Wednesday, 21 December 2011

भगवान के साकार व निराकार रूप

भगवान अथार्त ब्रह्म परमात्मा परमेश्वर निराकार है या साकार है । इस पर हमेशा से ही भिन्न भिन्न विचार लोग रखते आये हैं व प्रायः विद्वान् जनो व भक्तों ने भी इस पर अपनी अपनी राय अपने अपने साधन व साधन की सफलता के अनुरूप दी है 
यहाँ ये समझना आवश्यक है की ये प्रभु की महान कृपा की उसने सभी को जिसने उसे जिस भी रूप में देखा और राय दी उसे मंडित किया अपने प्रिय भक्तों के विचारों के अनुसार करूणानिधि व भक्तवत्सल प्रभु ने प्रायः सभी रूपों में अपने को प्रदर्शित किया 
भगवान के लिए कुछ भी असंभव नहीं और वो तो वैसे भी सबकुछ है ही चाहे हम निराकार रूप को लें या साकार रूप को लें 

परन्तु भगवान क्या साकार व निराकार के अतिरिक्त भी कुछ हो सकते हैं तो जहाँ तक इंसान सोच सकता है भगवान वहां तक हो सकते हैं चाहे वो सगुण साकार की बात हो या निर्गुण निराकार या फिर दोनों का मिश्रित रूप 


प्राकृतिक मन बुद्धि इन्द्रियों के द्वारा भगवान की विवेचना नहीं हो सकती क्यूंकि परमात्मा चेतन है सबका प्रकाशक है व मन बुद्धि इन्द्रियाँ जड़ हैं वस्तुतः परमेश्वर के लिए ये कहना की वो साकार ही है अथवा निराकार ही है तर्कसंगत नहीं क्यूंकि इस तरह से हम भगवान की क्षमता को कम आंकने लगते हैं क्यूंकि ये तो सर्वविदित है की प्रभु के लिए सब कुछ संभव है और बहुधा निराकार व साकार ब्रह्म के उपासक के साथ साथ  अन्य विद्वान् लोग भी भगवान की दोनों ही रूपों की पुष्टि करते हैं उनका खंडन नहीं 


किसी संत की प्रभु की प्रभुता के प्रति ये उदगार बहुत  सारगर्भित से हैं की भगवान एक अनंत अगाध समुद्र की भाँती है व हम इंसान प्रभु रुपी समुद्र की गहराई मापने के लिए अपने विचार रुपी छड़ी को समुद्र में डुबोते हैं व उसे उतना ही गहरा मानते हैं परन्तु प्रभु की  प्रभुता को थोडा भी जानने वाले ये मानते हैं की प्रभु अपरिमित असीमित हैं उनका समुचित वर्णन नहीं हो सकता 


हाँ साधना से मन बुद्धि को कर्मयोग भक्तियोग अथवा ज्ञानयोग में लगाकर ईश्वर की अनुकम्पा से ईश्वर को जाना जा सकता है क्यूंकि तब व्यक्ति (जीव) अपने स्वरुप आत्मा(चेतन)  में स्थित होगा 


रामचरितमानस में भी ऐसी शंका की राम निराकार परमात्मा हैं या राजा दशरथ के पुत्र  (साकार) जिसका  निराकरण भगवान शंकर ने किया है :


बालकाण्ड 




जेहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान।
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥118॥
अर्थ - जिसका वेद और पंडित इस प्रकार वर्णन करते हैं और मुनि जिसका ध्यान धरते हैं, वही दशरथनंदन, भक्तों के हितकारी, अयोध्या के स्वामी भगवान श्री रामचन्द्रजी हैं॥118॥

आगे बाललीला के समय वो कौशल्या जी को अपनी विराट महिमा भी दिखाते हैं साथ ही गोस्वामी जी ने कई बार स्पष्ट लिखा है 
बालकाण्ड 
ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।
भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥205॥
अर्थ:-जो व्यापक, अकल (निरवयव), इच्छारहित, अजन्मा और निर्गुण है तथा जिनका न नाम है न रूप, वही भगवान भक्तों के लिए नाना प्रकार के अनुपम (अलौकिक) चरित्र करते हैं॥205॥

भगवान शिव ने अगुन अथार्त निराकार व सगुण अथार्त साकार रूप जैसे गूढ़ सन्दर्भ को गोस्वामी जी के माध्यम से अतिसरल करते हुए निर्गुण व सगुण व दोनों की व्याख्या करते हुए कहा है ।
परन्तु इससे पहले उन्होंने श्रीराम अथार्त परमात्मा के स्वरुप को और स्पष्ट किया है की वो आत्मा के भी आत्मा तथा समस्त ब्रह्माण्ड के प्रकाशक है तथा जो माया जीव से ऊपर है व श्रीराम जी की कृपा से ही जिसका निस्तारण हो सकता है वो उस माया के भी स्वामी है अथार्त प्रकाशक हैं ।
बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥3॥
अर्थ:-विषय, इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के देवता और जीवात्मा- ये सब एक की सहायता से एक चेतन होते हैं। (अर्थात विषयों का प्रकाश इन्द्रियों से, इन्द्रियों का इन्द्रियों के देवताओं से और इन्द्रिय देवताओं का चेतन जीवात्मा से प्रकाश होता है।) इन सबका जो परम प्रकाशक है (अर्थात जिससे इन सबका प्रकाश होता है), वही अनादि ब्रह्म अयोध्या नरेश श्री रामचन्द्रजी हैं॥3॥
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥4॥
अर्थ:-यह जगत प्रकाश्य है और श्री रामचन्द्रजी इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य सी भासित होती है॥४
इस तरह से मानो उन्होंने ये स्पष्ट कर दिया की प्रभु को किसी भी परिभाषा में रखना प्रभु की सीमा को कम करना ही है क्यूंकि हो असीमित है जो अवर्णनीय है उसकी सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती। उसे थोड़े शब्दों में थोडा सा समझा जा सकता है परन्तु सारे धार्मिक ग्रंथों में की गयी प्रभु की महिमा मिला कर भी प्रभु का पूरा वर्णन नहीं किया जा सकता अपितु सबका सार ही येही है की प्रभु का सार नहीं पाया जा सकता ।

निर्गुण व्याख्या  

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥3॥

भावार्थ:-वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिव्हा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना ही वाणी के बहुत योग्य वक्ता है॥3॥

तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥4॥
भावार्थ:-वह बिना ही शरीर (त्वचा) के स्पर्श करता है, बिना ही आँखों के देखता है और बिना ही नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है (सूँघता है)। उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती॥4॥

सगुण व्याख्या 

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥1॥
अर्थ :-सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है- मुनि, पुराण, पण्डित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है॥1॥
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥2॥
अर्थ :-जो निर्गुण है वही सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले में भेद नहीं। (दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण एक ही हैं।) जिसका नाम भ्रम रूपी अंधकार के मिटाने के लिए सूर्य है, उसके लिए मोह का प्रसंग भी कैसे कहा जा सकता है?॥2॥

भगवान ने श्रीमद भगवद्गीता में भी कहा है :-

अध्याय ४ 
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः ।
अभ्युथानाम्धार्मस्य तदात्मानं स्रुज्याम्यहम ।।७ ।।

अर्थ :- जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अथार्त साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ ।
परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम ।
धर्म्संस्थाप्नाथार्य संभवामि युगे युगे ।।८।।

साधू पुरुषों का उद्धार करने के लिए पाप कर्म करने वालों का नाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना के लिए मैं युग युग में प्रकट हुआ करता हूँ ।
और वस्तुतः येही रामचरितमानस में गोस्वामी जी ने कहा है 
जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥3॥
अर्थ :- जब-जब धर्म का ह्रास होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं॥3॥
चौपाई :

करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥4॥
अर्थ :-और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गो, देवता और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब वे कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँति के (दिव्य) शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं॥4॥
दोहा :
असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥121॥
अर्थ :-वे असुरों को मारकर देवताओं को स्थापित करते हैं, अपने (श्वास रूप) वेदों की मर्यादा की रक्षा करते हैं और जगत में अपना निर्मल यश फैलाते हैं। श्री रामचन्द्रजी के अवतार का यह कारण है॥121॥

गोस्वामी तुलसीदास जी ने निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म से भी बढ़कर भगवान के नाम को बताया है और सगुण ब्रह्म व निर्गुण ब्रह्म को तत्वतः जानने के लिए नाम की ही शरण में साधकों को जाने को कहा है ।


ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥25॥
अर्थ :- इस प्रकार नाम (निर्गुण) ब्रह्म और (सगुण) राम दोनों से बड़ा है। यह वरदान देने वालों को भी वर देने वाला है। श्री शिवजी ने अपने हृदय में यह जानकर ही सौ करोड़ राम चरित्र में से इस 'राम' नाम को (साररूप से चुनकर) ग्रहण किया है॥25॥


Thursday, 15 December 2011

हे परमेश्वर तेरे एक अंश में करोड़ों ब्रह्माण्ड बसते हैं




राम परमात्मा परमेश्वर राम ब्रह्मा विष्णु महेश के भी ईश्वर
राम जगत के पालनहार राम ही तो समस्त जगत के ईश्वर


जीवन गुज़रता रहा प्रभु संसारी बन के 
लोगों से राग द्वेष रखते मोह माया में बंधते 

कभी मान कभी धन को ही का उद्देश्य बनाता रहा 
कभी दोस्तों में घिरके दोस्ती को ही सब कुछ समझता रहा

नहीं जाना पाता मैं जीवन का अनमोल तत्त्व मेरे मालिक 
हे दीन दयालु,अकारण कृपा करने वाले तू सबका मालिक

अब राम नाम का रस मुझ पर छा भी जाने दे 
मुझ पापी कुविचारी पर अपनी करुणा बरसा दे

संसार को ही प्रधान समझके इसी में सुख ढूंढता रहा 
हे परमपिता तूने बख्शी ज़िन्दगी मैं तुझसे ही दूर रहा 

तुम ही हो असली शाश्वत अनंत सुख के स्थान 
और मैं मन बुद्धि के आनंद को ही देता रहा मान

हे प्रभु जीव तुझे भूल के कैसे जीव कहला सकते हैं
हे परमेश्वर तेरे एक अंश में करोड़ों ब्रह्माण्ड बसते हैं


प्रभु मैं कहाँ कीचड कहाँ आप आसमानों के आसमान 
मैं संसार में आसक्त कहाँ आपका पतित पावन नाम 


प्रभु मायिक संसार व अमायिक भी तुम्हारे ही रूप हैं

हे परमेश्वर तेरे एक अंश में करोड़ों ब्रह्माण्ड बसते हैं


राम नाम के बारें में मैं मूर्ख भला क्या कह सकता हूँ 
राम रुपी सागर के सामने तो मैं एक बूँद भी नहीं हूँ 

पर हे करुनानिधान हे जीवन के सार,हे भगत सुख दायक 
अपनी भक्ति का प्रसाद दे के तुम बना लेते हो अपने लायक 

हे परमात्मा,जगत तुम्हारी ही त्रिगुणी माया से घिरा है 
अज्ञानवश होके जीव अपने स्वरुप को भूल जाता है  

तुम्हारी माया का निस्तार सिवाय तुम्हारे नहीं हो सकता है
जोग जप तप नहीं तुम्हे तो तुम्हारी कृपा से पाया जाता है


हे जगतगुरु वेदों को नमस्कार जिन्होंने तुम्हारा गुणगान किया है 
गीता रामायण उपनिषद में तुम्हारी महिमा का ही गान हुआ है 

हे प्रनतपालक सत्संग,संतों का साथ ये जीव येही चाहता है 
हे परमेश्वर तेरे एक अंश में करोड़ों ब्रह्माण्ड बसते हैं

Sunday, 11 December 2011

भगवान के नाम राम का अर्थ व महिमा

बालकाण्ड 
बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥1॥

मैं श्री रघुनाथजी के नाम 'राम' की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात्‌ 'र' 'आ' और 'म' रूप से बीज है। वह 'राम' नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है, निर्गुण, उपमारहित और गुणों का भंडार है॥1॥


बीज अक्षर र अ म की व्याख्या  


श्रीरामनाम में जो रेफ,रेफ का अकार,दीर्घाकार,हल मकार और मकार का अकार - ये पञ्च पदार्थ हैं । इनके बिना एक भी मंत्र,ऋचा व सूत्र नहीं बनते हैं वेदों में,व्याकरणों में जितने भी वर्ण,स्वर,शब्द हैं वे सब 'राम'  नाम से ही उत्पन्न होते हैं ।

श्री रामनाम के अतिरिक्त जितने भी नाम परमेश्वर के हैं वे सभी राम नाम की तरह ही सामान रूप से फलदायी हैं परन्तु वे सब गुणक्रियात्मक  हैं अथार्त वे सब गुण दर्शित करने वाले नाम हैं ।


महारामायण में शिव जी कहते हैं की समस्त नामों के वर्ण रामनाममय हैं अथार्त रामशब्दजन्य हैं,अतएव रमु क्रीडा 'राम' शब्द सब नामों का ईश्वर है ।


भगवान् के सभी नाम सच्चिदानंदस्वरुप हैं तथापि 'राम' नाम में ढेरों विशेषता है ये कुछ विशिष्ट है । 

श्रीराम नाम के तीनो पदों र,अ,म में सच्चिदानंद का अभिप्राय स्पष्ट झलकता है अन्य भगवन्नामों में किसी में सत और चित मुख्य है आनंद गौण है किसी में सत और आनंद मुख्य है चित गौण है और किसी में चित आनंद मुख्य है सत  गौण है ।
श्रीराम नाम के तीनो पदों में सत चित आनंद तीनो समाहित हैं अथार्त रकार चित का  अकार सत का और मकार आनंद का वाचक है इस प्रकार 'राम' नाम सच्चिदानन्दमय है ।
श्रीरामनाम को अग्नि सूर्य और चन्द्रमा का हेतु कहकर यह जनाया गया है की इन तीनो के कारण श्रीरामनाम हैं और ये तीनो कार्य हैं ।
राम नाम के तीनो अक्षरों (र,अ,म) क्रमशः इन तीनो के बीज अक्षर हैं ।
'र' अग्निबीज है जैसे अग्नि शुभाशुभ कर्मों को जलाकर समाप्त कर देता है,वस्तु के मॉल तथा दोषों को जलाके शुद्ध कर देता है वैसे ही र के उच्चारण से व्यक्ति के शुभाशुभ कर्म नष्ट होते हैं जिसका फल स्वर्ग नरक का अभाव है साथ ही ये हमारे मन के मल-विषयवासनाओं का नाश कर देता है जिससे स्वस्वरूप(जीव का स्वरुप आत्मा है ) का आभास होने लगता है यहाँ कार्य से कारण में विशेषता दिखायी है ।
अग्नि से जो कार्य नहीं हो सकता वह उसके बीज से हो जाता है ।

'अ'भानुबीज है वेदशास्त्रों का प्रकाशक है जैसे सूर्य अन्धकार को दूर करता है वैसे ही अ से मोह,दंभादी जो अविद्धातम है,उसका नाश होता है व ज्ञान का प्रकाश होता है । 
'म' चंद्रबीज है,अमृत से परिपूर्ण है ।  जैसे चन्द्रमा शरदातप हरता है,शीतलता देता है वैसे ही 'म' से  भक्ति उत्पन्न होती है त्रिताप दूर होते हैं । 
इस तरह से 'र' 'अ' और 'म' क्रमशः ज्ञान वैराग्य व भक्ति के उत्पादक हैं । 

राम नाम से ॐ की उत्पत्ति 
 
राम नाम को वेदप्राण  कहने  का तात्पर्य है जैसे प्राण न रहने से शरीर बेकार हो जाता है, वैसे ही  वेद की कोई ऋचा,सूत्र,मन्त्रादि की स्थति बिना रामनाम के पञ्चपदार्थ (रेफ,रेफ का अकार,दीर्घाकार,हल मकार,मकार का अकार ) के बिना हो ही नहीं सकती क्यूंकि सब स्वर वर्ण आदि श्रीरामनाम से ही उत्पन्न हुए हैं  ।
राम शब्द की बहुत ही ऊँची श्रेष्ठता है वेदों में ईश्वर का नाम ॐ कहा गया है इसी ॐ में समस्त संसार की सृष्टि प्रच्छन्न है अथार्त ॐ शब्द पर यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो इसी के विस्तार और खंड आदि से संसार की समस्त वस्तुओं का प्रादुर्भाव हुआ है सभी इसके रूपांतर मात्र हैं यही ॐ राम का या राम ॐ का विपर्यय
मात्र है अन्य कुछ भी नहीं
ॐ  को दूसरे प्रकार ओम से भी लिखते हैं यह रूप(ओम) उक्त ॐ का अक्षरीकृत रूप ही है

 व्याकरण शास्त्र के द्वारा राम से ओम अथार्त उत्पन्न होता है
संधि के अनुसार ओम का 'ओ' अ: के विसर्ग का अक्षरीकृत रूप परिवर्तन मात्र है इस विसर्ग के दो रूप होते हैं एक तो यह किसी अक्षर की संनिद्धि से ो हो  जाता है या फिर र होता है यदि विसर्ग का रूपांतर ो न करके र किया जाए तो अ र म ही ओम का दूसरा रूप हुआ
तब इन अक्षरों के विपर्यय से राम स्वतः बन जायेगा अ र म को यदि र अ म ढंग से रखें और र म व्यंजनों को स्वरांत मानें तो राम बन जाता है
इस तरह से जब राम का रूपांतर मात्र है तो फिर राम विधि हरी हर मय भी है । 

राम और का विपर्यय इस प्रकार है :


राम = र अ म
         अ र म 
         अ : म 
म 
ओम 
ॐ 

इसी तरह ॐ का 

ॐ = ओम 
म 
अ र म 
र अ म 
राम
 
  इस तरह राम = ॐ 

इस तरह जैसे ॐ ब्रह्मा,विष्णु व शिव अथार्त विधि,हरि व हर मय है उसी तरह राम भी विधि हरि हर मय है । 

 

Friday, 9 December 2011

भगवन्नाम जप के प्रति दस अपराध अथार्त नामापराध

भगवान् के नाम की महिमा अनंत है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है  :

ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥25॥

नाम (निर्गुण अथार्त निराकार ) ब्रह्म और (सगुण अथार्त साकार) राम दोनों से बड़ा है। यह वरदान देने वालों को भी वर देने वाला है। श्री शिवजी ने अपने हृदय में यह जानकर ही सौ करोड़ राम चरित्र में से इस 'राम' नाम को (साररूप से चुनकर) ग्रहण किया है॥25॥


इस तरह से नाम की महत्ता सबसे ऊपर है व भगवान् के किसी भी नाम को श्रद्धापूर्वक जपने से नाम महाराज की कृपा से साधक परमात्मप्राप्ति करते हैं ।
परन्तु भगवन्नाम जप में दस नामापराध भी हैं जिनके बारें में ध्यान रखना साधकों को अत्यंत आवश्यक बताया गया है । इन अपराधों से रहित होकर ही नाम जप करना चाहिए

कहा गया है :

राम नाम सब कोई कहे दशरथ कहे न कोय
एक बार दशरथ कहे,तो कोटि यज्ञ फल होय

दशरथ को यहाँ दशऋत कहा गया है और दशऋत अथार्त दस अपराधों से रहित । इन दस तरह के अपराधों से रहित होके ही भगवन्नाम जप का वास्तविक महत्व व लाभ है


सन्निन्दासति नामवैभवकथा श्रीशेशयोर्भेदधीरश्रद्धा श्रुतिशास्त्रदैशिकगिरां नाम्न्यर्थवादभ्रमः।
नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहितत्यागौ हि धर्मान्तरैः साम्यं नामजपे शिवस्य च हरेर्नामापराधा दश॥



१. सन्निन्दा


श्रेष्ठ पुरुषों,संत महात्माओं की निंदा से नाम महाराज (जिसका नाम का हम जप करते हैं)
रुष्ट होते हैं और ये नामापराध है । इस वास्ते किसी की भी निंदा नहीं करनी चाहिए क्यूंकि कोई भी संत महात्मा हो सकता है ये हमे मालूम नहीं चल सकता  ।


२.असति नामवैभवकथा

जिसकी नाम में रूचि नहीं है भगवन्नाम नहीं जानता,श्रद्धा नहीं है उसको भगवान् के नाम की महिमा ज़बरदस्ती नहीं सुनानी चाहिए ये नामापराध के अंतर्गत आता है

३. श्रीशेशयोर्भेदधी

भगवान् विष्णु और भगवान् शंकर अथार्त हरि और हर में भेद नहीं समझना चाहिए और न करना चाहिए
ये भगवान् के ही दो रूप हैं ऐसा समझना चाहिए रामचरितमानस में आया है :


सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहि । रामहि ते सपनेहु प्रिय नाहीं ।।
शिवजी के चरणों में जिनकी प्रीति नहीं वे श्रीराम (हरि) को भी प्रिय नहीं होते ।

एक को मानना और एक में अश्रद्धा रखना नामापराध है अतः ये तीसरे नामापराध के अंतर्गत आता है

श्रद्धा श्रुतिशास्त्रदैशिकगिरां

वेद,शास्त्र और संतों के वचनों में अश्रद्धा रखना भी नामापराध है

 ४. जब हम नाम जप करते हैं तो हमारे लिए वेदों के पठन-पाठन की क्या आवश्यकता है? वैदक कर्मों की क्या आवश्यकता है ? इस प्रकार वेदों में अश्रद्धा रखना नामापराध है ।

५. विवेक बुद्धि व स्वाध्याय को प्रधानता न देके शास्त्रों पर संशय करना  की कोई शास्त्र कुछ कहता है और कोई कोई कुछ । इस तरह से उनमे अश्रद्धा रखना और ये सोचके उन्हें न पढना की हम नाम जप तो करते ही हैं नामापराध है ।

६. ये सोचकर की जब हम नाम जप करते हैं तो गुरु की सेवा करने की उनके आज्ञा पालन करने की क्या आवशयकता इस तरह से  गुरु में अश्रद्धा रखना या गुरु की निंदा करना  नामापराध है ।जिस गुरु से ज्ञान मिला उसकी निंदा तो वैसे भी घोर अपराध है । यदि गुरु समर्थ नहीं हों या वे ठीक नहीं निकलें तो भले ही उनको छोड़ दें परन्तु उनकी भी निंदा नहीं करनी चाहिए ।



 
७. नाम्न्यर्थवादभ्रमः 

नाम पर ही संशय करना अथार्त नाम के महात्म्य पर  शंका करना की क्या नाम में इतना सामर्थ्य सच में है ? 
क्या नाम मात्र से कल्याण हो जाएगा इस तरह से नाम में अश्रद्धा रखना नाम में अर्थवाद का भ्रम है और नामापराध है


नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहितत्यागौ 


८.  निषिद्ध कर्मों को करना-नाम जप करने से हमे कोई पाप नहीं लगेगा ऐसा समझके चोरी,झूठ,कपट हिंसा आदि निषिद्ध कर्मों को करना नामापराध है

९. विहित कर्मों का त्याग कर देना - ये सोचके की हम नामजप तो करते ही हैं अतः शास्त्र विहित कर्मों श्राद्ध,तर्पण आदि की क्या आवश्यकता इस तरह से शास्त्र-विधि का त्याग करना नामापराध है ।


१०.धर्मान्तरैः साम्यं

भगवान् के नाम की अन्य धर्मों (कर्मों)  से तुलना करना जैसे गंगा स्नान करो चाहे नाम जप करो या चाहे गोदान कर दो ये नामापराध के अंतर्गत आता है । इस तरह से किसी और धार्मिक कर्म के बराबर नाम की बात नहीं कहनी चाहिए । नाम की महिमा सबसे श्रेष्ठ है सबसे अधिक है उसकी तुलना नहीं करनी चाहिए ।


इस प्रकार इन दस अपराधों से रहित होकर नाम लिया जाए तो सही अर्थों में नाम जप का महत्व है व इससे साधक बड़ी जल्दी आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करता है ।अगर नाम जप वाले से इन अपराधों से कभी कोई अपराध हो जाए तो उसका दूसरा प्रयाश्चित करने की आवश्यकता नहीं है अपितु उसको तो ज्यादा से ज्यादा नाप जप ही करना चाहिए क्यूंकि नामापराध को दूर करने वाला कोई दूसरा प्रयाश्चित है ही नहीं ।
नाम जप में सच्चे ह्रदय से लगना ही नाम जप की सिद्धि में सबसे बड़ा कारक होता है ।

Tuesday, 6 December 2011

प्राणायाम

प्राणायाम के शारीरिक लाभ से कहीं अधिक मानसिक व उससे भी अधिक आध्यात्मिक लाभ हैं
श्रीमद भगवद्गीता में भगवान् ने बताया है की व्यक्ति प्राणायाम के द्वारा सहजता से अपने सहज रूप में स्थित होने लगता है । प्राणायाम को निरंतर करते रहने से बहुत शीघ्र अंतःकरण शुद्ध होता है व एक तो जीव के मन और बुद्धि से होने वाले कर्मों में विकार भाव कम होने लगते हैं । साथ ही बाहर से मिलने वाले विकारी भाव उसके अविकारी स्वरुप को अव्यवस्थित नहीं कर पाते क्यूंकि तत्वतः वो उसके स्वयं की ही मनोवृत्ति के भाव होते हैं ये जीव तत्त्व से जानने लगता है ।व्यक्ति सहज,सम व शांत अवस्था को प्राप्त रहता है इससे व्यक्ति आनंद में रहता है व भगवत उपासना,भजन आदि अंतःकरण शुद्धि के कारण सहज व स्वाभाविक रूप से आनंददायी लगने लगते हैं
ब्रह्म शांत है सम है अविकारी है अविनाशी है शाश्वत है सनातन है सर्वव्याप्त है अनंत है अवर्णनीय है ऐसा तत्त्व से भलीभांति योग से जाना जा सकता है और प्राणायाम इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है

भगवान् ने चौथे अध्याय में कहा है -

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥
भावार्थ : कितने ही योगीजन अपान वायु में प्राणवायु को हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणायाम परायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों (कर्मों) द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं॥29-30॥


यहाँ भगवान् प्राणायाम के अंतर्गत प्राण वायु व अपान वायु की महत्ता बता रहे हैं व प्राणायाम में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका बता रहे हैं क्यूंकि श्वास पर्श्वास में प्राणवायु व अपानवायु की भूमिका होती है ।प्राण वायु का स्थान ह्रदय  तथा अपान वायु का गुदा है।श्वास को बाहर निकालते समय वायु की गति ऊपर की ओर तथा श्वास को भीतर ले जाते समय वायु की गति नीचे की ओर होती है
योगीलोग चन्द्र नाडी अथार्त बायीं नासिका से पूरक करते हैं अथार्त भीतर ले जाते हैं वहां वह वायु ह्रदय में स्थित प्राणवायु को साथ लेकर नाभि से होते हुए अपान में लीन हो जाती है । तदनंतर वे प्राणवायु व अपानवायु दोनों की गति को रोक देते हैं अथार्त कुम्भक करते हैं जिससे श्वास ना तो बाहर जाता है और ना ही अन्दर जाता है
इसके बाद वे सूर्य नाडी अथार्त दाहिनी नासिका के द्वारा श्वास को बाहर निकालते हैं यानी रेचक करते हैं
वह वायु प्राण वायु के साथ अपानवायु को साथ लेकर बाहर निकलती है यही प्राणवायु में अपानवायु का हवन करना कहा जाता है
सामान्यतः  पूरक कुम्भक रेचक में १:४:२ के समय का अनुपात रखा जाता है जैसे भगवान् का नाम या फिर गायत्रीमंत्र जपते हुए पूरक में ४ बार कुम्भक में सोलह बार व रेचक में आठ बार किया जाता है
इसी प्रक्रिया को फिर उल्टा किया जाता है सूर्य नाडी (दाहिनी नासिका ) से पूरक,फिर कुम्भक व फिर चन्द्र नाडी से रेचक करते हैं
इस तरह से 
पूरक-कुम्भक-रेचक करना 
व रेचक-कुम्भक-पूरक करना ही प्राणायाम है,प्राणायाम रुपी यज्ञ है
इसके साथ ही भगवान् नियमित (संतुलित) आहार व संयम (मानसिक) को प्राणायाम में अत्यंत आवश्यक बताते हैं श्रीमद भगवद्गीता(६/१३-१७)  
प्राणों का प्राण में हवन करने का तात्पर्य है प्राणों का प्राण में और अपान का अपान में हवन करना अथार्त प्राण और अपान को अपने अपने स्थान पर रोक देना ना श्वास बाहर निकालना और ना श्वास भीतर लेना इसे स्तम्भवृत्ति प्राणायाम भी कहते हैं
इस प्राणायाम से स्वाभाविक ही वृत्तियाँ शांत होती हैं और पापों का नाश होता है साथ ही मानसिक पाप व विकार भी कम होने लगते हैं व एक समय के बाद विकार आते ही नहीं संपूर्ण यज्ञ (कर्म) केवल कर्मों से सम्बन्ध विच्छेद करने के लिए ही हैं भगवान् कहते हैं ऐसा जानने वाले ही यज्ञवित अथार्त यज्ञ रुपी निष्कामभावकर्म  को जानने वाले हैं

Sunday, 4 December 2011

पंच कोश,पंच प्राण प्राणायाम व योगासन

प्राणायाम से पहले ये जानना आवश्यक है की पंच कोश क्या हैं?

त्रिगुणमयी(सत्व,रज व तम ) माया से मोहित होने की वजह से ईश्वर के अंश आत्मा पर विकारों का एक आवरण चढ जाता है, जिसकी वजह से आत्मा ही जीवात्मा कही जाने लगती हैं। हमारे प्राचीन मनीषियों ने हमारी विशुद्ध आत्मा पर पड ने वाले उन आवरणों को कोश या शरीर भी कहा है जिनकी संखया पांच बतलायी गयी है। इन्हें पंचकोश कहकर ही इंगित किया करते हैं। ये पांचों इस प्रकार हैं - 

१. अन्नमय कोश :- आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी - इन पंच महाभूतों से निर्मित हमारे भौतिक स्थूल शरीर का यह पहला आवरण अन्नमय कोश नाम से प्रसिद्ध है। हमारे स्थूल शरीर की त्वचा से लेकर हड्डियों तक सभी पृथ्वी तत्व से संबंधित हैं। संयमित आहार-विहार की पवित्रता, आसन-सिद्धि और प्राणायाम का नियमित अभ्यास करने से अन्नमय कोश की आवश्यक शुद्धि होती है। जब हमारे अन्नमय कोश की शुद्धि हो जाती है तब हमारे स्थूल शरीर का समुचित विकास होता है।

२. प्राणमय कोश :- हमारे शरीर का दूसरा सूक्ष्म भाग प्राणमय कोश कहा जाता है। हमारे स्थूल शरीर और हमारे मन के बीच में प्राणमय कोश है जो एक माध्यम का काम करता है। ज्ञान और कर्म के सम्पादन का समस्त कार्य प्राण से बना प्राणमय कोश ही संचालित किया करता है। हमारे द्वारा श्वांसों को लेने व छोड़ने की प्रक्रिया में भीतर-बाहर आने-जाने वाला प्राण हमारे शरीर के समस्त क्रियाशीलता को बनाये रखने और आवश्यक ऊर्जा प्रदान करने के महत्वपूर्ण कार्य को संपादित किया करता है जो स्थान तथा कार्य के भेद से १० प्रकार का माना जाता है। उनमें व्यान, उदान, प्राण, समान और अपान मुखय प्राण हैं तथा धनंजय, नाग, कूर्म, कृंकल और देवदत्त उपप्राण कहे जाते हैं।

हमारे प्राणों द्वारा संपादित होने वाले प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं - भोजन को सही ढंग से पचाना, शरीर में रसों को समभाव से विभक्त करना तथा उन्हें वितरित करते हुए देहेन्द्रियों को पुष्ट करना, खून के साथ मिलकर देह में हर जगह घूम-घूम कर वैसे मलों का निष्कासन करना, जो देह के विभिन्न भागों में एकत्रित होकर अथवा खून में मिल कर उसे दूषित कर दिया करते हैं। इतना ही नहीं, देह के माध्यम से विविध विषयों के भोग का कार्य भी हमारे प्राण ही संपादित किया करते हैं। प्राणविद्या की साधना के नियमित अभ्यास से हमारे प्राणमय कोश की कार्यशक्ति में भी समुचित वृद्धि होती है।

३. मनोमय कोश :- हमारे सूक्ष्म शरीर के इस पहले क्रिया प्रधान भाग को हमारे प्राचीन मनीषियों ने मनोमय कोश कहा है। मनोमय कोश में मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त को परिगणित किया गया है, जिन्हें अन्तःकरण चतुष्टय भी कहते हैं। पांच कर्मेन्द्रियां (वाणी,पैर,हाथ,गुदा व उपस्थ हैं, जिनका संबंध संसार के बाहरी व्यवहार से अधिक रहता है। मनोमय कोश पूरी तरह अन्तःकरण के क्रिया-कलापों के संपादन में अपनी महती भूमिका अदा करता है।

४. विज्ञानमय कोश :- हमारे सूक्ष्म शरीर का दूसरा भाग ज्ञान प्रधान है और उसे हमारे प्राचीन मनीषियों ने विज्ञानमय कोश कहा है। इसके मुख्य माध्यम ज्ञानयुक्त बुद्धि एवं ज्ञानेन्द्रियां(श्रवण,त्वचा,चक्षु,जिह्वा व नासिका ) हैं। जो मनुष्य पूरी समग्रता से समझ बूझ कर विज्ञानमय कोश का उचित ढंग से इस्तेमाल करता है और असत्य, भ्रम, मोह, आसक्ति आदि से पूरी तरह दूर रहकर हमेशा ध्यान आदि योगक्रियाओं का अभ्यास किया करता है, उसको उचित-अनुचित का निर्णय करने वाली विवेक युक्त बुद्धि बड़ी आसानी से प्राप्त हो जाती है।

५. आनन्दमय कोश :- हमारे प्राचीन मनीषियों ने इस कोश को हृदय गुहा, हृदयाकाश, कारण शरीर, लिंग शरीर आदि नामों से भी पुकारा है। यह हमारे हृदय प्रदेश में अवस्थित होता है। हमारे आन्तरिक जगत से इस कोश का संबंध बहुत अधिक रहता है और बाह्य जगत से बहुत कम। हमारे जीवित रहने, यानी हमारे स्थूल शरीर के कायम रहने और संसार के समस्त व्यवहारों के संपादित होने वाले क्रिया-कलाप भी इसी कोश पर अवलम्बित रहते हैं। किंतु इस कोश तक पहुंच पाना सबके लिए संभव नहीं हो पाता। वहां वही लोग पहुंच पाते हैं जो नियमित रूप से ध्यान आदि की साधना करते हुए निर्बीज समाधि तक पहुंचने में सफल हो जाते हैं। जो भी बड़भागी मनुष्य वहां तक पहुंचने में सफल होता है, वही हमेशा आनंद में लीन रहने वाली जीवन-स्थिति का उपभोग करता है ।

इन सभी कोषों का समाप्त  होना ही आध्यात्मिक अर्थों में उनका शुद्ध होना है क्यूंकि इससे ही जीवात्मा अपने स्वरुप में और सहजता से व्याप्त हो भगवत्पथ पर दृढ रहता है ।


यहाँ(उपरोक्त) प्राणमय कोश की शुद्धि में प्राणायाम महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।
प्राणायाम का शाब्दिक अर्थ है प्राण का आयाम अथार्त प्राण को एकसमान गति में करना ।
मनुष्य में प्राण पांच तरह के होते हैं अथार्त हम जो श्वास लेते हैं वो पांच प्रकार में विभाजित है ।
इसके साथ ही पांच उपभेद भी होते हैं ।




१. प्राण :- हमारे शरीर में कंठ से लेकर हृदय तक जो वायु कार्य करती है, उसे प्राण कहते हैं। प्राणों का यह पहला भेद है और यह नासिका-मार्ग, कंठ, स्वर-तंत्र, वाक-इन्द्रिय, अन्न-नलिका, श्वसन-तंत्र, फेफड़ों एवं हृदय को क्रियाशील कर उन्हें शक्ति प्रदान करता रहता है।

२. अपान :- प्राणों के दूसरे भेद को अपान नाम से जाना जाता है। यह हमारी नाभि के नीचे से लेकर पैरों के अंगूठों तक शरीर को क्रियाशील रखता है।

३. उदान :- हमारे शरीर में कंठ के ऊपर से लेकर सिर तक देह में अवस्थित होकर प्राणों का यह तीसरा भेद उदान कहा जाता है जो अपनी क्रियाशीलता के क्षेत्र में जीवनी शक्ति का समुचित संचार करता है। यह प्राण हमारे कंठ से ऊपर शरीर के समस्त अंगों यानी नेत्र, नासिका व सम्पूर्ण मुख मण्डल को वांछित ऊर्जा व तेज प्रदान किया करता है। हमारे शरीर में अवस्थित पिच्युटरी व पिनियल ग्रंथि सहित पूरे मस्तिष्क को भी यह उदान प्राण ही सक्रिय किया करता है।

४. समान :- हमारे शरीर में अवस्थित प्राणों के चौथे भेद को समान कहा जाता है जो हृदय के नीचे से लेकर नाभि तक शरीर में संचारित हो, उसे वांछित शक्ति प्रदान किया करता है। यह प्राण यकृत, आन्त्र, प्लीहा व अग्न्याशय सहित सम्पूर्ण पाचन तंत्र की आन्तरिक क्रिया प्रणाली को संचालित करते हुए वांछित शक्ति प्रदान करता है।

५. व्यान :- हमारे शरीर में अवस्थित प्राणों के पांचवें भेद को व्यान कहा जाता है जो पूरे शरीर में व्याप्त रहते हुए जीवनी शक्ति का संचालन करता है। शरीर की समस्त गतिविधियों को प्राणों का यह भेद नियमित तथा नियंत्रित करता है। हमारे सभी अंगों, मांसपेशियों, तन्तुओं, संधियों एवं नाड़ियों को गतिशील व क्रियाशील रखते हुए सभी आवश्यक ऊर्जा व शक्ति का हमारे शरीर में संचार किया करता है। प्राणों के इन पांचों भेदों के अतिरिक्त हमारे शरीर में देवदत्त, नाग, कृंकल, कूर्म व धनंजय नाम के प्राणों के पांच उपभेद हैं जो क्रमशः छींकने, पलक झपकाने, जंभाई लेने, खुजलाने, हिचकी लेने आदि की क्रियाओं को संचालित किया करते हैं।

 इस तरह से पुनः प्रमुख पांच प्राणों का कार्य है :


1. प्राण

2. अपान

3. समान

4. उदान

5. व्यान

श्वास पर नियंत्रण रखता है प्राण

प्रथम प्राण हमारी सांस की क्रिया पर नियंत्रण रखता है। यह वह शक्ति से जिससे हम सांस अंदर की ओर खींचते हैं और वक्षीय क्षेत्रों में गतिशीलता प्रदान करती है।

नाभि स्थान के नीचे क्रियाशील रहता है अपान

अपान उदर क्षेत्र के नीचे अर्थात् नाभि क्षेत्र के नीचे सक्रीय रहता है। मूत्र, वीर्य और मल निष्कासन को नियंत्रित करता है।

पाचन क्रिया में मदद करता है समान

उदर अथवा पेट स्थान को गतिशील करता है समान। यह पाचन क्रिया में मदद करता है। पेट के अवयवों को ठीक ढंग से काम करने के लिए सुरक्षा प्रदान करता है।

उदान वाणी और भोजन को व्यवस्थित करता है

उदान जीह्वा द्वारा कार्य करता है। यह वाणी और भोजन को व्यवस्थित करता है। उदान रीढ़ की हड्डी के नीचले हिस्से से ऊर्जा को मस्तिष्क तक पहुंचाता है।

नस-नस तक ऊर्जा पहुंचाता है व्यान

हमारे पूरे शरीर की गतिविधियों को व्यान नियंत्रित करता है। यह भोजन और सांस से मिलने वाली ऊर्जा को धमनियों, शिराओं और नाडिय़ों द्वारा पूरे शरीर में पहुंचाता है।


प्राणायाम 

प्राणायाम का अर्थ है श्वास की गति को कुछ काल के लिये रोक लेना । साधारण स्थिति में श्वासों की चाल दस प्रकार की होती है - पहले श्वास का भीतर जाना , फिर रुकना , फिर बाहर निकलना ; फिर रुकना , फिर भीतर जाना , फिर बाहर निकलना इत्यादि । प्राणायाम में श्वास लेने का यह सामान्य क्रम टूट जाता है । श्वास (वायु के भीतर जाने की क्रिया ) और प्रश्वास (बाहर जाने की क्रिया ) दोनों ही गहरे और लम्बे होते हैं और श्वासों का विराम अर्थात् ‍ रुकना तो इतनी अधिक देर तक होता है कि उसके सामने सामान्य स्थिति में हम जितने काल तक रुकते है वह तो नहीं के समान और नगण्य ही है । योग की भाषा में श्वास खींचन को ‘पूरक ’ बाहर निकालने को ‘रेचक ’ और रोक रखने को ‘कुम्भक ’कहते हैं । प्राणायाम कई प्रकार के होते हैं और जितने प्रकार के प्राणायाम हैं , उन सबमें पूरक , रेचक और कुम्भक भी भिन्न -भिन्न प्रकार के होते हैं । पूरक नासिका से करने में हम दाहिने छिद्र का अथवा बायें का अथवा दोनों का ही उपयोग कर सकते हैं । रेचक दोनोम नासारन्धों से अथवा एक से ही करना चाहिये । कुम्भक पूरक के भी पीछे हो सकता है और रेचक के भी , अथवा दोनों के ही पीछे न हो तो भी कोई आपत्ति नहीं। पूरक , कुम्भक और रेचक के इन्हीं भेदों को लेकर प्राणायाम के अनेक प्रकार हो गये हैं ।
पूरक , कुम्भक और रेचक कितनी -कितनी देर तक होना चाहिये , इसका भी हिसाब रखा गया हैं । यह आवश्यक माना गया है कि जितनी देर तक पूरक किया जय , उससे चौगुना समय कुम्भक में लगाना चाहिये और दूना समय रेचक में अथवा दूसरा हिसाब यह है कि जितना समय पूरक में लगाया जाय उससे दूना कुम्भक में और उतरना ही रेचक में लगाया जाय । प्राणायाम की सामान्य प्रक्रिया का दिग्दर्शन कराकर अब हम प्राणायाम सम्बन्धी उन खास बातों पर विचार करेंगे जिनसे हम यह समझ सकेंगे कि प्राणायाम का हमारे शरीर पर कैसा प्रभाव पडता है ।
पूरक करते समय जब किं साँस अधिक -से -अधिक गहराई के साथ भीतर खींचे जाती है तथा कुम्भक के समय भी , जिसमें बहुधा साँस को भीतर रोकना होता है , आगे की पेट की नसों को सिकोडकर रखा जाता है । उन्हें कभी फुलाकर आगे की ओर नहीं बढाया जाता । रेचक भी जिसमें साँस को अधिक -से अधिक गहराई के साथ बाहर निकालना होता है , पेट और छाती को जोर से सिकोडना पडता है और उड्डीयान बन्ध के लिये पेट को भीतर की ओर खींचा जाता है । प्राणायाम के अभ्यास के लिये कोई -सा उपयुक्ति आसन चुन लिया जाता है , जिसमें सुखपूर्वक पालथी मारी जा सके और मेरुदण्ड सीधा रह सके ।

पुनः ये बुनियादी बात समझना आवश्यक है की 
श्वास खींचन को ‘पूरक ’ 
बाहर निकालने को ‘रेचक ’ और 
रोक रखने को ‘कुम्भक ’कहते हैं ।

अधिकतर प्राणायाम में कुम्भक बीच में रखा जाता है अथार्त 
पूरक कुम्भक रेचक 
अन्यथा रेचक कुम्भक पूरक के द्वारा प्राणायाम किया जाता है



वास्तव में शारीरिक लाभ से कहीं अधिक योग से व्यक्ति को मानसिक व आध्यात्मिक लाभ मिलता है
योग अनेक प्रकार के होते हैं। राजयोग , कर्मयोग ,हठयोग , लययोग , सांख्ययोग , ब्रह्मयोग , ज्ञानयोग , भक्ति योग ,ध्यान योग , क्रिया योग ,विवेक योग , विभूति योग व प्रकृति पुरुष योग ,मंत्र योग , पुरुषोत्तम योग , मोक्ष योग , राजाधिराजयोग आदि। मगर याज्ञवल्क्यजी  ने जीवात्मा औरपरमात्मा के मेल को ही योग कहा है। वास्तव में योग एक ही प्रकार का होता है , दो या अनेक प्रकारका नहीं। याज्ञवल्क्य जी बहुत बड़े,ब्रह्मवेत्ता,परमात्मस्वरूप व महान ऋषि थे।  उन्होंने ही योग को संपूर्णरूप से पारिभाषित किया था। याज्ञवल्क्य जी के मुताबिक जिस समय मनुष्य सब चिंताओं कापरित्याग कर देता है , उस समय उसके मन की , उसकी उस लय अवस्था को योग कहते हैं।अर्थात चित्त की सभी वृत्तियों को रोकने का नाम योग है। वासना और कामना से लिप्त चित्त को वृत्ति कहा गया है। यम नियम आदि की साधना से चित्तका मैल छुड़ा कर इस वृत्ति को रोकने का नाम योग है। योग के आठ अंग हैं। उन्हीं की साधनाकरनी होती है। साधना का अर्थ है अभ्यास। ऋषि याज्ञवल्क्य के अनुसार यम , नियम , आसन, प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और समाधि योग के ये आठ अंग हैं। पहले यम , नियम के साथ ही साथ आसन का भी अभ्यास करना उचित है। स्थिर सुखमासनम् यानि शरीर न हिले , न डुले , न दुखे , न चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग हो , ऐसी अवस्थामें बैठने को आसन कहते हैं। इस के लिए सिद्धासन श्रेष्ठ है। सिद्ध योगी सिद्धासन तथा मुक्तपद्मासन की ही सलाह देते हैं।सिद्धासन का अभ्यास करने से योग में शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त होती है। इसके कारण वायुपथ सरलहोता है। पद्मासन लगाने से निद्रा , आलस्य , जड़ता और देह की ग्लानि निकल जाती है। इन दो प्रकार के आसनों के अतिरिक्त स्वस्तिकासन , भद्रासन , उग्रासन , वीरासन , योगासन ,शवासन , सिंहासन , मयूरासन , शीर्षासन आदि अनेक प्रकार के आसन भी प्रचलित हैं।आसन करने का मतलब यही है कि शरीर स्वस्थ रहे। परंतु सदा ही यह स्मरण रखना चाहिए कि आसन का सबसे मुख्य उद्देश्य यहहै कि मेरूदंड ( पीठ की रीढ़ ) सदा सीधा रहे। इसलिए प्रत्येक बार कम से कम आधा घंटा अवश्य आसन लगाना चाहिए।
जप से ध्यान में सौगुना अधिक फल मिलता है। और ध्यान की अपेक्षा सौगुना अधिक लाभ होता है लय योग से।प्राणायाम में सबसे अधिक प्रचलित आसन हैं सिद्धासन व पद्मासन



 


Friday, 2 December 2011

ज्ञान वैराग्य व अभ्यास द्वारा आत्म-संयम

तत्वज्ञान आध्यात्मिक द्रष्टिकोण से दुर्लभ और सुलभ दोनों है ।
विवेक को महत्व देने से तथा इन्द्रियों को अभ्यास और वैराग्य से नियंत्रित करके ज्ञानयोगी साधना पथ पर चलता है ।
वहीँ शरीर इन्द्रिय मन बुद्धि साधन हैं व इनसे संसार की सेवा में लगाना ही साधना है कर्मयोग के अंतर्गत आता है ।
व सबकुछ (सत असत ) ईश्वर है इस तरह एक ईश्वर की सत्ता की प्रधानता भक्तियोग में होती है ।

इनमे से किसी भी पथ पर चलने पर साधक को परमात्मप्राप्ति होती है ।
परन्तु तीनो मार्गों कर्मयोग ज्ञानयोग व भक्तियोग में साधक को इन्द्रियां उनके विषय,मन व बुद्धि को वश में करके ही अपने साधना पथ पर आगे बढ़ना होता है अन्यथा कभी भी वो अपने मार्ग से च्युत हो सकता है ।
साधक के लिए निस्संदेह ये सबसे बड़े अवरोधक है क्यूंकि इन्ही से कामना प्रकट होती है जो साधक को अज्ञान व अविधा के अन्धकार के उन्मुख कराती है ।


मन और इन्द्रिय के निग्रह से ये सुलभ हैं और निग्रह न होने से दुर्लभ हैं ।



गीता में भगवान् ने अर्जुन को यही कहा - 
तीसरा अध्याय


अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥

भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्‌ लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है॥36॥॥

श्रीभगवानुवाच 

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥
भावार्थ :  श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान॥37॥

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌ ॥

भावार्थ :  जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँका रहता है॥38॥

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥

भावार्थ :  और हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम रूप ज्ञानियों के नित्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है॥39॥

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्‌ ॥

भावार्थ :  इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है। ॥40॥




तीसरे अध्याय में ३४वें श्लोक में भी भगवान् ने येही बताया 



इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥

भावार्थ :  इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान्‌ शत्रु हैं॥34॥
रामायण में भी ज्ञान रुपी दीपक के बुझने पर चेताते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं 
जैसे ही व्यक्ति अपने को ज्ञानयोग में स्थित करके ज्ञान रुपी उजाले द्वारा अज्ञान रुपी अँधेरा मिटाना चाहता है उसे उसकी इन्द्रियां अपने अपने विषय की तरफ खींचती है इस तरह से विषय रुपी हवा से ज्ञान रुपी दीपक बुझ जाता है और जीव अज्ञान और अविद्धा रुपी अन्धकार में ही रह जाता है ।
उत्तरकाण्ड -
 
इंद्री द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना॥
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देहिं कपाट उघारी॥6॥

भावार्थ:-इंद्रियों के द्वार हृदय रूपी घर के अनेकों झरोखे हैं। वहाँ-वहाँ (प्रत्येक झरोखे पर) देवता थाना किए (अड्डा जमाकर) बैठे हैं। ज्यों ही वे विषय रूपी हवा को आते देखते हैं, त्यों ही हठपूर्वक किवाड़ खोल देते हैं॥6॥
 जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई॥
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा॥7॥

भावार्थ:-सज्यों ही वह तेज हवा हृदय रूपी घर में जाती है, त्यों ही वह विज्ञान रूपी दीपक बुझ जाता है। गाँठ भी नहीं छूटी और वह (आत्मानुभव रूप) प्रकाश भी मिट गया। विषय रूपी हवा से बुद्धि व्याकुल हो गई (सारा किया-कराया चौपट हो गया)॥7॥
 इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई॥
बिषय समीर बुद्धि कत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी॥8॥

भावार्थ:-इंद्रियों और उनके देवताओं को ज्ञान (स्वाभाविक ही) नहीं सुहाता, क्योंकि उनकी विषय-भोगों में सदा ही प्रीति रहती है और बुद्धि को भी विषय रूपी हवा ने बावली बना दिया। तब फिर (दोबारा) उस ज्ञान दीप को उसी प्रकार से कौन जलावे?॥8॥


यहाँ दो प्रश्न सहज उठते हैं की इन्द्रियां व विषय क्या होते हैं ?
और देवता तो हित करते हैं फिर ये जीव को विषयों की तरफ उन्मुख कराके जीव का अहित क्यूँ करते हैं ?

प्रत्येक जीव को प्रकृति द्वारा पांच ज्ञानेन्द्रिय व पांच कर्मेन्द्रिया मिली है व इनके विषय व इनमे रहने वाले देवता समेत ये निम्नलिखित है :

 इन्द्रिय      विषय     देवता  

(ज्ञानेन्द्रियाँ )

१.   श्रवण       शब्द      दिशा
२.   त्वचा      स्पर्श      वायु
३.  चक्षु         रूप      प्रणेता,सूर्य 
४.  जिह्वा       रस        वरुण
५. नासिका   गंध     अश्विनीकुमार 
(कर्मेन्द्रियाँ )
६.   वाणी     भाषण       अग्नि
७.  पैर         गमन      यज्ञविष्णु
८.  हाथ       ग्रहण        इन्द्र
९.  गुदा     मलत्याग    मित्र,यम 
१०. उपस्थ   मूत्रत्याग  प्रजापति
          
दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न की इन्द्रियों के देवता जीव को विषय की ओर क्यूँ उन्मुख कराते हैं अथवा क्यूँ जीव के ज्ञान प्राप्ति में बाधक हैं ?
देवता बाह्य रूप व आतंरिक रूप दोनों से विद्यमान हैं बाह्य रूप जैसे सूर्य,अग्नि दिशा आदि देवता बाह्य जगत में पूजनीय हैं व हम इंसानों द्वारा किए जाने वाले पूजन,यज्ञ आदि में ये अपना भोग पाते हैं व हमे(जीव) आशीर्वाद देते हैं तथा धन मान आदि की प्राप्ति कराते हैं । सामान्यतः जीव ज्यादा से ज्यादा स्वर्ग प्राप्त करता है तथा उसके बाद(पुण्यफल के समाप्त होने के बाद ) फिर मनुष्यलोक में आ जाता है ।
प्रभु का विधान है की जैसे पशु हम इंसानों के लिए हमारे कार्य हेतु है उसी तरह हम इंसान भी देवताओं के कार्य हेतु ही इस लोक और परलोक के लिए हैं ।
परन्तु आतंरिक या आभ्यांतर रूप से भी देवता उपरोक्त वर्णनानुसार जीव में रहते हैं और वहां वो अपना भोग विषय द्वारा इन्द्रियों से प्राप्त करते हैं  परन्तु जीव द्वारा ज्ञान पथ पर चलने से अथार्त इन्द्रियों के निग्रह करने पर 
उन्हें अपना भोग नहीं मिलता इसलिए वो यत्न करते हैं की जीव विषयों से विमुख न हो ।
देवता भी मायाधीन होते हैं व जीव का ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना उन्हें रुचिकर नहीं लगता क्यूंकि ज्ञान के द्वारा मोक्ष या भक्ति किसी भी  पथ पर जीव के सफल रहने से वो परमात्मप्राप्ति कर लेता है और फिर स्वर्ग से ऊंचा अथार्त प्रभु का परमपद प्राप्त कर लेता है जहाँ से वापस नहीं आना पड़ता या फिर भेद्भक्ति के अनुसार यदि जीवन लेता है तो भी परमात्मप्राप्ति कर चुकने के कारण माया व देवताओं के अधीन उसे नहीं होना पड़ता ।


व्यक्ति इन्द्रियों व उनके विषयों में पड़कर तमोगुणी होता जाता है व अपने सहज स्वरुप (जीव आत्मा है जो की अविनाशी व अविकारी है ) से दूर होता जाता है जीव जाने अनजाने विभिन्न तरह के मानस रोगों से व्याप्त हो जाता है ।

गोस्वामी तुलसीदासजी ने मानस रोगों पर लिखा है -
उत्तरकाण्ड -



मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥15॥
भावार्थ:-सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है॥15॥

 प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना॥16॥

भावार्थ:-यदि कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ) प्रीति कर लें (मिल जाएँ), तो दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है। कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होने वाले जो विषयों के मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) हैं, उनके नाम कौन जानता है (अर्थात्‌ वे अपार हैं)॥16॥

चौपाई :

 ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥17॥

भावार्थ:-ममता दाद है, ईर्षा (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले के रोगों की अधिकता है (गलगंड, कण्ठमाला या घेघा आदि रोग हैं), पराए सुख को देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है। दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ़ है॥17॥

 अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी॥18॥

भावार्थ:-अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला डमरू (गाँठ का) रोग है। दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदर वृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं॥18॥

 जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका॥19॥

भावार्थ:-मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं। इस प्रकार अनेकों बुरे रोग हैं, जिन्हें कहाँ तक कहूँ॥19॥

दोहा :
 एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥121 क॥

भावार्थ:-एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत से असाध्य रोग हैं। ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शांति) को कैसे प्राप्त करे?॥121 (क)॥

मूल प्रश्न या मुद्दा येही है  की मन बुद्धि का निग्रह कैसे हो जिससे व्यक्ति की इन्द्रिय व उनके विषयों में रूचि न जगे।

मन और इन्द्रिय के निग्रह पर प्रभु ने गीता में कहा है :

तीसरा अध्याय
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌ ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ 

भावार्थ :  श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु हे कुंतीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास  और वैराग्य से वश में होता है॥35॥ 
अभ्यास से तात्पर्य येही है की निरंतर ध्यान व विचार द्वारा मन को विषयों से हटके परमात्मा में लगाता रहे व वैराग्य से तात्पर्य येही की सदैव इस बात का मनन करते रहे की संसार असत है व समाप्त होने वाला है अतः इसमें सुख ढूंढना या मानना मूर्खता है क्यूंकि जीव का स्वरुप अविनाशी व अविकारी है तथा कभी न समाप्त होने वाला है ।
इसके साथ ही भगवान् ये भी बताते हैं की मन,बुद्धि आत्मा से ही प्रकाशित होते हैं अतः ये आत्मज्ञान जीव हमेशा जाग्रत रखे ।

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥ 

भावार्थ :  इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है॥42॥
एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्‌ ॥

भावार्थ :  इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप(कामनारूप ) दुर्जय शत्रु को मार डाल(वश में कर )॥43॥ 

पुनः पांचवे अध्याय में भगवान् कहते हैं


सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ॥ 
 
भावार्थ :  अन्तःकरण जिसके वश में है, ऐसा सांख्य योग का आचरण करने वाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीर रूप घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर आनंदपूर्वक सच्चिदानंदघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है॥13॥ 
 
यहाँ भगवान् येही कह रहे हैं की जीवात्मा इस शरीर को अपना स्वरुप नहीं कुछ काल के लिए मिला हुआ घर माने व इसी तरह से रहे की इस शरीर को उसे त्यागना ही है । विषय व्यक्ति को अपने में आकर्षित कर लेते हैं व व्यक्ति (जीव ) उनमे आसक्त होके नए संकल्प करने लगता है । जैसे सुगंध नासिका को या फिर खाने की अथवा रस(भोजन इत्यादि ) की आसक्ति जिह्वा के द्वारा मन को अपने में आसक्त कर लेती है फिर जीव सिर्फ भोजन में ही आनंद लेने लगता है और इस तरह निद्रा,आलस्य आदि पाके तमोगुणी होता जाता है साथ ही उसका स्वयं पर से नियंत्रण कम होता जाता है व वो अपनी इन्द्रियां तथा उनके विषयों का ही गुलाम सा हो जाता है । इसी तरह रूप व शब्द(विषय) के द्वारा भी जीव चक्षु व कान(इन्द्रियाँ) के द्वारा इनमे ऐसा आसक्त होता है की इनमे ही आनंद है समझता है और इस तरह से विषय जीव को अपने में ही लगाये रहते हैं ।भगवान् ने बताया की शरीर रुपी घर के नव द्वार  (आँख,नासिकादी ) हैं इनसे होने वाले आवश्यक कर्मों को करते हुए भी मन से उनके प्रति संकल्प न करे जिसके बारें में आगे के श्लोक में भी कहते हैं
 
 ६ वें  अध्याय में भी ध्यान व योग द्वारा मन के निग्रह को बताते हैं 

सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥ 
 
भावार्थ :  संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेष रूप से त्यागकर और मन द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभाँति रोककर॥24॥ 
 
शनैः शनैरुपरमेद्‍बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌ ॥ 
 
भावार्थ :  क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे॥25॥ 
 
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌ ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌ ॥ 
 
भावार्थ :  यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे॥26॥


 
गोस्वामी जी ने भी वैराग्य की प्रधानता बताई है:

जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई। जब उर बल बिराग अधिकाई॥
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई॥5॥ 


भावार्थ:-हे गोसाईं! मन को निरोग हुआ तब जानना चाहिए, जब हृदय में वैराग्य का बल बढ़ जाए, उत्तम बुद्धि रूपी भूख नित नई बढ़ती रहे और विषयों की आसक्ति रूपी दुर्बलता मिट जाए॥5॥ 
 इसके साथ ही साथ वो भजन महिमा का गुणगान करते हुए कहते हैं :

 
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥4॥

भावार्थ:-श्री रघुनाथजी की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो ये मानस रोग भले ही नष्ट हो जाएँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते॥4॥

मानस रोग जीव को उपासना के वक़्त भी दुःख व ग्लानी उत्पन्न करते हैं जिससे जीव का मन भगवतचिंतन के समय विषयों में चला जाता है या फिर स्वयं को वो प्रभु उपासना के योग्य नहीं समझता क्यूंकि तमोगुण में विद्यमान हो वो अपने को शरीर मानकर मन बुद्धि जो की जड़ हैं उन्हें चेतन व अपना स्वरुप समझता है व इस तरह दुखी व अज्ञान के कारण होके उपासना के वक़्त उपासना नहीं कर पाता और ऐसा करने के कारण साधन को साधना समझते हुए तत्वज्ञान न होने के कारण प्रभुकृपा व प्रभुप्रेम का आनंद नहीं उठा पाता ।

गोस्वामी तुलसीदासजी ने प्रभुप्रेम व भक्ति रुपी नदी का जल जो की ज्ञान वैराग्य से परिपूर्ण है समस्त तापों व मानसिक क्लेशों को हरने वाला तथा परमानन्द देने वाला बताया है ।

बालकाण्ड- 

राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी॥
भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥2॥


भावार्थ:-यह जल श्री रामचंद्रजी के सुंदर प्रेम को पुष्ट करता है, कलियुग के समस्त पापों और उनसे होने वाली ग्लानि को हर लेता है। (संसार के जन्म-मृत्यु रूप) श्रम को सोख लेता है, संतोष को भी संतुष्ट करता है और पाप, दरिद्रता और दोषों को नष्ट कर देता है॥2॥

काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥3॥

भावार्थ:-यह जल काम, क्रोध, मद और मोह का नाश करने वाला और निर्मल ज्ञान और वैराग्य को बढ़ाने वाला है। इसमें आदरपूर्वक स्नान करने से और इसे पीने से हृदय में रहने वाले सब पाप-ताप मिट जाते हैं॥3॥ 
भागवत महापुराण के अनुसार भक्ति ज्ञान वैराग्य की जननी है अथार्त निष्काम भक्ति से भी ज्ञान वैराग्य की प्राप्ति होती है ।
इस तरह से आत्मा की प्रधानता व अभ्यास तथा वैराग्य से व्यक्ति मन,बुद्धि को वश में कर सकता है तथा इन्द्रियों व उनके विषयों से विमुख होके सफलतापूर्वक साधन पथ पर चल सकता है