प्राणायाम से पहले ये जानना आवश्यक है की पंच कोश क्या हैं?
त्रिगुणमयी(सत्व,रज व तम ) माया से मोहित होने की वजह से ईश्वर के अंश आत्मा पर विकारों का एक आवरण चढ जाता है, जिसकी वजह से आत्मा ही जीवात्मा कही जाने लगती हैं। हमारे प्राचीन मनीषियों ने हमारी विशुद्ध आत्मा पर पड ने वाले उन आवरणों को कोश या शरीर भी कहा है जिनकी संखया पांच बतलायी गयी है। इन्हें पंचकोश कहकर ही इंगित किया करते हैं। ये पांचों इस प्रकार हैं -
१. अन्नमय कोश :- आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी - इन पंच महाभूतों से निर्मित हमारे भौतिक स्थूल शरीर का यह पहला आवरण अन्नमय कोश नाम से प्रसिद्ध है। हमारे स्थूल शरीर की त्वचा से लेकर हड्डियों तक सभी पृथ्वी तत्व से संबंधित हैं। संयमित आहार-विहार की पवित्रता, आसन-सिद्धि और प्राणायाम का नियमित अभ्यास करने से अन्नमय कोश की आवश्यक शुद्धि होती है। जब हमारे अन्नमय कोश की शुद्धि हो जाती है तब हमारे स्थूल शरीर का समुचित विकास होता है।
२. प्राणमय कोश :- हमारे शरीर का दूसरा सूक्ष्म भाग प्राणमय कोश कहा जाता है। हमारे स्थूल शरीर और हमारे मन के बीच में प्राणमय कोश है जो एक माध्यम का काम करता है। ज्ञान और कर्म के सम्पादन का समस्त कार्य प्राण से बना प्राणमय कोश ही संचालित किया करता है। हमारे द्वारा श्वांसों को लेने व छोड़ने की प्रक्रिया में भीतर-बाहर आने-जाने वाला प्राण हमारे शरीर के समस्त क्रियाशीलता को बनाये रखने और आवश्यक ऊर्जा प्रदान करने के महत्वपूर्ण कार्य को संपादित किया करता है जो स्थान तथा कार्य के भेद से १० प्रकार का माना जाता है। उनमें व्यान, उदान, प्राण, समान और अपान मुखय प्राण हैं तथा धनंजय, नाग, कूर्म, कृंकल और देवदत्त उपप्राण कहे जाते हैं।
हमारे प्राणों द्वारा संपादित होने वाले प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं - भोजन को सही ढंग से पचाना, शरीर में रसों को समभाव से विभक्त करना तथा उन्हें वितरित करते हुए देहेन्द्रियों को पुष्ट करना, खून के साथ मिलकर देह में हर जगह घूम-घूम कर वैसे मलों का निष्कासन करना, जो देह के विभिन्न भागों में एकत्रित होकर अथवा खून में मिल कर उसे दूषित कर दिया करते हैं। इतना ही नहीं, देह के माध्यम से विविध विषयों के भोग का कार्य भी हमारे प्राण ही संपादित किया करते हैं। प्राणविद्या की साधना के नियमित अभ्यास से हमारे प्राणमय कोश की कार्यशक्ति में भी समुचित वृद्धि होती है।
३. मनोमय कोश :- हमारे सूक्ष्म शरीर के इस पहले क्रिया प्रधान भाग को हमारे प्राचीन मनीषियों ने मनोमय कोश कहा है। मनोमय कोश में मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त को परिगणित किया गया है, जिन्हें अन्तःकरण चतुष्टय भी कहते हैं। पांच कर्मेन्द्रियां (वाणी,पैर,हाथ,गुदा व उपस्थ हैं, जिनका संबंध संसार के बाहरी व्यवहार से अधिक रहता है। मनोमय कोश पूरी तरह अन्तःकरण के क्रिया-कलापों के संपादन में अपनी महती भूमिका अदा करता है।
४. विज्ञानमय कोश :- हमारे सूक्ष्म शरीर का दूसरा भाग ज्ञान प्रधान है और उसे हमारे प्राचीन मनीषियों ने विज्ञानमय कोश कहा है। इसके मुख्य माध्यम ज्ञानयुक्त बुद्धि एवं ज्ञानेन्द्रियां(श्रवण,त्वचा,चक्षु,जिह्वा व नासिका ) हैं। जो मनुष्य पूरी समग्रता से समझ बूझ कर विज्ञानमय कोश का उचित ढंग से इस्तेमाल करता है और असत्य, भ्रम, मोह, आसक्ति आदि से पूरी तरह दूर रहकर हमेशा ध्यान आदि योगक्रियाओं का अभ्यास किया करता है, उसको उचित-अनुचित का निर्णय करने वाली विवेक युक्त बुद्धि बड़ी आसानी से प्राप्त हो जाती है।
५. आनन्दमय कोश :- हमारे प्राचीन मनीषियों ने इस कोश को हृदय गुहा, हृदयाकाश, कारण शरीर, लिंग शरीर आदि नामों से भी पुकारा है। यह हमारे हृदय प्रदेश में अवस्थित होता है। हमारे आन्तरिक जगत से इस कोश का संबंध बहुत अधिक रहता है और बाह्य जगत से बहुत कम। हमारे जीवित रहने, यानी हमारे स्थूल शरीर के कायम रहने और संसार के समस्त व्यवहारों के संपादित होने वाले क्रिया-कलाप भी इसी कोश पर अवलम्बित रहते हैं। किंतु इस कोश तक पहुंच पाना सबके लिए संभव नहीं हो पाता। वहां वही लोग पहुंच पाते हैं जो नियमित रूप से ध्यान आदि की साधना करते हुए निर्बीज समाधि तक पहुंचने में सफल हो जाते हैं। जो भी बड़भागी मनुष्य वहां तक पहुंचने में सफल होता है, वही हमेशा आनंद में लीन रहने वाली जीवन-स्थिति का उपभोग करता है ।
इन सभी कोषों का समाप्त होना ही आध्यात्मिक अर्थों में उनका शुद्ध होना है क्यूंकि इससे ही जीवात्मा अपने स्वरुप में और सहजता से व्याप्त हो भगवत्पथ पर दृढ रहता है ।
यहाँ(उपरोक्त) प्राणमय कोश की शुद्धि में प्राणायाम महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।
प्राणायाम का शाब्दिक अर्थ है प्राण का आयाम अथार्त प्राण को एकसमान गति में करना ।
मनुष्य में प्राण पांच तरह के होते हैं अथार्त हम जो श्वास लेते हैं वो पांच प्रकार में विभाजित है ।
इसके साथ ही पांच उपभेद भी होते हैं ।
१. प्राण :- हमारे शरीर में कंठ से लेकर हृदय तक जो वायु कार्य करती है, उसे प्राण कहते हैं। प्राणों का यह पहला भेद है और यह नासिका-मार्ग, कंठ, स्वर-तंत्र, वाक-इन्द्रिय, अन्न-नलिका, श्वसन-तंत्र, फेफड़ों एवं हृदय को क्रियाशील कर उन्हें शक्ति प्रदान करता रहता है।
२. अपान :- प्राणों के दूसरे भेद को अपान नाम से जाना जाता है। यह हमारी नाभि के नीचे से लेकर पैरों के अंगूठों तक शरीर को क्रियाशील रखता है।
३. उदान :- हमारे शरीर में कंठ के ऊपर से लेकर सिर तक देह में अवस्थित होकर प्राणों का यह तीसरा भेद उदान कहा जाता है जो अपनी क्रियाशीलता के क्षेत्र में जीवनी शक्ति का समुचित संचार करता है। यह प्राण हमारे कंठ से ऊपर शरीर के समस्त अंगों यानी नेत्र, नासिका व सम्पूर्ण मुख मण्डल को वांछित ऊर्जा व तेज प्रदान किया करता है। हमारे शरीर में अवस्थित पिच्युटरी व पिनियल ग्रंथि सहित पूरे मस्तिष्क को भी यह उदान प्राण ही सक्रिय किया करता है।
४. समान :- हमारे शरीर में अवस्थित प्राणों के चौथे भेद को समान कहा जाता है जो हृदय के नीचे से लेकर नाभि तक शरीर में संचारित हो, उसे वांछित शक्ति प्रदान किया करता है। यह प्राण यकृत, आन्त्र, प्लीहा व अग्न्याशय सहित सम्पूर्ण पाचन तंत्र की आन्तरिक क्रिया प्रणाली को संचालित करते हुए वांछित शक्ति प्रदान करता है।
५. व्यान :- हमारे शरीर में अवस्थित प्राणों के पांचवें भेद को व्यान कहा जाता है जो पूरे शरीर में व्याप्त रहते हुए जीवनी शक्ति का संचालन करता है। शरीर की समस्त गतिविधियों को प्राणों का यह भेद नियमित तथा नियंत्रित करता है। हमारे सभी अंगों, मांसपेशियों, तन्तुओं, संधियों एवं नाड़ियों को गतिशील व क्रियाशील रखते हुए सभी आवश्यक ऊर्जा व शक्ति का हमारे शरीर में संचार किया करता है। प्राणों के इन पांचों भेदों के अतिरिक्त हमारे शरीर में देवदत्त, नाग, कृंकल, कूर्म व धनंजय नाम के प्राणों के पांच उपभेद हैं जो क्रमशः छींकने, पलक झपकाने, जंभाई लेने, खुजलाने, हिचकी लेने आदि की क्रियाओं को संचालित किया करते हैं।
इस तरह से पुनः प्रमुख पांच प्राणों का कार्य है :
1. प्राण
2. अपान
3. समान
4. उदान
5. व्यान
श्वास पर नियंत्रण रखता है प्राण
प्रथम प्राण हमारी सांस की क्रिया पर नियंत्रण रखता है। यह वह शक्ति से जिससे हम सांस अंदर की ओर खींचते हैं और वक्षीय क्षेत्रों में गतिशीलता प्रदान करती है।
नाभि स्थान के नीचे क्रियाशील रहता है अपान
अपान उदर क्षेत्र के नीचे अर्थात् नाभि क्षेत्र के नीचे सक्रीय रहता है। मूत्र, वीर्य और मल निष्कासन को नियंत्रित करता है।
पाचन क्रिया में मदद करता है समान
उदर अथवा पेट स्थान को गतिशील करता है समान। यह पाचन क्रिया में मदद करता है। पेट के अवयवों को ठीक ढंग से काम करने के लिए सुरक्षा प्रदान करता है।
उदान वाणी और भोजन को व्यवस्थित करता है
उदान जीह्वा द्वारा कार्य करता है। यह वाणी और भोजन को व्यवस्थित करता है। उदान रीढ़ की हड्डी के नीचले हिस्से से ऊर्जा को मस्तिष्क तक पहुंचाता है।
नस-नस तक ऊर्जा पहुंचाता है व्यान
हमारे पूरे शरीर की गतिविधियों को व्यान नियंत्रित करता है। यह भोजन और सांस से मिलने वाली ऊर्जा को धमनियों, शिराओं और नाडिय़ों द्वारा पूरे शरीर में पहुंचाता है।
प्राणायाम
प्राणायाम का अर्थ है श्वास की गति को कुछ काल के लिये रोक लेना । साधारण स्थिति में श्वासों की चाल दस प्रकार की होती है - पहले श्वास का भीतर जाना , फिर रुकना , फिर बाहर निकलना ; फिर रुकना , फिर भीतर जाना , फिर बाहर निकलना इत्यादि । प्राणायाम में श्वास लेने का यह सामान्य क्रम टूट जाता है । श्वास (वायु के भीतर जाने की क्रिया ) और प्रश्वास (बाहर जाने की क्रिया ) दोनों ही गहरे और लम्बे होते हैं और श्वासों का विराम अर्थात् रुकना तो इतनी अधिक देर तक होता है कि उसके सामने सामान्य स्थिति में हम जितने काल तक रुकते है वह तो नहीं के समान और नगण्य ही है । योग की भाषा में श्वास खींचन को ‘पूरक ’ बाहर निकालने को ‘रेचक ’ और रोक रखने को ‘कुम्भक ’कहते हैं । प्राणायाम कई प्रकार के होते हैं और जितने प्रकार के प्राणायाम हैं , उन सबमें पूरक , रेचक और कुम्भक भी भिन्न -भिन्न प्रकार के होते हैं । पूरक नासिका से करने में हम दाहिने छिद्र का अथवा बायें का अथवा दोनों का ही उपयोग कर सकते हैं । रेचक दोनोम नासारन्धों से अथवा एक से ही करना चाहिये । कुम्भक पूरक के भी पीछे हो सकता है और रेचक के भी , अथवा दोनों के ही पीछे न हो तो भी कोई आपत्ति नहीं। पूरक , कुम्भक और रेचक के इन्हीं भेदों को लेकर प्राणायाम के अनेक प्रकार हो गये हैं ।
पूरक , कुम्भक और रेचक कितनी -कितनी देर तक होना चाहिये , इसका भी हिसाब रखा गया हैं । यह आवश्यक माना गया है कि जितनी देर तक पूरक किया जय , उससे चौगुना समय कुम्भक में लगाना चाहिये और दूना समय रेचक में अथवा दूसरा हिसाब यह है कि जितना समय पूरक में लगाया जाय उससे दूना कुम्भक में और उतरना ही रेचक में लगाया जाय । प्राणायाम की सामान्य प्रक्रिया का दिग्दर्शन कराकर अब हम प्राणायाम सम्बन्धी उन खास बातों पर विचार करेंगे जिनसे हम यह समझ सकेंगे कि प्राणायाम का हमारे शरीर पर कैसा प्रभाव पडता है ।
पूरक करते समय जब किं साँस अधिक -से -अधिक गहराई के साथ भीतर खींचे जाती है तथा कुम्भक के समय भी , जिसमें बहुधा साँस को भीतर रोकना होता है , आगे की पेट की नसों को सिकोडकर रखा जाता है । उन्हें कभी फुलाकर आगे की ओर नहीं बढाया जाता । रेचक भी जिसमें साँस को अधिक -से अधिक गहराई के साथ बाहर निकालना होता है , पेट और छाती को जोर से सिकोडना पडता है और उड्डीयान बन्ध के लिये पेट को भीतर की ओर खींचा जाता है । प्राणायाम के अभ्यास के लिये कोई -सा उपयुक्ति आसन चुन लिया जाता है , जिसमें सुखपूर्वक पालथी मारी जा सके और मेरुदण्ड सीधा रह सके ।
पूरक करते समय जब किं साँस अधिक -से -अधिक गहराई के साथ भीतर खींचे जाती है तथा कुम्भक के समय भी , जिसमें बहुधा साँस को भीतर रोकना होता है , आगे की पेट की नसों को सिकोडकर रखा जाता है । उन्हें कभी फुलाकर आगे की ओर नहीं बढाया जाता । रेचक भी जिसमें साँस को अधिक -से अधिक गहराई के साथ बाहर निकालना होता है , पेट और छाती को जोर से सिकोडना पडता है और उड्डीयान बन्ध के लिये पेट को भीतर की ओर खींचा जाता है । प्राणायाम के अभ्यास के लिये कोई -सा उपयुक्ति आसन चुन लिया जाता है , जिसमें सुखपूर्वक पालथी मारी जा सके और मेरुदण्ड सीधा रह सके ।
पुनः ये बुनियादी बात समझना आवश्यक है की
श्वास खींचन को ‘पूरक ’
बाहर निकालने को ‘रेचक ’ और
रोक रखने को ‘कुम्भक ’कहते हैं ।
अधिकतर प्राणायाम में कुम्भक बीच में रखा जाता है अथार्त
पूरक कुम्भक रेचक
अन्यथा रेचक कुम्भक पूरक के द्वारा प्राणायाम किया जाता है ।
वास्तव में शारीरिक लाभ से कहीं अधिक योग से व्यक्ति को मानसिक व आध्यात्मिक लाभ मिलता है ।
योग अनेक प्रकार के होते हैं। राजयोग , कर्मयोग ,हठयोग , लययोग , सांख्ययोग , ब्रह्मयोग , ज्ञानयोग , भक्ति योग ,ध्यान योग , क्रिया योग ,विवेक योग , विभूति योग व प्रकृति पुरुष योग ,मंत्र योग , पुरुषोत्तम योग , मोक्ष योग , राजाधिराजयोग आदि। मगर याज्ञवल्क्यजी ने जीवात्मा औरपरमात्मा के मेल को ही योग कहा है। वास्तव में योग एक ही प्रकार का होता है , दो या अनेक प्रकारका नहीं। याज्ञवल्क्य जी बहुत बड़े,ब्रह्मवेत्ता,परमात्मस्वरूप व महान ऋषि थे। उन्होंने ही योग को संपूर्णरूप से पारिभाषित किया था। याज्ञवल्क्य जी के मुताबिक जिस समय मनुष्य सब चिंताओं कापरित्याग कर देता है , उस समय उसके मन की , उसकी उस लय अवस्था को योग कहते हैं।अर्थात चित्त की सभी वृत्तियों को रोकने का नाम योग है। वासना और कामना से लिप्त चित्त को वृत्ति कहा गया है। यम नियम आदि की साधना से चित्तका मैल छुड़ा कर इस वृत्ति को रोकने का नाम योग है। योग के आठ अंग हैं। उन्हीं की साधनाकरनी होती है। साधना का अर्थ है अभ्यास। ऋषि याज्ञवल्क्य के अनुसार यम , नियम , आसन, प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और समाधि योग के ये आठ अंग हैं। पहले यम , नियम के साथ ही साथ आसन का भी अभ्यास करना उचित है। स्थिर सुखमासनम् यानि शरीर न हिले , न डुले , न दुखे , न चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग हो , ऐसी अवस्थामें बैठने को आसन कहते हैं। इस के लिए सिद्धासन श्रेष्ठ है। सिद्ध योगी सिद्धासन तथा मुक्तपद्मासन की ही सलाह देते हैं।सिद्धासन का अभ्यास करने से योग में शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त होती है। इसके कारण वायुपथ सरलहोता है। पद्मासन लगाने से निद्रा , आलस्य , जड़ता और देह की ग्लानि निकल जाती है। इन दो प्रकार के आसनों के अतिरिक्त स्वस्तिकासन , भद्रासन , उग्रासन , वीरासन , योगासन ,शवासन , सिंहासन , मयूरासन , शीर्षासन आदि अनेक प्रकार के आसन भी प्रचलित हैं।आसन करने का मतलब यही है कि शरीर स्वस्थ रहे। परंतु सदा ही यह स्मरण रखना चाहिए कि आसन का सबसे मुख्य उद्देश्य यहहै कि मेरूदंड ( पीठ की रीढ़ ) सदा सीधा रहे। इसलिए प्रत्येक बार कम से कम आधा घंटा अवश्य आसन लगाना चाहिए।
जप से ध्यान में सौगुना अधिक फल मिलता है। और ध्यान की अपेक्षा सौगुना अधिक लाभ होता है लय योग से।प्राणायाम में सबसे अधिक प्रचलित आसन हैं सिद्धासन व पद्मासन ।
ज्ञानवर्द्धक जानकारी ....बार-बार पढ़ने योग्य लाभ लेने के लिए |
ReplyDeleteआभार |
बहुत सुन्दर प्रविष्टि...वाह!
ReplyDeleteयादें....ashok saluja . has left a new comment on your post "पंच कोश,पंच प्राण प्राणायाम व योगासन":
ReplyDeleteज्ञानवर्द्धक जानकारी ....बार-बार पढ़ने योग्य लाभ लेने के लिए |
आभार |