Monday, 7 May 2012

ध्यानयोग 3

ध्यान की कई विधि प्रचलित हैं और अपनी अपनी जगह सभी सार्थक हैं
चाहे हम विपस्स्यना विधि जो भगवान् बुद्ध ने दी उसकी बात करें अथवा सुदर्शन क्रिया की या चाहे ओशो की ध्यान प्रणाली को समझें या फिर भगवद गीता के गूढ़ सिद्धांतों को समझें
ये सभी सिर्फ तभी उपयोगी हैं जब हम इनको अनुभव में लायें और अनुभव में कितना आ रहा है ये बहुत आसानी से हमारे व्यक्तित्व में,विचारों में,आचरण में दिखने लगता है
बिना अनुभव में आये हुए ध्यान की बात सिर्फ ऐसी है जैसे हमने कोई किताब पढ़ ली लेकिन उसमे लिखी बातों को जीवन में नहीं उतारा
यदि ध्यान के बाद हमारे अन्दर स्वाभाविक शान्ति बढ़ रही है,एकांत हमे अच्छा लग रहा है,क्षमा,दया,सहिष्णुता और अहिंसा(मन,कर्म व वचन  द्वारा हिंसा न करना) बढ़ रही है तो हमारा ध्यान बिलकुल ठीक दिशा में बढ़ रहा है

परन्तु यदि हम ध्यान में सोने लगते हैं,सर में दर्द होने लगता है अथवा ध्यान में बैठकर  इधर उधर सोचते रहते हैं तो ध्यान फलीभूत नहीं हुआ

अथवा हम इससे आगे बढे अथार्त मन एकाग्र होने लगा परन्तु दैवीय गुण नहीं निखारें अथवा बढे या फिर असुरी गुण वैसे के वैसे ही रहे तो मतलब
हम ध्यान में नहीं पहुँच पा रहे हैं

ध्यान एक शुद्धि है एक रेचन है जिसमे हमारे अन्दर की अशुद्धियाँ हटती हैं जिसमे हम अपने आप से ही अपने विकार मिटाते हैं
कैसे?
अपने अविनाशिस्वरूप के ज्ञान के द्वारा

अपने अविनाशिस्वरूप आत्मा में अपनी स्वाभाविक स्थिति के द्वारा
हमारे मन,बुद्धि को निर्मल करने का एक माध्यम है ध्यान और यदि हमारे मन में विकार बने रहते हैं ज़रा भी कम नहीं होते,यदि हम ध्यान में शान्ति नहीं महसूस कर रहे तो हमे तुरंत ऐसे ध्यान को रोक देना चाहिए क्यूंकि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है,बहुत संभव है हम अपना दिमाग लगा रहे हों कही हुई बात की जगह

सीधी सी बात है जैसे घर का कचरा निकालते समय फैन बंद कर देते हैं उसी तरह मन मस्तिष्क की गन्दगी साफ़ करने के लिए हम विचारशून्यता का आश्रय लेते हैं

विचारशून्यता का कायम रहना ध्यान है और ध्यान की अनुपस्थिति मन है

बहुत आवश्यक है की ध्यान के लिए बैठते समय हम अपने अन्दर के मन को,अपने अंतःकरण को राग-द्वेष दोनों की तरफ बढ़ने से रोकें व सम होने का प्रयत्न करें क्यूंकि आत्मा की प्रकृति समता ही है


ध्यान के लिए मेरा मानना है सबसे अधिक ज़रूरी है वैराग्य यानी हमे सिर्फ इतना मानना है जो की हम जानते भी हैं की ये जीवन क्षणभंगुर है,इसमें चाहे हम जितनी भी दक्षता से जो भी सांसारिक कार्य कर लें और नाम,धन,मान अर्जित कर लें परन्तु वो हमारे कौड़ी भर भी काम नहीं आने वाले
। हमारे काम तो सिर्फ आना है हमारी आत्मा जो की हमारा स्वरुप है और जिससे हम विमुख हुए बैठे हैं 
ध्यान अपनी आत्मा के अथार्त अपने स्वरुप के सम्मुख होना है

सच्चाई तो ये है की ध्यान के इलावा गया हुआ हमारा सारा समय निश्चित ही व्यर्थ हो जाना है क्यूंकि संकल्प विकल्प के द्वारा जो हम जीवन जीते हैं उससे तो फल में अगले जन्म में भी हमे सुख अथवा दुःख ही मिलना

है अथार्त संकल्प अथवा विकल्प ही मिलना है
। यही पूर्वजन्मों के संस्कार हमे आगे नहीं बढ़ने देते क्यूंकि ये स्वयं ही अज्ञान हैं जो हमारे ज्ञान रुपी दर्पण के चारों तरफ जम गए हैं जिसमे जब ज़रा सी गन्दगी सत्संग आदि से कम होती है हमे लगता है हमे थोडा ज्ञान मिला । परन्तु कुछ ही देर में जो थोड़ी सफाई हुई थी पुनः उसे हमने स्वयं ही राग-द्वेष द्वारा गन्दा कर दिया । इस तरह से पुनः ज्ञान आच्छादित होने स रुक गया,पुनः हम अपने मन,बुद्धि के वश में हो गए,पुनः हमे लगने लगा भला मन,बुद्धि से भी कुछ ऊपर होता है ?भला जीवन में मन को नियंत्रि भी किया जा सकता है ? 
ध्यान से हम इस दर्पण को अच्छी तरह साफ़ कर सकते हैं और इतना साफ़ की हमे स्वयं का स्वरुप दिखाई देने लगता है,तत्व-ज्ञान सुनाई पड़ने लगता है
।  और तब उल्टा होना शुरू हो जाता यानी हमारा यही मन जो सांसारिक सुखों को ही सब कुछ समझता है ध्यानजनित आनंद पाकर,सुख पाकर ज्ञान रुपी दर्पण को स्वयं ही साफ़ रखता है ,उसमे ज़रा भी अज्ञान रुपी धूल नहीं लगने देता


ध्यान का अनुभव एक बार हो जाने से दुबारा ध्यान में जाना कठिन नहीं होता


असल में ध्यान तक पहुँचने की सीढ़ी जो मह्रिषी पतंजलि जी ने बतायी है उसे उन्होंने आष्टांग योग में समाहित किया है
ध्यान को सातवें स्थान पर व उसके बाद आठवें व अंतिम पायदान पर है समाधि



यम
नियम
आसन
प्राणायाम
प्रत्याहार
धारणा
ध्यान
समाधि


यहाँ ध्यान के पहले भी यम(अहिंसा,सत्य,अस्तेय,ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह ) और नियम(शौच,संतोष,तप,स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान ) आये हैं

जो इसी बात को इंगित करते हैं की ध्यान से पहले हमे अपने अंतःकरण को जितना ज्यादा हो साफ़ कर लेना चाहिए हमे ये बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए की भले हम हज़ारों लोगों को जानते हों लेकिन हमारे साथ सिर्फ हम ही रहते हैं हमारे काम भी सिर्फ हम ही आ सकते हैं इसलिए अपने आप से अपने मित्र बनें अपने आप से अपने शत्रु  नहीं



श्रीमद भगवद गीता में भगवान् ने छठे अध्याय में यही बात कही है :

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥
भावार्थ :  अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है ॥5॥
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्‌ ॥
भावार्थ :  जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है॥6॥


बहरहाल अष्टांग योग में आये इतने चरणों को देखके ध्यान दुष्कर नहीं लगना चाहिए क्यूंकि जैसे वो क्रिया में लिखे हैं अथार्त ध्यान तक पहुँचने के पहले कई चरण हैं वैसे ही वो समझने में भी हैं

यानी इन्हें हमे समझना मात्र ही है क्यूंकि वैसे भी ये आस्तित्व द्वारा स्वयं ही हमसे हो जाते हैं जब शुद्ध भावना से हम ध्यान के लिए जाते हैं
ध्यान को जितना कठिन हम समझेंगे ये उतना कठिन लगेगा और जितना इसे स्वरुप की स्वाभाविक स्थिति मानेंगे ये उतना ही आसान लगेगा

Friday, 4 May 2012

ध्यानयोग 2


स्वयं का स्वरुप आत्मा जानने के बाद साधक सर्वप्रथम तो ये जान जाता है की मन,बुद्धि आत्मा के अधीन हैं ।इसलिए वो उनकी सत्ता से अधीर नहीं होता वरन मनन करता हुआ आत्मा में रमण करने का प्रयत्न करता है
इस स्थिति के लिए धीरे धीरे अभ्यास द्वारा पहले मन को एकाग्र करना होता है
बहुधा हम ध्यान का अर्थ मात्र एकाग्रता लगा लेते हैं जबकि ऐसा कदापि नहीं है एकाग्रता तो ध्यान तक पहुँचने की प्रक्रिया मात्र में है

मन के एकाग्र करने के उपरान्त साधक ध्यान में पहुँच जाता है

यहाँ फिर प्रश्न आता है की मन एकाग्र कैसे हो ?
ऐसा प्रश्न अधिकतर उन साधकों के मन में आता है जिन्होंने अपने स्वरुप के महत्व को नहीं स्वीकारा

बहरहाल ऐसा होने पर इसे दूसरी तरह से समझें

बुद्धि निर्णय (संकल्प ) करती है और मन विकल्प प्रस्तुत करता है उदहारणस्वरुप बुद्धि ने सोचा भूख लगी है तुरंत ही मन ने कई तरह के व्यंजन सामने उपस्थित कर दिए

बुद्धि ने निर्णय किया मुझे लिखना है मन ने तुरंत ही विकल्प प्रस्तुत कर दी ये लिखना है,इस पर लिखना है,कलम से लिखना है पेंसिल से लिखना है इत्यादि

यहाँ यदि बुद्धि शांत हो जाए तो निश्चित मानिए मन शांत हो जाएगा क्यूंकि मन बुद्धि से ही संचालित होता है

अतः जैसे ही हम चेतन तत्त्व को आत्मा को प्रधानता देते हैं और चूँकि बुद्धि जड़ है उसका कार्यक्षेत्र भी जड़ है और बुद्धि स्वयं आत्मा द्वारा ही संचालित होती है तो बुद्धि शांत रहती है

बुद्धि के शांत होने पर मन भी शांत रहता है और संकल्प विकल्प नहीं उठते ऐसी अवस्था में चित्त निरुद्ध हो जाता है और साधक स्वतः ध्यान में प्रवेश कर जाता है
। यही बात ऐसे भी समझ सकते हैं की जिन्होंने आत्मा में स्वरुप को लगा दिया तो स्वाभाविक ही उनका चित्त निरुद्ध हो जाता है
यहाँ कोई विचार नहीं है यहाँ वो स्वयं उपस्थित है और स्वयं से ही बात कर रहा है

परन्तु बात जो असली बात है की साधक स्वयं से बात कर सके वो तो काफी अभ्यास के बाद संभव है परन्तु अभी वो स्वस्वरूप के साक्षात्कार के प्रारभिक चरण में प्रवेश कर गया इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं

साधक को ध्यान में कुछ भी नहीं करना है बस विचार का भी विचार नहीं होना चाहिए

यहाँ ये ध्यान देने की बात है की विचार का भी विचार न करना स्वयं में एक विचार है परन्तु विचार का भी विचार न होना स्थिति है और यही ध्यान है

यहाँ फिर एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न आ सकता है की निर्विचार होने के बारें में हमे पता तो चलता ही है तो क्या वो बुद्धि के द्वारा नहीं है ?
ऐसा होता है अतिसूक्ष्म शुद्ध बुद्धि द्वारा परन्तु मात्र आभास ही मिल सकता है,वास्तव में बुद्धि वहां तक पहुँचती नहीं

स्वयं का अविनाशीस्वरूप तीनो गुणों (सत्व,रज,तम ) से अतीत है अथार्तगुणातीत है इसलिए बुद्धि ग्राह्र होने पर भी वो बुद्धि से बिलकुल अतीत है
। इसमें परमात्मा की कृपा ही देखनी चाहिए ।   



श्रीमद भगवद्गीता में छठे अध्याय के इन श्लोकों में भगवान् साधक से यही बता रहे हैं : 

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥
भावार्थ :  अत्यन्त वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भलीभाँति स्थित हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण भोगों से स्पृहारहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है॥18॥ 
यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥
भावार्थ :  जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है॥19॥
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥
भावार्थ :  योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है॥20॥
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्‌ ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥
भावार्थ :  इन्द्रियों से अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है, और जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नहीं॥21॥


Wednesday, 2 May 2012

ध्यानयोग


ध्यान सही मायने में किसे कहते हैं ध्यान क्या है इसे समझना अत्यंत आवश्यक है
हम खासकर जिन्होंने ध्यान का आनंद नहीं लिए ये नहीं जानते की जीवन तब तक अधूरा है या ये कहें की निरर्थक है जब तक हम ध्यान में नहीं डूबते

आज के समय में जब आदमी मशीन सा हो गया है,जब व्यक्ति की प्राथमिकता सिर्फ उत्पत्ति -विनाशशील वस्तुओं की उपलब्धि ही है
आदमी के पास व्यस्तता के इलावा समय नहीं है
आदमी की स्थिति ऐसी है जैसे कोई बस में या ट्रेन में चढ़ा हो और उसे बैठने के लिए कहा जाए और वो ये कहे की नहीं बहुत जल्दी में हूँ बैठ नहीं सकता

कहने का तात्पर्य ये है की व्यक्ति को जितना अपने प्रति अपने समय के प्रति अपने समय के सदुपयोग के प्रति सजग होना चाहिए उतना ही वो असजग है बल्कि ये कह सकते हैं की उसे ये बातें निराधार लगती हैं या फ़िज़ूल लगती हैं

इसके इलावा एक ऐसा भी वर्ग है जो ध्यान को अहमियत तो देता है लेकिन उसे किताबी ढंग से समझने का प्रयत्न करता है या आधे अधूरे ज्ञान से ही काम चला लेता है यानी उसने ध्यान मात्र नाम के लिए किया है
।ऐसा कई कारणों से हो सकता है जैसे अधैर्य,सही मार्गदर्शन न मिलना, ध्यान कोई बहुत बड़ा काम लगने लगना,ध्यान में मन न लगना,पूर्ण समय न देना आदि
ऐसे कई लोग हैं जो ध्यान की अहमियत को जानते हैं वो जानते हैं की ध्यान एक धैर्य पूर्वक की जाने वाली विधि है

ऐसे लोग प्रायः ध्यान का आनंद अथार्त आत्मिक आनंद उठाने में सफल होते हैं और वो हमेशा चाहेंगे की और लोग भी जाने की ईश्वर ने उन्हें कितनी शक्ति दी हुई है

ध्यान क्या है ?
ध्यान कैसे किया जाए ?
मन,बुद्धि को नियंत्रित कैसे किया जाए ?
ध्यान के क्या फायदे हैं ?
ध्यान क्यूँ किया जाए ?


इन सबका उत्तर यही है की मन,बुद्धि से अतीत होना ही ध्यान है,अपनी सहजावस्था को प्राप्त करना ध्यान है

जीवन में ध्यान से बढ़कर कुछ नहीं है क्यूंकि इसी से हमारे अंतकरण के विकार दूर होते हैं 
शरीर में ज़रा सी भी गन्दगी लगती है तो हम तुरंत नहाते हैं क्यूँ ? क्यूंकि हम जानते हैं की गन्दगी लगी है । लेकिन यदि हमे मालूम हो की गन्दगी लगी है फिर भी हम उसे साफ़ न करे तो ?
शरीर की गन्दगी से ज्यादा नुकसान अंतःकरण की गन्दगी पहुंचाती है, हमारे मन की गन्दगी पहुचाती है
यदि हम अपने अंतःकरण के विकारों को देख लें तो घबरा जायेंगे की हम में कितनी गन्दगी है और हम फिर भी हटाने के बजाय बढाए जा रहे हैं

ध्यान के द्वारा हम अपने को अन्दर से शुद्ध करते हैं,मानसिक रूप से शुद्ध करते हैं बिना सही ध्यान के व्यक्ति का जीवन एक माचिस की डिब्बी के समान निकल जाता है जिसमे तीलियाँ थी अथार्त शक्ति थी लेकिन वो कभी जलायीं नहीं गयीं यानी शक्ति का उपयोग ही नहीं किया गया या किया जा सका
ध्यान के द्वारा हम समाधि तक पहुँचते हैं जो हमारी आत्म स्थिति है, जिसके बाद हम असंभव से बस में दिखने वाले अपने मन,बुद्धि इन्द्रियों को न सिर्फ संयमित कर लेते हैं  बल्कि पूर्णतया नियंत्रित भी कर सकते हैं


ध्यान पर बहुत से महापुरुषों ने बहुत कुछ बोला है उन्हें पढने की,मनन करने की परम आवशयकता है

प्रायः सबने एक जैसी ही बात बोली है
श्रीमद भगवतगीता में बहुत अच्छे से ध्यानयोग पर लिखा है
संत कबीर दास जी ने भी ध्यान पर बोला है

संत विनोबा जी ने,संत ओशो जी ने भी ध्यान पर बहुत बोला है
। जगतगुरु कृपालु जी ने भी ध्यान को सरलता से समझाया है

साधक संजीवनी में परम श्रध्येय स्वामी रामसुख दास जी ने भी बहुत अच्छे से समझाया है
इन सभी ने और भी बहुत से परम आदरणीय लोगों ने लोगों के आत्म-सुख हितार्थ ध्यान पर बोला है,ध्यान के रहस्यों को खोला है ।व्यक्ति को आत्म साक्षात्कार के सम्मुख किया है

मेरा मानना है यहाँ पर एक ब्रेक लिया जाया यानी हम ध्यान को थोड़े देर के लिए छोड़ दें और उसके भी पहले के चरण पर चलें,इससे परिणाम और चमत्कारिक होंगे

यानी हम अपने आप को थोडा जाने खासकर ये की हमारे अन्दर की ऊर्जा जो अक्सर इन्द्रिय और उनके विषयों में अथार्त भोग विलास में लगती है वो अधोगमन को प्राप्त होती है या ऊर्ध्वगमन को
यहाँ मैं ओशो जी द्वारा कही कुछ बातें उद्धत करना चाहूँगा
जिससे व्यक्ति आसानी से अपने अन्दर की ऊर्जा को सही दिशा दे सकता है उसका सदुपयोग कर सकता है-मूलबंध ब्रह्मचर्य उपलब्धि की सरलतम विधि 

मूलबंध ब्रह्मचर्य उपलब्धि की सरलतम विधि

जीवन ऊर्जा है शक्ति है लेकिन साधारणतया तुम्हारी जीवन ऊर्जा नीचे की ओर प्रवाहित हो रही है इसलिए तुम्हारी जीवन ऊर्जा अंततः काम,क्रोध अथवा लोभ से सनी वासना बन जाती है

कामवासना अथवा भोग-विलास में खींचे रहना निम्तम चक्र है
तुम्हारी ऊर्जा नीचे गिर रही है और सारी ऊर्जा धीरे धीरे केंद्र पर इकट्ठी हो जाती है । इसलिए तुम्हारी सारी शक्ति कामवासना बन जाती है अंततः व्यर्थ हो जाती है ।
वह जो मूलाधारचक्र है - जहाँ से काम-ऊर्जा बनती है उसे बाँध लेना है उसे सिकोड़ लेना है
।इसलिए पतंजलि जी ने हठयोग में बहुत सी प्रक्रियाएं खोजी हैं 'मूल' को बाँधने की । मूल अगर बांध जाए तो ऊर्जा अपने आप ऊपर उठने लगती है क्यूंकि नीचे के द्वार बंद हो जाता है अवरुद्ध हो जाता है
जब भी तुम्हारे मन में कामवासना(काम,क्रोध,लोभ) उठे तो शांत होकर बैठ जाओ और जोर से श्वास को बाहर फेंको - उच्श्वास  । भीतर मत लो श्वास को क्यूंकि जैसे ही तुम भीतर गहरी श्वास लेते हो,श्वास काम ऊर्जा को नीचे की तरफ धकाती है । तो जब तुम्हे कामवासना पकडे,तब एक्झेल करो बाहर फेंको श्वास को । नाभि को भीतर खींचो,पेट को अन्दर लो और श्वास को बाहर फेंको,जितना फ़ेंक सको
जब सारी श्वास बाहर फिंक जाती है तो तुम्हार पेट और नाभि वैक्यूम हो जाता है,शुन्य हो जाता है
। ध्यान दो की जहाँ कहीं भी शुन्यता हो जाती है वहीँ आस-पास की ऊर्जा शून्य की तरफ प्रवाहित होने लगती है  । शून्य खींचता है, क्यूंकि प्रकृति शून्य को बर्दाश्त नहीं करती शून्य को भरती है । तुम्हारी नाभि के पास शून्य हो जाए, तो मूलाधार से ऊर्जा तत्क्षण नाभि की तरफ उठ जाती है
और तुम्हे बड़ा रस मिलेगा जब पहली बार अनुभव करोगे
 तुम पाओगे तुम्हारा सारा तन-मन गहन स्वास्थ्य से भर गया । उर्जा का रूपांतरण शुरू हुआ । तुम ज्यादा शक्तिशाली,सौमनस्यपूर्ण,उत्फुल्ल,सक्रिय और विश्रामपूर्ण मालूम पड़ोगे
इसलिए जो लोग मूलाधार से शक्ति को सक्रिय कर लेते हैं उनकी नींद कम हो जाती है ज़रूरत ही नहीं रह जाती है वे थोड़े घंटे सोकर उतने ही ताज़ा हो जाते हैं

उर्जा का ऊर्ध्वगमन बड़ा अनूठा अनुभव है और पहला अनुभव होता है मूलाधार से जब उर्जा का नाभि की तरफ संक्रमण होता है

यह मूलबंध की सहजतम प्रक्रिया है की तुम श्वास को बाहर फ़ेंक दो नाभि शून्य हो जायेगी उर्जा उठेगी नाभि की तरफ - मूलाधार का द्वार अपने आप बंद हो जायेगा
। वह द्वार खुलता है उर्जा के धक्के से । जब उर्जा मूलाधार में नहीं रह जाती,वह धक्का नहीं पड़ता,द्वार बंद हो जाता है ।इसे कभी भी कहीं भी कर सकते हो । रोजाना दस-पंद्रह मिनट करने पर ही कुछ ही दिनों में परिणाम दिखने लगेगा और कुछ ही महीनो में पाओगे कामवासना तिरोहित हो गयी ; काम उर्जा रह गयी,वासना तिरोहित हो गयी


पुनः ध्यान पर आते हैं ओशो बताते हैं की ध्यान क्या है

निर्विचार चेतना है ध्यान । और निरविचारणा के लिए विचारों के प्रति जागना ही विधि है
विचारों का सतत प्रवाह है मन,साधारणतया इसी प्रवाह के प्रति मूर्छित होना अजाग्रत होना हमारी स्थिति है
। इस मूर्छा से पैदा होता है तादात्म्य । मैं मन ही मालूम होने लगता हूँ । जागें और विचारों को देखें । विचारों से स्वयं का तादात्म्य टूटना ही ध्यान है क्यूंकि इसी से निर्विचार चेतना का जन्म होता है । ऐसे ही जैसे आसमान से बदल हट जाएँ तो आसमान दिखाई पड़ता है । विचारों में रिक्त चित्ताकाश ही स्वयं की मौलिक स्थिति है वही  समाधि है
ध्यान है विधि
। समाधि है उपलब्धि
लेकिन ध्यान के सम्बन्ध में सोचें मत
। ध्यान के सम्बन्ध में विचारना भी विचार ही है । इसलिए ध्यान करते समय ध्यान को करें अथार्त निर्विचार हो जाएँ उसे सोचे मत
मन का काम है सोना और सोचना
। जागने में उसकी मृत्यु है और ध्यान है जागना । इसलिए मन कहता है - चलो,ध्यान के सम्बन्ध में ही सोचें । यह उसकी आत्मरक्षा का अंतिम उपाय है
इससे सावधान रहना है
। सोचने की जगह देखने पर बल देना है,साक्षी रहना है  । विचार नहीं दर्शन - बस यही मूलभूत सूत्र है । दर्शन बढ़ता है तो विचार छीण होते हैं
साक्षी जागता है, तो स्वप्न विलीन होता है

ध्यान आता है तो मन जाता है,मन है द्वार संसार का
। ध्यान है द्वार आत्म साक्षात्कार का,मोक्ष का,स्वस्वरूप का

यहाँ मैं एक बात पर जोर देना चाहूँगा और वो है मन,बुद्धि का हमारे नियंत्रण में होना


बहुधा ध्यान के समय यही दिक्कत सभी को आती है की ध्यान कैसे करें,विचारशून्य कैसे हों जब हमारा मन ही शांत नहीं हो पा रहा अथार्त हमारा मन हमे तटस्थ नहीं होने दे रहा
। ऐसी स्थिति में ये जान लें जैसे की पिछली पोस्ट में भी उल्लेख है की हमारा स्वरुप मन,बुद्धि नहीं आत्मा है और आत्मा ही प्रकाशक है मन,बुद्धि,इन्द्रियाँ आदि प्रकाश्य हैं । आत्मा की सत्ता से ही मन,बुद्धि काम करते हैं इसलिए अपने स्वरुप को अथार्त आत्मा को हमे इनसे ऊपर इनसे शक्तिशाली समझना चाहिए क्यूंकि वास्तविकता भी यही है ।आत्मा चेतन है मन,बुद्धि इन्द्रियां शरीर जड़ है ये सिर्फ आत्मा के कारण ही चेतनामय लगता है

श्रीमद भगवद्गीता में भगवान् ने बताया है की मन को नियंत्रित करके मन की इच्छाओं को भी नियंत्रित किया जा सकता है :

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥

भावार्थ :  इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है॥३/४२॥
एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्‌ ॥

भावार्थ :  इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल अथार्त वश में कर ॥३/४३॥


व्यक्ति  जब अपने स्वरुप(आत्मा) में स्थित हो जाता है वही ध्यान है