सागर चाहे सुख का हो चाहे दुःख का सागर होता है
समुन्दर में आदमी चाहे ना चाहे पर किनारा ढूंढता है
येही प्रश्न सर्वाधिक चिंतन के योग्य है
इसे जिसने समझा वोही सुयोग्य है
सत्व ,रज और तम के गुणों से प्रभावित व्यक्ति सोच नहीं पाता
सात्विकता का अंश बढ़ने से ही तुरीयावस्था का ज्ञान है हो पाता
समुन्दर में आदमी चाहे ना चाहे पर किनारा ढूंढता है
येही प्रश्न सर्वाधिक चिंतन के योग्य है
इसे जिसने समझा वोही सुयोग्य है
सत्व ,रज और तम के गुणों से प्रभावित व्यक्ति सोच नहीं पाता
सात्विकता का अंश बढ़ने से ही तुरीयावस्था का ज्ञान है हो पाता
व्यक्ति स्वयं ही किनारा है उसे कहीं भी जाना नहीं है
तनिक भी समुन्दर की लहराती लहरों से घबराना नहीं है
स्वयं को शरीर मान कर ही वो मृत्यु से डरता रहता
आत्मा उसका स्वरुप और अविनाशी का नाश नहीं हो सकता
ये जीवन इसी परमात्मतत्त्व की प्राप्ति हेतु तो मिला हुआ है
जिसने इसे पाया परमानन्द का केंद्र हो गया है
तनिक भी समुन्दर की लहराती लहरों से घबराना नहीं है
स्वयं को शरीर मान कर ही वो मृत्यु से डरता रहता
आत्मा उसका स्वरुप और अविनाशी का नाश नहीं हो सकता
ये जीवन इसी परमात्मतत्त्व की प्राप्ति हेतु तो मिला हुआ है
जिसने इसे पाया परमानन्द का केंद्र हो गया है
yahan is blog mein sukun hai...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना!
ReplyDeleteरश्मि जी शास्त्री जी आपने रचना को पढ़ा आभार
ReplyDeleteआपके शब्दों हेतु धन्यवाद !
पावन भाव...बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर!
ReplyDeleteमोनिका जी,अनुपमा जी आपका बहुत आभार
ReplyDeleteधन्यवाद!