अब लौं नसानी, अब न नसैहों।
रामकृपा भव-निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं॥
पायो नाम चारु चिंतामनि उर करतें न खसैहौं।
स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचनहिं कसैहौं॥
परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन निज बस ह्वै न हँसैहौं।
मन मधुपहिं प्रन करि, तुलसी रघुपति पदकमल बसैहौं॥
भावार्थ : अब तक तो (यह आयु व्यर्थ ही ) नष्ट हो गयी, परन्तु अब इसे नष्ट नहीं होने दूंगा ।श्री राम की कृपा से संसाररूपी रात्रि बीत गयी है (मैं संसार की माया - रात्रि से जग गया हूँ ) अब जागने पर फिर माया का बिछौना नहीं बिछाऊंगा अब फिर माया के फंदे में नहीं फसुंगा ।
मुझे रामनामरूपी सुन्दर चिंतामणि मिल गयी है उसे ह्रदय रुपी हाथ से कभी नहीं गिरने दूंगा। अथवा ह्रदय से रामनाम का स्मरण करता रहूँगा और हाथ से राम नाम की माला जपा करूँगा ।श्रीरघुनाथ जी का जो पवित्र श्यामसुंदर रूप है उसकी कसौटी बनाकर अपने चित्तरूपी सोने को कसुंगा अथार्त यह देखूंगा की श्री राम के ध्यान में मेरा मन सदा सर्वदा लगता है की नहीं ।जब तक मैं इन्द्रियों के वश में था, तब तक इन्द्रियों ने (मन माना नाच नचाकर) मेरी बड़ी हंसी उडाई, परन्तु अब स्वतंत्र होने पर यानी मन- इन्द्रियों को जीत लेने पर उनसे अपनी हंसी नहीं कराऊंगा ।अब तो अपने मनरूपी भ्रमर को प्रण करके श्री राम जी के चरण कमलों में लगा दुँगा। अथार्त श्री रामजी के चरणों को छोड़कर दूसरी जगह अपने मन को नहीं जाने दुँगा ।
- गोस्वामी तुलसीदास जी (' विनय-पत्रिका')
बहुत सुन्दर भक्तिमयी रचना !
ReplyDeleteगोस्वामी तुलसीदास जी की 'विनय-पत्रिका' भक्तिपूर्ण रचनाओं का अनुपम संग्रह है,दिव्या जी पढने के लिए धन्यवाद
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