मनुष्य-जाति इस भांति व्यवहार कर रही है जिस तरह नींद में, बेहोशी में कोई व्यवहार करता हो।
तीन हजार वर्षों में मनुष्य-जाति ने पंद्रह हजार युद्ध किए हैं। यह जागे हुए मनुष्य का लक्षण नहीं है। जन्म से लेकर मृत्यु तक की सारी कथा, चिंता की, दुख की, पीड़ा की कथा है। आनंद का एक क्षण भी उपलब्ध नहीं होता। आनंद का एक कण भी नहीं मिलता है जीवन में। खबर भी नहीं मिलती कि आनंद क्या है। जीवन बीत जाता है और आनंद की झलक भी नहीं मिलती। यह आदमी होश में नहीं कहा जा सकता है। दुख, चिंता, पीड़ा, उदासी और पागलपन—सारे जन्म से लेकर मृत्यु तक की कथा है।
लेकिन शायद हमें पता ही नहीं, क्योंकि हमारे चारों तरफ भी हमारे जैसे सोए हुए लोग हैं। और कभी अगर एकाध जागा हुआ आदमी पैदा हो जाता है, तो हम सोए हुए लोगों को इतना क्रोध आता है उस जागे हुए आदमी पर कि हम बहुत जल्दी ही उस आदमी की हत्या भी कर देते हैं। हम ज्यादा देर उसे बर्दाश्त नहीं करते।
पुस्तक ''मैं मृत्यु सिखाता हूँ '' से
थोडा रुको और विचार करो।
तुम मार्ग पाना चाहते हो, या तुम्हारे मन में ऊंची स्थिति प्राप्त करने, ऊंचे चढ़ने और एक विशाल भविष्य निर्माण करने के स्वप्न हैं, सावधान !
मार्ग के लिए ही मार्ग को प्राप्त करना है—तुम्हारे ही चरण उस पर चलेंगे, इसलिए नहीं।
अपने भीतर लौटकर मार्ग की शोध करो।
बाह्य जीवन में हिम्मत से आगे बढ़कर मार्ग की शोध करो।
जो मनुष्य साधना-पथ में प्रविष्ठ होना चाहता है,
उसको अपने समस्त स्वभाव को बुद्धिमत्ता के साथ उपयोग में लाना चाहिए।
प्रत्येक मनुष्य पूर्णरूपेण स्वयं अपना मार्ग, अपना सत्य, और अपना जीवन है।
और इस प्रकार उस मार्ग को ढूंढ़ो। उस मार्ग को जीवन और अस्तित्व के नियमों, प्रकृति के नियमों एवं पराप्राकृतिक नियमों के अध्ययन के द्वारा ढूंढ़े।
ज्यों-ज्यों तुम उसकी उपासना और उसका निरीक्षण करते जाओगे,
उसका प्रकाश स्थिर गति से बढ़ता जाएगा।
तब तुम्हें पता चलेगा कि तुमने मार्ग का प्रारंभिक छोर पा लिया है। और जब मार्ग का अंतिम छोर पा लोगे,
तो उसका प्रकाश एकाएक अनंत प्रकाश का रूप धारण कर लेगा।
उस भीतर के दृश्य से न भयभीत होओ और न आश्चर्य करो। उस धीमें प्रकाश पर अपनी दृष्टि रखो। तब वह प्रकाश धीरे-धीरे बढ़ेगा
लेकिन अपने भीतर के अंधकार से सहायता लो और समझो कि जिन्होंने प्रकाश देखा ही नहीं है,
वे कितने असहाय हैं और उनकी आत्मा कितने गहन अंधकार में है !
तेरहवां सूत्र ‘मार्ग की शोध करो। थोड़ा रुको और विचार करो। तुम मार्ग पाना चाहते हो, या तुम्हारे मन में ऊंची स्थिति प्राप्त करने, ऊंचे चढ़ने और एक विशाल भविष्य निर्माण करने के स्वप्न हैं। सावधान ! मार्ग के लिए ही मार्ग को प्राप्त करना है—तुम्हारे ही चरण उस पर चलेंगे, इसलिए नहीं।’
इस सूत्र में बहुत सी बातें समझने जैसी हैं। पहली बात, मार्ग मिला हुआ नहीं है। उसकी खोज करनी है। यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति इस भ्रांति में है कि मार्ग मिला हुआ है। और सारी दुनिया में धर्म को नष्ट करने में अगर किसी बात ने सबसे ज्यादा सहायता पहुंचाई है, तो वह इस भ्रांति में है कि वह मार्ग मिला हुआ है।
जन्म के साथ मार्ग नहीं मिलता, लेकिन सभी धर्मों ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि जन्म के साथ वे धर्म भी आपको दे देते हैं ! माँ के दूध के साथ धर्म भी दे दिया जाता है ! बच्चा जब होता है अबोध, और कुछ न चिंता होती है, न कोई मनन होता है, न कोई समझ होती है, तभी गहरे अचेतन में हम मार्ग को डाल देते हैं ! मां-बाप अपने मार्ग को डाल देते हैं ! उनका भी वह मार्ग नहीं है ! वह भी उनके मां-बाप ने उनमें डाल दिया है। तो आप हिंदू की तरह पैदा होते हैं, मुसलमान की तरह, जैन की तरह, ईसाई की तरह। आप जन्म के साथ किसी मार्ग से जुड़ जाते हैं, जोड़ दिए जाते हैं।
कोई व्यक्ति न हिंदू पैदा होता है, न मुसलमान। न हो सकता है। हिंदू घर में पैदा हो सकता है, लेकिन हिंदू कोई भी पैदा नहीं हो सकता। मुसलमान घर में पैदा हो सकता है, लेकिन मुसलमान पैदा नहीं हो सकता। आदमी पैदा हो सकता है, जब उसके पास कोई धर्म, कोई मार्ग नहीं होता है। मार्ग-मां-बाप, परिवार, समाज, जाति, बच्चे के ऊपर थोप देते हैं। और वे थोपने में जल्दी करते हैं, क्योंकि अगर बच्चे होश में आ जाए, तो वह थोपने में बाधा डालेगा। इसलिए बेहोशी में थोपा जाता है।
सभी धर्म बच्चों की गर्दन पकड़ने में बड़ी जल्दी करते हैं। जरा सी देर—और भूल हो जाएगी। और एक बार बच्चा अगर अचेतन की अवस्था से चेतन में आ गया, होश सम्हाल लिया, तो फिर आप धर्म को थोप ही न पाएंगे। फिर तो बच्चा अपनी ही खोज करेगा। और हो सकता है कि हिंदू के घर को लगे कि ईसाई मार्ग उसके लिए है। और ईसाई घर के बच्चे को लगे कि हिन्दू मार्ग उसके लिए है। बड़ी अस्तव्यस्तता हो जाएगी। वैसी अस्तव्यस्तता न हो जाए, मेरा बेटा मेरे धर्म को छोड़ कर न चला जाए, तो अचेतन में हम अपराध करते हैं, हम बच्चे की गर्दन को जकड़ देते हैं संस्कारों से। मनुष्य ने अब तक जो बड़े से बड़े पाप किए हैं, उनमें से यह सबसे बड़ा पाप है।
इसे मैं क्यों सबसे बड़ा पाप कहता हूँ ? क्योंकि इसका यह अर्थ हुआ कि हमने बच्चे को एक झूठा धर्म दे दिया है, जो उसका चुनाव नहीं है। और धर्म कुछ ऐसी बात है कि जब तक आप न चुनें, तब तक सार्थक नहीं होगा। जब आप ही चुनते हैं, अपने प्राणों की खोज से, पीड़ा से, प्यास से, तो आप ही धार्मिक होते हैं। यह दूसरों का दिया हुआ धर्म ऊपर-ऊपर रह जाता है। और इसके कारण आपकी अपनी खोज में बाधा पड़ती है।
इसलिए देखें, जब बुद्ध जीवित होते हैं, या महावीर होते हैं, या मोहम्मद जीवित होते हैं, या ईसा—तो उस सम जो धर्म का प्रकाश होता है और जो लोग उनके पास आते हैं, उनके जीवन में जैसी क्रांति घटित होती है, फिर बाद में वह गति मद्धिम होती चली जाती है। क्योंकि बुद्ध के पास जो लोग आकर दीक्षित होते हैं, वह उनका खुद का चुनाव है कि वे बौद्ध हो रहे हैं। सोच-विचार से, अनुभव से, साधना से, उन्हें लगा है कि बुद्ध का मार्ग ठीक है, तो वे बुद्ध के पीछे आ रहे हैं। यह उनका निजी चुनाव है, यह उनका अपना समर्पण है। यह प्रतिबद्दता किसी और ने नहीं दी है, उन्होंने खुद ली है। तब मजा और ही है। तब वे अपने पूरे जीवन को दांव पर लगा देते हैं। क्योंकि जो उन्हें ठीक लगता है, उस पर जीवन दांव पर लगाया जा सकता है। लेकिन उनके बच्चे पैदायशी बौद्ध होंगे। उनका चुनाव नहीं होगा। उन्होंने खुद निर्णय न लिया होगा। उन्होंने सोचा भी न होगा। बौद्ध धर्म उनकी छाती पर बिठा दिया जाएगा।
ध्यान रहे, जो आप अपनी मर्जी से चुनते हैं, अगर नर्क भी चुनें अपनी मर्जी से तो वह स्वर्ग होगा। और अगर स्वर्ग भी जबरदस्ती आपके ऊपर रख दिया जाए तो वह नर्क हो जाएगा। जबर्दस्ती में नर्क है। अगर ऊपर से कोई चीज थोप दी जाए, तो वह आनंद भी अगर हो, तो भी दुख हो जाएगा। थोपने में दुख हो जाता है। और जो चीज थोपी जाती है, वह कारागृह बन जाती है।
तो न तो आज जमीन पर हिंदू है, न मुसलमान, न बौद्ध। आज कैदी हैं। कोई हिंदू कैदखाने में है, कोई मुसलमान कैदखाने में है, कोई जैन कैदखाने में है। कैदखाना इसलिए कहता हूं कि आपने कभी सोचा ही नहीं कि आपको जैन होना है, कि हिंदू होना है, कि मुसलमान होना है। आपने चुना नहीं है। यह आपकी गुलामी है। लेकिन गुलामी इतनी सूक्ष्म है कि कि आपको पता नहीं चलता, क्योंकि आपके होश में नहीं डाली गई है। जब आप बेहोश थे, तब यह गुलामी, यह जंजीर आपके हाथ में पहना दी गई। जब आपको होश आया तो आपने जंजीर अपने हाथ में ही पाई। और इसे जंजीर भी नहीं कहा जाता है। इसे आपके मां-बाप ने, परिवार ने, समाज ने समझाया है कि आभूषण है ! आप इसको सम्हालते हैं, कोई तोड़ न दे। यह आभूषण है और बड़ा कीमती है, आप इसके लिए जान लगा देंगे।
एक बड़े मजे की घटना घटती है। अगर हिंदू धर्म पर खतरा हो तो आप अपनी जान लगा सकते हैं। आप हिंदू धर्म, मुसलमान या ईसाई, किसी भी धर्म के लिए मर सकते हैं, लेकिन जी नहीं सकते। अगर आपसे कहा जाए कि जीवन हिंदू की तरह जीओ, जीने को राजी नहीं हैं। लेकिन अगर झगड़ा-फसाद हो तो आप मरने के लिए राजी हैं ! वह आदमी हिंदू धर्म के लिए मरने को राजी है, जो हिंदू धर्म के लिए जीने के लिए कभी राजी नहीं था ! क्या मामला है ?
कहीं कोई रोग हैं, कहीं कोई बीमारी है। जीने के लिए हमारी कोई उत्सुक्ता नहीं है। मार-काट के लिए हम उत्सुक हो जाते हैं। क्योंकि जैसे ही कोई हमारे धर्म पर हमला करता है, हमें होश ही नहीं रह जाता। वह हमारा बेहोश हिस्सा है, जिस पर हमला किया जा रहा है।
इसलिए जब भी हिंदू-मुसलमान लड़ते हैं, तो आप यह मत समझना कि वे होश में लड़ रहे हैं। वे तो बेहोशी में लड़ रहे है। बेहोशी में वे हिंदू-मुसलमान हैं, होश में नहीं है। इसलिए कोई भी उनके अचेतन मन को चोट कर दे, तो बस पागल हो जाएंगे। न हिंदू लड़ते हैं, न मुसलमान लड़ते हैं—पागल लड़ते हैं। कोई हिंदू मार्का पागल है। कोई मुसलमान मार्का पागल है। या मार्कों का फर्क हैं, लेकिन पागल है।
और आपके भीतर धर्म उस समय डाला जाता है, जब तर्क की कोई क्षमता नहीं होती।
इसलिए मैं कहता हूं कि यह सबसे बड़ा पाप है। और जब तक यह पाप बंद नहीं होता, जब तक हम प्रत्येक व्यक्ति को अपने मार्ग की खोज की स्वतंत्रता नहीं देते, तब तक दुनिया धार्मिक नहीं हो सकेगी। क्योंकि धार्मिक होने के लिए स्वयं का निर्णय चाहिए।
पुस्तक ''साधना सूत्र आत्मा का कमल'' से
जीवन के गणित के बहुत अदभुत सूत्र हैं।
पहली अत्यंत रहस्य की बात तो यह है कि जो निकट है वह दिखाई नहीं पड़ता, जो
और भी निकट है, उसका पता भी नहीं चलता। और मैं जो स्वयं हूं उसका तो स्मरण
भी नहीं आता। जो दूर है वह दिखाई पड़ता है। जो और दूर है और साफ दिखाई
पड़ता है। जो बहुत दूर है वह निमंत्रण भी देता है, बुलाता भी है, पुकारता
भी है।
सूरज बुला रहा, चांद बुला रहा है आदमी को, तारे बुला रहें । जगत की सीमाएं बुला रही हैं, एवरेस्ट की चोटियां बुलाती हैं, प्रशांत महासागर की गहराइयां बुलाती हैं। लेकिन आदमी के भीतर जो है वहां की कोई पुकार सुनाई नहीं पड़ती।
मैंने सुना है, सागर की मछलियां एक-दूसरे से पूछती हैं, सागर कहां है ? सागर में ही वे पैदा होती हैं, सागर में ही जीती हैं और सागर में ही मिट जाती हैं। लेकिन वे मछलियां पूछती हैं कि सागर कहां है ? वे आपस में विवाद भी करती हैं कि सागर कहां है ? मछलियों में ऐसी कथाएं भी हैं कि उनके किन्हीं पुरखों ने कभी सागर को देखा था। मछलियों में ऐसे महात्मा हो चुके हैं जिनकी स्मृतियां रह गई हैं, जिन्होंने सागर का अनुभव किया था। और बाकी मछलियां सागर में ही जीती हैं, सागर में ही रहती हैं, सागर में ही मरती हैं। और उन पुरखों की याद करती हैं जिन्होंने सागर का दर्शन किया था।
मैंने सुना है, सूरज की किरणें आपस में पूछती हैं दूसरी किरणों से—सच में प्रकाश को देखा है ? सुनते ही कहीं प्रकाश है और सुनते हैं कहीं सूरज है ! लेकिन कहां है ? कुछ पता नहीं। और किरणों में भी कथाएं हैं उनके पुरखों की, जिन्होंने सूरज को देखा था, और प्रकाश को अनुभव किया था। धन्य थे वे लोग, धन्य थीं वे किरणें, जिन्होंने प्रकाश को अनुभव किया और अभागी हैं वे किरणें जो विचार कर रही हैं, और दुखी हैं, और पीड़ित हैं, और परेशान हैं।
मछलियों की बात समझ में आ जाती है कि बड़ी पागल हैं। और किरणों की बात भी समझ में आ जाती है कि बड़ी पागल हैं, लेकिन आदमी की बात आदमी को समझ में नहीं आती कि हम भी बड़े पागल हैं। ईश्वर में ही उठना है, उसमें ही विलीन हो जाना है। और हम खोजते हैं और पूछते हैं ईश्वर कहां है ? और हम उन पुरखों को याद करते हैं जिन्होंने ईश्वर का दर्शन किया। और हम उन लोगों की मूर्तियां बना कर मंदिरों में स्थापित किए हैं जिन्होंने ईश्वर को जाना। फिर मछलियों पर हंसना ठीक नहीं है। फिर मछलियों पर व्यंग्य करना ठीक नहीं है। फिर मछलियां भी ठीक ही पूछती हैं कि सागर कहां है ?
स्वाभाविक ही है, मछलियों को सागर का पता न चलता हो। क्योंकि जिससे हम कभी बिछुड़ते ही नहीं उसका पता ही नहीं चलता। अगर कोई आदमी जन्म से ही स्वस्थ हो मरने तक तो उसे स्वास्थ्य का कभी भी पता नहीं चलेगा। स्वास्थ्य का पता चलने के लिए बड़ी दुर्भाग्य की बात है कि बीमार होना जरूरी है। स्वास्थ्य से टूटें, अलग हो जाएं, तो ही स्वास्थ्य का पता चलता है।
और मैंने तो सुना है, और भगवान न करे कि वह बात आपके संबंध में भी सच हो। मैंने सुना है कि बहुत से लोग जब मरते हैं तभी उनको पता चलता है कि वे जीते थे। क्योंकि जब तक मरें नहीं तब तक जीवन का कैसे पता चल सकता है। जीवन के गणित का पहला रहस्यपूर्ण सूत्र यह है कि यहां जो सबसे ज्यादा निकट है वह दिखाई नहीं पड़ता। यहां जो उपलब्ध ही है उसका पता ही नहीं चलता। जो दूर है उसकी खोज चलती है। जो नहीं मिला है उसके लिए हम तड़फते और भागते हैं। और जो मिला ही हुआ है उसे भूल जाते हैं क्योंकि उसे याद करने का मौका ही नहीं आता है।
परमात्मा का अर्थ, प्रभु का अर्थ है वह जिससे हम आते हैं और जिसमें हम चले जाते हैं। कोई नास्तिक भी ऐसे प्रभु को इनकार नहीं कर सकता, क्योंकि निश्चित ही हम कहीं से आते हैं और कहीं चले जाते हैं। सागर पर लहर उठती है, और फिर वापस सागर में खो जाती है। तो लहर जहां से आती है और जहां खो जाती है वह भी तो होगा ही; और जब लहर नहीं थी तब भी था और जब लहर थी तब भी था और जब लहर नहीं रह जाएगी तब भी होगा। तभी तो लहर उससे उठ सकती है और उसी में खो सकती है। नास्तिक भी यही कह सकते हैं कि जहां से हम आते हैं वहीं हम खो जाते हैं। और कहीं खोएंगे भी कैसे। लहर सागर से उठेगी तो सागर में ही तो विलीन होगी। और तूफान और आंधियां हवाओं में उठेंगी तो हवाओं में ही तो बिखर जाएंगी। और वृक्ष मिट्टी से पैदा होंगे,फूल खिलेंगे तो फिर बिखरेंगे कहां ? खोएंगे कहां ? वापस मिट्टी में गिरेंगे और सो जाएंगे।
जीवन का दूसरा सूत्र आपको कहना चाहता हूं–जीवन के गणित का–वह यह है कि जहां से हम आते हैं, वहीं हम वापस लौट जाते हैं। उसके क्या नाम दें, जहां से हम आते हैं और जहां हम वापस लौटे जाते हैं ? कोई नाम काम चलाने के लिए दे देना जरूरी है। उसी को प्रभु कहूंगा, जहां से हम आते हैं और जहां हम लौट जाते हैं। इसलिए मेरे प्रभु से किसी का भी झगड़ा नहीं हो सकता इस जमीन पर। न कभी हुआ है, न हो सकता है। क्योंकि प्रभु से मैं इतना ही मतलब ले रहा हूं–दि ओरिजिनल सोर्स, वह जो मूल आधार है। कहीं से तो हम आते ही होंगे। यह सवाल नहीं है कि कहां से ? कहीं से हम आते ही होंगे और कहीं हम खो जाते होंगे। और जहां से आना होता है, वहीं खोना होता है। क्योंकि जिससे हम उठते हैं, उसी में बिखर सकते हैं। हम और कहीं बिखर नहीं सकते। असल में जीवन जिससे हमने पाया है उसी को लौटा देना पड़ता है।
प्रभु मैं उसको कहूंगा, इन आने वाले दिनों में उसकी व्याख्या कर लेनी ठीक है, अन्यथा पता नहीं आप प्रभु से क्या सोचें। उसकी व्याख्या कर लेनी ठीक है। प्रभु मैं उसको कहूंगा, वह जो मूल आधार है, मूल-स्रोत है। जहां से सब निकलता है और जहां सब खो जाता है। ऐसा प्रभु का कोई व्यक्तित्व नहीं हो सकता, कोई आकृति, कोई रूप, कोई आकार नहीं हो सकता। क्योंकि जिससे सब आकार निकलते हों उसका खुद का आकार नहीं हो सकता है। अगर उसका भी अपना आकार हो तो उससे फिर दूसरे आकार न निकल सकेंगे।
आदमी से आदमी पैदा होता है, क्योंकि आदमी का एक आकार है। और आम के बीज से आम पैदा होता है, क्योंकि आम की बीज एक आकार है। पक्षियों से पक्षी पैदा होते हैं। सब चीजें अपने आकार से पैदा होती हैं। लेकिन ईश्वर से सब पैदा होता है इसलिए ईश्वर का कोई आकार नहीं हो सकता। वह आदमी के आकार का नहीं हो सकता है।
यह आदमी की ज्यादती है, अन्याय है कि अपने आकार में उसने भगवान की मूर्तियां बना रखी हैं। यह आदमी का अहंकार है कि उसने भगवान को भी अपनी शक्ल में बनाकर रख दिया है। यह आदमी का दंभ है कि वह सोचता है भगवान भी होगा तो उसे आदमी जैसा ही होना चाहिए। फिर आदमी भी बहुत तरह के हैं, इसलिए बहुत तरह के भगवान हैं। चीनियों के भगवान के गाल की हड्डी निकली हुई होगी, नाक चपटी होगी। चीनी सोच ही नहीं सकते, भगवान की नाक और चपटी न हो। और नीग्रो के भगवान के ओंठ बड़े चौड़े होंगे और बाल घुंघराले होंगे और शक्ल काली होगी। नीग्रो सोच ही नहीं सकता कि गोरा भी भगवान हो सकता है। गोरा और भगवान ? गोरा शैतान हो सकता है। गोरा भगवान कैसे हो सकता है ?
बहुत तरह के लोग हैं इसलिए बहुत तरह की शक्लों में भगवान का निर्माण कर लिया है।
पुस्तक ''जीवन ही है प्रभु'' से
सूरज बुला रहा, चांद बुला रहा है आदमी को, तारे बुला रहें । जगत की सीमाएं बुला रही हैं, एवरेस्ट की चोटियां बुलाती हैं, प्रशांत महासागर की गहराइयां बुलाती हैं। लेकिन आदमी के भीतर जो है वहां की कोई पुकार सुनाई नहीं पड़ती।
मैंने सुना है, सागर की मछलियां एक-दूसरे से पूछती हैं, सागर कहां है ? सागर में ही वे पैदा होती हैं, सागर में ही जीती हैं और सागर में ही मिट जाती हैं। लेकिन वे मछलियां पूछती हैं कि सागर कहां है ? वे आपस में विवाद भी करती हैं कि सागर कहां है ? मछलियों में ऐसी कथाएं भी हैं कि उनके किन्हीं पुरखों ने कभी सागर को देखा था। मछलियों में ऐसे महात्मा हो चुके हैं जिनकी स्मृतियां रह गई हैं, जिन्होंने सागर का अनुभव किया था। और बाकी मछलियां सागर में ही जीती हैं, सागर में ही रहती हैं, सागर में ही मरती हैं। और उन पुरखों की याद करती हैं जिन्होंने सागर का दर्शन किया था।
मैंने सुना है, सूरज की किरणें आपस में पूछती हैं दूसरी किरणों से—सच में प्रकाश को देखा है ? सुनते ही कहीं प्रकाश है और सुनते हैं कहीं सूरज है ! लेकिन कहां है ? कुछ पता नहीं। और किरणों में भी कथाएं हैं उनके पुरखों की, जिन्होंने सूरज को देखा था, और प्रकाश को अनुभव किया था। धन्य थे वे लोग, धन्य थीं वे किरणें, जिन्होंने प्रकाश को अनुभव किया और अभागी हैं वे किरणें जो विचार कर रही हैं, और दुखी हैं, और पीड़ित हैं, और परेशान हैं।
मछलियों की बात समझ में आ जाती है कि बड़ी पागल हैं। और किरणों की बात भी समझ में आ जाती है कि बड़ी पागल हैं, लेकिन आदमी की बात आदमी को समझ में नहीं आती कि हम भी बड़े पागल हैं। ईश्वर में ही उठना है, उसमें ही विलीन हो जाना है। और हम खोजते हैं और पूछते हैं ईश्वर कहां है ? और हम उन पुरखों को याद करते हैं जिन्होंने ईश्वर का दर्शन किया। और हम उन लोगों की मूर्तियां बना कर मंदिरों में स्थापित किए हैं जिन्होंने ईश्वर को जाना। फिर मछलियों पर हंसना ठीक नहीं है। फिर मछलियों पर व्यंग्य करना ठीक नहीं है। फिर मछलियां भी ठीक ही पूछती हैं कि सागर कहां है ?
स्वाभाविक ही है, मछलियों को सागर का पता न चलता हो। क्योंकि जिससे हम कभी बिछुड़ते ही नहीं उसका पता ही नहीं चलता। अगर कोई आदमी जन्म से ही स्वस्थ हो मरने तक तो उसे स्वास्थ्य का कभी भी पता नहीं चलेगा। स्वास्थ्य का पता चलने के लिए बड़ी दुर्भाग्य की बात है कि बीमार होना जरूरी है। स्वास्थ्य से टूटें, अलग हो जाएं, तो ही स्वास्थ्य का पता चलता है।
और मैंने तो सुना है, और भगवान न करे कि वह बात आपके संबंध में भी सच हो। मैंने सुना है कि बहुत से लोग जब मरते हैं तभी उनको पता चलता है कि वे जीते थे। क्योंकि जब तक मरें नहीं तब तक जीवन का कैसे पता चल सकता है। जीवन के गणित का पहला रहस्यपूर्ण सूत्र यह है कि यहां जो सबसे ज्यादा निकट है वह दिखाई नहीं पड़ता। यहां जो उपलब्ध ही है उसका पता ही नहीं चलता। जो दूर है उसकी खोज चलती है। जो नहीं मिला है उसके लिए हम तड़फते और भागते हैं। और जो मिला ही हुआ है उसे भूल जाते हैं क्योंकि उसे याद करने का मौका ही नहीं आता है।
परमात्मा का अर्थ, प्रभु का अर्थ है वह जिससे हम आते हैं और जिसमें हम चले जाते हैं। कोई नास्तिक भी ऐसे प्रभु को इनकार नहीं कर सकता, क्योंकि निश्चित ही हम कहीं से आते हैं और कहीं चले जाते हैं। सागर पर लहर उठती है, और फिर वापस सागर में खो जाती है। तो लहर जहां से आती है और जहां खो जाती है वह भी तो होगा ही; और जब लहर नहीं थी तब भी था और जब लहर थी तब भी था और जब लहर नहीं रह जाएगी तब भी होगा। तभी तो लहर उससे उठ सकती है और उसी में खो सकती है। नास्तिक भी यही कह सकते हैं कि जहां से हम आते हैं वहीं हम खो जाते हैं। और कहीं खोएंगे भी कैसे। लहर सागर से उठेगी तो सागर में ही तो विलीन होगी। और तूफान और आंधियां हवाओं में उठेंगी तो हवाओं में ही तो बिखर जाएंगी। और वृक्ष मिट्टी से पैदा होंगे,फूल खिलेंगे तो फिर बिखरेंगे कहां ? खोएंगे कहां ? वापस मिट्टी में गिरेंगे और सो जाएंगे।
जीवन का दूसरा सूत्र आपको कहना चाहता हूं–जीवन के गणित का–वह यह है कि जहां से हम आते हैं, वहीं हम वापस लौट जाते हैं। उसके क्या नाम दें, जहां से हम आते हैं और जहां हम वापस लौटे जाते हैं ? कोई नाम काम चलाने के लिए दे देना जरूरी है। उसी को प्रभु कहूंगा, जहां से हम आते हैं और जहां हम लौट जाते हैं। इसलिए मेरे प्रभु से किसी का भी झगड़ा नहीं हो सकता इस जमीन पर। न कभी हुआ है, न हो सकता है। क्योंकि प्रभु से मैं इतना ही मतलब ले रहा हूं–दि ओरिजिनल सोर्स, वह जो मूल आधार है। कहीं से तो हम आते ही होंगे। यह सवाल नहीं है कि कहां से ? कहीं से हम आते ही होंगे और कहीं हम खो जाते होंगे। और जहां से आना होता है, वहीं खोना होता है। क्योंकि जिससे हम उठते हैं, उसी में बिखर सकते हैं। हम और कहीं बिखर नहीं सकते। असल में जीवन जिससे हमने पाया है उसी को लौटा देना पड़ता है।
प्रभु मैं उसको कहूंगा, इन आने वाले दिनों में उसकी व्याख्या कर लेनी ठीक है, अन्यथा पता नहीं आप प्रभु से क्या सोचें। उसकी व्याख्या कर लेनी ठीक है। प्रभु मैं उसको कहूंगा, वह जो मूल आधार है, मूल-स्रोत है। जहां से सब निकलता है और जहां सब खो जाता है। ऐसा प्रभु का कोई व्यक्तित्व नहीं हो सकता, कोई आकृति, कोई रूप, कोई आकार नहीं हो सकता। क्योंकि जिससे सब आकार निकलते हों उसका खुद का आकार नहीं हो सकता है। अगर उसका भी अपना आकार हो तो उससे फिर दूसरे आकार न निकल सकेंगे।
आदमी से आदमी पैदा होता है, क्योंकि आदमी का एक आकार है। और आम के बीज से आम पैदा होता है, क्योंकि आम की बीज एक आकार है। पक्षियों से पक्षी पैदा होते हैं। सब चीजें अपने आकार से पैदा होती हैं। लेकिन ईश्वर से सब पैदा होता है इसलिए ईश्वर का कोई आकार नहीं हो सकता। वह आदमी के आकार का नहीं हो सकता है।
यह आदमी की ज्यादती है, अन्याय है कि अपने आकार में उसने भगवान की मूर्तियां बना रखी हैं। यह आदमी का अहंकार है कि उसने भगवान को भी अपनी शक्ल में बनाकर रख दिया है। यह आदमी का दंभ है कि वह सोचता है भगवान भी होगा तो उसे आदमी जैसा ही होना चाहिए। फिर आदमी भी बहुत तरह के हैं, इसलिए बहुत तरह के भगवान हैं। चीनियों के भगवान के गाल की हड्डी निकली हुई होगी, नाक चपटी होगी। चीनी सोच ही नहीं सकते, भगवान की नाक और चपटी न हो। और नीग्रो के भगवान के ओंठ बड़े चौड़े होंगे और बाल घुंघराले होंगे और शक्ल काली होगी। नीग्रो सोच ही नहीं सकता कि गोरा भी भगवान हो सकता है। गोरा और भगवान ? गोरा शैतान हो सकता है। गोरा भगवान कैसे हो सकता है ?
बहुत तरह के लोग हैं इसलिए बहुत तरह की शक्लों में भगवान का निर्माण कर लिया है।
पुस्तक ''जीवन ही है प्रभु'' से
कहा है कबीर ने कि कभी हाथ से काग़ज़ और स्याही छुई नहीं-‘मसी कागद छुओ न हाथ।’
ऐसा अपढ़ आदमी, जिसे दस्तख़त करने भी नहीं आते, इसने परमात्मा के परम ज्ञान को पा लिया-बड़ा भरोसा बढ़ता है। तब इस दुनिया में अगर तुम वंचित हो तो अपने ही कारण वंचित हो, परिस्थिति को दोष मत देना। जब भी परिस्थितियों को दोष देने का मन में भाव उठे, कबीर का ध्यान करना। कम-से-कम मां-बाप का तो तुम्हें पता है, घर-द्वार तो है, सड़क पर तो पैदा नहीं हुए। हस्ताक्षर तो कर ही लेते हो। थोड़ी-बहुत शिक्षा हुई, हिसाब-हिसाब कर लेते हो। वेद कुरान गीता भी थोड़ी पढ़ी है। न सही बहुत पंडित, छोटे-मोटे पंडित तो तुम भी हो, तो जब भी मन होने लगे परिस्थिति को दोष देने का, कि पहुंच गए होंगे बुद्ध, सारी सुविधा थी उन्हें, मैं कैसे पहुंचूं, तब कबीर का ध्यान करना। बुद्ध के कारण जो असंतुलन पैदा हो जाता है कि लगता है हम न पहुंच सकेंगे-कबीर तराजू के पलड़े को जगह पर ले आते हैं। बुद्ध से ज़्यादा कारगर हैं कबीर। बुद्ध थोड़े-से लोगों के काम के हो सकते हैं। कबीर राजपथ हैं। बुद्ध का मार्ग बड़ा संकीर्ण है; उसमें थोड़े ही लोग पा सकेंगे, पहुंच सकेंगे।
बुद्ध की भाषा भी उन्हीं की है-चुने हुए लोगों की। एक-एक शब्द बहुमूल्य है; लेकिन एक-एक शब्द सूक्ष्म है। कबीर की भाषा सबकी भाषा है-वे पढ़े-लिखे आदमी की भाषा है। अगर तुम कबीर को न समझ पाए, तो तुम कुछ भी न समझ पाओगे। कबीर को समझ लिया, तो कुछ समझने को बचता नहीं। और तुम कबीर को जितना समझोगे, उतना ही तुम पाओगे कि बुद्धत्व का कोई भी संबंध परिस्थिति से नहीं। बुद्धत्व तुम्हारी भीतर की अभीप्सा पर निर्भर है-और कहीं भी घट सकता है; झोपड़े में, महल में, बाज़ार में, हिमालय पर; पढ़ी लिखी बुद्धि में, गैर-पढ़ी लिखी बुद्धि में; गरीब को, अमीर को; अपढ़ को; कोई परिस्थिति का संबंध नहीं है।
ये जो वचन इस समाधि शिविर में हम कबीर के लेने जा रहे हैं, इनका शीर्षक है:‘सुनो भाई साधो’। और कबीर अपने हर वचन में हम कबीर को लेने जा रहे हैं, इनका शीर्षक है: ‘सुनो भाई साधो’। और कबीर अपने हर वचन में कहीं-न-कहीं साधु को ही संबोधित करते हैं। इस संबोधन को थोड़ा समझ लें, फिर हम उनके वचनों में उतरने की कोशिश करें।
मनुष्य तीन तरह से पूछ सकता है। एक कुतूहल होता है-बच्चों जैसा। पूछने के लिए पूछ लिया, कोई ज़रूरत न थी, कोई प्यास, भी न थी, कोई प्रयोजन भी न था। ऐसे ही मन की खुजली थी। उठ गया प्रश्न, पूछ लिया। उत्तर मिले तो ठीक दुबारा पूछने का भी खयाल नहीं आता-छोटे बच्चे जैसा पूछते हैं। रास्तें से गुज़र रहे हैं, पूछते हैं, यह क्या है ? वृक्ष क्या हैं ? हरे क्यों हैं ? सूरज सुबह क्यों निकलता है, रात को क्यों नहीं निकलता ?
अगर तुमने उत्तर नहीं दिया तो कोई उत्तर सुनने के लिए उनकी प्रतीक्षा नहीं है। जब तुम उत्तर दे रहे हो, तब तक वे दूसरे प्रश्न पूछने चले गए। तुम उत्तर भी न दो, तो भी कुछ ज़ोर न डालेंगे कि उत्तर दो। तुम दो या न दो, यह असंगत है, प्रसंग के बाहर है। बच्चा पूछने के लिए पूछ रहा है। बच्चा केवल बुद्धि का अभ्यास कर रहा है; जैसा पहली दफ़े बच्चा चलता है, तो बार-बार चलने की कोशिश करता है-कहीं पहुंचने के लिए नहीं, क्योंकि अभी बच्चे की क्या मंजिल है ! अभी तो चलने में ही मज़ा लेता है। अभी तो पैर चला लेता है इससे ही बड़ा प्रसन्न मंजिल है ! अभी तो चलने में ही मज़ा लेता है। अभी तो पैर चला लेता है, इससे ही बड़ा प्रसन्न होता है; नाचता है कि मैं भी चलने लगा। अभी चलने का कोई संबंध मंज़िल से नहीं है, अभी चलना अपने-आप में ही अभ्यास है। ऐसे ही बच्चा जब बोलने लगता है तो सिर्फ़ बोलने के लिए बोलता है। अभ्यास करता है। उसके बोलने में कोई अर्थ नहीं है। पूछना जब सीख लेता है, तो पूछने के लिए पूछता है। पूछने में कोई प्रश्न नहीं है, सिर्फ कुतूहल है। से पूछते हैं। मिले उत्तर ठीक, न मिले उत्तर ठीक। और कोई भी उत्तर मिले, उनके जीवन में उस उत्तर से कोई फर्क न होगा। तुम ईश्वर को मानते रहो, तो तुम वैसे ही जिओगे; तुम ईश्वर को न मानो, तो भी तुम वैसे ही जिओगे।
यह बड़ी हैरानी की बात है कि नास्तिक और आस्तिक के जीवन में कोई फ़र्क नहीं होता। तुम जीवन को देख के बता सकते हो कि यह आदमी आस्तित्व है या नास्तिक है। नहीं, तुम्हें पूछना पड़ता है कि आप आस्तिक हैं या नास्तिक ! आस्तिक और नास्तिक के व्यवहार में रत्तीभर का कोई फ़र्क नहीं होता। वैसा ही बेईमान यह, वैसा ही दूसरा। वे सब चचेरे-मौसेरे भाई हैं। कोई अंतर नहीं है। इस ईश्वर को मानता है, एक ईश्वर को नहीं मानता है। इतनी बड़ी मान्यता और जीवन में रत्ती-भर भी छाया नहीं लाती ! कहीं कोई रेखा नहीं खिंचती ! दुकानदारी में वह उतना ही बेईमान है जितना दूसरा; बोलने में उतना ही झूठा है जितना दूसरा। न इसका भरोसा किया जा सकता है न उसका। क्या जीवन में कोई अंतर नहीं आता आस्था से ? तो आस्था दो कौड़ी की है। तो आस्था कुतूहल से पैदा हुई होगी; वह बचकानी है। ऐसी बचकानी आस्था को छोड़ देना चाहिए।
सबसे सतह पर कुतूहल है।
दूसरे, थोड़ी गहराई बढ़े, तो जिज्ञासा पैदा होती है। जिज्ञासा सिर्फ़ पूछने के लिए नहीं है-उत्तर की तलाश है; लेकिन तलाश बौद्धिक है, आत्मिक नहीं है। तलाश विचार की है, जीवन की नहीं है। जिज्ञासा से भरा हुआ आदमी, निश्चित ही उत्सुक है, और चाहता है कि उत्तर मिले; लेकिन उत्तर बुद्धि में संजो लिया जाएगा, स्मृति का अंग बनेगा, जानकारी बढ़ेगी ज्ञान बढ़ेगा-आचारण नहीं, जीवन नहीं। उस आदमी को बदलेगा नहीं। वह आदमी वैसा ही रहेगा-ज़्यादा जानकार हो जाएगा।
जिज्ञासा पैदा होती है बुद्धि से।
फिर एक तीसरा तल है, जिसको मुमुक्षा कहा है। मुमुक्षा का अर्थ है; जिज्ञासा सिर्फ़ बुद्धि की नहीं है, जीवन की है। इसलिए नहीं पूछ रहे हैं कि थोड़ा और जान लें; इसलिए पूछ रहे है कि जीवन दांव पर लगा है। इसलिए पूछ रहे हैं कि उत्तर पर निर्भर होगा कि हम कहां जाएं, क्या करें, कैसे जिएं। एक प्यासा आदमी पूछता है, पानी कहां है ? यह कोई जिज्ञासा नहीं है। मरुस्थल में तुम पड़े हो, प्यास जगती है और तुम पूछते हो, पानी कहां है ? उस क्षण तुम्हारा रोआं-रोआं पूछता है, बुद्धि नहीं पूछती। उस क्षण तुम यह नहीं जानना चाहते कि पानी की वैज्ञानिक परिभाषा क्या है। उस समय कोई तुमसे कहे कि पानी-पानी क्या लगा रखा है, ‘एच टू ओ’ विज्ञान का उपयोग करो, फार्मूला ज़ाहिर है कि उद्जन, एक मात्रा ऑक्सीजन-‘एच टू ओ’। लेकिन जो आदमी प्यासा है, उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि पानी कैसे बनता है। यह सवाल नहीं है, पानी क्या है, यह भी सवाल नहीं है। यह कोई जिज्ञासा नहीं है पानी के संबंध में जानकारी बढ़ाने के लिए। जानकारी बढ़ाने के लिए यहां जीवन दांव पर लगा है; अगर पानी नहीं मिलता घड़ी-भर और तो मृत्यु होगी। पानी पर ही जीवन निर्भर है। मृत्यु और जीवन का सवाल है।
मुमुझा का अर्थ है: जिज्ञासा केंद्र पर पहुंच गई। अब हमारे लिए यह सवाल ऐसा नहीं है कि ईश्वर है या नहीं, पूछ लिया बच्चों-जैसा या पूछ लिया दार्शनिकों-जैसा एक बुद्धिगत सवाल, बुद्धिगत उत्तर देखने में लग गए, शास्त्रों में गए। जिसको प्यास लगी है, वह शास्त्रों में नहीं खोजेगा कि पानी का स्वरूप क्या है ! जिसको प्यास लगी है, वह सरोवर चाहता है जिसको प्यास लगी है, वह ऐसा ज्ञानी चाहता है, जिसको पी के वह अपनी प्यास को बुझा ले। ज्ञान नहीं चाहता, ज्ञानी को चाहता है।
मुमुक्ष गुरु को खोजता है। जिज्ञासु शास्त्र को खोजता है। कुतूहली किसी से भी पूछ लेता है।
कबीर उसको साधु कहते हैं, जो मुमुक्षु है। इसलिए उनका हर वचन इस बात को ध्यान में रख के कहा गया है: ‘सुनो भाई साधो’! साधु का मतलब है, जो साधना के लिए उत्सुक है; जो साधक है। साधु का अर्थ है: जो अपने को बदलने के लिए, शुभ करने के लिए, सत्य करने के लिए आतुर है-जो साधु होने को उत्सुक है।
‘साधु’ शब्द बड़ा अद्भुत है। विकृत हो गया बहुत उपयोग से। साधु का अर्थ है : सीधा-सादा, सरल-सहज। ‘साधु’ शब्द की बड़ी भाव-भंगिमाएं हैं। और सीधा-सादा, सरल-सहज-वही साधना है।
इसलिए कबीर कहते हैं: साधो, सहज समाधि भली ! सहज हो रहो, सरल हो जाओ।
थोड़ा समझ लेना ज़रूरी है। क्योंकि हम बहुत से लोगों को जानते हैं, जो सरल होने की चेष्टा में ही बड़े जटिल हो गए हैं; सरल होने की ही चेष्टा में चले थे, और उलझ गए हैं।
मेरे एक मित्र हैं। लोग उन्हें साधु कहते हैं। मैं उन्हें असाधु कहता हूं, क्योंकि वे सीधे-सादे ज़रा भी नहीं हैं। अगर सुबह उन्हें दूध दो, तो वे पहले पूछते हैं कि गाय का है कि भैंस, का ! क्योंकि भैंस का दूध वे नहीं पीते। शुद्ध हिंदू हैं; गाय का ही पीते हैं। और गाय का ही नहीं पीते, सफ़ेद गाय का पीते हैं। किसी शास्त्र से उन्होंने खोज लिया है कि सफेद गाय का दूध शुद्घतम होता है। वह भी कुछ घड़ी पहले लगा हो तो पीते हैं। क्योंकि इतनी घड़ी देर तक दूध रह जाए, तो उसमें विकृति का समावेश हो जाता है। कुछ घड़ी पहले का तैयार घी ही लेते हैं; क्योंकि इतनी देर ज़्यादा रह जाए तो शास्त्रों में उल्लेख है कि घी विकृत हो जाता है। इस तरह का पानी पीते हैं कि जो भी भर के लाए, वह गीले वस्त्र पहने हुए भर के लाए, ताकि बिलकुल शुद्ध हो। क्योंकि सूखे वस्त्रों का क्या भरोसा, किसी ने छुए हों, धोबी धोके लाया हो, लाण्ड्री में गए हों-तो ठीक नहीं। वहीं कुएं पर स्नान करो, वस्त्र पहने हुए, ताकि वस्त्र भी धुल जाएं, तुम भी धुल जाओ, फिर पानी भर के ले आओ। ब्राह्मण ने भोजन बनाया हो तो ही लेते हैं। यह सब चेष्टा में वे चौबीस घंटे व्यस्त हैं, चौबीस घंटे में उन्हें भगवान के लिए एक क्षण बचता नहीं, भोजन सारा समय ले लेता है। निकले थे सरल होने, वे इतने जटिल हो गए हैं कि बड़ी कठिनाई है। जीना ही मुश्किल हो गया है। और जिसके घर में पहुँच जाएं, वह भी प्रार्थना करने लगता है परमात्मा से-उसने कभी प्रार्थना न की हो भला-कि कब इनसे छुटकारा हो।
अगर साधु आपके घर रुक जाए तो आप एक ही प्रार्थना करते हैं कि अब ये जल्दी जाएं, क्योंकि तीन बजे रात वे उठ आते हैं। और वे नहीं उठते, पूरे घर को उठा देते हैं। क्योंकि ऐसा शुभ कार्य ब्रह्ममुहूर्त में उठने का, वे खुद तो करते ही हैं, लेकिन इतने ज़ोर से ओंकार का पाठ करते हैं कि आप सो नहीं सकते। और आप उनसे यह भी नहीं कह सकते कि आप ग़लत कर रहे हैं, क्योंकि कुछ ग़लत भी नहीं कह रहे हैं। ब्रह्ममुहूर्त में ओंकार की ध्वनि कर रहे हैं। तो एक उपकार ही कर रहे हैं आपके ऊपर !
सरलता की खोज में निकला हुआ आदमी भी जटिल हो जाता है। कहीं कुछ भूल हो रही है। सरलता को समझा नहीं गया।
पुस्तक ''गुरु गोविन्द दोऊ खड़े'' से
ऐसा अपढ़ आदमी, जिसे दस्तख़त करने भी नहीं आते, इसने परमात्मा के परम ज्ञान को पा लिया-बड़ा भरोसा बढ़ता है। तब इस दुनिया में अगर तुम वंचित हो तो अपने ही कारण वंचित हो, परिस्थिति को दोष मत देना। जब भी परिस्थितियों को दोष देने का मन में भाव उठे, कबीर का ध्यान करना। कम-से-कम मां-बाप का तो तुम्हें पता है, घर-द्वार तो है, सड़क पर तो पैदा नहीं हुए। हस्ताक्षर तो कर ही लेते हो। थोड़ी-बहुत शिक्षा हुई, हिसाब-हिसाब कर लेते हो। वेद कुरान गीता भी थोड़ी पढ़ी है। न सही बहुत पंडित, छोटे-मोटे पंडित तो तुम भी हो, तो जब भी मन होने लगे परिस्थिति को दोष देने का, कि पहुंच गए होंगे बुद्ध, सारी सुविधा थी उन्हें, मैं कैसे पहुंचूं, तब कबीर का ध्यान करना। बुद्ध के कारण जो असंतुलन पैदा हो जाता है कि लगता है हम न पहुंच सकेंगे-कबीर तराजू के पलड़े को जगह पर ले आते हैं। बुद्ध से ज़्यादा कारगर हैं कबीर। बुद्ध थोड़े-से लोगों के काम के हो सकते हैं। कबीर राजपथ हैं। बुद्ध का मार्ग बड़ा संकीर्ण है; उसमें थोड़े ही लोग पा सकेंगे, पहुंच सकेंगे।
बुद्ध की भाषा भी उन्हीं की है-चुने हुए लोगों की। एक-एक शब्द बहुमूल्य है; लेकिन एक-एक शब्द सूक्ष्म है। कबीर की भाषा सबकी भाषा है-वे पढ़े-लिखे आदमी की भाषा है। अगर तुम कबीर को न समझ पाए, तो तुम कुछ भी न समझ पाओगे। कबीर को समझ लिया, तो कुछ समझने को बचता नहीं। और तुम कबीर को जितना समझोगे, उतना ही तुम पाओगे कि बुद्धत्व का कोई भी संबंध परिस्थिति से नहीं। बुद्धत्व तुम्हारी भीतर की अभीप्सा पर निर्भर है-और कहीं भी घट सकता है; झोपड़े में, महल में, बाज़ार में, हिमालय पर; पढ़ी लिखी बुद्धि में, गैर-पढ़ी लिखी बुद्धि में; गरीब को, अमीर को; अपढ़ को; कोई परिस्थिति का संबंध नहीं है।
ये जो वचन इस समाधि शिविर में हम कबीर के लेने जा रहे हैं, इनका शीर्षक है:‘सुनो भाई साधो’। और कबीर अपने हर वचन में हम कबीर को लेने जा रहे हैं, इनका शीर्षक है: ‘सुनो भाई साधो’। और कबीर अपने हर वचन में कहीं-न-कहीं साधु को ही संबोधित करते हैं। इस संबोधन को थोड़ा समझ लें, फिर हम उनके वचनों में उतरने की कोशिश करें।
मनुष्य तीन तरह से पूछ सकता है। एक कुतूहल होता है-बच्चों जैसा। पूछने के लिए पूछ लिया, कोई ज़रूरत न थी, कोई प्यास, भी न थी, कोई प्रयोजन भी न था। ऐसे ही मन की खुजली थी। उठ गया प्रश्न, पूछ लिया। उत्तर मिले तो ठीक दुबारा पूछने का भी खयाल नहीं आता-छोटे बच्चे जैसा पूछते हैं। रास्तें से गुज़र रहे हैं, पूछते हैं, यह क्या है ? वृक्ष क्या हैं ? हरे क्यों हैं ? सूरज सुबह क्यों निकलता है, रात को क्यों नहीं निकलता ?
अगर तुमने उत्तर नहीं दिया तो कोई उत्तर सुनने के लिए उनकी प्रतीक्षा नहीं है। जब तुम उत्तर दे रहे हो, तब तक वे दूसरे प्रश्न पूछने चले गए। तुम उत्तर भी न दो, तो भी कुछ ज़ोर न डालेंगे कि उत्तर दो। तुम दो या न दो, यह असंगत है, प्रसंग के बाहर है। बच्चा पूछने के लिए पूछ रहा है। बच्चा केवल बुद्धि का अभ्यास कर रहा है; जैसा पहली दफ़े बच्चा चलता है, तो बार-बार चलने की कोशिश करता है-कहीं पहुंचने के लिए नहीं, क्योंकि अभी बच्चे की क्या मंजिल है ! अभी तो चलने में ही मज़ा लेता है। अभी तो पैर चला लेता है इससे ही बड़ा प्रसन्न मंजिल है ! अभी तो चलने में ही मज़ा लेता है। अभी तो पैर चला लेता है, इससे ही बड़ा प्रसन्न होता है; नाचता है कि मैं भी चलने लगा। अभी चलने का कोई संबंध मंज़िल से नहीं है, अभी चलना अपने-आप में ही अभ्यास है। ऐसे ही बच्चा जब बोलने लगता है तो सिर्फ़ बोलने के लिए बोलता है। अभ्यास करता है। उसके बोलने में कोई अर्थ नहीं है। पूछना जब सीख लेता है, तो पूछने के लिए पूछता है। पूछने में कोई प्रश्न नहीं है, सिर्फ कुतूहल है। से पूछते हैं। मिले उत्तर ठीक, न मिले उत्तर ठीक। और कोई भी उत्तर मिले, उनके जीवन में उस उत्तर से कोई फर्क न होगा। तुम ईश्वर को मानते रहो, तो तुम वैसे ही जिओगे; तुम ईश्वर को न मानो, तो भी तुम वैसे ही जिओगे।
यह बड़ी हैरानी की बात है कि नास्तिक और आस्तिक के जीवन में कोई फ़र्क नहीं होता। तुम जीवन को देख के बता सकते हो कि यह आदमी आस्तित्व है या नास्तिक है। नहीं, तुम्हें पूछना पड़ता है कि आप आस्तिक हैं या नास्तिक ! आस्तिक और नास्तिक के व्यवहार में रत्तीभर का कोई फ़र्क नहीं होता। वैसा ही बेईमान यह, वैसा ही दूसरा। वे सब चचेरे-मौसेरे भाई हैं। कोई अंतर नहीं है। इस ईश्वर को मानता है, एक ईश्वर को नहीं मानता है। इतनी बड़ी मान्यता और जीवन में रत्ती-भर भी छाया नहीं लाती ! कहीं कोई रेखा नहीं खिंचती ! दुकानदारी में वह उतना ही बेईमान है जितना दूसरा; बोलने में उतना ही झूठा है जितना दूसरा। न इसका भरोसा किया जा सकता है न उसका। क्या जीवन में कोई अंतर नहीं आता आस्था से ? तो आस्था दो कौड़ी की है। तो आस्था कुतूहल से पैदा हुई होगी; वह बचकानी है। ऐसी बचकानी आस्था को छोड़ देना चाहिए।
सबसे सतह पर कुतूहल है।
दूसरे, थोड़ी गहराई बढ़े, तो जिज्ञासा पैदा होती है। जिज्ञासा सिर्फ़ पूछने के लिए नहीं है-उत्तर की तलाश है; लेकिन तलाश बौद्धिक है, आत्मिक नहीं है। तलाश विचार की है, जीवन की नहीं है। जिज्ञासा से भरा हुआ आदमी, निश्चित ही उत्सुक है, और चाहता है कि उत्तर मिले; लेकिन उत्तर बुद्धि में संजो लिया जाएगा, स्मृति का अंग बनेगा, जानकारी बढ़ेगी ज्ञान बढ़ेगा-आचारण नहीं, जीवन नहीं। उस आदमी को बदलेगा नहीं। वह आदमी वैसा ही रहेगा-ज़्यादा जानकार हो जाएगा।
जिज्ञासा पैदा होती है बुद्धि से।
फिर एक तीसरा तल है, जिसको मुमुक्षा कहा है। मुमुक्षा का अर्थ है; जिज्ञासा सिर्फ़ बुद्धि की नहीं है, जीवन की है। इसलिए नहीं पूछ रहे हैं कि थोड़ा और जान लें; इसलिए पूछ रहे है कि जीवन दांव पर लगा है। इसलिए पूछ रहे हैं कि उत्तर पर निर्भर होगा कि हम कहां जाएं, क्या करें, कैसे जिएं। एक प्यासा आदमी पूछता है, पानी कहां है ? यह कोई जिज्ञासा नहीं है। मरुस्थल में तुम पड़े हो, प्यास जगती है और तुम पूछते हो, पानी कहां है ? उस क्षण तुम्हारा रोआं-रोआं पूछता है, बुद्धि नहीं पूछती। उस क्षण तुम यह नहीं जानना चाहते कि पानी की वैज्ञानिक परिभाषा क्या है। उस समय कोई तुमसे कहे कि पानी-पानी क्या लगा रखा है, ‘एच टू ओ’ विज्ञान का उपयोग करो, फार्मूला ज़ाहिर है कि उद्जन, एक मात्रा ऑक्सीजन-‘एच टू ओ’। लेकिन जो आदमी प्यासा है, उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि पानी कैसे बनता है। यह सवाल नहीं है, पानी क्या है, यह भी सवाल नहीं है। यह कोई जिज्ञासा नहीं है पानी के संबंध में जानकारी बढ़ाने के लिए। जानकारी बढ़ाने के लिए यहां जीवन दांव पर लगा है; अगर पानी नहीं मिलता घड़ी-भर और तो मृत्यु होगी। पानी पर ही जीवन निर्भर है। मृत्यु और जीवन का सवाल है।
मुमुझा का अर्थ है: जिज्ञासा केंद्र पर पहुंच गई। अब हमारे लिए यह सवाल ऐसा नहीं है कि ईश्वर है या नहीं, पूछ लिया बच्चों-जैसा या पूछ लिया दार्शनिकों-जैसा एक बुद्धिगत सवाल, बुद्धिगत उत्तर देखने में लग गए, शास्त्रों में गए। जिसको प्यास लगी है, वह शास्त्रों में नहीं खोजेगा कि पानी का स्वरूप क्या है ! जिसको प्यास लगी है, वह सरोवर चाहता है जिसको प्यास लगी है, वह ऐसा ज्ञानी चाहता है, जिसको पी के वह अपनी प्यास को बुझा ले। ज्ञान नहीं चाहता, ज्ञानी को चाहता है।
मुमुक्ष गुरु को खोजता है। जिज्ञासु शास्त्र को खोजता है। कुतूहली किसी से भी पूछ लेता है।
कबीर उसको साधु कहते हैं, जो मुमुक्षु है। इसलिए उनका हर वचन इस बात को ध्यान में रख के कहा गया है: ‘सुनो भाई साधो’! साधु का मतलब है, जो साधना के लिए उत्सुक है; जो साधक है। साधु का अर्थ है: जो अपने को बदलने के लिए, शुभ करने के लिए, सत्य करने के लिए आतुर है-जो साधु होने को उत्सुक है।
‘साधु’ शब्द बड़ा अद्भुत है। विकृत हो गया बहुत उपयोग से। साधु का अर्थ है : सीधा-सादा, सरल-सहज। ‘साधु’ शब्द की बड़ी भाव-भंगिमाएं हैं। और सीधा-सादा, सरल-सहज-वही साधना है।
इसलिए कबीर कहते हैं: साधो, सहज समाधि भली ! सहज हो रहो, सरल हो जाओ।
थोड़ा समझ लेना ज़रूरी है। क्योंकि हम बहुत से लोगों को जानते हैं, जो सरल होने की चेष्टा में ही बड़े जटिल हो गए हैं; सरल होने की ही चेष्टा में चले थे, और उलझ गए हैं।
मेरे एक मित्र हैं। लोग उन्हें साधु कहते हैं। मैं उन्हें असाधु कहता हूं, क्योंकि वे सीधे-सादे ज़रा भी नहीं हैं। अगर सुबह उन्हें दूध दो, तो वे पहले पूछते हैं कि गाय का है कि भैंस, का ! क्योंकि भैंस का दूध वे नहीं पीते। शुद्ध हिंदू हैं; गाय का ही पीते हैं। और गाय का ही नहीं पीते, सफ़ेद गाय का पीते हैं। किसी शास्त्र से उन्होंने खोज लिया है कि सफेद गाय का दूध शुद्घतम होता है। वह भी कुछ घड़ी पहले लगा हो तो पीते हैं। क्योंकि इतनी घड़ी देर तक दूध रह जाए, तो उसमें विकृति का समावेश हो जाता है। कुछ घड़ी पहले का तैयार घी ही लेते हैं; क्योंकि इतनी देर ज़्यादा रह जाए तो शास्त्रों में उल्लेख है कि घी विकृत हो जाता है। इस तरह का पानी पीते हैं कि जो भी भर के लाए, वह गीले वस्त्र पहने हुए भर के लाए, ताकि बिलकुल शुद्ध हो। क्योंकि सूखे वस्त्रों का क्या भरोसा, किसी ने छुए हों, धोबी धोके लाया हो, लाण्ड्री में गए हों-तो ठीक नहीं। वहीं कुएं पर स्नान करो, वस्त्र पहने हुए, ताकि वस्त्र भी धुल जाएं, तुम भी धुल जाओ, फिर पानी भर के ले आओ। ब्राह्मण ने भोजन बनाया हो तो ही लेते हैं। यह सब चेष्टा में वे चौबीस घंटे व्यस्त हैं, चौबीस घंटे में उन्हें भगवान के लिए एक क्षण बचता नहीं, भोजन सारा समय ले लेता है। निकले थे सरल होने, वे इतने जटिल हो गए हैं कि बड़ी कठिनाई है। जीना ही मुश्किल हो गया है। और जिसके घर में पहुँच जाएं, वह भी प्रार्थना करने लगता है परमात्मा से-उसने कभी प्रार्थना न की हो भला-कि कब इनसे छुटकारा हो।
अगर साधु आपके घर रुक जाए तो आप एक ही प्रार्थना करते हैं कि अब ये जल्दी जाएं, क्योंकि तीन बजे रात वे उठ आते हैं। और वे नहीं उठते, पूरे घर को उठा देते हैं। क्योंकि ऐसा शुभ कार्य ब्रह्ममुहूर्त में उठने का, वे खुद तो करते ही हैं, लेकिन इतने ज़ोर से ओंकार का पाठ करते हैं कि आप सो नहीं सकते। और आप उनसे यह भी नहीं कह सकते कि आप ग़लत कर रहे हैं, क्योंकि कुछ ग़लत भी नहीं कह रहे हैं। ब्रह्ममुहूर्त में ओंकार की ध्वनि कर रहे हैं। तो एक उपकार ही कर रहे हैं आपके ऊपर !
सरलता की खोज में निकला हुआ आदमी भी जटिल हो जाता है। कहीं कुछ भूल हो रही है। सरलता को समझा नहीं गया।
पुस्तक ''गुरु गोविन्द दोऊ खड़े'' से
नदी के किनारे रात के अंधेरे में, अपने साथी और सेवक मरदाना के साथ वे नदी तट पर बैठे थे। अचानक उन्होंने वस्त्र उतार दिए। बिना कुछ कहे वे नदी में उतर गए। मरदाना पूछता भी रहा, क्या करते हैं ? रात ठंडी है। अंधेरी है ! दूर नदी में वे चले गए। मरदाना पीछे-पीछे गया। नानक ने डुबकी लगाई। मरदाना सोचता था कि क्षण-दो क्षण में बाहर आ जाएंगे। फिर वे बाहर नहीं आए।
दस-पांच मिनट तो मरदाना ने राह देखी, फिर वह खोजने लग गया कि वे कहां खो गए। फिर वह चिल्लाने लगा। फिर वह किनारे-किनारे दौड़ने लगा कि कहां हो ? बोलो, आवाज दो ! ऐसा उसे लगा कि उसे नदी की लहर-लहर से एक आवाज आने लगी, धीरज रखो, धीरज रखो। पर नानक की कोई खबर नहीं। वह भागा गांव गया, आधी रात लोगों को जगा दिया। भीड़ इकट्ठी हो गई।
नानक को सभी लोग प्यार करते थे। सभी को नानक में दिखाई पड़ती थी कुछ होने की संभावना। नानक की मौजूदगी में सभी को सुंगध प्रतीत होती थी। फूल अभी खिला नहीं था, पर कली भी तो गंध देती है। सारा गांव रोने लगा, भीड़ इकट्ठी हो गई। सारी नदी तलाश डाली। इस कोने से उस कोने लोग भागने-दौड़ने लगे। लेकिन कोई पता न चला।
तीन दिन बीत गए। लोगों ने मान ही लिया कि नानक को कोई जानवर खा गया। डूब गए, बह गए, किसी खाई-खड्डु में उलझ गए। मान ही लिया कि मर गए। रोना-पीटना हो गया। घर के लोगों ने भी समझ लिया कि अब लौटने का कोई उपाय न रहा।
और तीसरे दिन रात अचानक नानक नदी से प्रकट हो गए। जब वे नदी से प्रकट हुए तो जपुजी उनका पहला वचन है। यह घोषणा उन्होंने की।
कहानी ऐसी है-कहता हूं, कहानी। कहानी का मतलब होता है, जो सच भी है, और सच नहीं भी। सच इसलिए है कि वह खबर देती है सचाई की; और सच इसलिए नहीं है कि वह कहानी है और प्रतीकों में खबर देती है। और जितनी गहरी बात कहनी हो, उतनी ही प्रतीकों की खोज करनी पड़ती है।
नानक जब तीन दिन के लिए खो गए नदी में तो कहानी है कि वे प्रकट हुए परमात्मा के द्वार में। ईश्वर का उन्हें अनुभव हुआ। जाना आंखों के सामने प्यारे को, जिसके लिए पुकारते थे। जिसके लिए गीत गाते थे, जो उनके हृदय की धड़कन-धड़कन में प्यास बना था। उसे सामने पाया। तृप्त हुए। और परमात्मा ने कहा, अब तू जा। और जो मैंने तुझे दिया है, वह लोगों को बांट। जपुजी उनकी पहली भेंट है परमात्मा से लौट कर।
यह कहानी है। इसके प्रतीकों को समझ लें। एक, कि जब तक तुम न खो जाओ, जब तक तुम न मर जाओ तब तक परमात्मा से कोई साक्षात्कार न होगा। नदी में खोओ कि पहाड़ में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन तुम नहीं बचने चाहिए। तुम्हारा खो जाना ही उसका होना है। तुम जब तक हो तभी तक वह न हो पाएगा। तुम ही अड़चन हो। तुम ही दीवाल हो। यह जो नदी में खो जाने की कहानी है।
तुम्हें भी खो जाना पड़ेगा। तुम्हें भी डूब जाना पड़ेगा। तीन दिन लगते हैं। इसलिए तो हम, जब आदमी मर जाता है, तो तीसरा मनाते हैं, तीसरा हम इसलिए मनाते हैं कि मरने की घटना पूरी होने में तीन दिन लग जाते हैं। उतना समय जरूरी है। अहंकार मरता है, एकदम से नहीं। कम से कम समय तीन दिन लेता है। इसलिए कहानी में तीन दिन हैं, कि नानक तीन दिन नदी में खोए रहे। अहंकार पूरा गल गया, मर गया। और पास-पड़ोस, मित्रों, प्रियजनों, परिवार के लोगों को तो अहंकार ही दिखाई पड़ता है, तुम्हारी आत्मा तो दिखाई पड़ती नहीं, इसलिए उन्होंने तो समझा कि नानक मर गए।
जब भी कोई संन्यासी होता है, घर के लोग समझ लेते हैं, मर गया। जब भी कोई उसकी खोज में जाता है, घर के लोग मान लेते हैं, खत्म हुआ। क्योंकि अब यह वही तो न रहा। टूट गई पुरानी श्रृंखला। अतीत मिटा, अब नया हुआ। बीच में तीन दिन की खाई है। इसलिए तीन दिन का प्रतीक है। तीन दिन बाद नानक लौट आए।
जो भी खोता है वह लौट आता है, लेकिन नया हो कर लौटता है। जो भी जाता है उस मार्ग पर, वापस आता है। लेकिन जा रहा था तब प्यासा था, आता है तब दानी हो कर आता है। जाता था तब भिखारी था, आता है तब सम्राट हो कर आता है। जो भी परमात्मा में लीन होता है, जाते समय भिक्षापात्र होता है, लौटते समय अपरंपार संपदा होती है बांटने को।
जपुजी पहली भेंट है।
परमात्मा के सामने प्रकट होना, प्यारे को पा लेना, इन्हें तुम बिलकुल प्रतीक को, भाषागत रूप से सच मत समझ लेना। क्योंकि कहीं कोई परमात्मा बैठा हुआ नहीं है, जिसके सामने तुम प्रकट हो जाओगे। लेकिन कहना हो बात, तो और कुछ कहने का उपाय भी नहीं है। जब तुम मिटते हो तो जो आंख के सामने होता है वही परमात्मा है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है; परमात्मा निराकार शक्ति है।
तुम उसके सामने कैसे हो सकोगे ? जहां तुम देखोगे, वहीं वह है। जो तुम देखोगे, वही वह है। जिस दिन आंख खुलेगी, सभी वह है। बस तुम मिट जाओ, आंख खुल जाए।
अहंकार तुम्हारी आंख में पडी हुई कंकड़ी है। उसके हटते ही परमात्मा प्रकट हो जाता है। परमात्मा प्रकट ही था, तुम मौजूद न थे। नानक मिटे, परमात्मा प्रकट हो गया। जैसे ही परमात्मा प्रकट हो जाता है, तुम भी परमात्मा हो गए। क्योंकि उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
नानक लौटे; परमात्मा हो कर लौटे। फिर उन्होंने जो भी कहा है, एक-एक शब्द बहुमूल्य है। फिर उस एक-एक शब्द को हम कोई भी कीमत दें तो भी कीमत छोटी पड़ेगी। फिर एक-एक शब्द वेद वचन हैं।
अब हम जपुजी को समझने की कोशिश करें।
इक ओंकार सतिनाम
करता पुरखु निरभउ निरवैर।
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरु प्रसादि।।
‘वह एक है, ओंकार स्वरूप है, सत नाम है, कर्ता पुरुष है, भय से रहित है, वैरे से रहित है, कालातीत-मूर्ति है, अयोनि है, स्वयंभू है, गुरु की कृपा से प्राप्त होता है।’
एक है-इक ओंकार सतिनाम।
जो भी हमें दिखाई पड़ता है वह अनेक है। जहां भी तुम देखते हो, भेद दिखाई पड़ता है। जहां तुम्हारी आंख पड़ती है, अनेक दिखाई पड़ता है। सागर के किनारे जाते हो, लहरें दिखाई पड़ती हैं। सागर दिखाई नहीं पड़ता। हालांकि सागर ही है। लहरें तो ऊपर-ऊपर हैं।
पर जो ऊपर-ऊपर है वही दिखाई पड़ता है, क्योंकि ऊपर की ही आंख हमारे पास है। भीतर को देखने के लिए तो भीतर की आंख चाहिए। जैसी होगी आंख, वैसा ही होगा दर्शन। आंख से गहरा तो दर्शन नहीं हो सकता। तुम्हारे पास आंख ही ऊपर की है। तो लहरों को देख कर लौट आओगे। और लोगों से कहोगे कि सागर हो आया। सागर में जाने का यह ढंग नहीं है। किनारे से तो दिखाई पड़ेंगी लहरें। सागर में हो तो डूबना ही पड़े। इसलिए तो कहानी है कि नानक नदी में डूब गए। लहरों में नहीं है वह, नदी में है। लहरों में नहीं है, सागर में है। ऊपर-ऊपर तो लहरें होंगी। तट से तुम देख कर लौट आओगे, तो तुम जो खबर दोगे वह गलत होगी। तुम कहोगे कि सागर हो आया। सागर तक तुम गए नहीं। तट पर तो सागर नहीं है, वहां से तो लहरें दिखाई पड़ सकती हैं। लहरों का जोड़ भी सागर नहीं है। जोड़ से भी ज्यादा है सागर। और जो मौलिक भेद है वह यह है कि लहर अभी है, क्षण भर बाद नहीं होगी, क्षण भर पहले नहीं थी।
जो बनता है और मिट जाता है, वह सपना है। जो आता है और चला जाता है, वह सपना है। लहरें सपना हैं, सागर सच है। अनेक लहरें हैं, एक सागर है। हमें अनेक दिखाई पड़ता है। और जब तक एक न दिखाई पड़ जाए, तब तक हम भटकते रहेंगे। क्योंकि एक ही सच है।
इक ओंकार सतिनाम।
और नानक कहते हैं कि उस एक का जो नाम है, वही ओंकार है। और सब नाम तो आदमी के दिए हैं। राम कहो, कृष्ण कहो, अल्लाह कहो, ये नाम आदमी के दिए हैं। ये हमने बनाए हैं। सांकेतिक हैं। लेकिन एक उसका नाम है जो हमने नहीं दिया; वह ओंकार है। वह ॐ है।
क्यों ओंकार उसका नाम है ? क्योंकि जब सब शब्द खो जाते हैं और चित्त शून्य हो जाता है और जब लहरें पीछे छूट जाती हैं और सागर में आदमी लीन हो जाता है तब भी ओंकार की धुन सुनाई पड़ती रहती है। वह हमारी की हुई धुन नहीं है। वह अस्तित्व की धुन है। वह अस्तित्व की ही लय है। अस्तित्व के होने का ढंग ओंकार है। वह किसी आदमी का दिया हुआ नाम नहीं है। इसलिए ॐ का कोई भी अर्थ नहीं होता ॐ कोई शब्द नहीं है। ॐ ध्वनि है और ध्वनि भी अनूठी है। कोई उसका स्रोत नहीं हैं। कोई उसे पैदा नहीं करता। अस्तित्व के होने में ही छिपी है। अस्तित्व के होने की ध्वनि है।
जैसे कि जलप्रपात है; तुम उसके पास बैठो तो प्रपात की एक ध्वनि है। लेकिन वह ध्वनि पानी और चट्टान की टक्कर से पैदा होती है। नदी के पास बैठो, कल-कल का नाद होता है। लेकिन वह कल-कल का नाद नदी और तट की टक्कर से होता है। हवा का झोंका निकलता है, वृक्ष से सरसराहट होती है। लेकिन वह सरसराहट हवा और वृक्ष की टक्कर से होती है। हम बोलते हैं, संगीतज्ञ गीत गाता है, वीणा का कोई तार छेड़ता है, लेकिन सभी चीज संघर्ष से पैदा होती है। संघर्ष के लिए दो जरूरी हैं। तार चाहिए वीणा का, हाथ चाहिए छेड़नेवाला। जितनी ध्वनियां द्वैत से पैदा होती हैं, वे उसके नाम नहीं हैं। उसका नाम तो वही है, जब सब द्वैत खो जाता है, फिर भी एक ध्वनि गूंजती रहती है।
इस संबंध में कुछ बातें समझ लेनी जरूरी है। विज्ञान कहता है कि सारे अस्तित्व को अगर हम तोड़ते चले जाएं, और गहराई में विश्लेषण करें, तो अंत में हमें विद्युत-ऊर्जा, इलेक्ट्रीसिटी मिलती है। इसलिए जो आखिरी खोज है विज्ञान की, वह इलेक्ट्रान है, विद्युतकण। सारा अस्तित्व विद्युत से बना है। अगर हम विज्ञान से पूछें कि ध्वनि किससे बनी है ? तो विज्ञान कहता है, वह भी विद्युत से बनी है। ध्वनि भी विद्युत का एक आकार है एक रूप है। लेकिन मूल विद्युत है।
इस संबंध में समस्त ज्ञानियों की विज्ञान से सहमति है, थोड़े से भेद के साथ। वह भेद बड़ा नहीं, वह भेद भाषा का है। समस्त ज्ञानियों ने पाया कि अस्तित्व बना है ध्वनि से और ध्वनि का ही एक रूप विद्युत है। विज्ञान कहता है, विद्युत का एक रूप ध्वनि है; और धर्म कहता है कि विद्युत ध्वनि का एक रूप है। इतना ही फासला है। मगर यह फासला ऐसा ही दिखाई पड़ता है जैसे ग्लास आधा भरा हो; कोई कहे आधा भरा है, कोई कहे आधा खाली है।
विज्ञान की पहुंच का द्वार अलग है। विज्ञान ने पदार्थ को तोड़-तोड़ कर विद्युत को खोजा है। ज्ञानियों की पहुंच का मार्ग अलग है। उन्होंने अपने को जोड़-जोड़ कर-तोड़ कर नहीं; अपने को जोड़-जोड़ कर अखंड को पाया है और इस अखंड में एक ध्वनि पाई है। जब कोई व्यक्ति समाधिस्थ हो जाता है तो ओंकार की ध्वनि गूंजती है। वह अपने भीतर उसे गूंजते पाता है। अपने बाहर गूंजते पाता है। सब, सारे लोक उससे व्याप्त मालूम होते हैं।
पुस्तक ''एक ओंकार सतनाम'' से
प्रेम और ध्यान-दो शब्द जिसने ठीक से
समझ लिए, उसे धर्मों के सारे पथ समझ में आ गए। दो ही मार्ग हैं। एक है
प्रेम का, हृदय का। एक मार्ग है ध्यान का, बुद्धि का। ध्यान के मार्ग पर
बुद्धि को शुद्ध करना है- इतना शुद्ध कि बुद्धि शेष ही न रह जाए। प्रेम के
मार्ग पर हृदय को शुद्ध करना है- इतना शुद्ध कि हृदय खो जाए। दोनों ही
मार्ग से शून्य उपलब्धि करनी है, मिटना है। कोई विचार को काट-काटकर मिटेगा;
कोई वासना को काट-काटकर मिटेगा।
प्रेम है वासना से मुक्ति। ध्यान है विचार से मुक्ति। दोनों ही तुम्हें मिटा देंगे; और जहाँ तुम नहीं हो, वहीं परमात्मा है।
ध्यानी ने परमात्मा के लिए अपने शब्द गढ़े हैं-सत्य, मोक्ष निर्वाण; प्रेमी ने अपने शब्द गढ़े हैं। परमात्मा प्रेमी का शब्द है। सत्य ध्यानी का शब्द है। पर भेद शब्दों का है। इशारा एक ही तरफ है। जब तक दो हैं, तब तक संसार है; जैसे ही एक बचा, संसार खो गया।
शेख फरीद प्रेम के पथिक हैं, और जैसा प्रेम का गीत फरीद ने गाया है वैसा किसी ने नहीं गाया। कबीर भी प्रेम की बात करते हैं लेकिन ध्यान की बात को बिल्कुल भूल नहीं जाते। नानक भी प्रेम की बात करते हैं, लेकिन वह ध्यान से मिश्रित है। फरीद ने शुद्ध प्रेम के गीत गाए है; ध्यान की बात ही नहीं की है; प्रेम में ही ध्यान जाना है। इसलिए प्रेम की इतनी शुद्ध कहानी कहीं और न मिलेगी। फरीद खालिस प्रेम हैं। प्रेम को समझ लिया तो फरीद को समझ लिया। फरीद को समझ लिया तो प्रेम को समझ लिया।
प्रेम के संबंध में कुछ बातें मार्गसूचक होंगी, उन्हें पहले ध्यान में ले लें। पहली बातः जिसे तुम प्रेम कहते हो, फरीद उसे प्रेम नहीं कहते तुम्हारा प्रेम तो प्रेम का धोखा है। वह प्रेम है नहीं, सिर्फ प्रेम की नकल है, नकली सिक्का है; और इसलिए तो उस प्रेम से सिवाय दुःख के तुमने कुछ और नहीं जाना है।
कल ही फ्रांस से आई एक संन्यासिनी इसे रात पूछती थी कि प्रेम में बड़ा दुःख है, आप क्या कहते हैं ? जिस प्रेम को तुमने जाना है, उसमें बड़ा दुःख है इसमें कोई शक नहीं। लेकिन वह प्रेम के कारण नहीं है वह तुम्हारे कारण है। तुम ऐसे पात्र हो कि अमृत विष हो जाता है। तुम अपात्र हो इसलिए प्रेम भी विषाक्त हो जाता है। फिर उसे तुम प्रेम कहोगे तो फरीद को समझना बहुत मुश्किल हो जाएगा; क्योंकि फरीद तो प्रेम के आनंद की बातें करेंगा; प्रेम का नृत्य और प्रेम की समाधि और प्रेम में ही परमात्मा को पाएगा। और तुमने तो प्रेम में सिर्फ दुःख ही जाना है; चिंता, कलह, संघर्ष ही जाना है। प्रेम में तुमने एक तरह की विकृत रुग्ण दशा ही जानी है। प्रेम को तुमने नर्क की तरह जाना है। तुम्हारे प्रेम की बात ही नहीं हो रही है।
जिस प्रेम की फरीद बात कर रहा है, वह तो तभी पैदा होता है, जब तुम मिट जाते हो। तुम्हारी कब्र पर उगता है फूल, उस प्रेम का। तुम्हारी राख से पैदा होता है, वह प्रेम। तुम्हारा प्रेम तो अहंकार की सजावट है। तुम प्रेम में दूसरे को वस्तु बना डालते हो। तुम्हारे प्रेम की चेष्टा में दूसरों की मालकियत है। तुम चाहते हो, तुम जिसे प्रेम करो, वह तुम्हारी मुट्ठी में बंद हो, तुम मालिक हो जाओ। दूसरा भी यही चाहता है। तुम्हारे प्रेम के नाम पर मालकियत का संघर्ष चलता है।
जिस प्रेम की फरीद बात कर रहा है, वह ऐसा प्रेम है, जहाँ तुम दूसरे को अपनी मलकियत दे देते हो, जहाँ तुम स्वेच्छा से समर्पित हो जाते हो, जहाँ तुम कहते हो : तेरी मर्जी। संघर्ष का तो कोई सवाल नहीं है।
निश्चित ही ऐसा प्रेम दो व्यक्तियों के बीच नहीं हो सकता। ऐसा प्रेम दो सम स्थिति में खड़ी हुई चेतनाओं के बीच नहीं हो सकता, ऐसे प्रेम की छोटी–मोटी झलक शायद गुरु के पास मिले; पूरी झलक तो परमात्मा के पास ही मेलेगी। ऐसा प्रेम पति-पत्नी का नहीं हो सकता, मित्र-मित्र का नहीं हो सकता। दूसरा जब तुम्हारे ही जैसा है तो तुम कैसे अपने को समर्पित कर पाओगे ? संदेह पकड़ेगा मन को। हजार भय पकड़ेंगे मन को। यह दूसरे पर भरोसा हो नहीं सकता कि सब छोड़ दो, कि कह सको कि तेरी मर्जी मेरी मर्जी है। इसकी मर्जी में बहुत भूल-चूक दिखाई पड़ेगी। यह तो भटकाव हो जाएगा। यह तो अपने हाथ से आँखें फोड़ लेना होगा। ऐसे ही अँधेरा क्या कम है, आँखें फोड़कर तो और मुश्किल हो जाएगी। यह तो अपने हाथ में जो छोटा-मोटा दीया है बुद्धि का, वह भी बुझा देना हो जाएगा। यह तो निर्बुद्धि में उतरना होगा। यह संभव नहीं है।
मनुष्य और मनुष्य के बीच प्रेम सीमित ही होगा तुम छोड़ोगे भी तो सशर्त छोड़ोगे। तुम अगर थोड़ी दूसरे को मालकियत भी दोगे तो भी पूरी न दोगे, थोड़ा बचा लोगे-लौटने का उपाय रहे; अगर कल वापस लौटना पडे, समर्पण को इनकार करना पड़े तो तुम लौट सको; ऐसा न हो कि लौटने की जगह न रह जाए। सीढ़ी को मिटा न दोगे, लगाए रखोगे।
साधारण प्रेम बेशर्त नहीं हो सकता। अनकंडिशनल नहीं हो सकता। और प्रेम जब तक बेशर्त न हो, प्रेम नहीं होता। तुमने ऊपर कोई, जिसे देखकर तुम्हें आकाश के बादलों का स्मरण आए, जिसकी तरफ तुम्हें आँखें उठानी हों तो जैसे सूरज की तरफ कोई आँख उठाए, जिसके बीच और तुम्हारे बीच एक बड़ा फासला हो, एक अलंघ्य खाई हो, जिससे तुम्हें परमात्मा की थोड़ी-सी प्रतीति मिले-उसको ही हमने गुरु कहा है।
गुरु पूरब की अनूठी खोज है। पश्चिम इस रस से वंचित ही रह गया है; उसे गुरु का कोई पता नहीं है। वह आयाम जाना ही नहीं पश्चिम ने। पश्चिम को दो मित्रों का पता है, शिक्षक-विद्यार्थी का पता है, पति-पत्नी का पता है, प्रेमी-प्रेयसी का पता है; लेकिन फरीद जिसकी बात करेगा-गुरू और शिष्य-उसका कोई पता नहीं है।
गुरू और शिष्य का अर्थ है, कोई ऐसा व्यक्ति, जिसके भीतर से तुम्हें परमात्मा की झलक मिली, जिसके भीतर तुमने आकाश देखा, जिसकी खिड़की से तुमने विराट् में झाँका। उसकी खिड़की छोटी हो-खिड़की को बड़े होने की कोई जरूरत भी नहीं है, लेकिन खिड़की से जो झाँका, वह आकाश था। तब समर्पण हो सकता है। तब तुम पूरा अपने को छोड़ सकते हो।
धर्म की तलाश मूलतः गुरू की तलाश है, क्योंकि तुम धर्म को और कहाँ देख पाओगे ? और तुम जहाँ जाओगे, अपने ही जैसा व्यक्ति पाओगे। तो अगर तुम्हारे जीवन से ऊपर आँखें उठती हों जिसे देखकर तुममें दूर के सपने, आकांक्षा, अभीप्सा भर जाती हो, जिसे देखकर तुम्हें आकाश का बुलावा मिलता हो, निमंत्रण मिलता हो-और इसकी कोई फ्रिक मत करना कि दुनिया उसके संबंध में क्या कहती है, यह सवाल नहीं है-तुम्हें अगर इस खिड़की से कुछ दर्शन नहीं हुआ हो तो ऐसे व्यक्ति के पास समर्पण की कला सीख लेना। उसके पास तुम्हें पहले पाठ मिलेगें, प्राथमिक मिलेंगे-अपने को छोड़ने के। वे ही पाठ परमात्मा के पास काम आएँगे।
गुरु आखिरी नहीं है गुरू तो मार्ग है। अंततः तो गुरू हट जाएगा, खिड़की भी हट जाएगी-आकाश ही रह जाएगा। जो खिड़की आग्रह करे, हटे न, वह तो आकाश और तुम्हारे बीच बाधा हो जाएगी; वह तो सेतु न होगी, विघ्न हो जाएगा।
जिस प्रेम की फरीद बात कर रहे हैं, उसकी झलक तुम्हें कभी गुरू के पास मिलेगी। तुम मुझसे पूछोगे कि हम कैसे गुरु को पहचानें ? मैं तुमसे कहूँगा : जहाँ तुम्हें ऐसी झलक मिल जाए। उसके अतिरिक्त कोई कसौटी नहीं है। गुरु की परिभाषा यह है कि जहाँ तुम्हें विराट् की थोड़ी-सी भी झलक मिल जाए, जिस बूँद में तुम्हें सागर का थोड़ा-सा स्वाद मिल जाए, जिस बीज में तुम्हें संभावनाओं के फूल खिलते हुए दिखाई पड़ें। फिर ध्यान मत देना कि दुनिया क्या कहती है, क्योंकि दुनिया का कोई सवाल नहीं है। जहाँ तुम खड़े हो, वहाँ से हो सकता है, किसी खि़ड़की से आकाश दिखाई पड़ता हो, जहाँ दूसरे खड़े हों, वहा से उस खिड़की के द्वारा आकाश न पड़ता हो। यह भी हो सकता है कि तुम्हारे बगल में खड़ा हुआ व्यक्ति खिड़की की तरफ पीठ करके खडा़ हो, और उसे आकाश न दिखाई पड़े। यह भी हो सकता है कि किन्हीं क्षणों में तुम्हें आकाश दिखाई पड़े और किन्हीं क्षणों में तुम्हें भी आकाश दिखाई न पडे। क्योंकि जब तुम ऊँचाई पर रहोगे और तुम्हारी आँखें आँसुओं से भारी होंगी, पीड़ा दुःख से दबी होंगी-तब खिड़की भी क्या करेगी ? अगर आँखें ही धूमिल हों तो खिड़की आकाश न दिखा सकेगी : खिड़की खुली रहेगी, तुम्हारे लिए बंद हो जाएगी तुम्हें भी आकाश तभी दिखाई पड़ेगा जब आँखे खुली हों और भीतर होश हो। आँख भी खुली हो और भीतर बेहोशी हो तो खिड़की व्यर्थ हो जाएगी।
तो ध्यान रखना, जिसको तुमने गुरू जाना है, वह तुम्हें भी चौबीसों घंटे गुरू नहीं मालूम होगा। कभी-कभी, किन्हीं ऊँचाइयों के क्षण में, किन्हीं गहराईयों के मौके पर, कभी तुम्हारी आँख, तुम्हारे बोध की खिड़की का तालमेल हो जाएगा, और आकाश की झलक आएगी। वही झलक रूपांतकारी है। तुम उस झलक पर भरोसा रखना। तुम अपनी ऊँचाई पर भरोसा रखना।
तुमने कभी ख्याल किया ?-जहाँ भी माँग आती है, वहीं तुम छोटे हो जाते हो; जहाँ माँग नहीं होती, सिर्फ दान होता है, वहाँ तुम भी विराट् होते हो। जब तुम्हारे मन में कोई माँगने का भाव ही नहीं उठता, तब तुममें और परमात्मा में क्या फासला है ? इसलिए तो बुद्धपुरुषों ने निर्वासना को सूत्र माना; कि जब तुम्हारी कोई वासना न होगी, तब परमात्मा तुममे अवतरित हो जाएगा।
परमात्मा तुममें छिपा ही है, केवल वासनाओं के बादल में घिरा है। सूरज मिट नहीं गया है, सिर्फ बादलों में घिरा है। वासना के बादल हट जाएँगे : तुम पाओगे, सूरज सदा से मौजूद था।
गुरू के पास प्रेम का पहला पाठ सीखना, बेशर्त होना सीखना, झुकना और अपने को मिटाना सीखना। माँगना मत। मन बहुत माँग किए चला जाएगा, क्योंकि मन की पुरानी आदत है। मन भिखमंगा है। सम्राट का मन भी भिखमंगा है; वह भी माँगता है।
आत्मा सम्राट् है, वह माँगती नहीं। जिस दिन तुम प्रेम में इस भाँति अपने को डालते हो कि कोई माँग की रेखा भी नहीं होती, उसी क्षण तुम सम्राट हो जाते हो। प्रेम तुम्हें सम्राट् बना देता है। प्रेम के बिना तुम भिखारी हो। वही तुम्हारा दुःख है।
दूसरी बात जब फरीद प्रेम की बात करता है तो प्रेम से उसका अर्थ है-प्रेम का विचार नहीं, प्रेम का भाव। और दोनों में बड़ा फर्क है। तुम जब प्रेम करते हो, तब तुम सोचते हो कि तुम प्रेम करते हो। यह हृदय का सीधा संबंध नहीं होता, उसमें बीच में बुद्धि खड़ी होती है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमारा किसी से प्रेम हो गया है। मैं कहता हूँ-ठीक से कहो, सोचकर कहो। वे थोड़े चिंतित हो जाते हैं। वे कहते हैं, हम सोचते है कि प्रेम हो गया है; पक्का नहीं, हुआ कि नहीं, लेकिन विचार आता है कि प्रेम हो गया है।
प्रेम का कोई विचार आवश्यक है ? तुम्हारे पैर में काँटा गड़ता है तो तुम्हारा बोध सीधा होता है कि पैर में पीड़ा हो रही है। ऐसा थोड़े ही तुम कहते हो कि हम सोचते हैं कि शायद पैर में पीड़ा हो रही है। सोच-विचार को छेद देता है, काँटा आर-पार निकल जाता है। जब तुम आनंदित होते हो तो क्या तुम सोचते हो कि तुम आनंदित हो रहे हो, या कि तुम सिर्फ आनंदित होते हो ? जब तुम दुःखी होते हो तब सोचते हो-कोई प्रियजन चल बसा, छोड़ दी देह, मरघट पर विदा कर
आए-जब तुम रोते हो तब तुम सोचते हो कि दुःखी हो रहे हो, या कि दुःखी होते हो ? दोनों में फर्क है। अगर सोचते हो कि दुःखी हो रहे हो तो दुखी हो ही नहीं रहे, शायद दिखावा होगा। समाज के लिए आँसू भी गिराने पड़ते हैं। दूसरों को दिखाने के लिए हँसना भी पड़ता है, प्रसन्न भी होना पड़ता है; लेकिन तुम्हारे भीतर कुछ भी नहीं हो रहा है। लेकिन जब तुम्हारे भीतर दुःख हो रहा है तो विचार बीच में माध्यम नहीं होता यह सीधा होता है।
पुस्तक ''बोलै शेख फरीद'' से
प्रेम है वासना से मुक्ति। ध्यान है विचार से मुक्ति। दोनों ही तुम्हें मिटा देंगे; और जहाँ तुम नहीं हो, वहीं परमात्मा है।
ध्यानी ने परमात्मा के लिए अपने शब्द गढ़े हैं-सत्य, मोक्ष निर्वाण; प्रेमी ने अपने शब्द गढ़े हैं। परमात्मा प्रेमी का शब्द है। सत्य ध्यानी का शब्द है। पर भेद शब्दों का है। इशारा एक ही तरफ है। जब तक दो हैं, तब तक संसार है; जैसे ही एक बचा, संसार खो गया।
शेख फरीद प्रेम के पथिक हैं, और जैसा प्रेम का गीत फरीद ने गाया है वैसा किसी ने नहीं गाया। कबीर भी प्रेम की बात करते हैं लेकिन ध्यान की बात को बिल्कुल भूल नहीं जाते। नानक भी प्रेम की बात करते हैं, लेकिन वह ध्यान से मिश्रित है। फरीद ने शुद्ध प्रेम के गीत गाए है; ध्यान की बात ही नहीं की है; प्रेम में ही ध्यान जाना है। इसलिए प्रेम की इतनी शुद्ध कहानी कहीं और न मिलेगी। फरीद खालिस प्रेम हैं। प्रेम को समझ लिया तो फरीद को समझ लिया। फरीद को समझ लिया तो प्रेम को समझ लिया।
प्रेम के संबंध में कुछ बातें मार्गसूचक होंगी, उन्हें पहले ध्यान में ले लें। पहली बातः जिसे तुम प्रेम कहते हो, फरीद उसे प्रेम नहीं कहते तुम्हारा प्रेम तो प्रेम का धोखा है। वह प्रेम है नहीं, सिर्फ प्रेम की नकल है, नकली सिक्का है; और इसलिए तो उस प्रेम से सिवाय दुःख के तुमने कुछ और नहीं जाना है।
कल ही फ्रांस से आई एक संन्यासिनी इसे रात पूछती थी कि प्रेम में बड़ा दुःख है, आप क्या कहते हैं ? जिस प्रेम को तुमने जाना है, उसमें बड़ा दुःख है इसमें कोई शक नहीं। लेकिन वह प्रेम के कारण नहीं है वह तुम्हारे कारण है। तुम ऐसे पात्र हो कि अमृत विष हो जाता है। तुम अपात्र हो इसलिए प्रेम भी विषाक्त हो जाता है। फिर उसे तुम प्रेम कहोगे तो फरीद को समझना बहुत मुश्किल हो जाएगा; क्योंकि फरीद तो प्रेम के आनंद की बातें करेंगा; प्रेम का नृत्य और प्रेम की समाधि और प्रेम में ही परमात्मा को पाएगा। और तुमने तो प्रेम में सिर्फ दुःख ही जाना है; चिंता, कलह, संघर्ष ही जाना है। प्रेम में तुमने एक तरह की विकृत रुग्ण दशा ही जानी है। प्रेम को तुमने नर्क की तरह जाना है। तुम्हारे प्रेम की बात ही नहीं हो रही है।
जिस प्रेम की फरीद बात कर रहा है, वह तो तभी पैदा होता है, जब तुम मिट जाते हो। तुम्हारी कब्र पर उगता है फूल, उस प्रेम का। तुम्हारी राख से पैदा होता है, वह प्रेम। तुम्हारा प्रेम तो अहंकार की सजावट है। तुम प्रेम में दूसरे को वस्तु बना डालते हो। तुम्हारे प्रेम की चेष्टा में दूसरों की मालकियत है। तुम चाहते हो, तुम जिसे प्रेम करो, वह तुम्हारी मुट्ठी में बंद हो, तुम मालिक हो जाओ। दूसरा भी यही चाहता है। तुम्हारे प्रेम के नाम पर मालकियत का संघर्ष चलता है।
जिस प्रेम की फरीद बात कर रहा है, वह ऐसा प्रेम है, जहाँ तुम दूसरे को अपनी मलकियत दे देते हो, जहाँ तुम स्वेच्छा से समर्पित हो जाते हो, जहाँ तुम कहते हो : तेरी मर्जी। संघर्ष का तो कोई सवाल नहीं है।
निश्चित ही ऐसा प्रेम दो व्यक्तियों के बीच नहीं हो सकता। ऐसा प्रेम दो सम स्थिति में खड़ी हुई चेतनाओं के बीच नहीं हो सकता, ऐसे प्रेम की छोटी–मोटी झलक शायद गुरु के पास मिले; पूरी झलक तो परमात्मा के पास ही मेलेगी। ऐसा प्रेम पति-पत्नी का नहीं हो सकता, मित्र-मित्र का नहीं हो सकता। दूसरा जब तुम्हारे ही जैसा है तो तुम कैसे अपने को समर्पित कर पाओगे ? संदेह पकड़ेगा मन को। हजार भय पकड़ेंगे मन को। यह दूसरे पर भरोसा हो नहीं सकता कि सब छोड़ दो, कि कह सको कि तेरी मर्जी मेरी मर्जी है। इसकी मर्जी में बहुत भूल-चूक दिखाई पड़ेगी। यह तो भटकाव हो जाएगा। यह तो अपने हाथ से आँखें फोड़ लेना होगा। ऐसे ही अँधेरा क्या कम है, आँखें फोड़कर तो और मुश्किल हो जाएगी। यह तो अपने हाथ में जो छोटा-मोटा दीया है बुद्धि का, वह भी बुझा देना हो जाएगा। यह तो निर्बुद्धि में उतरना होगा। यह संभव नहीं है।
मनुष्य और मनुष्य के बीच प्रेम सीमित ही होगा तुम छोड़ोगे भी तो सशर्त छोड़ोगे। तुम अगर थोड़ी दूसरे को मालकियत भी दोगे तो भी पूरी न दोगे, थोड़ा बचा लोगे-लौटने का उपाय रहे; अगर कल वापस लौटना पडे, समर्पण को इनकार करना पड़े तो तुम लौट सको; ऐसा न हो कि लौटने की जगह न रह जाए। सीढ़ी को मिटा न दोगे, लगाए रखोगे।
साधारण प्रेम बेशर्त नहीं हो सकता। अनकंडिशनल नहीं हो सकता। और प्रेम जब तक बेशर्त न हो, प्रेम नहीं होता। तुमने ऊपर कोई, जिसे देखकर तुम्हें आकाश के बादलों का स्मरण आए, जिसकी तरफ तुम्हें आँखें उठानी हों तो जैसे सूरज की तरफ कोई आँख उठाए, जिसके बीच और तुम्हारे बीच एक बड़ा फासला हो, एक अलंघ्य खाई हो, जिससे तुम्हें परमात्मा की थोड़ी-सी प्रतीति मिले-उसको ही हमने गुरु कहा है।
गुरु पूरब की अनूठी खोज है। पश्चिम इस रस से वंचित ही रह गया है; उसे गुरु का कोई पता नहीं है। वह आयाम जाना ही नहीं पश्चिम ने। पश्चिम को दो मित्रों का पता है, शिक्षक-विद्यार्थी का पता है, पति-पत्नी का पता है, प्रेमी-प्रेयसी का पता है; लेकिन फरीद जिसकी बात करेगा-गुरू और शिष्य-उसका कोई पता नहीं है।
गुरू और शिष्य का अर्थ है, कोई ऐसा व्यक्ति, जिसके भीतर से तुम्हें परमात्मा की झलक मिली, जिसके भीतर तुमने आकाश देखा, जिसकी खिड़की से तुमने विराट् में झाँका। उसकी खिड़की छोटी हो-खिड़की को बड़े होने की कोई जरूरत भी नहीं है, लेकिन खिड़की से जो झाँका, वह आकाश था। तब समर्पण हो सकता है। तब तुम पूरा अपने को छोड़ सकते हो।
धर्म की तलाश मूलतः गुरू की तलाश है, क्योंकि तुम धर्म को और कहाँ देख पाओगे ? और तुम जहाँ जाओगे, अपने ही जैसा व्यक्ति पाओगे। तो अगर तुम्हारे जीवन से ऊपर आँखें उठती हों जिसे देखकर तुममें दूर के सपने, आकांक्षा, अभीप्सा भर जाती हो, जिसे देखकर तुम्हें आकाश का बुलावा मिलता हो, निमंत्रण मिलता हो-और इसकी कोई फ्रिक मत करना कि दुनिया उसके संबंध में क्या कहती है, यह सवाल नहीं है-तुम्हें अगर इस खिड़की से कुछ दर्शन नहीं हुआ हो तो ऐसे व्यक्ति के पास समर्पण की कला सीख लेना। उसके पास तुम्हें पहले पाठ मिलेगें, प्राथमिक मिलेंगे-अपने को छोड़ने के। वे ही पाठ परमात्मा के पास काम आएँगे।
गुरु आखिरी नहीं है गुरू तो मार्ग है। अंततः तो गुरू हट जाएगा, खिड़की भी हट जाएगी-आकाश ही रह जाएगा। जो खिड़की आग्रह करे, हटे न, वह तो आकाश और तुम्हारे बीच बाधा हो जाएगी; वह तो सेतु न होगी, विघ्न हो जाएगा।
जिस प्रेम की फरीद बात कर रहे हैं, उसकी झलक तुम्हें कभी गुरू के पास मिलेगी। तुम मुझसे पूछोगे कि हम कैसे गुरु को पहचानें ? मैं तुमसे कहूँगा : जहाँ तुम्हें ऐसी झलक मिल जाए। उसके अतिरिक्त कोई कसौटी नहीं है। गुरु की परिभाषा यह है कि जहाँ तुम्हें विराट् की थोड़ी-सी भी झलक मिल जाए, जिस बूँद में तुम्हें सागर का थोड़ा-सा स्वाद मिल जाए, जिस बीज में तुम्हें संभावनाओं के फूल खिलते हुए दिखाई पड़ें। फिर ध्यान मत देना कि दुनिया क्या कहती है, क्योंकि दुनिया का कोई सवाल नहीं है। जहाँ तुम खड़े हो, वहाँ से हो सकता है, किसी खि़ड़की से आकाश दिखाई पड़ता हो, जहाँ दूसरे खड़े हों, वहा से उस खिड़की के द्वारा आकाश न पड़ता हो। यह भी हो सकता है कि तुम्हारे बगल में खड़ा हुआ व्यक्ति खिड़की की तरफ पीठ करके खडा़ हो, और उसे आकाश न दिखाई पड़े। यह भी हो सकता है कि किन्हीं क्षणों में तुम्हें आकाश दिखाई पड़े और किन्हीं क्षणों में तुम्हें भी आकाश दिखाई न पडे। क्योंकि जब तुम ऊँचाई पर रहोगे और तुम्हारी आँखें आँसुओं से भारी होंगी, पीड़ा दुःख से दबी होंगी-तब खिड़की भी क्या करेगी ? अगर आँखें ही धूमिल हों तो खिड़की आकाश न दिखा सकेगी : खिड़की खुली रहेगी, तुम्हारे लिए बंद हो जाएगी तुम्हें भी आकाश तभी दिखाई पड़ेगा जब आँखे खुली हों और भीतर होश हो। आँख भी खुली हो और भीतर बेहोशी हो तो खिड़की व्यर्थ हो जाएगी।
तो ध्यान रखना, जिसको तुमने गुरू जाना है, वह तुम्हें भी चौबीसों घंटे गुरू नहीं मालूम होगा। कभी-कभी, किन्हीं ऊँचाइयों के क्षण में, किन्हीं गहराईयों के मौके पर, कभी तुम्हारी आँख, तुम्हारे बोध की खिड़की का तालमेल हो जाएगा, और आकाश की झलक आएगी। वही झलक रूपांतकारी है। तुम उस झलक पर भरोसा रखना। तुम अपनी ऊँचाई पर भरोसा रखना।
तुमने कभी ख्याल किया ?-जहाँ भी माँग आती है, वहीं तुम छोटे हो जाते हो; जहाँ माँग नहीं होती, सिर्फ दान होता है, वहाँ तुम भी विराट् होते हो। जब तुम्हारे मन में कोई माँगने का भाव ही नहीं उठता, तब तुममें और परमात्मा में क्या फासला है ? इसलिए तो बुद्धपुरुषों ने निर्वासना को सूत्र माना; कि जब तुम्हारी कोई वासना न होगी, तब परमात्मा तुममे अवतरित हो जाएगा।
परमात्मा तुममें छिपा ही है, केवल वासनाओं के बादल में घिरा है। सूरज मिट नहीं गया है, सिर्फ बादलों में घिरा है। वासना के बादल हट जाएँगे : तुम पाओगे, सूरज सदा से मौजूद था।
गुरू के पास प्रेम का पहला पाठ सीखना, बेशर्त होना सीखना, झुकना और अपने को मिटाना सीखना। माँगना मत। मन बहुत माँग किए चला जाएगा, क्योंकि मन की पुरानी आदत है। मन भिखमंगा है। सम्राट का मन भी भिखमंगा है; वह भी माँगता है।
आत्मा सम्राट् है, वह माँगती नहीं। जिस दिन तुम प्रेम में इस भाँति अपने को डालते हो कि कोई माँग की रेखा भी नहीं होती, उसी क्षण तुम सम्राट हो जाते हो। प्रेम तुम्हें सम्राट् बना देता है। प्रेम के बिना तुम भिखारी हो। वही तुम्हारा दुःख है।
दूसरी बात जब फरीद प्रेम की बात करता है तो प्रेम से उसका अर्थ है-प्रेम का विचार नहीं, प्रेम का भाव। और दोनों में बड़ा फर्क है। तुम जब प्रेम करते हो, तब तुम सोचते हो कि तुम प्रेम करते हो। यह हृदय का सीधा संबंध नहीं होता, उसमें बीच में बुद्धि खड़ी होती है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमारा किसी से प्रेम हो गया है। मैं कहता हूँ-ठीक से कहो, सोचकर कहो। वे थोड़े चिंतित हो जाते हैं। वे कहते हैं, हम सोचते है कि प्रेम हो गया है; पक्का नहीं, हुआ कि नहीं, लेकिन विचार आता है कि प्रेम हो गया है।
प्रेम का कोई विचार आवश्यक है ? तुम्हारे पैर में काँटा गड़ता है तो तुम्हारा बोध सीधा होता है कि पैर में पीड़ा हो रही है। ऐसा थोड़े ही तुम कहते हो कि हम सोचते हैं कि शायद पैर में पीड़ा हो रही है। सोच-विचार को छेद देता है, काँटा आर-पार निकल जाता है। जब तुम आनंदित होते हो तो क्या तुम सोचते हो कि तुम आनंदित हो रहे हो, या कि तुम सिर्फ आनंदित होते हो ? जब तुम दुःखी होते हो तब सोचते हो-कोई प्रियजन चल बसा, छोड़ दी देह, मरघट पर विदा कर
आए-जब तुम रोते हो तब तुम सोचते हो कि दुःखी हो रहे हो, या कि दुःखी होते हो ? दोनों में फर्क है। अगर सोचते हो कि दुःखी हो रहे हो तो दुखी हो ही नहीं रहे, शायद दिखावा होगा। समाज के लिए आँसू भी गिराने पड़ते हैं। दूसरों को दिखाने के लिए हँसना भी पड़ता है, प्रसन्न भी होना पड़ता है; लेकिन तुम्हारे भीतर कुछ भी नहीं हो रहा है। लेकिन जब तुम्हारे भीतर दुःख हो रहा है तो विचार बीच में माध्यम नहीं होता यह सीधा होता है।
पुस्तक ''बोलै शेख फरीद'' से
ध्यान, बुद्धि या मन की कोई चीज नहीं है, वह तो बुद्धि के पार की कोई चीज है। और इसके लिये पहला कदम है, इसके प्रति खेलप्रिय होना, विनोदी होना। यदि तुम उसके साथ खेलपूर्ण हो, तो बुद्धि (मन) तुम्हारे ध्यान को नष्ट नहीं कर सकती। अन्यथा यह एक दूसरी अहंकार-यात्रा में परिवर्तित हो जायेगी। यह तुम्हें बहुत गंभीर बना देगी। तुम सोचने लगोगे कि मैं एक महान ध्यानी हूँ। यही हजारों कथित संतों नैतिकतावादियों और कट्टर धार्मिकों के साथ हुआ है, ये लोग महज अहंकार के खेल सूक्ष्म अहंकार के खेल ही खेल ही खेल रहे हैं।
इसलिये मैं प्रारम्भ ही से इसकी जड़ें काट देना चाहता हूँ। इसके बारे में विनोदप्रिय या खेलपूर्ण बने रहो। यह एक गीत है जिसे गाना है। एक नृत्य है जिसे नाचना है। इसे एक मजाक की तरह लो। यदि तुम ध्यान के बारे में खेलपूर्ण हो सके तो तुम यह देखकर हैरान हो जाओगे कि ध्यान में दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति होगी। केवल तुम किसी लक्ष्य पाने के पीछे नहीं भाग रहे तुम केवल शांत बैठे हुए उसका उस क्षण आनंद ले रहे हो। शांत होकर बैठने का कृत्य ही उन क्षणों में आनंदित होना है। ऐसा नहीं, कि तुम किसी यौगिक शक्ति, सिद्धि या चमत्कार की चाह कर रहे हो। यह सभी बकवास है, यह सभी पुरानी व्यर्थ की बातें हैं। वही पुराना खेल, नये शब्दों और एक नये धरातल पर खेला जा रहा है । जीवन को अपने-आपमें एक गहरे मजाक की तरह लेना चाहिये-और तभी अचानक तुम तनावरहित हो जाओगे, क्योंकि यहाँ कुछ ऐसा ही नहीं, जिसके बारे में तनावपूर्ण हुआ जाये। और इसी विश्रामपूर्ण दशा में तुम्हारे अंदर कुछ परिवर्तन एक मौलिक परिवर्तन एक रूपातन्तरण होने लगता है। जीवन की छोटी-छोटी बातों के नये अर्थ तथा महत्त्व प्रकट होने शुरू हो जाते हैं। तब फिर कोई भी चीज छोटी नहीं लगती, हर चीज एक नई गंध और नई आभा लिये दिखना शुरू हो जाती है, तब हर कहीं एक दिव्यता का अहसास होने लगता है। फिर कोई न तो ईसाई, न हिन्दू और न मुसलमान बना रहता है। वह स्वाभाविक रूप से जीवन के प्रेमी बन जाता है। वह केवल एक ही चीज सीखता है कि जीवन में कैसे आनंदित हुआ जाये।
पुस्तक ''ध्यान क्या है'' से
आज मैं अहिंसा पर आपसे बात करूँगा। पांच
महाव्रत नाकारात्मक हैं, अहिंसा भी। असल में साधना नाकारात्मक ही हो सकती
है, निगेटिव ही हो सकती है, उपलब्धि पॉजिटिव होगी, विधायक होगी। जो मिलेगा
वह वस्तुतः होगा और जो हमें खोना है। वहीं खोना है जो वस्तुतः नहीं है।
अंधकार खोना है, प्रकाश पाना है। अत्सय खोना है सत्य पाना है, इससे एक बात और खयाल में लेना जरूरी है कि नकारात्मक शब्द इस बात की खबर देते है कि अहिंसा हमारा स्वाभाव है, उसे पाया जा सकता, वह है ही। हिंसा पायी गयी है। वह हमारा स्वभाव नहीं है। वह अर्जित है, एचीव्ड। हिंसक बनने के लिए हमें कुछ करना पड़ा है। हिंसा हमारी उपलब्धि है। हमने उसे खोजा है, हमने उसे निर्मित किया है। अहिंसा हमारी उपलब्धि नहीं हो सकती। सिर्फ हिंसा न हो जाये तो जो शेष बचेगा वह अहिंसा होगी।
इसलिए साधना नकारात्मक है। वह जो हमने पा लिया है और जो पाने योग्य नहीं है, उसे खो देना है। जैसे कोई आदमी स्वभाव से हिंसक नहीं है, हो नहीं सकता। क्योंकि कोई भी दुख को चाह नहीं सकता और हिंसा सिवाय दुख के कहीं भी नहीं ले जाती। हिंसा एक्सीडेंट है, चाह नहीं है। वह हमारे जीवन की धारा नहीं है। इसलिए जो हिंसक है वह भी चौबीस घंटे हिंसक नहीं हो सकता। अहिंसक चौबीस घंटे अहिंसक हो सकता है। हिंसक चौबीस घेटे हिंसक नहीं हो सकता। उसे भी किसी वर्तुल के भीतर अहिंसक ही होना पड़ता है। असल में, अगर वह हिंसा भी करता है तो किन्ही के साथ अहिंसक हो सके, इसीलिए करता है। कोई आदमी चौबीस घंटे चोर नहीं हो सकता। और अगर कोई चोरी भी करता है तो इसलिए कि कुछ समय वह बिना चोरी के हो सके। चोर का लक्ष्य भी अचोरी करना है, और हिंसक का लक्ष्य भी अहिंसा है। और इसीलिए ये सारे शब्द नकारात्मक हैं।
धर्म की भाषा में दो शब्द विधायक हैं, बाकी सब शब्द नाकारात्मक हैं। उन दोनों को मैंने चर्चा से छोड़ दिया है। एक ‘सत्य’ शब्द विधायक है, पॉजिटिव है; और एक ‘ब्रह्मचर्य’ शब्द विधायक है, पॉजिटिव है।
यह भी प्राथमिक रूप से खयाल में ले लेना जरूरी है कि जो पांच शब्द मैंने चुने हैं, जिन्हें मैं पंच महाव्रत कह रहा हूं, वे नकारात्मक हैं। जब वे पांचो छूट जायेंगे तो जो भीतर उपलब्ध होगा सत्य, और जो बाहर होगा ब्रह्मचर्य।
सत्य आत्मा बन जायेगी इन पाँच के छूट जाने पर और ब्रह्यचर्य आचरण बन जायेगा इन पांच के छूटने पर। वे दो विधायक शब्द हैं। सत्य का अर्थ है, जिसे हम भीतर जानेंगे। और ब्रह्मचर्य का अर्थ है, जिसे हम बाहर से जीयेंगे। ब्रह्मचर्य का अर्थ है, जो ईश्वर जैसा हो जाये। ईश्वर जैसा आचरण। ईश्वर जैसा आचरण उसी का हो सकता है, जो ईश्वर जैसा हो जाये। सत्य का अर्थ है-ईश्वर जैसे हो जाना। सत्य का अर्थ है- ब्रह्म। और ईश्वर जैसा हो गया उसकी जो चर्या होगी, वह ब्रह्मचर्य होगी। वह ब्रह्म जैसा आचरण होगा। ये दो शब्द धर्म की भाषा में विधायक है, पॉजिटिव हैं; बाकी पूरे धर्म की भाषा नकारात्मक है। इन पांच दिनों में इन पांच नकार पर विचार करना है। आज पहले नकार पर-अहिंसा ।
अगर ठीक से समझें तो अहिंसा पर कोई विचार नहीं हो सकता है, सिर्फ हिंसा पर विचार हो सकता है और हिंसा के न होने पर विचार हो सकता है। ध्यान रहे अहिंसा का मतलब सिर्फ इतना ही है- हिंसा का न होना, हिंसा की एबसेन्स, अनुपस्थिति-हिंसा का अभाव।
इसे ऐसा समझें। अगर किसी चिकित्सक को पूछें कि स्वास्थ्य की परिभाषा क्या है ? कैसे आप डेफिनीशन करते है स्वास्थ्य की ? तो दुनिया में स्वास्थ्य के बहुत से विज्ञान विकसित हुए हैं, लेकिन कोई भी स्वास्थ्य की परिभाषा नहीं करता। अगर आप पूछें कि विकसित हुए हैं, लेकिन कोई भी स्वास्थ्य की परिभाषा नहीं करता। अगर आप पूछें कि स्वास्थ्य की परिभाषा क्या है तो चिकित्सक कहेगा: जहां बीमारी न हो। लेकिन यह बीमारी की बात हुई, यह स्वास्थ्य की बात न हुई। यह बीमारी का न होना हुआ। बीमारी की परिभाषा हो सकती है, डेफिनीशन हो सकती है कि बीमारी क्या है ? लेकिन परिभषा नहीं हो सकती- स्वास्थ्य क्या है। इतना ज्यादा से ज्यादा हम कह सकते हैं कि जब कोई बीमार नहीं है तो वह स्वस्थ है।
धर्म परम स्वास्थ्य है ! इसलिए धर्म की कोई परिभाषा नहीं हो सकती। सब परिभाषा अधर्म की है। इन पांच दिनों हम धर्म पर विचार नहीं करेंगे। अधर्म पर विचार करेंगे।
विचार से, बोध से, अधर्म छूट जाये तो जो निर्विकार में शेष रह जाता है, उसी का नाम धर्म की है। इसलिए जहां-जहां धर्म पर चर्चा होती है, वहां व्यर्थ होती है ! चर्चा सिर्फ अधर्म की ही हो सकती है। चर्चा धर्म की हो नहीं सकती। चर्चा बीमारी की हो सकती है, चर्चा स्वास्थ्य की नहीं हो सकती। स्वास्थ्य को जाना जा सकता है स्वास्थ्य को जीया जा सकता है धर्म में हुआ जा सकता है, धर्म की चर्चा नहीं हो सकती। इसलिए धर्मशास्त्र वस्तुतः अधर्म की चर्चा करते हैं। धर्म की कोई चर्चा नहीं करता।
पहले अधर्म की चर्चा हम करें- हिंसा। और जो-जो हिंसक हैं, उनके लिए यह पहला व्रत है। यह समझने जैसा मामला है कि आज हम जो विचार करेंगे वह यह मान कर करेंगे कि हम हिंसक है। इसके अतिरिक्त उस चर्चा का कोई अर्थ नहीं है। ऐसे भी हम हिंसक है। हमारे हिंसक होने में भेद हो सकते हैं। और हिंसा की इतनी पर्तें हैं। ऐसे भी हम हिंसक हैं। हमारे हिंसक होने में भेद हो सकते हैं। और हिंसा की इतनी पर्तें हैं, और इतनी सूक्ष्मताएं हैं, कि कई बार ऐसा भी हो सकता है कि जिसे हम हिंसा कह रहे हैं और समझ रहे हैं। वह हिंसा का बहुत सूक्ष्म रूप हो सकता हो। जिंदगी बहुत जटिल है।
उदाहरण के लिए गांधी की अहिंसा को मैं हिंसा का सूक्ष्म रूप कहता हूं और कृष्ण की हिंसा को अहिंसा का स्थूल रूप कहता हूं। उसकी हम चर्चा करेंगे तो खयाल में आ सकेगा। हिंसक को ही बिचार करना जरूरी है अहिंसा पर। इसलिए यह भी प्रासंगिक है समझ लेना, कि दुनिया में अहिंसकों की जमात से आया।
जैनों के चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय थे। वह जमात हिंसको की थी। उनमें एक भी ब्राह्मण नहीं था। इनमें एक भी वैश्य नहीं था। बुद्ध क्षत्रिय थे। दुनिया में अहिंसा का विचार हिंसको की जमात से आया है। दुनिया में अहिंसा का खयाल, जहां हिंसा घनी थी, सघन थी, वहां पैदा हुआ है।
असल में हिंसकों को ही सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा है अहिंसा के संबंध में। जो चौबीस घंटे हिंसा में रत थे, उन्हीं को यह दिखाई पड़ा है कि हमारी बहुत अंतर-आत्मा नहीं है, असल में हाथ में तलवार हो, क्षत्रिय का मन हो, तो बहुत देर न लगेगी यह देखने में कि हिंसा हमारी पीड़ा है, दुख है। वह हमारा जीवन नहीं है। वह हमारा आनंद नहीं है।
आज का व्रत हिंसकों के लिए है। यद्यपि जो अपने को अहिंसक समझते हैं वे आज के व्रत पर विचार करते हुए मिलेंगे ! मैं तो मान कर चलूंगा कि हम हिंसक इकट्ठे हुए हैं। और जब मैं हिंसा के बहुत रूपों की आप से बात करूंगा तो आप समझ पायेंगे कि आप किस रूप के हिंसक हैं। और हिंसक और अहिंसक होने की पहली शर्त है, अपनी हिंसा को ठीक-ठाक जगह पर पहचान लेना। क्योंकि जो व्यक्ति हिंसा को ठीक से पहचान ले, वह हिंसक नहीं रह सकता है। हिंसक रहने की तरकीब, टेकनीक एक ही है कि हम अपनी हिंसा को अहिंसा के वस्त्र पहन लेती है। वह धोखा पैदा होता है।
सुनी है मैंने एक कथा, सीरियन पैदा होता है ।
सौन्दर्य और कुरूप की देवियों को जब परमात्मा ने बनाया और वे पृथ्वी पर उतरीं, तो धूल-धवांस से भर गए होंगे उनके वस्त्र, तो एक झील के किनारे वस्त्र रख कर स्नान करने झील में गईं। स्वभावतः सौंदर्य की देवी को पता भी नहीं न था कि उसके वस्त्र बदले जा सकते हैं। असल में सौंदर्य को अपने वस्त्रों का पता ही नहीं होता है। सौंदर्य को अपनी देह का भी पता नहीं होता है। सिर्फ कुरूपता को देह का बोध होता है, सिर्फ कुरुपता को वस्त्रों की चिंता होती है। क्योंकि वस्त्रों और देह की व्यवस्था से अपने को छिपाने के उपाय करती है। सौंदर्य की देवी झील में स्नान करते निकल गई, और कुरुपता की देवी को मौका मिला; वह बाहर आई, उसने सौंदर्य की देवी के कपड़े पहने और चलती बनी। जब सौंदर्य की देवी बाहर आई तो बहुत हैरान हुई। उसके वस्त्र तो नहीं थे। वह नग्न खड़ी थी गाँव के लोग जागने शुरू हो गये और राह चलने लगी थी। और कुरुपता की देवी उसके वस्त्र लेकर भाग गई थी तो मजबूरी में उसे कुरुपता के वस्त्र पहन लेने पड़े। और कथा कहती है कि तब से वह कुरूपता की देवी का पीछा कर रही है और खोज रही है; लेकिन अब तक मिलना नहीं हो पाया। कुरुपता अब भी सौंदर्य के वस्त्र पहने हुए है और सौंदर्य की देवी अभी भी मजबूरी में कुरूपता के वस्त्र ओढ़े हुए है।
असल में असत्य को जब भी खड़ा होना हो तो उसे सत्य का चेहरा उधार लेना पड़ता है ! असत्य को भी खड़ा होना पड़ता हो तो उसे सत्य का ढंग अंगाकार करना पड़ता है। हिंसा को भी खड़े होने के लिए अहिंसा बनाना पड़ता है। इसलिए अहिंसा की दिशा में जो पहली बात जरूरी है, वह यह है कि हिंसा का चेहरा पहचान लेने जरूरी हैं। खास कर उसके अहिंसक चेहरे, नान-वायलेंट फेसेज़ पहचान लेना बहुत जरूरी है। हिंसा, सीधा धोखा किसी को भी नहीं दे सकती। दुनिया में कोई भी पाप, सीधा धोखा देने में असमर्थ है। पाप को भी पुण्य की आड़ में ही धोखा देना पड़ता है तो पुण्य के गुण-गौरव की कथा है। इससे पता चलता है कि पाप भी अगर जीतता है तो पुण्य का चेहरा लगा कर जीतता है। जीतता सदा पुण्य ही है। चाहे पाप के ऊपर चेहरा बन कर जीतता हो और चाहे खुद को अंतरात्मा बन कर जीतता हो। पाप कभी जीतता नहीं। पाप अपने में हारा हुआ है ! हिंसा जीत नहीं सकती। लेकिन दुनिया से हिंसा मिटती नहीं, क्योंकि हमने हिंसा के बहुत से अहिंसक चेहरे खोज निकाले हैं। पहले हिंसा के चेहरों को समझने की कोशिश करें।
हिंसा का सबसे पहला रूप, सबसे पहली डायमेंशन, उसका पहला आयाम है, वह बहुत गहरा है, वहीं से पकड़े। सबसे पहली हिंसा, दूसरे हैः दूसरे को दूसरा मानने से शुरु होती हैः टू कन्सीव द अदर, एज द अदर। जैसे ही मैं कहता हूं आप दूसरे हैं, मैं आपके प्रति हिंसक हो गया। असल में दूसरे के प्रति अहिंसक होना असंभव है। सिर्फ अपने प्रति ही अहिंसक हो ही नहीं सकते। होने की बात ही नहीं उठती, क्योंकि दूसरे को दूसरा स्वीकार कर लेने में ही हिंसा शुरू हो। बहुत सूक्ष्म है, बहुत गहरी है।
सार्त्र का वचन है- द अदर इज हेल, वह जो दूसरा है वह नरक है। सार्त्र के इस वचन से मैं थोड़ी दूर तक राजी हूं। उसकी समझ गहरी है। वह ठीक कह रहा है दूसरा नरक है। लेकिन उसकी समझ अधूरी भी है। दूसरा नरक नहीं है, दूसरे को दूसरा समझने में नरक है ।
पुस्तक "ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया'' से
अंधकार खोना है, प्रकाश पाना है। अत्सय खोना है सत्य पाना है, इससे एक बात और खयाल में लेना जरूरी है कि नकारात्मक शब्द इस बात की खबर देते है कि अहिंसा हमारा स्वाभाव है, उसे पाया जा सकता, वह है ही। हिंसा पायी गयी है। वह हमारा स्वभाव नहीं है। वह अर्जित है, एचीव्ड। हिंसक बनने के लिए हमें कुछ करना पड़ा है। हिंसा हमारी उपलब्धि है। हमने उसे खोजा है, हमने उसे निर्मित किया है। अहिंसा हमारी उपलब्धि नहीं हो सकती। सिर्फ हिंसा न हो जाये तो जो शेष बचेगा वह अहिंसा होगी।
इसलिए साधना नकारात्मक है। वह जो हमने पा लिया है और जो पाने योग्य नहीं है, उसे खो देना है। जैसे कोई आदमी स्वभाव से हिंसक नहीं है, हो नहीं सकता। क्योंकि कोई भी दुख को चाह नहीं सकता और हिंसा सिवाय दुख के कहीं भी नहीं ले जाती। हिंसा एक्सीडेंट है, चाह नहीं है। वह हमारे जीवन की धारा नहीं है। इसलिए जो हिंसक है वह भी चौबीस घंटे हिंसक नहीं हो सकता। अहिंसक चौबीस घंटे अहिंसक हो सकता है। हिंसक चौबीस घेटे हिंसक नहीं हो सकता। उसे भी किसी वर्तुल के भीतर अहिंसक ही होना पड़ता है। असल में, अगर वह हिंसा भी करता है तो किन्ही के साथ अहिंसक हो सके, इसीलिए करता है। कोई आदमी चौबीस घंटे चोर नहीं हो सकता। और अगर कोई चोरी भी करता है तो इसलिए कि कुछ समय वह बिना चोरी के हो सके। चोर का लक्ष्य भी अचोरी करना है, और हिंसक का लक्ष्य भी अहिंसा है। और इसीलिए ये सारे शब्द नकारात्मक हैं।
धर्म की भाषा में दो शब्द विधायक हैं, बाकी सब शब्द नाकारात्मक हैं। उन दोनों को मैंने चर्चा से छोड़ दिया है। एक ‘सत्य’ शब्द विधायक है, पॉजिटिव है; और एक ‘ब्रह्मचर्य’ शब्द विधायक है, पॉजिटिव है।
यह भी प्राथमिक रूप से खयाल में ले लेना जरूरी है कि जो पांच शब्द मैंने चुने हैं, जिन्हें मैं पंच महाव्रत कह रहा हूं, वे नकारात्मक हैं। जब वे पांचो छूट जायेंगे तो जो भीतर उपलब्ध होगा सत्य, और जो बाहर होगा ब्रह्मचर्य।
सत्य आत्मा बन जायेगी इन पाँच के छूट जाने पर और ब्रह्यचर्य आचरण बन जायेगा इन पांच के छूटने पर। वे दो विधायक शब्द हैं। सत्य का अर्थ है, जिसे हम भीतर जानेंगे। और ब्रह्मचर्य का अर्थ है, जिसे हम बाहर से जीयेंगे। ब्रह्मचर्य का अर्थ है, जो ईश्वर जैसा हो जाये। ईश्वर जैसा आचरण। ईश्वर जैसा आचरण उसी का हो सकता है, जो ईश्वर जैसा हो जाये। सत्य का अर्थ है-ईश्वर जैसे हो जाना। सत्य का अर्थ है- ब्रह्म। और ईश्वर जैसा हो गया उसकी जो चर्या होगी, वह ब्रह्मचर्य होगी। वह ब्रह्म जैसा आचरण होगा। ये दो शब्द धर्म की भाषा में विधायक है, पॉजिटिव हैं; बाकी पूरे धर्म की भाषा नकारात्मक है। इन पांच दिनों में इन पांच नकार पर विचार करना है। आज पहले नकार पर-अहिंसा ।
अगर ठीक से समझें तो अहिंसा पर कोई विचार नहीं हो सकता है, सिर्फ हिंसा पर विचार हो सकता है और हिंसा के न होने पर विचार हो सकता है। ध्यान रहे अहिंसा का मतलब सिर्फ इतना ही है- हिंसा का न होना, हिंसा की एबसेन्स, अनुपस्थिति-हिंसा का अभाव।
इसे ऐसा समझें। अगर किसी चिकित्सक को पूछें कि स्वास्थ्य की परिभाषा क्या है ? कैसे आप डेफिनीशन करते है स्वास्थ्य की ? तो दुनिया में स्वास्थ्य के बहुत से विज्ञान विकसित हुए हैं, लेकिन कोई भी स्वास्थ्य की परिभाषा नहीं करता। अगर आप पूछें कि विकसित हुए हैं, लेकिन कोई भी स्वास्थ्य की परिभाषा नहीं करता। अगर आप पूछें कि स्वास्थ्य की परिभाषा क्या है तो चिकित्सक कहेगा: जहां बीमारी न हो। लेकिन यह बीमारी की बात हुई, यह स्वास्थ्य की बात न हुई। यह बीमारी का न होना हुआ। बीमारी की परिभाषा हो सकती है, डेफिनीशन हो सकती है कि बीमारी क्या है ? लेकिन परिभषा नहीं हो सकती- स्वास्थ्य क्या है। इतना ज्यादा से ज्यादा हम कह सकते हैं कि जब कोई बीमार नहीं है तो वह स्वस्थ है।
धर्म परम स्वास्थ्य है ! इसलिए धर्म की कोई परिभाषा नहीं हो सकती। सब परिभाषा अधर्म की है। इन पांच दिनों हम धर्म पर विचार नहीं करेंगे। अधर्म पर विचार करेंगे।
विचार से, बोध से, अधर्म छूट जाये तो जो निर्विकार में शेष रह जाता है, उसी का नाम धर्म की है। इसलिए जहां-जहां धर्म पर चर्चा होती है, वहां व्यर्थ होती है ! चर्चा सिर्फ अधर्म की ही हो सकती है। चर्चा धर्म की हो नहीं सकती। चर्चा बीमारी की हो सकती है, चर्चा स्वास्थ्य की नहीं हो सकती। स्वास्थ्य को जाना जा सकता है स्वास्थ्य को जीया जा सकता है धर्म में हुआ जा सकता है, धर्म की चर्चा नहीं हो सकती। इसलिए धर्मशास्त्र वस्तुतः अधर्म की चर्चा करते हैं। धर्म की कोई चर्चा नहीं करता।
पहले अधर्म की चर्चा हम करें- हिंसा। और जो-जो हिंसक हैं, उनके लिए यह पहला व्रत है। यह समझने जैसा मामला है कि आज हम जो विचार करेंगे वह यह मान कर करेंगे कि हम हिंसक है। इसके अतिरिक्त उस चर्चा का कोई अर्थ नहीं है। ऐसे भी हम हिंसक है। हमारे हिंसक होने में भेद हो सकते हैं। और हिंसा की इतनी पर्तें हैं। ऐसे भी हम हिंसक हैं। हमारे हिंसक होने में भेद हो सकते हैं। और हिंसा की इतनी पर्तें हैं, और इतनी सूक्ष्मताएं हैं, कि कई बार ऐसा भी हो सकता है कि जिसे हम हिंसा कह रहे हैं और समझ रहे हैं। वह हिंसा का बहुत सूक्ष्म रूप हो सकता हो। जिंदगी बहुत जटिल है।
उदाहरण के लिए गांधी की अहिंसा को मैं हिंसा का सूक्ष्म रूप कहता हूं और कृष्ण की हिंसा को अहिंसा का स्थूल रूप कहता हूं। उसकी हम चर्चा करेंगे तो खयाल में आ सकेगा। हिंसक को ही बिचार करना जरूरी है अहिंसा पर। इसलिए यह भी प्रासंगिक है समझ लेना, कि दुनिया में अहिंसकों की जमात से आया।
जैनों के चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय थे। वह जमात हिंसको की थी। उनमें एक भी ब्राह्मण नहीं था। इनमें एक भी वैश्य नहीं था। बुद्ध क्षत्रिय थे। दुनिया में अहिंसा का विचार हिंसको की जमात से आया है। दुनिया में अहिंसा का खयाल, जहां हिंसा घनी थी, सघन थी, वहां पैदा हुआ है।
असल में हिंसकों को ही सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा है अहिंसा के संबंध में। जो चौबीस घंटे हिंसा में रत थे, उन्हीं को यह दिखाई पड़ा है कि हमारी बहुत अंतर-आत्मा नहीं है, असल में हाथ में तलवार हो, क्षत्रिय का मन हो, तो बहुत देर न लगेगी यह देखने में कि हिंसा हमारी पीड़ा है, दुख है। वह हमारा जीवन नहीं है। वह हमारा आनंद नहीं है।
आज का व्रत हिंसकों के लिए है। यद्यपि जो अपने को अहिंसक समझते हैं वे आज के व्रत पर विचार करते हुए मिलेंगे ! मैं तो मान कर चलूंगा कि हम हिंसक इकट्ठे हुए हैं। और जब मैं हिंसा के बहुत रूपों की आप से बात करूंगा तो आप समझ पायेंगे कि आप किस रूप के हिंसक हैं। और हिंसक और अहिंसक होने की पहली शर्त है, अपनी हिंसा को ठीक-ठाक जगह पर पहचान लेना। क्योंकि जो व्यक्ति हिंसा को ठीक से पहचान ले, वह हिंसक नहीं रह सकता है। हिंसक रहने की तरकीब, टेकनीक एक ही है कि हम अपनी हिंसा को अहिंसा के वस्त्र पहन लेती है। वह धोखा पैदा होता है।
सुनी है मैंने एक कथा, सीरियन पैदा होता है ।
सौन्दर्य और कुरूप की देवियों को जब परमात्मा ने बनाया और वे पृथ्वी पर उतरीं, तो धूल-धवांस से भर गए होंगे उनके वस्त्र, तो एक झील के किनारे वस्त्र रख कर स्नान करने झील में गईं। स्वभावतः सौंदर्य की देवी को पता भी नहीं न था कि उसके वस्त्र बदले जा सकते हैं। असल में सौंदर्य को अपने वस्त्रों का पता ही नहीं होता है। सौंदर्य को अपनी देह का भी पता नहीं होता है। सिर्फ कुरूपता को देह का बोध होता है, सिर्फ कुरुपता को वस्त्रों की चिंता होती है। क्योंकि वस्त्रों और देह की व्यवस्था से अपने को छिपाने के उपाय करती है। सौंदर्य की देवी झील में स्नान करते निकल गई, और कुरुपता की देवी को मौका मिला; वह बाहर आई, उसने सौंदर्य की देवी के कपड़े पहने और चलती बनी। जब सौंदर्य की देवी बाहर आई तो बहुत हैरान हुई। उसके वस्त्र तो नहीं थे। वह नग्न खड़ी थी गाँव के लोग जागने शुरू हो गये और राह चलने लगी थी। और कुरुपता की देवी उसके वस्त्र लेकर भाग गई थी तो मजबूरी में उसे कुरुपता के वस्त्र पहन लेने पड़े। और कथा कहती है कि तब से वह कुरूपता की देवी का पीछा कर रही है और खोज रही है; लेकिन अब तक मिलना नहीं हो पाया। कुरुपता अब भी सौंदर्य के वस्त्र पहने हुए है और सौंदर्य की देवी अभी भी मजबूरी में कुरूपता के वस्त्र ओढ़े हुए है।
असल में असत्य को जब भी खड़ा होना हो तो उसे सत्य का चेहरा उधार लेना पड़ता है ! असत्य को भी खड़ा होना पड़ता हो तो उसे सत्य का ढंग अंगाकार करना पड़ता है। हिंसा को भी खड़े होने के लिए अहिंसा बनाना पड़ता है। इसलिए अहिंसा की दिशा में जो पहली बात जरूरी है, वह यह है कि हिंसा का चेहरा पहचान लेने जरूरी हैं। खास कर उसके अहिंसक चेहरे, नान-वायलेंट फेसेज़ पहचान लेना बहुत जरूरी है। हिंसा, सीधा धोखा किसी को भी नहीं दे सकती। दुनिया में कोई भी पाप, सीधा धोखा देने में असमर्थ है। पाप को भी पुण्य की आड़ में ही धोखा देना पड़ता है तो पुण्य के गुण-गौरव की कथा है। इससे पता चलता है कि पाप भी अगर जीतता है तो पुण्य का चेहरा लगा कर जीतता है। जीतता सदा पुण्य ही है। चाहे पाप के ऊपर चेहरा बन कर जीतता हो और चाहे खुद को अंतरात्मा बन कर जीतता हो। पाप कभी जीतता नहीं। पाप अपने में हारा हुआ है ! हिंसा जीत नहीं सकती। लेकिन दुनिया से हिंसा मिटती नहीं, क्योंकि हमने हिंसा के बहुत से अहिंसक चेहरे खोज निकाले हैं। पहले हिंसा के चेहरों को समझने की कोशिश करें।
हिंसा का सबसे पहला रूप, सबसे पहली डायमेंशन, उसका पहला आयाम है, वह बहुत गहरा है, वहीं से पकड़े। सबसे पहली हिंसा, दूसरे हैः दूसरे को दूसरा मानने से शुरु होती हैः टू कन्सीव द अदर, एज द अदर। जैसे ही मैं कहता हूं आप दूसरे हैं, मैं आपके प्रति हिंसक हो गया। असल में दूसरे के प्रति अहिंसक होना असंभव है। सिर्फ अपने प्रति ही अहिंसक हो ही नहीं सकते। होने की बात ही नहीं उठती, क्योंकि दूसरे को दूसरा स्वीकार कर लेने में ही हिंसा शुरू हो। बहुत सूक्ष्म है, बहुत गहरी है।
सार्त्र का वचन है- द अदर इज हेल, वह जो दूसरा है वह नरक है। सार्त्र के इस वचन से मैं थोड़ी दूर तक राजी हूं। उसकी समझ गहरी है। वह ठीक कह रहा है दूसरा नरक है। लेकिन उसकी समझ अधूरी भी है। दूसरा नरक नहीं है, दूसरे को दूसरा समझने में नरक है ।
पुस्तक "ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया'' से
आभार - pustak.org
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