अध्याय 18
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥
अर्थ : तुझे यह गीता रूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए, न भक्ति-(वेद, शास्त्र और परमेश्वर तथा महात्मा और गुरुजनों में श्रद्धा, प्रेम और पूज्य भाव का नाम 'भक्ति' है।)-रहित से और न बिना सुनने की इच्छा वाले से ही कहना चाहिए तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है, उससे तो कभी भी नहीं कहना चाहिए॥67॥
भावार्थ : यहाँ भगवान् हमे बता रहे हैं की अनमोल वस्तु का महत्व उसकी विशेषता जानकारी पर ही होता है,
इसलिए भगवान् बता रहे हैं की ऐसा ज्ञान जो इसका अधिकारी हो उसे ही देना चाहिए और उसे ही मिलना चाहिए । अश्रद्धा और अनमने भाव से सुनने वाला इसके तत्त्व को नहीं प् सकता ।
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥
अर्थ : जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा- इसमें कोई संदेह नहीं है॥68॥
भावार्थ : यहाँ भगवान् गीता के वचनों को किसी भी प्रकार अधिकारी व्यक्तियों से कहने का महातम्य बता रहे हैं की जैसे व्यक्ति का इसे सुन कर समझ कर मनन कर उद्धार होता है वैसे ही इसे सुनाने वाला अथार्त इसका ज्ञान बाटने वाला भी प्रभु को ही प्राप्त होता है ।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥
अर्थ : उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं॥69॥
भावार्थ : यहाँ भगवान् और विस्तार से इस ज्ञान भक्ति को बताने वाली गीता के उपदेशों को बाटने के पुण्य का
महात्म बता रहे हैं । भगवान् का इस्पष्ट कहना है की गीता का पालन जीवन में करने से व्यक्ति अपने चारो उद्देश्य (धर्म, अर्थ ,काम, मोक्ष )पा जाता है । चारों तरह के भक्त आर्त, अथार्थी जिज्ञासु और ज्ञानी गीता से अपने अपने मार्गानुसार माढ़दर्शन प्राप्त करते हैं ।इसलिए भगवान् इसके ज्ञान के प्रसाद को वितरित करने वाले को
अपना अति प्रिय मानते हैं ।